हरिमिडे स्तोत्र
हरिमीडे :—[=
हरि-मीडे ] [ हरि से ] 'मैं हरि की स्तुति करता हूँ'। शंकराचार्यविरचित यह स्तोत्र जिसे हरि स्तुति अथवा हरिमिदे
स्तोत्र के नाम से भी जाना जाता है। यह मत्तमयूर छन्द में है।
इस छन्द में चार और नव अक्षर पर विश्राम होता है। नव अक्षर में
भी पाँच और चार अक्षरों के मध्य में कुछ विश्राम लेना चाहिये। जो मनुष्य इस
स्तोत्र का पाठ करता है, या दूसरे के मुख से सुनता है वह संसार के भयरूपी अन्धकार को दूर करने में समर्थ
हो जाता है तथा वह विष्णु भगवान् के परमधाम को प्राप्त होता है और पश्चात् मुक्त
हो जाता है तथा जो मनुष्य, इस स्तोत्र के अर्थ का अनुसन्धान
करता है, वह अपने ही आत्मा में विष्णुतत्त्व का साक्षात्कार
कर उस तत्त्व को अभेदरूप से प्राप्त करता है, अर्थात् वह
स्वयं परिपूर्ण आनन्दस्वरूप विष्णु ही हो जाता है।
हरिमीडेस्तोत्रम्
Harimide stotra
हरिमिदेस्तोत्रम् अथवा हरिस्तुतिः
शंकराचार्यविरचितम्
हरिमिडे स्तोत्रं
॥ हरिमीडे
स्तोत्र ॥
स्तोष्ये
भक्त्या विष्णुमनादिं जगदादिं
यस्मिन्नेतत्संसृतिचक्रं
भ्रमतीथम् ।
यस्मिन्
दृष्टे नश्यति तत्संसृतिचक्रं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥१ ॥
मैं (आचार्य श्रीशंकर
स्वामी) समस्त विश्व का कारण, अनादि, व्यापक-विष्णु परमात्मा की विशुद्ध भक्तिपूर्वक स्तुति
करूँगा । जिस अधिष्ठान स्वरूप विष्णु में यह कष्टप्रद कल्पित संसार-चक्र कर्तृत्व-
भोक्तृत्वादि विविधरूप से परमार्थ में न होता हुआ भी अनादि- काल से भ्रमण करता है
। जिस सच्चिदानन्द विष्णु का साक्षात्कार होने पर यह संसारचक्र समूल नष्ट हो जाता
है। इस संसारचक्र के कारणरूप अज्ञान की निवृत्तिरूप* (‘अधिष्ठान्तवशेषोद्दि नाशः कल्पितवस्तुनः'
अज्ञानादि
कल्पित वस्तु का नाश अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप होता है, अधिष्ठान से पृथक् नही होता।) उस विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
यस्याक्षादित्तमशेषं
जगेतत्
प्रादुर्भूतं
येन पिण्डद्धं पुनरीत्थम् ।
येन व्याप्तं
येन विबुद्धं सुखदुखैस्तं
संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ २॥
जिस
मायाशक्ति-युक्त विष्णु परमात्मा के कल्पित एक अंश से,
कर्तृत्वादि विविध अनर्थविशिष्ट यह नामरूपात्मक संसार
उत्पन्न हुआ है और जिस अन्तर्यामी नारायण से इस संसार की विचित्र व्यवस्था नियुक्त
की गई है। जिससे यह तमाम जगत् व्याप्त है, यानी जो निखिल विश्व में बाहर-भीतर ओत-प्रोत होकर
परिपूर्णरूप से स्थित है । जिससे यह संसार, सुखदुःखादि के विचित्र अनुभव द्वारा भासित हो रहा है । उस
संसार के कारण अज्ञान की निवृत्तिरूप, या ब्रह्मविद्या द्वारा अज्ञान के नाश करनेवाले विष्णु
भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
सर्वज्ञो यो
यश्च हि सर्वः सकलो यो
यश्चानन्दोऽनन्तगुणो
यो गुणधामा ।
यश्चाऽव्यक्तो
सम्मिलितसमस्तः सदसद्यस्तं
संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ ३॥
जो परमात्मा
सर्वज्ञ,
यानी सबको जानता है, सर्वरूप है, यानी सर्व परिपूर्ण सर्व का उपादान एवं निमित्त कारण भी है,
अखण्ड विशुद्धानन्द स्वरूप है,
असंख्य कल्याण गुणों से युक्त है,
त्रिगुणमयी माया का अधिष्ठान है,
अव्यक्त है यानी मन आदि इन्द्रियों के अगोचर है,
भोक्ता एवं भोग्यरूप से विभक्त समष्टिव्यष्टयात्मक निखिल
संसाररूप है, जो सत्य एवं असत्यरूप भी है अथवा मूर्तीमूर्तरूप हैं,
ऐसे संसार का कारण अज्ञान की निवृत्तिरूप उस हरि भगवान्की
मैं स्तुति करता हूँ ।
यस्मादान्यं
नास्त्यपि नैवं परमार्थं
दृश्यादन्यो
निर्विषयज्ञानमयत्वात् ।
ज्ञातृज्ञानज्ञेय
