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मयमतम् अध्याय ७

मयमतम् अध्याय ७

मयमतम् अध्याय ७ पदविन्यास - इस अध्याय में वास्तु-पद-विन्यास का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। इसमें बत्तीस पदविन्यासों की सूची; सकल, पेचक, पीठ, महापीठ, उपपीठ आदि कतिपय पदविन्यासों का वर्णन वास्तुदेवों का वर्णन तथा उनके स्थानों का विवेचन किया गया है। पदविन्यासों में मण्डूकपद वास्तु (चौंसठ पद वास्तु) एवं परमशायिन (इक्यासी पद वास्तु ) प्रधान हैं; अतः उनका विस्तार से वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त वास्तुपुरुष का भी वर्णन किया गया है।

मयमतम् अध्याय ७

मयमतम् अध्याय ७    

Mayamatam chapter 7

मयमतम् सप्तमोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र

मयमत अध्याय ७- वास्तुपद-विन्यास

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ सप्तमोऽध्यायः

(पदविन्यासः)

वक्ष्येऽहं पदविन्यासं सर्ववस्तुसनातनम् ।

मैं (मय ऋषि) सभी वास्तुमण्डलों के पद पद-विन्यास का वर्णन करता हूँ ।

मयमतम् अध्याय ७- द्वात्रिंशत पदानि

सकलं पेचकं पीठं महापीठमतः परम् ॥१॥

उपपीठमुग्रपीठं स्थण्डिलं नाम चण्डितम् ।

मण्डूकपदकं चैव पदं परमशायिकम् ॥२॥

तथासनं च स्थानीयं देशीयोभयचण्डितम् ।

भद्रं महासनं पद्मगर्भं च त्रियुतं पदम् ॥३॥

व्रतभोगपदं चैव कर्णाष्टकपदं तथा ।

गणितं पादमित्युक्तं पदं सूर्यविशालकम् ॥४॥

सुसंहितपदं चैव सुप्रतिकान्तमेव च ।

विशालं विप्रगर्भं च विश्वेशं च ततः परम् ॥५॥

तथा विपुलभोगं च पदं विप्रतिकान्तकम् ।

विशालाक्षपदं चैव विप्रभक्तिकसंज्ञकम् ॥६॥

पदं विश्वेशसारं च तथैवैश्वरकान्तकम् ।

इद्रकान्तपदं चैव द्वात्रिंशत् कथितानि वै ॥७॥

बत्तीस प्रकार के पदविन्यास होते है । उनके नाम है - सकल, पेचक, पीठ, महापीठ, उपपीठ, उग्रपीठ, स्थण्डिलचण्डित, मण्डूक, परमशायिक, आसन, स्थानीय, देशीय, उभयचण्डित, भद्रमाहसन, पद्मगर्भ, त्रियुत, व्रतभोग, कर्णाष्टक, गणित, सूर्यविशालक, सुसंहित, सुप्रतीकान्त, विशाल, विप्रगर्भ, विश्वेश, विपुलभोग, विप्रतिकान्त, विशालाक्ष, विप्रभक्तिक, विश्वेसार, ईश्वरकान्त एवं इन्द्रकान्त ॥१-७॥

सकलं पदमेकं स्यात् पेचकं तु चतुष्पदम् ।

पीठं नवपदं चैव महापीठं द्विरष्टकम् ॥८॥

'सकल' पदविन्यास एक पद से बनता है । 'पेचक' चार पद, 'पीठ' नौ पद एवं 'महापीठ' सोलह पद से बनते है ॥८॥

पञ्चविंशत्युपपीठं षट्‌षडेवोग्रपीठकम् ।

स्थण्डिलं सप्तसप्तांशं मण्डुकं चाष्टकाष्टकम् ॥९॥

'उपपीठ' का पदविन्यास पच्चीस पदों से, 'उग्रपीठ' छत्तीस पदों से, 'स्थण्डिल' उनचास पदों से एवं 'मण्डूक' चौसठ पदों से होता है ॥९॥

