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मयमतम् अध्याय ६

मयमतम् अध्याय ६

मयमतम् अध्याय ६ दिक्परिच्छेद - सही दिशा के ज्ञान के विना समीचीन निर्माण सम्भव नहीं होता; अतः भूमि की दिशा के ज्ञान हेतु शङ्कु का प्रयोग वर्णित है। इसके लिये उचित समय, भूमि को तैयार करना, शङ्कु-निर्माण, शङ्कु से पड़ने वाली छाया से पूर्व आदि दिशाओं का निर्धारण एवं अपच्छाया का ज्ञान आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में रज्जु-लक्षण, खातशङ्कु-लक्षण, सूत्रविन्यास तथा अपच्छाया का वर्णन किया गया है।

मयमतम् अध्याय ६

मयमतम् अध्याय ६   

Mayamatam chapter 6

मयमतम् षष्ठोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र

मयमत अध्याय ६- दिक्परिच्छेद

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ षष्ठोऽध्यायः

(दिक्परिच्छेदः)

वक्ष्येऽहं दिक्परिच्छेदं शङ्कुनार्कोदये सति ।

उत्तरायणमासे तु शुक्लपक्षे शुभोदये ॥१॥

दिशा-निर्धारण - मैं (मय) दिशा के निर्धारण के विषय में कहता हूँ । यह कार्य उत्तरायण मास में शुभ शुक्ल पक्ष में सूर्योदय होने पर शङ्कु द्वारा करना चाहिये ॥१॥

प्रशस्तपक्षनक्षत्रे विमले सूर्यमण्डले ।

गृहीतवास्तुमध्ये तु समं कृत्वा भुवः स्थलम् ॥२॥

शुभ पक्ष एवं नक्षत्र में सूर्यमण्डल के निर्मल रहने पर ग्रहण किये गये वास्तु के मध्य की भूमि को समतल करना चाहिये ॥२॥

जलेन दण्डमात्रेण समं तु चतुरस्त्रकम् ।

तन्मध्ये स्थापयेच्छङ्कुं तन्मानमधुनोच्यते ॥३॥

जिस स्थान पर शङ्कु स्थापन करना हो, उस स्थान से चारो दिशाओं में दण्डप्रमाण से चौकोर किये गये भूखण्ड को जल द्वारा समतल करना चाहिये । उस समतल भूमि के मध्य में शङ्कुस्थापन करना चाहिये । अब शङ्कु के प्रमाण का वर्णन किया जा रहा है ॥३॥

मयमत अध्याय ६- शङ्कुलक्षण

अरत्‍निमात्रमायाममग्रमेकाङ्गुलं भवेत् ।

मूलं पञ्चाङ्गुलं व्यासं सुवृत्तं निर्व्रणं वरम् ॥४॥

शङ्कु का लक्षण इस प्रकार है - यह एक हाथ लम्बा हो, शीर्ष पर इसका माप एक अङ्गुल हो तथा मूल भाग में इसका व्यास पाँच अङ्गुल हो । इसकी गोलाई सुन्दर हो, किसी प्रकार का इसमें व्रण न हो अर्थात् इसका काष्ठ कटा-फटा न हो एवं श्रेष्ठ हो ॥४॥

अष्टादशाङ्गुलं मध्यं कन्यसं द्वादशाङ्गुलम् ।

आयामसदृशं नाहं मूलेऽग्रे तु नवाङ्गुलम् ॥५॥

(उपर्युक्त माप उत्तम शङ्कुमान का है।) मध्यम शङ्कु अट्ठारह अङ्गुल लम्बा एवं कनिष्ठ शङ्कु बारह या नौ अङ्गुल लम्बा होता है । लम्बाई के समान ही इसका मूल एवं अग्र भाग में भी माप रखना चाहिये ॥५॥

दन्तं वै चन्दनं चैव खदिरः कदरः शमी ।

शाकश्च तिन्दुकश्चैव शङ्कुवृक्षा उदीरिताः ॥६॥

दन्त (मौलसिरी), चन्दन, खैर या कत्था, कदर, शमी, शाक (सागौन) एवं तिन्दुक (तेंद) के वृक्ष शङ्कु-वृक्ष कहलाते है अर्थात् इनके काष्ठ से शङ्कुनिर्माण करना चाहिये ॥६॥

अन्यैः सारद्रुमैः प्रोक्तं तस्याग्रं चित्रवृत्तकम् ।

शङ्कुं कृत्वा दिनादौ तु स्थापयेदात्तभूतले ॥७॥

इनके अतिरिक्त कठोर काष्ठ वाले वृक्षों से भी शङ्कु निर्माण किया जा सकता है । शङ्कु का अग्र भाग चित्रवृत्तक (दोषहीन गोलाई) होना चाहिये । शङ्कु निर्माण के पश्चात् प्रातःकाल भूतल के पूर्व निर्धारित स्थल पर उसे स्थापित करना चाहिये ॥७॥

