अगस्त्य संहिता अध्याय ३
इस अगस्त्य संहिता अध्याय ३ के
आरम्भ में पार्वती सबके लिए परमेश्वर की उपासना के मार्ग की जिज्ञासा करतीं है ।
इसके उत्तर में भगवान् शंकर परमेश्वर के द्वारा अवतार लेने का वर्णन कर रामावतार
की विस्तृत चर्चा करते हैं । भगवान् श्रीराम स्वयं नारायण के अवतार हैं,
श्रीसीता लक्ष्मीस्वरूपा हैं और शेषावतार लक्ष्मण हैं, शंख और चक्र के अवतार भरत और शत्रुघ्न हैं तथा वानर सभी देव के अवतार हैं।
ऐसे श्रीराम की आराधना के अनेक मार्ग हैं। कुछ लोग पंचाग्नि व्रत, चान्द्रायण उपवास आदि से आराधना करते हैं तो कोई राम,
राम जप कर अमरत्व प्राप्त करते हैं। कुछ लोग
गार्हस्थ धर्म का पालन करते हुए भगवान् की सेवा कर उन्हें प्रसन्न करते हैं। इस
अध्याय में उपासना की अनेक विधियाँ वर्णित हैं ।
अगस्त्यसंहिता अध्याय ३
Agastya samhita chapter 3
अगस्त्य संहिता तृतीय अध्याय
अगस्त्य संहिता
अगस्त्यसंहिता तीसरा अध्याय
अथ तृतीयोऽध्यायः
पार्वत्युवाच
सर्वज्ञ सर्वलोकेश सर्वदुःखनिषूदन ।
सर्वेषां सुगमः पन्थाः को मे वद
दयानिधे ।।१।।
पार्वती बोलीं- हे सभी लोकों के
स्वामी! सबके दुःखों का निवारण करने वाले हे दयानिधि! मोक्ष पाने के लिए ऐसा उपाय
बतलायें,
जो सबके लिए आसान हो ।
ईश्वर उवाच
शृणुष्वावहिता देवि यदेतत्प्रतिपाद्यते
।
सर्वेश्वरः सर्वमयः सर्वभूतहिते रतः
।।२।।
सर्वेषामुपकाराय साकारोऽभून्निराकृतिः।
हे देवि! मैं जो कह रहा हूँ उसे
ध्यानपूर्वक सुनो। निराकार प्रभु जो सबके ईश्वर हैं, सभी रूपों में हैं तथा सभी प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं, सबके उपकार के लिए आकार ग्रहण कर अवतार लेते हैं।
स भक्तवत्सलो लोके संसारीव
व्यचेष्टत ।।३।।
भक्तानुकम्पया देवो दुःखं
सुखमिवान्वभूत् ।
भक्तवत्सल भगवान् इस संसार में
संसारी प्राणी के समान क्रियाएँ करते हैं और भक्त पर अनुकम्पा के कारण वे प्रभु
दुःखों को सुख के समान अनुभव करते हैं।
यदा यदा च भक्तानां भयमुत्पद्यते
तदा ।।४।।
तत्तद्भक्तस्य चिन्तायै तत्तद्रूपो
व्यजायत ।
जब जब भक्तों पर किसी प्रकार का भय
उपस्थित होता है, तब उन उन भक्तों की
चिन्ता करते हुए उसी रूप में अवतार लेते हैं।
मत्स्यकूर्मवराहादिरूपेण परमार्थवित्
।।५।।
तत्तत्कालेषु संभूय
सर्वेषामप्युपाकरोत् ।
मत्स्य,
कूर्म, वराह आदि रूप ग्रहण कर परोपकार
करनेवाले वे महाप्रभु उन उन कालों में उत्पन्न होकर सबकी भलाई करते हैं।
साधूनामाश्रमस्थानां भक्तानां
भक्तवत्सलः ।।६।।
उपकर्ता निराकारस्तदाकारैण जायते ।
साधुओं तथा चारों आश्रमों-
ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास के भक्तों का उपकार करनेवाले वे भक्तवत्सल भगवान्
तब आकार ग्रहण करते हैं ।
अजोऽयं जायतेऽनन्तः सान्तोऽभूद्
भूतभावनः ।।७।।
कदाचिदवतीर्य्याऽयं मन्दभक्तानुकम्पया
।
ये अजन्मा हैं फिर भी जन्म लेते हैं,
अनन्त होकर भी मरणशील होने की लीला करते हैं, प्राणियों
की सृष्टि करते हैं, वे किसी समय हतभाग्य भक्तों पर अनुकम्पा
करने के लिए अवतार लेते हैं ।
क्षीराब्धेः देवदेवेशो लक्ष्म्या
नारायणो भुवि ।। ८ ।।
सशेष: शंखचक्राभ्यां
देवैर्ब्रह्मादिभिः सह ।
त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणो बभौ
।।९।।
क्षीरसागर में लक्ष्मी के साथ शयन