विकसानोऽपि सदा
ज्ञानस्तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ४॥
जिस
सच्चिदानन्द विष्णु परमात्मा से अन्य (भिन्न) आकशादि अनात्मवर्ग वस्तुगत्या नहीं
है,
इसलियें आकाशादि सभी पदार्थ, वास्तव में परमार्थ-सत्य नहीं हैं,
किन्तु प्रतीतिमात्र मिथ्या हैं और वह विष्णु,
निर्विषय निरतिशय विशुद्ध ज्ञान स्वरूप होने के कारण
दृश्यमान नामरूपात्मक जगत्से मिन्न हैं, असंग निर्विकार हैं । ज्ञाता, ज्ञान एवं ज्ञेयरुपी त्रिपुटी से रहित होने पर भी जो
मायाशक्ति से सदा सबको जानता है, ऐसे संसार का कारण अज्ञान के नाशक विष्णु भगवान् की मैं
स्तुति करता हूँ ।
आचार्येभ्यो
लब्धासुक्ष्मऽच्युतत्त्व
वैराग्येनाभ्यासबलाच्चैव
दृधिम्ना ।
भक्त्यैकाग्रध्यानपरां
यं विदुरीशं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ५॥
आचार्य-गुरूओं
के अनुग्रह से जिनने अविनाशी अतिसूक्ष्म विष्णुतत्त्व के परमार्थिक स्वरूप को
प्रत्यक्ष प्राप्त किया है । वैराग्य एवं अभ्यास के प्रभाव से तथा दृढ़ अनन्य
भक्ति के बल से जो उस तत्त्व एकाग्र ध्यान में तत्पर हुए हैं,
ऐसे महानुभाव ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को 'हस्तामलकवत्' साक्षात् जानते हैं, ऐसे संसार-कारण अज्ञान के नाशक विष्णु भगवान्की मैं स्तुति
करता हूँ ।
प्राणानायमयोमिति
चित्तं हृदि रुद्ध्वा
नान्यत्समृत्वा
तत्पुनत्रैव विलाप्य ।
क्षीणे चित्ते
भद्रशिरस्मिति विदूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ६॥
योगी लोग,
प्रथम अपनी चक्षुरादि इन्द्रियों को अपने अपने शब्दादि
विषयों से रोककर 'ॐ' ऐसे प्रणव मन्त्र का उच्चारण करते हुए संकल्प-विकल्परूप मन को
हृदय में यानी हृदयाकाशरूप ब्रह्म में स्थिर करते हैं,
और पश्चात् अन्य किसी दृश्य-प्रपञ्च का स्मरण नहीं करते हुए
उस मन को सुतरां व्यापक-ब्रह्मतत्त्व में लीन कर देते हैं,
फिर उस मन के क्षीण होने पर ‘स्वप्रकाशविज्ञानधन विष्णु मैं ही हूँ'
ऐसा दृढनिश्चय करते हैं, ऐसे संसार-कारण अज्ञान के नाशक विष्णु भगवान् की मैं स्तुति
करता हूँ ।
यं ब्रह्माख्यं
देवमनन्यं परिपूर्ण,
हृत्स्थं
भक्तैर्लभ्यमजं सूक्ष्ममतम् ।
ध्यात्वाऽऽत्मस्थं
ब्रह्मविदो यं विदुरीशं
तं
संसारध्वान्तविनाशं हरिमीडे ॥ ७ ॥
जिस तत्त्व को
ब्रह्मवेत्ता महानुभाव स्वप्रकाश, अन्यवस्तु (द्वैत- प्रपश्च) से रहित,
तमाम देशकाल में परिपूर्ण, समस्त प्राणियों के हृदय में साक्षी दृष्टारूप से वर्तमान,
प्रेमी भक्तों से प्राप्त करने योग्य,
जन्मरहित, सूक्ष्म यानी इन्द्रियों के अगोचर,
केवल तर्कों से नहीं जानने योग्य,
ब्रह्मनाम से पुकारते हुए, अपने ही आत्मा में अभेदरूप से स्थित उस तत्त्व का ध्यान
करते हुए अपरोक्षरूप से जानते हैं, ऐसे संसार के कारण अज्ञान की निवृत्ति करनेवाले विष्णु
भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
मात्रातीतं
स्वात्मविकाशात्मविबोधं
ज्ञेयातीतं
ज्ञानमयं हृदयपलाभ्यम् ।
भावग्राह्यानन्दमनन्यं
च विदुर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ८॥
तत्त्वदर्शी महानुभाव;
चक्षुरादि इन्द्रियों से अतीत यानी उनसे अग्राह्य,
आत्मस्वरूप के प्रकाश से प्रकाशवाला शुद्ध एकाग्र अन्तःकरण से
लक्षणावृत्ति द्वारा जानने योग्य, शक्ति-वृत्ति से जानने के लिये अयोग्य,
स्वयंप्रकाश-ज्ञानस्वरूप, सूक्ष्म संस्कृत-बुद्धि में साक्षात् प्रत्यक्ष अनुभव के
योग्य,
परम प्रेमरूपी भक्ति के द्वारा परमानन्दमयरूप से ग्रहण करने
योग्य,
अन्यभाव ( द्वैतभाव ) से रहित अखण्ड अद्वितीय,
ऐसे आत्मस्वरूप श्रीविष्णु को जानते हैं,
उस संसार का कारण अज्ञानरूप – अन्धकार के विनाश करनेवाले
विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
यद्यद्वेद्यं
वस्तुतत्त्वं विषयाख्यं
तत्तद्ब्रह्मैवेति
विदित्वा तदहं च ।
ध्यायन्त्येवं
यं सनकाद्या मनुष्योऽजं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ९॥
संसार में जो
जो विषयभूत दृश्य वस्तु हैं, वे सभी अस्ति- भाति-प्रियरूप से अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप ही
हैं,
यानी उस दृश्य प्रपञ्च का ब्रह्मतत्त्व से पृथक् अस्तित्व
नहीं है 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' इस प्रकार एक-अद्वय-अखण्डरूप से ब्रह्मतत्त्व को जानकर 'वह ब्रह्म मैं ही हूँ' ऐसे जन्मरहित व्यापक विष्णुतत्त्व का सनकादि मुनिवृन्द
निरन्तर ध्यान करते हैं, उस संसार का कारण अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाले
विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
यद्यद्वेद्यं
तत्तदहं नेति विहाय
स्वात्मज्योतिर्गनमयानन्दमवाप्य
।
तस्मिन्नस्मित्यात्मविदो
यं विदुरीशं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १०॥
जो जो अहंकार
आदि दृश्य पदार्थ हैं, वे सब स्वस्वरूप से ( नामरूप से) कल्पित होने के कारण मैं
सत्य अधिष्ठान आत्मा नहीं हूँ, यानी उस दृश्य वस्तु से मैं पृथक् हूँ,
इस प्रकार मिध्या दृश्य पदार्थों का बाध करके,
एवं स्वयंज्योति विज्ञानघन स्वस्वरूप- भूत विशुद्धानन्द का
प्रत्यक्ष अनुभव करके, आत्मज्ञानी महानुभाव, त्वपदलक्ष्यार्थ आत्मा के विषय में प्रत्यक्षरूप से 'वह आत्मा मैं हूँ' इस प्रकार तत्पदलक्ष्यार्थ, ईश्वर स्वरूप को आत्मा से अभिन्न करके साक्षात् अनुभव करते
हैं,
उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान् की मैं
स्तुति करता हूँ ।
हित्वा हित्वा
दृश्यमशेषं सविकल्पं
मत्वा शिष्टं
भद्रशिमात्रं गगनभम् ।
त्यक्त्वा
देहं यं प्रविशनत्यच्युतभक्ता
स्तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ११॥
अखण्ड-अविनाशी-
विष्णुतत्त्व के चिन्तन करनेवाले प्रेमी भक्त- वृन्द,
समस्त, विकल्प विशिष्ट, दृश्य- द्वैत प्रपञ्च को अच्छी तरह से छोड़कर तथा अबाधितरूप
से एवं सर्वनिषेधावधिरूप से अवशिष्ट (बचा हुआ ) स्वप्रकाश,
ज्ञानमात्र, आकाश की भाँति स्वच्छ, असंग तथा व्यापक विष्णु-तत्त्व को जानकर,
शरीर छोड़न के बाद जिस विष्णु-तत्व में अभेदरूप से लीन हो
जाते हैं । उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की में स्तुति करता
हूँ ।
सर्वत्रस्ते
सर्वशरीरी न च सर्वः
सर्वं
वेत्तयेवेह न यं वेत्ति हि सर्वः।
सर्वत्रान्तर्यमितयेत्थं
यमयन् यस्तं
संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ १२॥
जो विष्णु
परमात्मा,
पृथिवी आदि सभी वस्तुओं में वर्तमान है,
तमाम विश्व जिसका शरीर है, जो सर्वरूप होता हुआ भी पृथक् है,
जो सबको अच्छी तरह से जानता है,
परन्तु उसको कोई जान नहीं सकता । जो सबका नियमन करता हुआ
अन्तर्यामी रूप से सब जगह वर्तमान है, उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान् की मैं
स्तुति करता हूँ ।
सर्वं
दृष्ट्वा स्वात्मनि युक्त्या जगेतद्
दृष्ट्वात्मान
चैवमजं सर्वजनेषु ।
सर्वात्मकोऽस्मिति
विदुर्यं जनहृतस्थं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १३॥
इस निखिल
विश्व को 'जड और चेतन का वस्तुगत्या कोई भी सम्बन्ध नहीं बन सकता'
इत्यादि युक्तियों से अपने आत्मा में कल्पित जानकर और
सर्वशरीरों में साक्षीरूप से रहनेवाला, जन्मरहित क आत्मा का अनुभव कर,
'मैं ही एक अखण्ड,
अद्वितीय सर्वात्मा हूँ” इस प्रकार सर्वप्राणियों की बुद्धि में सदा प्रत्यक्षरूप से
वर्तमान विष्णु- तत्त्व का विरक्त विद्वान् महानुभाव,