परमशायिपदं चैव नन्दननन्दपदं भवेत् ।

आसनं शतभागं स्यादेकविंशच्छतं पदम् ॥१०॥

'परमशायिक' इक्यासी पदों से एवं 'आसन' सौ पदों से बनता है । एक सौ इक्कीस पदों से - ॥१०॥

स्थानीयं स्याच्चतुश्चत्वारिंशच्छतपदाधिकम् ।

देशीयं नवषष्ट्यंशं शतं चोभयचण्डितम् ॥११॥

'स्थानीय' पदो की रचना होती है । 'देशीय' पदविन्यास एक सौ चौवालीस पदो से तथा उभयचण्डित एक सौ उनहत्तर पदों से होता है ॥११॥

षण्णवत्यधिकं चैव शतं भद्रं महासनम् ।

सपञ्चविंशद् द्विशतं पद्मगर्भमिति स्मृतम् ॥१२॥

'भद्र-महासन' मे एक सौ छियानबे पद होते है तथा 'पद्मगर्भ' मे दो सौ पच्चीस पद होते है ॥१२॥

षडाधिक्यं तु पञ्चाशद्‌द्विशतं त्रियुतं पदम् ।

द्विशतं सनवाशीति व्रतभोगमिति स्मृतम् ॥१३॥

'त्रियुत' मे दो सौ छप्पन पद होते है एवं 'व्रतभोग' मे दो सौ नवासी पद होते है ॥१३॥

त्रिशतं च चतुर्विशंत् कर्णाष्टकपदं तथा ।

त्रिशतं चैकषष्ट्यंशं गणितं पादसंज्ञितम् ॥१४॥

'कर्णाष्टक' मे तीन सौ चोबीस पद तथा 'गणित' वास्तु-पद मे तीन सौ एकसठ पद होते है ॥१४॥

चतुःशतपदं सूर्यविशालं परिकीर्तितम् ।

सुसंहितपदं चैकचत्वारिंशच्चतुःशतम् ॥१५॥

'सूर्यविशाल' मे चार सौ पद कहे गये है एवं 'सुसंहित' पद-विन्यास में चार सौ एकतालीस पद होते है ॥१५॥

सवेदाशीतिचत्वारः शतं सुप्रतिकान्तकम् ।

नवविंशत्पञ्चशतं विशालं पद्‍मीरितम् ॥१६॥

'सुप्रतीकान्त' मे चार सौ चौरासी पद तथा 'विशाल' मे पाँच सौ उन्तीस पद कहे गये है ॥१६॥

षट्‌सप्ततिः पञ्चशतं विप्रगर्भमिति स्मृतम् ।

विश्वेशं षट्‌शतं पश्चात् पञ्चविंशत्पदं स्मृतम् ॥१७॥

'विप्रगर्भ' पदविन्यास पाँच सौ छिहत्तर तथा 'विश्वेश' छः सौ पच्चीस पदों से निर्मित होते है ॥१७॥

षट्‌सप्ततिः षट्‍शतकं विपुलभोगमिति स्मृतम् ।

नवविंशतिकं सप्तशतं विप्रतिकान्तकम् ॥१८॥

'विपुलभोग' मे छः सौ छिहत्तर एवं 'विप्रकान्त' मे सात सौ उन्तीस पद होते है ॥१८॥

विशालाक्षपदं वेदाशीति सप्तशताधिकम् ।

सैकाष्टपञ्चयुक्तं चाष्टशतं विप्रभक्तिकम् ॥१९॥

'विशालाक्ष' मे सात सौ चौरासी पद तथा 'विप्रभक्तिक' मे आठ सौ इकतालीस पद होते है ॥१९॥

