विष्णु स्तुति
ब्रह्माजी द्वारा की गई इस भगवान् विष्णु की स्तुति को भाव-विह्वल होकर जो नित्य-प्रति पाठ करने से दुर्भाग्य और दरिद्रता का सदा के लिए नाश हो जाता है।
श्रीविष्णु स्तुति
Vishnu stuti
अगस्त्यसंहिता अध्याय ४ विष्णु स्तुति
विष्णुस्तुति
ब्रह्माकृतं श्रीविष्णु स्तुति:
त्वमेव विश्वतश्चक्षुर्विश्वतोमुख
उच्यसे ।
विश्वतोबाहुरेकः सन् विश्वतः
स्यात्तथा परः ।।१४।।
हे भगवन्! आपके नेत्र सभी दिशाओं
में हैं;
आपके मुख भी सभी दिशाओं में हैं तथा आपकी बाहें भी सभी ओर फैली हुई
हैं, फिर भी आप संसार से परे हैं।
जनयन् भूर्भुवर्लोकौ स्वर्लोकं
सर्वशासकः ।
अक्षिभ्यामपि बाहुभ्यां कर्णाभ्यां
भुवनत्रयम् ।।१५।।
पद्भ्यां च नासिकाभ्यां च सर्वं
सर्वत्र पश्यसि ।
समाधत्से शृणोष्येतत् सर्वं गच्छसि
सर्वकृत् ।।१६।।
आप दोनों आँखों,
बाहुओं और कानों, पैरों और नासिकाओं से भूलोक,
भुवर्लोक, और स्वर्गलोक इन तीनों को उत्पन्न
कर सब पर शासन करते हैं, सभी जगहों पर सब कुछ देखते - सूँघते
हैं; सब कुछ सुनकर उनका समाधान करते हैं और सारे कार्य करते
हैं ।
जिघ्रस्येवं न ते किञ्चिदविज्ञातं
प्रभोस्त्विह ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च त्वमेव
ननु केशव: ।।१७।।
हे प्रभो! ऐसा कुछ भी नहीं,
जिसे आप जानते न हों। आप ही ब्रह्मा, विष्णु
और रुद्र हैं तथा केशव भी आप ही हैं।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः
सहस्रपात् ।
पृथिव्यप्तेजसां रूपं मरुदाकाशयोरपि
।।१८।।
पुरुष रूप में आपके हजारों शिर हैं,
हजारों नेत्र हैं तथा हजारों पैर हैं । हे देव!, पृथ्वी, जल, अग्नि के तथा
मरुत् और आकाश स्वरूप आप हैं ।
कार्यं कर्ता कृतिर्देव कारणं केवलं
परम् ।
अणोरणीयान् महतो महीयान् मध्यतः
स्वयम् ।।१९।।
मध्योऽसि निर्विकल्पोऽसि कस्त्वां
देवावगच्छति ।
आप ही करने योग्य,
करनेवाले, किये गये पदार्थ तथा क्रिया के परम
साधन भी आप ही हैं । हे देव! आप अणु से भी सूक्ष्म और महत् से भी महान् हैं और
उनके बीच में भी आप ही हैं; आपका विकल्प कोई नहीं है;
आपको भला कौन जान सकता है?"
इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये ब्रह्मणा षडक्षरमन्त्रग्रहणम् नाम श्रीविष्णु स्तुति: चतुर्थोऽध्यायः ।।
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