अनुभव करते हैं। उस संसार के कारण अज्ञान का नाश करनेवाले
विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ।
सर्वत्रैव
पश्यति जिघ्रत्यथ भुङ्क्ते
स्पष्ट श्रोता
बुध्यति चेत्याहुरिं यम् ।
साक्षी चास्ते
कर्तृषु पश्यन्निति चान्ये
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १४॥
जो परमात्मा
सर्व में यानी ब्रह्मा से लेकर चिटीं पर्यन्त सर्व शरीरों में एक ही वर्तमान है,
वही परमात्मा, उपाधि के द्वारा देखता है, सूँघता है, खाता है, छूता है, सुनता है एवं जानता है, ऐसा अनुभवी विद्वान् लोग कहते हैं। तथा दूसरे विवेकी
महानुभाव,
वह परमात्मा शरीर इन्द्रिय आदि को प्रकाशित हुआ केवल
साक्षी-द्रष्टा अकर्ता एवं अभोक्ता है, ऐसा कहते हैं। उस सांसारिक अज्ञान का विनाश करनेवाले विष्णु
भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।
पश्यन्
शृण्वन्त्र विजानन् रसायन सन्
जिघ्रन्
बिभ्रदादेहमिमं जीवत्येत्थम् ।
इत्यात्मानं
यं विदुरीशं विषयज्ञं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १५॥
भौतिक शरीरों में
जीवरूप से प्रवेश करके एवं उन शरीरों को धारण करके जो परमात्मा इस संसार में चक्षु
से देखता हुआ, कान से सुनता हुआ, जीभ से रस ग्रहण करता हुआ, नाक से सूँघता हुआ और बुद्धि से निश्चय करता हुआ,
संसार के विविध धर्मो का अनुभव करता है । इस प्रकार शब्दादि
विषयों का जाननेवाला जिस आत्मा को विद्वान् लोग ईश्वररूप से जानते हैं । उस संसार के
कारण अज्ञान का नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
जाग्रद्
दृष्ट्वा स्थूलपदार्थन मयां
दृष्ट्वा
स्वप्नेऽथाऽपि सुषुप्तौ सुखनिद्राम् ।
इत्यात्मानं
वीक्ष्य मुदास्ते च तुरीये
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १६॥
जो आत्मा,
जाग्रत् – अवस्था में स्थूल-पदार्थों को देखता है,
स्वम में, निद्रारूपमायानिर्मित कल्पित हाथी,
घोड़े आदि पदार्थों को देखता है,
सुषुप्ति अवस्था में सुखयुक्त अज्ञाननिद्रा का अनुभव करता
है,
तुरीय (समाधि) अवस्था में अपने विशुद्ध स्वरूप कां साक्षात्कार
करके आनन्दित एवं कृतकृत्य होता है, उस संसार के अज्ञान की निवृत्ति करने वाले आत्मस्वरूप
विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ।
पश्यन्
शुद्धोऽप्यक्षर एको गुणभेदान्
नानाकारन्
स्फटिकवद्भाति विचित्रः।
भिन्नश्चिन्नश्चायमजः
कर्मफलैर्यस्तं
संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ १७॥
जो आत्मा,
स्वतः सकल सांसारिक धर्मों से रहित,
अविनाशी, स्वयंप्रकाश एक अद्वितीय स्वरूप है,
तथापि वह सत्व, रज एवं तमोगुण के परिणाम-विशेषरूप उपाधियों के द्वारा देव,
मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक रूपों को धारण करता है,
और कर्मों के फलरूप सुख-दुःखों के साथ कल्पित-तादात्म्य
सम्बन्ध द्वारा स्फटिक की तरह *(* जैसे
एक ही स्वच्छ स्फटिक (बिल्लोर) रंगविरंगे अनेक पुष्पों के सन्निधान से
चित्रविचित्र एवं अनेक की तरह मालूम होती है, तद्वत् एक ही शुद्ध- आत्मा, अन्तःकरण
आदि उपाधियों के सम्बन्ध से विचित्र एवं अनेक की तरह भासित होता है।) चित्र-विचित्र यानी सुखीदुःखी,
राजारङ्क आदि अनेक रूपों से प्रतीत होता है,
उस संसार के अज्ञानरूपी अन्धकार की निवृत्ति करनेवाले
आत्मस्वरूप विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
ब्रह्मा
विष्णु रुद्रहुताशौ रविचंद्रविन्द्रो
वायुर्यन्
इतित्थं परिकल्प्य ।
एकं सन्तं यं
बहुधाहुर्मतिभेदात्
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १८॥
विद्वान् लोग,
जिस एक ही परमात्मा की ब्रह्मा,
