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मयमतम् अध्याय २

मयमतम् अध्याय २

मयमतम् अध्याय २ में प्रथमतः वस्तु एवं वास्तु की परिभाषा दी गई है । मय के अनुसार वह सभी स्थान, जहाँ देवता तथा मनुष्य निवास करते हैं, वस्तु है तथा वस्तु पर जिनका निर्माण होता है, वह वास्तु है। भूमि, प्रासाद, यान एवं शयन वस्तु है। इनमें भी सर्वप्रधान भूमि है। अतः वर्ण, गन्ध तथा रसादि से भली प्रकार भूमि की परीक्षा करनी चाहिये। इसमें अनेक प्रकार की भूमियों के लक्षण एवं वर्णानुसार अनुरूपता का वर्णन किया गया है।

मयमतम् अध्याय २

मयमतम् अध्याय २

Mayamatam chapter 2

मयमतम् द्वितोयोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र

मयमत अध्याय २- वस्तुप्रकार

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ द्वितोयोऽध्यायः

(वस्तुप्रकारः)

वस्तुभेदाः

अमर्त्याश्चैव मर्त्याश्च यत्र यत्र वसन्ति हि ।

तद्‌ वस्त्विति मतं तज्ज्ञैस्तद्भेदं च वदाम्यहम् ॥१॥

आवास एवं भूमि के प्रकार- अमर (देव) एवं मरणधर्मा (मनुष्य) जहाँ जहाँ निवास करते हैं, विद्वज्जन उसे वस्तु (वास्तु) कहते है । उन निवास स्थलों के भेदों का मैं (मय ऋषि) वर्णन करता हूँ ॥१॥

भूमिप्रासादयानानि शयनं च चतुर्विधिम् ।

भूरेव मुख्यवस्तु स्यात्तत्र जातानि यानि हि ॥२॥

वास्तु चार प्रकार के होते हैं - भूमि, प्रासाद (देवालय), यान एवं शयन । इनमें प्रधान वास्तु भूमि ही हैं; क्योंकि शेष इसी से उत्पन्न होते हैं ॥२॥

प्रासादादीनि वास्तूनि वस्तुत्वाद् वस्तुसंश्रयात् ।

वस्तून्येव हि तान्येव प्रोक्तन्यस्मिन् पुरातनैः ॥३॥

प्रासाद आदि वास्तु प्रधान वस्तु (वास्तु) भूमि से उत्पन्न होने एवं उस पर आश्रित होने के कारण वास्तु ही है । इसी कारण प्राचीन आचार्यो ने इन्हें वास्तु की संज्ञा प्रदान की है ॥३॥

वर्णगन्धरसाकारदिक्शब्दस्पर्शनैरपि ।

परीक्ष्यैव यथायोग्यं गृहीतावधिनिश्चिता ॥४॥

(चारों वास्तुओं में प्रथमतः प्रधान वास्तु पर विचार करना चाहिये ।) भवन-प्रासादादि के निर्माण के लिये भूमि की परीक्षा वर्ण (रंग), गन्ध, रस (स्वाद), आकृति, दिशा, शब्द एवं स्पर्श के द्वारा करनी चाहिये । परीक्षा के पश्चात्‌ ही निर्माणकार्य की आवश्यकता के अनुसार भूमि-ग्रहण करना चाहिये ॥४॥

मयमतम् अध्याय २- भूमिभेद

या सा भूमिरिति ख्याता वर्णानां च विशेषतः ।

द्विविधं तत् समुद्दिष्टं गौणमङ्गीत्यनुक्रमात् ॥५॥

प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मणादि) के अनुसार भूमि का वर्णन किया गया है । इस दृष्टि से भूमि क्रमशः दो प्रकार की होती है - गौण एवं अङ्गी (प्रधान) ॥५॥

ग्रामादिन्येव गौणानि भवन्त्यङ्गी मही मता ।

सभा शाला प्रपा रङ्गमण्डपं मन्दिरं तथा ॥६॥

भूमि अङ्गी होती है तथा ग्रामादि गौण के अन्तर्गत आते है । सभागार, शाला, प्रपा (प्याऊ), रङ्गमण्डप एवं मन्दिर (प्रासाद होते है) ॥ ६॥

प्रासाद इति विख्यातं शिबिका गिल्लिका रथम् ।

स्यन्दनं चैवमानीकं यानमित्युच्यते बुधैः ॥७॥

इन्हें प्रासाद कहते है । शिबिका, गिल्लिका, रथ, स्यन्दन एवं आनीक को यान कहा जाता है ॥७॥