विश्वेशसारमित्युक्तमेवं नवशतं पदम् ।

सैकषष्ट्यां नवशतं पदमीश्वरकान्तकम् ॥२०॥

'विश्वेशसार' मे नौ सौ पद एवं 'ईश्वरकान्त' मे नौ सौ इकसठ पद होते है ॥२०॥

चतुर्विंशतिसंयुक्तं सहस्त्रपदसंकुलम् ।

इन्द्रकान्तमिति प्रोक्तं तन्तविद्भिः पुरातनैः ॥२१॥

'इन्द्रकान्त' पदविन्यास मे एक हजार चौबीस पद होते है । ये तन्त्रशास्त्र के प्राचीन विद्वानों के मत है ॥२१॥

मयमतम् अध्याय ७- सकल

आद्यं पदं सकलमेकपदं यतीना-

मिष्टं हि विष्टरमहाशनवह्निकार्यम् ।

पित्र्यामरादियजनं गुरुपूजनं च

भान्वार्कितोयशशिनामकसूत्रयुक्ते ॥२२॥

प्रथम वास्तुपद-विन्यास मे केवल एक पद होता है । यह यतियों के लिये अनुकूल होता है । इसमे अग्निकार्य होता है एवं इसमे कुश बिछाया जाता है । इस पर पितृपूजन, देवपूजन एवं गुरुपूजन का कार्य सम्पन्न होता है । इसके चारो ओर खींची गई रेखाये भानु, अर्कि, तोय एवं शशि कहलाती है ॥२२॥

मयमतम् अध्याय ७- पेचक

पैशाचभूतसविषग्रहरक्षकास्ते

पूज्या हि पेचकपदे चतुरंशयुक्ते ।

तस्मिन् विध्येमधुना विधिना विधिज्ञैः

शैवं तु निष्कलमलं सकलञ्च युक्त्या ॥२३॥

पेचकसंज्ञक पद-विन्यास में चार पद होते है । इसमे पिशाच, भूत, विषग्रह एवं राक्षसों की पूजा होती है । विधियों के ज्ञाता विधिपूर्वक इस प्रकार के कार्यों के लिये इस पदविन्यास को बनाते है एवं इसमे सभी विधियों का पालन करते हुये निर्मल एवं निष्कल शिव को प्रतिष्ठित करते है ॥२३॥

मयमतम् अध्याय ७- पीठम्

अथ पीठमदे नवभागयुते दिशि दिश्यथ वेदचतुष्ट्यकम् ।

विदुरीशपदाद्युदकं दहनं गगनं पवनं पृथिवी ह्यबहिः ॥२४॥

पीठसंज्ञक पद-विन्यास में नौ पद होते है । इसके चारों दिशाओं में चारो वेद, ईशान आदि (कोणो) में क्रमशः उदक (जल), दहन (अग्नि), गगन (आकाश) एवं पवन (वायु) होते है तथा मध्य में पृथिवी होती है ॥२४॥

मयमतम् अध्याय ७- महापीठ

षोडशांशं महापीठं पञ्चपञ्चामरान्वितम् ।

ईशो जयन्त आदित्यो भृशोऽग्निर्वितथो यमः ॥२५॥

महापीठ पद-विन्यास में सोलह पद होते है एवं इसमे पच्चीस देवता होते है । इन पदो में (ईशान कोण से प्रारम्भ कर क्रमशः) देवता इस प्रकार होते है - ईश, जयन्त, आदित्य, भृश, अग्नि, वितथ, यम ॥२५॥

भृङ्गश्च पितृसुग्रीवौ वरुणः शोषमारुतौ ।

मुख्यः सोमोऽदितिश्चेति बाह्यदेवाः प्रकीर्तिताः ॥२६॥

भृङ्ग, पितृ, सुग्रीव, वरुण, शोष, मारुत, मुख्य, सोम एवं अदिति बाह्य पदो के देवता कहे गये है ॥२६॥

आपवत्सार्यसावित्रा विवस्वानिन्द्रमित्रकौ ।

रुद्रजो भूधरश्चान्तर्मध्ये ब्रह्मा स्थितः प्रभुः ॥२७॥

अन्दर के पदों के देवता आपवत्स, आर्य, सावित्र, विवस्वान, इन्द्र, मित्र, रुद्रज एवं भुधर है । केन्द्र में ब्रह्मा स्थित होते है, जो सबके स्वामी कहे गये है ॥२७॥