विष्णु, शिव, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, पंवन, यज्ञ आदि अनेकरूपों से कल्पना करके बुद्धि की विचित्रता से
यानी उपासकों की रुचिभेद से एक ही तत्त्व का अनेक प्रकार से एवं अनेक नामों से
निरूपण करते हैं, उस संसार के जीवों के अज्ञान का नाश करनेवाले विष्णु भगवान्
की मैं स्तुति करता हूँ ।
सत्यं ज्ञानं
शुद्धमनन्तं व्यतिरिक्तं
शान्तं गूढ़ं
निष्कलमानन्दमनन्यम् ।
इत्याहदौ यं
वरुणोऽसौ भृगवेऽजं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ १९॥
जिस तत्त्व का
'सत्यस्वरूप यानी भूत भविष्य वर्तमान तीनों काल में एकरस,
ज्ञानस्वरूप, अनन्त यानी त्रिविध परिच्छेद शून्य,
पंचकोश से भिन्न, शान्त स्वरूप यानी जन्ममरणादि एवं रागद्वेषादि तमाम
विक्षेपों से रहित, गूढ़ यानी मनवाणी का अविषय, अवयवों से रहित, आनन्दस्वरूप, द्वैतरहित इत्यादि प्रकार से तैत्तिरीय उपनिषद् की आनन्द
नाम की प्रथमवल्ली में वरुण नामक ऋषि ने, भृगु नामक अपने पुत्र को उपदेश किया था । उस संसार के
अज्ञान को नाश करनेवाले अजन्मा विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
कोशानेतां
पञ्च रसादिन्तिहाय
ब्रह्मास्मिति
स्वात्मनि निश्चित्य दृष्टाः।
पितृ शिष्टो
वेद भुगुर्यं यजुरन्ते
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २०॥
अपने पिता
वरुण ऋषि के किये हुए तैत्तिरीय उपनिषद् के उपदेश को सुनकर भृगु ने विष्णु-तत्त्व को
यथार्थ रीति से समझा । और वह अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय, इन पांच कोशों को आत्मा से पृथक्-मिथ्या जानकर एवं उनसे
विष्णु स्वरूप आत्मा को पृथक् असंग जानकर, 'मैं ही ब्रह्म हूँ' इस प्रकार दृढ निश्चय करके प्रकाश ज्ञानस्वरूप स्वात्मा में
स्थिर हुआ । उस संसार के कारण अज्ञान का नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति
करता हूँ ।
येनाविष्टो
यस्य च शक्तय यद्धिनः
क्षेत्रज्ञोऽयं
कार्यिता जन्तुषु कर्तुः।
कर्ता भोक्तात्मात्र
हि यच्छक्त्यधिरूढ़ास्
तं संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥२१॥
जिस तत्त्व से
युक्त होकर, एवं जिस तत्त्व की शक्ति द्वारा, और जिस तत्त्व के अधीन हुआ यह क्षेत्रज्ञ ( शरीर को
जाननेवाला) जीव, सब शरीरों में विविध काय को करनेवाले अन्तःकरण को करानेवाला यानी प्रेरक-नियन्ता
होता है और जिस विष्णु-तत्त्व की मायारूपशक्ति से युक्त होकर यह जीव,
कर्ताभोक्तारूप से संसार में प्रसिद्ध होता है । उस संसार के
कारण अज्ञान को नष्ट करनेवाले विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
सृष्ट्वा
सर्वं स्वात्मतयवेत्थमातर्क्यं
व्याप्यथनतः
कृत्स्नमिदं सृष्टमशेषम् ।
सच्च
त्यच्चभूतपरमात्मा स य एकस्
तं संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ २२॥
जो परमात्मा
एक अद्वितीय यानी सर्वजीवाभिन्न है, जिसने अनिर्वचनीय घटपट आदि समस्त संसार को संकल्पमात्र से
उत्पन्न कर के पश्चात् उत्पन्न किये हुए इस निखिल संसार के भीतर,
स्व्स्वरूप से व्याप्त होकर जो वर्तमान है तथा जो पृथ्वी,
जल एवं तेजरूप से प्रत्यक्ष और वायु एवं आकाशरूप से परोक्ष
हुआ है । उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता
हूँ ।
वेदान्तैश्चाध्यात्मिकशास्त्रैश्च
पुराणैः
शास्त्रैश्चन्याः
सात्त्वतारनैश्च यमीशम् ।
दृष्ट्वाथन्तश्चेत्सि
बुद्ध्वा विश्वसूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २३॥
कोई-कोई
महानुभाव उपनिषदों का, सांख्यादि आध्यात्मिक शास्त्रों का,
भागवत आदि पुराणों का, नारद पांचरात्र आदि वैष्णव- तन्त्रों का,
एवं अन्यान्य धर्मशास्त्रों का गुरुओं के द्वारा श्रवण मनन