शङ्कुद्विगुणमानेन तन्मध्ये मण्डलं लिखेत् ।

पूर्वापराह्णयोश्छाया यदि तन्मण्डलान्तगा ॥८॥

शङ्कु प्रमाण का दुगुना माप लेकर शङ्कु को केन्द्र बना कर वृत्त खींचना चाहिये । दिन के पूर्वाह्ण एवं अपराह्ण में उस मण्डलाकृति पर शङ्कु की छाया पड़ती है ॥८॥

तद्बिन्दुद्वयगं सूत्रं पूर्वापरदिशीष्यते ।

बिन्दुद्वयान्तरभ्रान्तशफराननपुच्छगम् ॥९॥

उपर्युक्त छायायें जिन-जिन बिन्दुओं पर पड़ती है, उन बिन्दुओं को सूत्र से मिलाना चाहिये । इससे पूर्व एवं पश्चिम दिशा का ज्ञान होता है (पूर्वाह्ण मे जहाँ छाया पड़ती है, वह पश्चिम दिशा एवं अपराह्ण में जहाँ छाया पड़ती है, वह पूर्व दिशा होती है )। पूर्वोक्त बिन्दुओं को केन्द्र बनाकर मछली की आकृति बनानी चाहिये ॥९॥

दक्षोणोत्तरगं सूत्रमेवं सूत्रद्वयं न्यसेत् ।

उदगाद्यपरान्तानि पर्यन्तानि विनिक्षिपेत् ॥१०॥

दो सूत्रों को बिन्दुओं के केन्द्र में इस प्रकार रखना चाहिये कि वे दक्षिण से उत्तर तक जायँ । इसी प्रकार दूसरे सूत्र को उत्तर से दक्षिण तक ले जाना चाहिये ।

कहने का तात्पर्य यह है कि एक बिन्दु को केन्द्र बनाकर चाप की आकृति उत्तर से दक्षिण तक बनानी चाहिये । पुनः दूसरे बिन्दु को केन्द्र बनाकर दूसरी चापाकृति बनानी चाहिये । मण्डल के दो छोरों पर ये चापाकृतियाँ एक-दूसरे को काटती है । इस प्रकार मत्स्य की आकृति बनती है ॥१०॥

सूत्राणि स्थपतिः प्राज्ञः प्रागुत्तरमुखानि च ।

इन सूत्रों से बुद्धिमान स्थपति उत्तर एवं दक्षिण दिशा का निर्धारण करते है । (पूर्व के बाँयीं और उत्तर दिशा एवं दाहिनी ओर दक्षिण दिशा होती है । इस प्रकार भूमि में दिशा का ज्ञान होता है)।

मयमत अध्याय ६- अशुद्ध छाया

कन्यायां वृषभे राशावपच्छायात्र नास्ति हि ॥११॥

जब सूर्य कन्या या वृषभ राशि में होता है, उस समय सूर्य की अपच्छाया नही पड़ती है (अर्थात् इस स्थिति में शङ्कु की छाया सीधे पूर्व और पश्चिम दिशा पर पड़ती है ) ॥११॥

विशेष - सूर्य की छाया बारहो महीनों में एक समान नहीं होती है । अतः सूर्य के नक्षत्रों के सङ्‌क्रमण के अनुसार शुद्ध रूप से पूर्व एवं पश्चिम का निर्धारण किस प्रकार किया जाय एवं अपच्छाया से बचा जाय, इसका उपाय आगे के श्लोकों में वर्णित है ।

मेषे च मिथुने सिंहे तुलायां द्वयङ्गुलं नयेत् ।

कुलीरे वृश्चिके मत्स्ये शोधयेच्चतुरङ्गुलम् ॥१२॥

मेष, मिथुन, सिंह एवं तुला राशि में सूर्य के रहने पर जहाँ शङ्कु की छाया पड़े, उससे दो अङ्गुल पीछे हट कर पूर्व एवं पश्चिम का निर्धारण करना चाहिये । जिस समय सूर्य कर्क, वृश्चिक एवं मीन राशि पर हो, उस समय अङ्गुल हट कर दिशानिर्धारण करना चाहिये ॥१२॥

धनुःकुम्भे षडङ्गुल्य मकरेऽष्टाङ्गुलं तथा ।

छायाया दक्षिने वामे नीत्वा सूत्रं प्रचारयेत् ॥१३॥

धनु एवं कुम्भ पर सूर्य के रहने पर छः अङ्गुल एवं मकर पर आठ अङ्गुल हट कर शङ्कु की छाया के दाहिने एवं बाँये सुत्र का प्रयोग करना चाहिये ॥१३॥