मयमतम् अध्याय ७- उपपीठादी

तत्पार्श्वयोर्द्वयोरेकभगेनैकेन वर्धनात् ।

उपपीठं भवेदत्र देवतास्ताः पदे स्थिताः ॥२८॥

उपपीठ वास्तु-विन्यास में वे (पूर्वोक्त) देवता अपने पदों के अतिरिक्त अपने दोनो पार्श्वो मे एक-एक पद की वृद्धि प्राप्त करते हुये स्थित होते है ॥२८॥

तत्तत्पार्श्वद्वयोश्चैव्मेकैकांशविवर्धनात् ।

इन्द्रकान्तपदं यावतावद्युञ्जीत बुद्धिमान ॥२९॥

बुद्धिमान (स्थपति) को चाहिये कि उन देवो के दोनो पार्श्वो में एक-एक पद की वृद्धि तब तक करे, जब तक इन्द्रकान्त पद न बन जाय ॥२९॥

समानि यानि भागानि चतुःषष्टिवदाचरेत् ।

असमान्यपि सर्वाणि चैकाशीतिपदोक्तवत् ॥३०॥

जिन वास्तु-विन्यासों में सम संख्या में पद हो, उन्हे चौसठ पद वाले वास्तु के समान एवं विषम संख्या में पद हो तो इक्यासी पद वाले वास्तु के समान (देवों को) रखना चाहिये ॥३०॥

पदानामपि सर्वेषां मण्डूकं चापि तत्परम् ।

चण्डितं सर्ववस्तूनामाहत्यं च यतस्ततः ॥३१॥

सभी वास्तु-विन्यासों मे मण्डूकसंज्ञक वास्तुपद- विन्यास सभी निर्माण-कार्यो के लिये उपयुक्त होता है; क्योंकि यह (तान्त्रिक) विधि पर आधारित होता है ॥३१॥

तस्मात् संक्षिप्य तन्त्रेभ्यो वक्ष्येऽहमपि तद् द्वयम् ।

चतुःषष्टिपदे चैकाशीतौ सकलनिष्कले ॥३२॥

इसलिये मैं (मय ऋषि) तन्त्रों से संक्षेप में विषय ग्रहण कर सकल एवं निष्कल चौसठ एवं इक्यासी दो पदविन्यासों का वर्णन करता हूँ ॥३२॥

सूत्रे च पदमध्ये च ब्रह्माद्याः स्थापिताः सुराः ।

प्रागुदग्दिक्समारभ्यैवोच्यन्ते देवताः पृथक् ॥३३॥

(उपर्युक्त दोनो पदविन्यासो में) वास्तुपद के मध्य में ब्रह्मा आदि देवता स्थापित किये जाते है । ईशान कोण से प्रारम्भ कर पृथक-पृथक स्थापित किये जाने वाले देवता का यहाँ वर्णन किया जा रहा है ॥३३॥

मयमतम् अध्याय ७- दैवतस्थान

ईशानश्चैव पर्जन्यो जयन्तश्च महेन्द्रकः ।

आदित्यः सत्यकश्चैव भृशश्चैवान्तरिक्षकः ॥३४॥

वास्तुदेवों के स्थान - (ईशान कोण से प्रारम्भ करते हुये देवता इस प्रकार है -) ईशान, पर्जन्य, जयन्त, महेन्द्रक, आदित्य, सत्यक, भृश तथा अन्तरिक्ष ॥३४॥

अग्निः पूषा च वितथो राक्षसश्च यमस्तथा ।

गन्धर्वो भृङ्गराजश्च मृषश्च पितृदेवताः ॥३५॥

 (आग्न्ये कोण से नैऋत्य कोण के देवता इस प्रकार है)- अग्नि, पूषा, वितथ, राक्षस, यम, गन्धर्व, भृङ्गराज, मृष तथा पितृदेवता ॥३५॥