करके जिस परमात्मा को जान सके हैं, और पश्चात् चित्त में 'वह परमात्मा मैं हूँ' ऐसा साक्षात् स्वस्वरूप का अनुभव करके वे महानुभाव उस
परमात्मा में अभेदरूप से जल में जल की तरह समा गये हैं। उस संसार के कारण अज्ञान को
नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ।
श्रद्धाभक्तिध्यानशमाद्यैर्यत्मानै
र्ज्ञातुं
शक्यो देव इहैवासु य ईशः।
दुर्विज्ञेयो
जन्मशतैश्चऽपि विना तैस्
तं संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥२४॥
श्रद्धा,
भक्ति, ध्यान और शम आदि साधनों के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्ति के
लिये यत्न करनेवाले मुमुक्षुओं से जो स्वप्रकाश परमेश्वर शीघ्र ही प्रत्यक्ष जानने
के लिये शक्य है। श्रद्धा आदि साधनों के बिना जिसका साक्षात्कार सैकड़ों जन्मों में
भी नहीं हो सकता है; उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं
स्तुति करता हूँ ।
यस्यातर्क्यं
स्वात्मविभूतः परमार्थं
सर्वं
खल्वित्यत्र निरुक्तं श्रुतिविद्भिः।
तजदितवादब्धितरङ्गाभमभिन्नं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २५॥
जो स्वयं
वास्तव में एक-अद्वय होता हुआ भी माया से अनेक-रूप होकर भासता है,
जिसका परमार्थस्वरूप तर्कों से अगम्य है,
'यह जगत् निश्चय करके
ब्रह्मरूप ही है' इस अर्थ को बतलाने वाली 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' इस श्रुति में परमेश्वर के व्यापकस्वरूप का श्रुतियों के
रहस्य को जाननेवाले आचार्यों ने निरूपण किया है। उस ब्रह्म से उत्पन्न होने के
कारण,
उसी में ही स्थित होने के कारण एवं अन्त में उसी में लीन
होने के कारण, यह समस्त जगत् 'समुद्र के तरङ्गों के समान' उस ब्रह्म से अभिन्न ही है, उस संसार के अज्ञान को नाश करने- बाले बिष्णु भगवान्की मैं
स्तुति करता हूँ ।
दृष्ट्वा
गीतास्वक्षरत्त्वं विधिनाजं
भक्त्या
गुरव्याऽऽलाभ्य हृदयस्थं दृष्टिमात्रम् ।
ध्यात्वा
तस्मिन्नस्म्यहमितत्र विदुर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २६॥
'अक्षरं ब्रह्म परमं' ( गी० ८ ३ ) इत्यादि श्रीमद्भगवद्गीता के बाक्यों से
अजन्मा व्यापक ब्रह्म के स्वरूप को विधिपूर्वक आचार्य गुरुओं के द्वारा जानकर,
सबके हृदय में साक्षीरूप से स्थित,
स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व का महती यानी अनन्य भक्ति
के द्वारा साक्षात् करके मुमुक्षु- महोदय, अक्षर ब्रह्म के साथ जगत् एवं जीव का अभेदरूप से चिन्तन
करके 'वह प्रत्यक् आत्मा से अभिन्न ब्रह्म मैं ही हूँ इस ज्ञान से
जिस तत्त्व को जानते हैं; उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगबान्की मैं
स्तुति करता हूँ ।
क्षेत्रज्ञत्वं
प्राप्य विभुः पंचमुखैर्यो
भुङ्कतेऽजस्त्रं
भाग्यपादार्थं प्रकृतिस्थः।
क्षेत्रे
क्षेत्रेऽपस्विन्दुवदेको बहुधास्ते
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २७॥
जो व्यापक परमात्मा,
माया में प्रतिबिम्बरूप से जीव-भाव को प्राप्त होकर
चक्षुरादि पांच ज्ञानेन्द्रियों से शब्दादि के विषयों का सदा अनुभव करता है । जैसे
अनेक बरतनों में भरे हुए जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र,
बिम्बरूप से एक होता हुआ भी अनेकरूप से प्रतीत होता है;
तद्वत् प्रत्येक शरीर में वर्तमान अन्तःकरण आदि उपाधियों के
सम्बन्ध से परमार्थ में एक होता हुआ भी आत्मा अनेक की तरह भासता है, उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु
भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
युक्त्यालोड्य
व्यासवचनस्यत्र हि लभ्यः
क्षेत्रक्षेत्रज्ञन्तरविद्भिः
पुरूषाख्यः।
योऽहं सोऽसौ