मञ्चं मञ्चिलिका काष्ठं पञ्जरं फलकासनम् ।

पर्यङ्क बालपर्यङ्कं शयनं चैवमादिकम् ॥८॥

शयन के अन्तर्गत मञ्च (सिंहासन), मञ्चिलिका (दिवान), काष्ठ (काष्ठ के आसन), पञ्जर (पिंजरा), फलकासन (बेञ्च), पर्यङ्क (पलंग), बालपर्यङ्क आदि ग्रहण किये जाते हैं ॥८॥

मयमतम् अध्याय २- भूप्राधान्य हेतु

चतुर्णामधिकाराणां भूरेवादौ प्रवक्ष्यते ।

भूतानामादिभूतत्वादाधारत्वाज्जगत्स्थितेः ॥९॥

उपर्युक्त चारों में प्रथम स्थान भूमि का कहा जाता हैं; क्योंकि भूतों(पञ्च महाभूतों) में प्रथम स्थान भूमि का है, संसार की स्थिति इसी पर है एवं यही सबका आधार है ॥९॥

मयमतम् अध्याय २- वर्णानुरूप भूमि

चतुरस्त्रं द्विजातीनां वस्तु श्वेतमनिन्दितम् ।

उदुम्बरद्रुमोपेतमुत्तरप्रवणं वरम् ॥१०॥

ब्राह्मणों के लिये प्रशस्त भूमि के लक्षण इस प्रकार है - भूमि चौकोर (लम्बाई-चौड़ाई का प्रमाण सम) हो, मिट्टी का रंग श्वेत हो, उदुम्बर के वृक्ष से (गूलर) युक्त हो एवं भूमि का ढलान उत्तर दिशा की ओर रहे ॥१०॥

कषायमधुरं सम्यक्‌ कथितं तत् सुखप्रदम् ।

व्यासाष्टांशाधिकायामं रक्तं तिक्तरसान्वितम् ॥११॥

कषाय-मधुर स्वाद वाली भूमि (ब्राह्मणों के लिये) सुखद कही गयी है । क्षत्रियों के लिये श्रेष्ठ भूमि के लक्षण इस प्रकार है - भूमि लम्बाई में चौडाई से आठ भाग अधिक हो, मिट्टी का रंग लाल हो एवं स्वाद में तिक्त हो ॥११॥

प्राङ्‌निम्नं तत् प्रविस्तीर्णमश्वत्थद्रुमसंयुतम्‌ ।

प्रशस्तं भूभृतां वस्तु सर्वसम्पत्करं सदा ॥१२॥

पूर्व की ओर ढलान वाली, विस्तृत, पीपल के वृक्ष से समन्वित भूमि पीपल के वृक्ष से समन्वित भूमि राजाओं (क्षत्रियों) के लिये शुभ एवं सर्वदा सभी प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाली कही गई है ॥१२॥

षडंशेनाधिकायामं पीतमम्लरसान्वितम् ।

प्लक्षद्रुमयुतं पूर्वावनतं शुभदं विशाम् ॥१३॥

लम्बाई चौड़ाई से छः भाग अधिक हो, मिट्टी का रंग पीला हो, उसका स्वाद खट्टा हो, प्लक्ष (पाकड़) के वृक्ष से युक्त हो एवं पूर्व दिशा की ओर ढलान हो-ऐसी भूमि वैश्य वर्ण के लिये प्रशस्त कही गई है ॥१३॥

चतुरंशाधिकायां वस्तु प्राक्प्रवणान्वितम् ।

कृष्णं तत् कटुकरसं न्यग्रोधद्रुमसंयुतम् ।

प्रशस्तं शूद्रजातीनां धनधान्यसमृद्धिदम् ॥१४॥

लम्बाई और चौड़ाई से चार भाग अधिक हो, पूर्व दिशा की ओर ढलान हो, मिट्टी का रंग काला हो तथा स्वाद कड़वा हो, भूमि पर बरगद के वृक्ष हो । इस प्रकार की भूमि शूद्र वर्ण वालों को धन-धान्य एवं समृद्धि प्रदान करती है ॥१४॥

एवं प्रोक्तो वस्तुभेदो द्विजानां भूपानां वै वैश्यकानां परेषाम् ।

योग्यं सर्व भूसुराणां सुराणां भूपानां तच्छेषयोरुक्तनीत्या ॥१५॥

इस प्रकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के अनुरूप वास्तु (भूमि) के प्रकार का वर्णन किया गया है । देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये सभी प्रकार की भूमियाँ प्रशस्त होती है (यह उपर्युक्त मत का विकल्प है); किन्तु शेष दो (वैश्य एवं शूद्र) को अपने अनुरूप भूमि का ही चयन करना चाहिये ॥१५॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे वस्तुप्रकारो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 3

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