दौवारिकश्च सुग्रीवः पुष्पदन्तो जलाधिपः ।

असुरः शोषरोगौ च वायुर्नागस्तथैव च ॥३६॥

 (पश्चिम से वायव्य तक तथा उत्तर के देवता इस प्रकार है) दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, जलाधिप (वरुण), असुर, शोष, रोग, वायु एवं (उत्तर दिशा में) नाग ॥३६॥

मुख्यो भल्लाटकश्चैव सोमश्चैव मृगस्तथा ।

अदितिश्चोदितिश्चैव द्वात्रिंशद् बाह्यदेवताः ॥३७॥

 (उत्तर दिशा के देवता है-) मुख्य, भल्लाटक, सोम, मृग, अदिति एवं उदिति- ये बत्तीस बाह्य पदों के देवता है ॥३७॥

आपश्चैवापवत्सश्चैवान्तः प्रागुत्तरे स्मृतौ ।

सविन्द्रश्चैव साविन्द्रश्चान्तः प्राग्दक्षिणे स्मृतौ ॥३८॥

अन्तः देवों में पूर्वोत्तर (ईशान) में आप एवं आपवत्स देवता तथा पूर्व-दक्षिण (आग्नेय कोण) में सविन्द्र एवं साविन्द्र देवता होते है ॥३८॥

इन्द्रश्चैवेन्द्रराजश्च दक्षिणापरतः स्थितौ ।

रुद्रो रुद्रजयश्चैव पश्चिमोत्तरतो दिशि ॥३९॥

दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में इन्द्र एवं इन्द्रराज तथा पश्चिमोत्तर (वायव्य कोण) में रुद्र एवं रुद्रजय देवता कहे गये हैं ॥३९॥

ब्रह्मा मध्ये स्थितः शम्भुस्तन्मुखस्थाश्चतुः सुराः ।

आर्यो विवस्वान् मित्रश्च भूधरश्चैव कीर्तिताः ॥४०॥

मध्य में स्थित ब्रह्मा शम्भु है तथा अर्य, विवस्वान् मित्र एवं भूधर - ये चार देवता उनकी ओर मुख करके स्थित होए है ॥४०॥

चरकी च विदारी च पूतना पापराक्षसी ।

ईशानादि बहिः स्थाप्याश्चतुष्कोणे स्त्रियः स्मृताः ।

नपदा बलिभोक्तारः शेषाणां पदमुच्यते ॥४१॥

ईशान आदि चारो कोणों के बाहर क्रमशः चार स्त्री-देवताओं-चरकी, विदारी, पूतना एवं पापराक्ष्सी की स्थापना होनी चाहिये । ये चारों विना पद के ही बलि (वास्तु के निमित्त हविष) ग्रहण करती है । शेष देवों का पद कहा गया है ॥४१॥

विंशत्सूत्रैः सन्धिभिः सप्तवेदैः

षट्‌षट्‌संख्याभिश्चतुष्कैश्च षट्‌कैः ।

अर्कैः शूलैर्वेदसंख्याः सिराभिः

संयुक्तं स्याष्टकेनैकमेतत् ॥४२॥

इस प्रकार इक्यासी संख्याओं का एक पद वास्तुचक्र में मण्डलदेवताओं का होता है, जिसका विवरण अग्रलिखित है- २० + ७ + ६ + ६ + ६ +६ + ६ + १२ + ४ + ८ = ८१ अर्थात खड़ी और पड़ी दश-दश रेखायें होने से इक्यासी पद का वास्तुचक्र सम्पन्न होता है ॥४२॥