मयमत अध्याय ६- रज्जुलक्षण

अष्टयष्ट्यायता रज्जुस्तालकेतकवल्कलैः ।

कार्पासपट्टसूत्रैश्च दर्भैर्न्यग्रोधवल्कलैः ॥१४॥

माप-सूत्र का लक्षण- रज्जु अथवा सूत्र को आठ दण्ड लम्बा होना चाहिये । इसका निर्माण ताल, केतक के रेशे, कपास, कुश अथवा न्यग्रोध (बरगद) के छाल से होना चाहिये ॥१४॥

अङ्गुलाग्रसमस्थूला त्रिवर्तिर्ग्रन्थिवर्जिता ।

देवद्विजमहीपानां शेषयोश्च द्विवर्तिका ॥१५॥

देवता, ब्राह्मण एवं राजा (क्षत्रिय) के वास्तु-मापन के लिये रज्जु को अङ्गुल के अग्र बाग के बराबर मोटा, तीन बत्तियों से निर्मित एवं विना गाँठ का बनाना चाहिये । वैश्य एवं शूद्र के लिये रज्जु को बत्तियों से बँटा होना चाहिये ॥१५॥

मयमत अध्याय ६- खातशङ्कुलक्षण

खदिरः कादिरश्चैव मधूकः क्षीरिणी तथा ।

खातशङ्कुद्रुमाः प्रोक्ता अन्यं वा सारदारुजम् ॥१६॥

गड्ढे में गाड़े जाने वाले शङ्कु का लक्षण- गड्ढे में गाड़े जाने वाले शङ्कु जिन वृक्षों के काष्ठ से बनते है, उनके नाम है - खदिर, खादिर, महा, क्षीरिणी तथा अन्य कठोर काष्ठ वाले वृक्ष ॥१६॥

एकादशाङ्गुलाद्येकविंशन्मात्रं तु दैर्घ्यतः ।

पुर्णमुष्टुस्तु नाहं स्त्यान्मूलं सूचीनिभं भवेत् ॥१७॥

इसकी लम्बाई ग्यारह अङ्गुल से लेकर इक्कीस अङ्गुल तक होनी चाहिये एवं व्यास एक मुट्ठी होना चाहिए । इसका मूल सूई की भाँति नुकीला होना चाहिये ॥१७॥

गृहीत्वा वामहस्तेन प्राङ्‌मुखो वाप्यदङ्‌मुखः ।

दक्षिणेनाष्ठीलं गृह्य ताडयेदष्टभिः क्रमात् ॥१८॥

स्थपति पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके स्थापक की आज्ञा से बाँयें हाथ में खातशङ्कु लेकर एवं दाहिने हाथ में हथौड़ा लेकर क्रमशः आठ बार शङ्कु पर प्रहार करे ॥१८॥

मयमत अध्याय ६- सूत्रविन्यास

प्रमाणसुत्रमित्युक्तं प्रमाणैर्निश्चितं हि यत् ॥१९॥

सूत्र को भूमि पर फैलाना- चूँकि इस सूत्र से भवन-निर्माणसम्बन्धी कार्य में प्रमाण या माप निश्चित किया जाता है; अतः इसे 'प्रमाणसूत्र' कहा जाता है ॥१९॥

तद्बहिः परितो भागे सूत्रं पर्यन्तमिष्यते ।

गर्भसूत्रादिविन्याससूत्रं देवपदोचितम् ॥२०॥

पदविन्याससूत्रं हि विन्यासः सूत्रमिष्यते ।

प्रमाणसूत्र के कार्यक्षेत्र के बाहर के चारों ओर के क्षेत्र का जिससे मापन किया जाता है, उस सूत्र को 'पर्यन्त सूत्र' कहते है । जिस सूत्र से निश्चित स्थान का निर्धारण, देवताओं के पद का निर्धारन तथा वास्तुपद का विन्यास किया जाता है, उसे 'विन्याससूत्र' कहते है ॥२०॥

गृहाणां दक्षिणे गर्भस्तत्पार्श्वे सूत्रपातनम् ॥२१॥

गृह के दक्षिण भाग में गृह का गर्भ होता है, अतः उसी के पास से सूत्रपात प्रारम्भ करना चाहिये ॥२१॥