सोऽस्म्यहमेवेति विदुर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २८॥
श्रीवेदव्यासजी
के बनाये हुए वेदान्त (उत्तर मीमांसा) सूत्रों का अच्छी तरह से विचार करके, अबाधित-तर्कों के द्वारा क्षेत्र यानी शरीर,
क्षेत्रज्ञ यानी आत्मा इन दोनों को पृथक्-पृथक् जानकर जिज्ञासुजन,
इस शरीर में ही पूर्णस्वरूप पुरुष नामक परमात्मा को
साक्षीरूप से अनुभव करते हैं । 'जो मैं हूँ वह परमेश्वर है,
और जो परमेश्वर है वह मैं हूँ' इस तरह से जिस
अद्वैत तत्त्व का प्रत्यक्ष-साक्षात्कार करते हैं। उस संसार के कारणभूत अज्ञान की
निवृत्तिरूप विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
शोध्यानेकशरीरस्थमिमं
ज्ञं
यं विज्ञायहैव
स एवंसु भवन्ति ।
यस्मिँक्लिना
नेह पुनर्जन्म लभन्ते
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ २९॥
अनेक शरीरों में
स्थित, इस चेतन आत्मा को व्यापक परमात्मा से
अभिन्न जानकर, तथा उस ब्रह्मात्मतत्त्व का अपरोक्ष
साक्षात्कार करके विद्वान् लोग इस शरीर में ही परमात्मा स्वरूप होजाते हैं,
इस- प्रकार शरीरादि उपाधि को छोड़कर जिस परमात्मा के साथ एकता को
प्राप्त हुए जीव, फिर इस दुःखमय संसार में जन्म नहीं ग्रहण करते
हैं, उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की
मैं स्तुति करता हूँ ।
द्वन्द्वैकत्वं
यच्च मधुब्राह्मणवाक्यैः
कृत्वा
शक्रोपासनमासाद्य विभूत्या ।
योऽसौ सोऽहं
सोऽस्म्यहमेवेति विदूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३०॥
बृहदारण्यक
उपनिषद् के चतुर्थाध्यायस्य मधु – ब्राह्मण वाक्यों से जो द्वन्द्वों की यानी
पृथिवी और शरीर, अग्नि और
वाणी आदि कों की एकता कही है, उस एकता को ग्रहण करके
सर्वात्म-ईश्वर भाव की प्राप्तिरूप विभूति से इन्द्र के द्वारा की गयी अपनी उपासना
को पाकर, जिज्ञासु लोग 'जो परमेश्वर है
वह मैं हूँ; और जो मैं हूँ वह परमेश्वर है' इस विधि से जिस परमेश्वर को जानते हैं। उस सांसारिक जीवों के अज्ञान को
नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
योऽयं देहे
चेष्टयिताऽन्तःकरणस्थः
सूर्ये चासौ
तापयिता सोऽस्म्यहमेव ।
इत्यात्मिक्योपासन्या
यं विदुरीशं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३१॥
जो यह
अन्तःकरणरूपी उपाधि से उपहित चेतन आत्मा शरीर में रहकर चेष्टा करता है, और जो सूर्य-मण्डल में रहकर संसार को ताप
यानी गर्मी देता है, वह मैं ही हूँ; इस
प्रकार आत्मा की एकता के दृढ़ अनुसंधान से महात्मा लोग जिस अद्वितीय ईश्वर तत्त्व को
जानते हैं, उस संसार के कारण अज्ञान का नाश करनेवाले विष्णु
भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।
विज्ञानांशो
यस्य सः शक्त्यधिरूधो
बुद्धिर्बुध्यत्र
बहिर्बोध्यपादार्थन् ।
नैवंतःस्थं
बुध्यति तं बोधयितरं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३२॥
जिस परमार्थस्वरूप
परमेश्वर के स्वरूपभूत अंश के समान, अविद्यारूपी शक्ति में प्रतिबिम्बित जीव, बाहर एवं भीतर के पदार्थों ( बुद्धि और बुद्धि के सुख-दुःखादि धर्म एवं
घटपट आदि ) को इस संसार मे जानता है; परन्तु सबको जाननेवाला,
अपने भीतर साक्षी- रूप से स्थित, सर्वज्ञ,
चेतन, ईश्वर को बुद्धि कदापि नहीं जान सकती
है। उस संसार के कारणभूत अज्ञान के नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता
हूँ ।
कोऽयं देहे
देव इतित्थं सुविचार्य
ज्ञाता
श्रोताऽनन्नद्यिता चाः हि देवः।
इत्यालोच्य
ज्ञानांश इहास्मिति विदूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३३॥
इस शरीर में
आत्मदेव कौन है ! यानी क्या शरीर आत्मा है? या इन्द्रियाँ आत्मा हैं ? या प्राण