मयमतम् अध्याय ७- मण्डूकपद

चतुःषष्टिपदे मध्ये ब्रह्मणश्च चतुष्पदम् ॥४३॥

चौसठ पद वाले मण्डूक पद में मध्य के चार पद में ब्रह्मा होते है ॥४३॥

आर्यकादिचतुर्देवाः प्रागादित्रित्रिभागिनः ।

आपाद्यष्टामराः कोणेष्वर्धार्धपदभागिनः ॥४४॥

(ब्रह्मा के पश्चात् उनके चारों ओर) आर्यक आदि चार देवता (आर्य, विवस्वान्, मित्र, भूधर) पूर्व से आरम्भ होकर तीने-तीन पद में स्थित होते है । आप आदि आठ देवता (आप, आपवत्स, सविन्द्र, साविन्द्र, इन्द्र, इन्द्रराज, रुद्र एवं रुद्रजय) ब्रह्मा के चारों कोणों में आधे-आधे पद में प्रतिष्ठित होते हैं ॥४४॥

महेन्द्रराक्षसाद्याश्च पुष्पभल्लाटकादयः ।

दिशि दिश्यथ चत्वारो देवा द्विपदभोगिनः ॥४५॥

महेन्द्र, राक्षस, पुष्प एवं भल्लाटक - ये चारों देवता दिशाओं में (क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं पूर्व में) दो-दो पद के भागी बनते है ॥४५॥

जयन्तश्चान्तरिक्षश्च वितथश्च मृषस्तथा ।

सुग्रीवो रोगमुखश्च दितिश्चैकैकभागिनः ॥४६॥

जयन्त, अन्तरिक्ष, वितथ, मृष, सुग्रीव, रोग, मुख्य एवं दिति को एक-एक पद प्राप्त होता है ॥४६॥

ईशाद्यष्टामराः शेषाः कोणेश्वर्धपदेश्वराः ।

एवं क्रमेण भुञ्जीरन् मण्डूके वास्तुदेवताः ॥४७॥

शेष बचे ईश आदि आठ देवता (ईश, पर्जन्य, अग्नि, पूषा, पितृदेवता, दौवारिक, वायु एवं नाग) कोणों पर आधा-आधा पद पाप्त करते है । इस प्रकार मण्डूक वास्तुपद में देवताओं को स्थान प्राप्त होता है ॥४७॥

स्वस्वप्रदक्षिणवशात् पदभुक्तिक्रमं विदुः ।

ब्रह्माणं च निरीक्ष्यैते स्थिआः स्वस्वपदेऽमराः ॥४८॥

अपने-अपने क्रम से ये सभी देवता बाँये से दाहिने पदों में स्थित होते है । सभी देवगण ब्रह्मा को देखते हुये अपने-अपने पदों में स्थान ग्रहण करते है ॥४८॥

मयमतम् अध्याय ७- वास्तुपुरुषविधान

षद्‌वंशमेकह्रदयं चतुर्मर्मं चतुःसिरम् ।

मेदिन्यां वास्तुपुरुषं निकुब्ज प्राक्शिरं विदुः ॥४९॥

वास्तुपुरुष की रचना - वास्तु-पुरुष निकुब्ज पूर्व की दिशा में सिर किये वास्तुभूमि पर स्थित होता है । उसके छः वंश (अस्थियाँ), चार मर्मस्थल, चार सिरायें एवं एक ह्रदय होते है ॥४९॥

तस्योत्तमाङ्ग विज्ञेयमार्यको नाम देवता ।

सविन्द्रो दक्षिणभुजः साविन्द्रः कक्षमुच्यते ॥५०॥

उस वास्तुपुरुष के सिर आर्यकसंज्ञक देवता होते है । सविन्द्र दाहिनी भुजा एवं साविन्द्र कक्ष होते है ॥५०॥

आपश्चैवापवत्सश्च सकक्षो वामतो भुजः।

विवस्वान् दक्षिणं पार्श्वं वामपार्श्वं महीधरः ॥५१॥

आप एवं आपवत्स कक्षसहित वाम भुजा, विवस्वान दक्षिण पार्श्व एव महीधर वाम पार्श्व बनते है ॥५१॥

मध्ये ब्रह्ममयः कायो मित्रः पुंस्त्वं विधीयते ।

इन्द्रश्चैवेन्द्रराजश्च दक्षिणः पाद ईरितः ॥५२॥

वास्तुपुरुष का मध्य शरीर ब्रह्मा से निर्मित होता है एवं मित्र उसके पुरुषलिङ्ग होते है । इन्द्र एवं इन्द्रराज वास्तुपुरुष के दक्षिण पाद कहे गये है ॥५२॥