तत्सूत्राच्छङ्कुमानेन नीत्वा शङ्कु निखानयेत् ।

उपानं निष्क्रमार्थं वा भित्त्यर्थं वाऽथ तद्भवेत् ॥२२॥

उस सूत्र से शङ्कु का मान लेते हुये शङ्कु को भूमि में गाड़ना चाहिये । इसी से प्रवेशमार्ग (अथवा गृह से बाहर निकलने का मार्ग) या भित्ति-निर्माण के लिये मापन करना चाहिये ॥२२॥

नगरग्रामदुर्गेषु वाय्वादी रज्जुपातनम् ।

अवाच्याशाद्युदीच्यन्तं प्राक्प्रत्यग्गतसूत्रकम् ॥२३॥

नगर, ग्राम एवं दुर्ग के मापन के लिये सर्वप्रथम सूत्रपात वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में करना चाहिये । इसके पश्चात् दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्चिम सूत्रपात करना चाहिये । ॥२३॥

प्रतीच्याशादिपूर्वान्तं विसृजेद् दक्षिणोत्तरम् ।

ब्रह्मस्थानात् पूर्वगतं तत् त्रिसूत्रं तदुच्यते ॥२४॥

इसके पश्चात् पश्चिम से पूर्व एवं उत्तर से दक्षिण तक सूत्रप्रपात करना चाहिये । जिस सूत्र से ब्रह्मा के पद से प्रारम्भ कर पूर्व दिशा तक मापन किया जाता है, उसे 'त्रिसूत्र' कहते है ॥२४॥

ततो धनं पश्चिमगं धान्यं दक्षिणगं ततः ।

ब्रह्मस्थानादुत्तरगं सुखमित्यभिधीयते ॥२५॥

इसके पश्चात् ब्रह्मस्थान से पश्चिम की ओर जाने वाले सूत्र को 'धन' दक्षिण की ओर जाने वाले सूत्र को 'धान्य' एवं उत्तर की ओर जाने वाले सूत्र को 'सुख' कहते है ॥२५॥

सुखप्रमानं यत् सूत्रं तत्प्रमाणमिहोच्यते ।

एकहस्तं द्विहस्तं वा त्रिहस्तं परितोऽधिकम् ।

विमानं मण्डपव्यासात् खानयेत् तद्वलार्थकम् ॥२६॥

जिस सूत्र से सुखप्रमाण प्राप्त होता है, उसका माप यहाँ वर्णित है । बल के लिये केन्द्र के चारों ओर मण्डप के व्यास से एक हाथ, दो हाथ या तीन हाथ की दूरी लेते हुये उत्खनन करना चाहिये ॥२६॥

मयमत अध्याय ६- पुनरपच्छाया

द्व्‍येकं नो नैकनेत्रे नयनगुणयुगं चाब्धिरुद्राक्षमक्षी

नैत्रैकं नो न चन्द्रं नयननयनकं वह्निवेदाब्धिबाणम् ।

षट्‌षट्‌सप्ताष्टकाष्टैर्मुनिरसरसकं भूतवेदाब्ध्यजाक्षं

नेत्रं मात्रञ्च मेषादिषु दशदशकेऽस्मिन्दिने त्यज्य युञ्ज्यात् ॥२७॥

पुनः दोषयुक्त छाया- पूर्व एवं पश्चिम के निर्धारण के लिये प्रत्येक माह प्रत्येक दस दिन के काल-खण्ड मे संख्याओं का संयोजन इस प्रकार करना चाहिये- सूर्य का सङ्‌क्रमण मेष राशि में होने पर दो, एक, शून्य; वृष में होने पर शून्य, एक, दो; मिथुन में होने पर दो, तीन, चार; कर्क में होने पर चार, तीन, दो; सिंह में होने पर दो, एक, शून्य; कन्या में होने पर शून्य, एक, दो; तुला में होने पर दो, तीन, चार; वृश्चिक में होने पर चार, पाँच, छः; धनु में होने पर छ;, सात, आठ; मकर में होने पर आठ, सात, छः; कुम्भ में होने पर छ;, पाँच, चार तथा मीन में होने पर चार, तीन एवं दो ॥२७॥

समीक्ष्य भागोर्गमनं सराशिकं

त्यजेत् पुरोक्ताङ्गुलिमन्त्रयुक्तितः ।

ततस्तु काष्ठदुपगृह्य तद्वशाद्

विसृज्य सुत्रं विदधीत च स्थलम् ॥२८॥

राशि के साथ सूर्य की गति का विचार एवं युक्तिपूर्वक समीक्षा करते हुये पूर्वोक्त अङ्गुलियों को छोड़ देना चाहिये । इसके अनुसार सीमा एवं दिशा आदि का शङ्कु द्वारा ग्रहण करते हुये स्थान को तैयार करना चाहिए ॥२८॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे दिक्परिच्छेदो नाम षष्ठोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 7

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