करनेवाले वे देवेश शेषनाग, शंख, चक्र और ब्रह्मा आदि देवताओं के साथ त्रेता युग में इस संसार में दशरथ के
पुत्र के रूप में अवतरित होकर विराजमान हुए ।।
शेषोऽभूल्लक्ष्मणो लक्ष्मीः
शंखचक्रे च जानकी ।
जातौ भरतशत्रुघ्नौ देवाः सर्वेऽपि
वानराः ।।१०।।
शेषनाग के अवतार लक्ष्मण हुए,
लक्ष्मी जनकनन्दिनी जानकी के रूप में अवतरित हुईं। शंख और चक्र के
अवतार भरत और शत्रुघ्न हुए तथा सभी देवता वानर के रूप में अवतरित हुए।
बभूवुरेवं सर्वेऽपि देवर्षिभयशान्तये
।
तत्र नारायणो देवो श्रीराम इति
विश्रुतः ।।११।।
सर्वलोकोपकाराय भूमौ
सौर्येष्ववातरत् ।'
इस प्रकार सभी देवों और ऋषियों के
भय को दूर करने के लिए भगवान् नारायण धराधाम पर अवतरित हुए,
जिनमें सभी लोकों के उपकार के लिए सूर्यवंशियों के बीच श्रीराम के
नाम से प्रख्यात होकर अवतरित हुए।
तपः कुर्वन्ति तं केचिदपरोक्षं
निरीक्षितुम् ।
पञ्चाग्निमध्ये ग्रीष्मेषु वर्षासु
दिवि शेरते ।।१२।।
कुछ लोग उस भगवान् श्रीराम के
प्रत्यक्ष दर्शन के लिए तपस्या करते हैं। कुछ तपस्वी ग्रीष्मकाल में पाँच अग्नियों
के बीच (चारों दिशाओं में अग्नि तथा ऊपर प्रचण्ड सूर्य- ये पाँच अग्नियाँ कहलाती
है। ) वर्षा ऋतु में खुले आकाश के नीचे तपस्या करते हैं ।
शिशिरेषु जलेष्वेवं तपः केचन तेपिरे
।
केचिद् भिक्षां पर्यटन्ति कृत्वा
धारणपारणम् ।।१३।।
शोषयन्ति पुनर्देहमपरे
कृच्छ्रचर्यया ।
इसी प्रकार जाड़े के दिनों में जल
में खड़ा होकर कुछ लोग तपस्या करते हैं, कुछ
लोग भिक्षाटन कर जो मिले उसी से भोजन करने का व्रत करते हुए तथा अन्य लोग न्यूनतम
भोजन करने का व्रत करते हुए शरीर को सुखाते हैं ।
कालश्चान्द्रायणैरेव कैश्चित्
पार्वति नीयते ।।१४।।
शाकमेवापरे देहमश्नन्तः शोषयत्यहो ।
हे पार्वती! कुछ लोग चान्द्रायण
व्रत कर समय व्यतीत करते हैं तथा कुछ तो केवल साग खाते हुए अपने शरीर को सुखा
डालते हैं।
इह केचिद् वरारोहे नक्तायाचितभोजना
।।१५।।
चिन्तयन्ति चिरं कालं वनेष्वेकाकिनो
हृदि ।
हे पार्वती! कुछ लोग इस संसार में
रात्रि में एक बार विना माँगे जो मिल जाये वही खाकर, वन में अकेले रहकर चिरकाल तक अपने हृदय में भगवान् का चिन्तन करते रहते
हैं ।
अनन्यमनसः शश्वद् गणयन्तोऽक्षमालया
।।१६।।
जपतो रामरामेति सुखामृतनिधौ मनः ।
प्रविलीयामृतीभूय सुखं तिष्ठन्ति
केचन ।।१७।।
एकाग्रभाव से रुद्राक्ष की माला पर
गिनते हुए राम, राम का जप लगातार करते हुए सुख
रूपी अमृत 'के भाण्डार में मन को एकाकार कर अमरत्व पाकर सुख
से रहते हैं ।
मत्पश्चिमाभिमुख्येन
केचित्प्रासादकोटरे ।
भावयन्ति चिरं देवि मम तत्प्राप्तये
बुधाः ।।१८।।
परिचर्य्यापराः केचित्प्रासादेष्वेव
शेरते ।
कुछ समझदार लोग मुझसे पश्चिम में
अभिमुख बैठकर अर्थात् पूजा-स्थल के पश्चिम में पूर्वाभिमुख होकर अपने घर में हीं
रहते हुए मेरे उस स्वरूप की प्राप्ति के लिए उनकी परिचर्या (सेवा) करते हुए घर में
ही जीवन व्यतीत करते हैं ।
मनुष्यस्य चिरं देवि भगवत्प्राप्तये
बुधाः ।।१९।।
मनुष्यमिव तं द्रष्टुं व्यवहर्तुं च
बन्धुवत् ।
अध्यापनाय विद्यानां योद्धुमप्यपरे
तपः ।।२०।।
चक्रिरे वामनो भूत्वा केचिद्रोषेण
तेपिरे ।
क्षीराहाराः परे चाब्धेस्तीरेष्वेव
निषेविरे ।।२१।।
चञ्चलाक्ष्यथ केषांचित्तपः स्मर्तुं