रुद्रो रुद्रजयो वामपादः शेते त्वधोमुखः ।

वस्तुत्रिभागमध्ये तु वंशाः षट् प्रागुदङ्‌मुखाः ॥५३॥

रुद्रं एवं रुद्रजय इसके वाम पद है एवं वह अधोमुख होकर भूमि पर सोता है । इसके छः वंश (रेखायें) है, जो पूर्व एवं उत्तर की ओर होते है ॥५३॥

वस्तुमध्ये तु मर्माणि ब्रह्मा ह्रदयमुच्यते ।

निष्कूटांशाः सिरा ज्ञेया इत्येष पुरुषः स्मृतः ॥५४॥

वास्तुमण्डल के मध्य में वास्तुपुरुष के मर्मस्थल होते है एवं ब्रह्मा वास्तुपुरुष के ह्रदय है । वास्तुमण्डल के निष्कूट अंश (रेखायें) वास्तुपुरुष की सिरायें (रक्तवाहिनी शिराये) होती है ॥५४॥

गृहे गृहे मनुष्याणां शुभाशुभकरः स्मृतः ।

तस्याङ्गानि गृहाङ्गैश्च विद्वान् नैवोपपीडयेत् ॥५५॥

मनुष्यों के प्रत्येक गृह में वास्तुपुरुष का निवास होता है, जो गृह में रहने वालो के शुभ एवं अशुभ परिणाम का कारक होता है । विद्वान मनुष्य को चाहिये कि वास्तुपुरुष के अङ्गो को गृह के अङ्गों को गृह के अङ्गों (स्तम्भ, भित्ति आदि) से पीड़ित न करे ॥५५॥

व्याधयस्तु यथासंख्यं भर्तुरङ्गे तु संश्रिताः ।

तस्मात् परिहरेद् विद्वान् पुरुषाङ्गं तु सर्वथा ।

वास्तुपुरुष का जो-जो अङ्ग पीड़ित होता है, गृहस्वामी के उस-उस अङ्ग में रोग होता है । अतः विद्वान् गृहस्वामी को वास्तुपुरुष के अंगों पर निर्माणकार्य का सर्वथा त्याग करना चाहिये ।

मयमतम् अध्याय ७- पुनर्मण्डूकपद

चत्वारिंशच्च पञ्चैते देवतानां समुच्चयः ॥५६॥

अष्टाष्टांशे कस्य धस्तन्मुखाना-

मिष्टं गांशं व्यञ्जनं षोडशानाम् ।

अष्टानां कः षोडशानां खभागं

मण्डूकाख्ये स्थण्डिले तैतिलेषु ॥५७॥

पुनः मण्डूक- पदविन्यास - वास्तु-मण्डल में ४५ देवता होते है । मण्डूकसंज्ञक वास्तुमण्डल में चौंसठ पद होते है । केन्द्र में ब्रह्मा के चार पद होते है । ब्रह्मा की ओर मुख किये चार देवों के तीन-तीन पद, सोलह देवों के आधे-आधे पद, आठ देवों के एक-एक पद एवं सोलह के दो पद होते है ॥५६-५७॥

मयमतम् अध्याय ७- परमशायिपदम्

परमशायिपदे नवभागभाक्

कमलजो मुखतस्तु चतुःसुराः ।

रसपदा द्विपदा हि विदिक्स्थिता

बहिरथैकपदाः सकलामराः ॥५८॥

परमशायी वास्तु-मण्डल में ब्रह्मा को नौ पद प्राप्त होते है । उनकी ओर मुख किये चारों देवों को छः-छः पद, कोण में स्थित देवों को दो-दो पद एवं बाहर स्थित सभी देवों को एक-एक पद प्राप्त होता है ॥५८॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे पददेवताविन्यासो नाम सप्तमोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 8  

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