न शक्यते ।
किं करिष्यति देवोऽयं एवं दृष्ट्वा
सुदारुणम् ।।२२।।
तपस्तपस्विनामेतत्कृपयानुग्रहादिह I
मानुषीभूय सर्वेषां भक्तानां
भक्तवत्सलः ।।२३।।
ध्यानमात्रेण देवेशि महापातकनाशकृत्
।
कृतेन स्मरणाभ्यां च
हत्याकोटिनिवारणः ।।२४।।
मनुष्यों की कालगणना के अनुसार
चिरकाल तक भगवान् को पाने के लिए, उन्हें
मानवाकार में देखने और सखा की तरह उनके साथ व्यवहार करने के लिए, उन्हें सभी विद्या पढ़ाने के लिए तथा उनके साथ युद्ध भी करने के लिए,
कुछ कायर भगवान् विष्णु के शत्रु राक्षस बनकर आक्रोश के साथ तप करने
लगे। वे केवल दूध पीकर सागर के उस पार ही सेवा करने लगे। हे चंचल आँखोंवाली
पार्वती! ऐसे किसी ऐरे गैरे की तपस्या तो स्मरण नहीं की जा सकती है, किन्तु ये देव भी क्या करेंगे? इस दारुण तपस्या को
देखकर कृपापूर्वक अनुग्रह कर इस संसार में मनुष्य होकर वे सभी भक्तों के लिए
भक्तवत्सल भगवान् बने। हे देवी! भगवान् तो केवल स्मरण करने से ही महान् पापों का
नाश करते हैं और कर्म और स्मरण दोनों करने से तो कोटि कोटि हत्याओं के भी महापाप
का निवारण करते हैं।
रामरामेति रामेति ये वदन्त्यपि
पापिनः ।
पापकोटिसहस्रेभ्यस्तानुद्धरति नान्यथा
।।२५।।
जो पापी राम,
राम, राम इस प्रकार उच्चारण करते हैं उन्हें
भगवान् करोड़ों पापों से उद्धार करते हैं, यह निष्फल नहीं
होता है।
उग्रेण तपसा तेषां सोऽभूदेवं
दयानिधिः ।
यतो वाचो निवर्त्तन्ते मनोभिः सह
योगिनाम् ।। २६।।
भागधेयेन सर्वेषां स प्रत्यक्षमजायत
।
अहोभाग्यातिरेकेण मनुष्योऽपि
व्यवाहरत् ।।२७।।
तपो ददाति सौभाग्यं तपो विद्यां
प्रयच्छति ।
तपसा दुर्लभं कञ्चिन्नास्ति भामिनि
देहिनाम् ।।२८।।
उनकी उग्र तपस्या से वे पृथ्वी पर
इस प्रकार उत्पन्न हुए । योगियों के मन के साथ वाणी भी जहाँ जाकर लौट जाती है,
वे परब्रह्म परमेश्वर सबके भाग्य से प्रत्यक्ष अवतरित हुए। भक्तों
के अहोभाग्य में वृद्धि होने से मनुष्य ने भी उनके साथ देवता जैसा व्यवहार किया।
हे देवी! पार्वती! तपस्या से सौभाग्य और विद्या की प्राप्ति होती है। मनुष्यों के
लिए ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तपस्या से नहीं मिले ।
अवाप्तसर्वकामोऽयं वाङ्गनोऽगोचरो
विभुः ।
मनुष्य इव मानुष्यमाधाय भुवि मोदते
।।२९।।
अहो कृपातिरेकेण सर्वत्र समुपैति वै
।
एतस्मादपि किं लाभादधिकं गजगामिनि ।।३०।।
तपो धनं तपो भाग्यं तपः सर्वत्र
सर्वदम् ।
अतस्तपस्विनां देवि दासत्वमपि
दुर्लभम् ।। ३१।।
सभी प्रकार की कामनाओं को प्राप्त
कर लेनेवाले ये प्रभु, जो वाणी और मन से
भी अप्रत्यक्ष हैं, वे मानव का रूप धारण कर मनुष्य के समान
इस संसार में प्रसन्न हैं। अहोभाग्य है कि अत्यधिक कृपा करने के कारण वे सभी जगह
पहुँच जाते हैं। हे गजगामिनी पार्वती! इससे अधिक लाभ और क्या हो सकता है? अतः देवि! तपस्या धन है, तप ही भाग्य है, तप से ही हर स्थानों पर सब कुछ प्राप्त हो जाते हैं। अतः हे देवी पार्वती!
जो तपस्या करते हैं, उनके लिए दासता दुर्लभ है; क्योंकि तपस्वी देवस्वरूप हो जाते हैं ।
इत्यगस्त्यसंहितायां
रामावतारोपक्रमम् नाम तृतीयोऽध्यायः ।।
आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 4
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