आत्मा है ? इत्यादि आत्म-निर्णय के सम्बन्ध में अच्छी तरह
विचार करके अर्थात् देहादि कार्यकरण सङ्घात, जड़, दृश्य, परिच्छिन्न एवं आद्यन्तशून्य होने के कारण
घटादि की तरह आत्मा नहीं हो सकता, किन्तु इस समुदाय से भिन्न
ही कोई ज्ञाता आत्मा है, ऐसा अनुमान के द्वारा निश्चय करके
जो सबको जाननेवाला, सुननेवाला एवं आनन्द का अनुभव करनेवाला
स्वप्रकाश चेतन है, वही स्व्स्वरूप आत्मा है; ऐसा अनुसन्धान करके इस कार्य - करण सङ्घात के बीच में जो व्यापक विष्णु का
चेतन अंश है, वही मैं हूँ, इस प्रकार
विवेकादि साधनसम्पन्न महानुभाव निश्चय करते हैं । उस संसार के अज्ञान को नाश
करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
को
ह्येवन्यादात्मानि न स्याद्येमेष
ह्येवानन्दः
प्राणिति चापानिति चेति ।
इत्यस्तित्वं
वक्त्युप्पत्त्या श्रुतिरेषा
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३४॥
यदि इस शरीर में
यह प्रत्यक्ष - सिद्ध चेतन आत्मा न होता तो कोई भी प्राणी जिन्दा नहीं रह सकता था, क्योंकि जड़समुदाय चेतन-सत्ता के बिना कुछ
काम ही नहीं कर सकता है; इसलिये यह मानना होगा कि -आनन्दरूप
परमात्मा ही अविद्या से जीव-भाव को प्राप्त होकर श्वास-प्रश्वास लेता है, एवं अपान-क्रिया को भी करते है, इस प्रकार 'को ह्येवान्यात् कः प्राण्याद्यद्येष आकाश आनन्दो न स्यात्, एष ह्येवानन्दयति' यह तैत्तिरीय श्रुति
युक्ति-पूर्वक जिस आत्म-सत्ता को प्रतिपादन करती है, उस
संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
प्राणो वाऽहं
वक्ष्रवनादिनी मनो वा
बुद्धिर्वाहं
सम्मिलित उत्होऽपि समग्रः।
इत्यालोच्य
ज्ञानपिरिहासमिति विदूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३५॥
मैं प्राण हूँ
या मुख-कान-नाक आदि इन्द्रियरूप हूँ, या मनरूप हूँ, या बुद्धिरूप हूँ,
या इन प्राणादियों के समुदायरूप हूँ, या इनमें
से प्रत्येक स्वरूप हूँ, इत्यादि विचार करके इन सबका निषेध
करनेके बाद ‘ज्ञानस्वरूप व्यापक विष्णु ही मैं हूँ' इस प्रकार इस जन्म में ही भक्तलोग जिस विष्णुतत्त्व को प्रत्यक्ष जानते
हैं, उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले बिष्णुभगवान् की मैं
स्तुति करता हूँ ।
नाहं प्राणो
नैव शरीरं न मनोऽहं
नाहं
बुद्धिर्नाहमहङकारधीयौ च ।
योऽत्र ज्ञानः
सोऽस्म्यहमेवेति विदूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३६॥
मैं चेतन
दृष्टा, अपरिच्छिन्न, जड़
दृश्य एवं परिच्छिन्न होने के कारण प्राण नहीं हूँ, शरीर
नहीं हूँ, मन नहीं हूँ, न मैं बुद्धि
हूँ, और न मैं अहंकार तथा चित्त ही हूँ; किन्तु इस जड कार्यकरण समुदाय मैं जो विष्णुतत्त्व का ज्ञानस्वरूप सनातन
अंश है, वही मैं हूँ। इस प्रकार से जिज्ञासुलोग जिस तत्त्व को
जानते हैं, उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले
श्रीविष्णुभगवान् की मैं स्तुति करता हूँ ।
सत्यमात्रं केवलविज्ञानमजं
सत्
सूक्ष्मरं
नित्यं तत्त्वमसीत्यात्मसुताय ।
समानमन्ते
प्राह पिता यं विभुमाद्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३७॥
केवल
सत्तास्वरूप, विशुद्ध
विज्ञानस्वरूप, जन्मरहित, सत्य- सनातन,
सूक्ष्म यानी इन्द्रियों से अग्राह्य, नाशरहित,
सर्वव्यापक, सब का आदि कारण जो विष्णुतत्त्व
है, उसका सामवेद के अन्तिम भाग में स्थित छान्दोग्योपनिषत् में
उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को 'हे ! श्वेतकेतु वह
विष्णु तू है' इस प्रकार नब बार पुनःपुनः उपदेश किया है,
उस सांसारिक जीवों के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं
स्तुति करता हूँ।
मूर्तिमूर्ते
पूर्वमापोह्यथ समाधौ *
दृश्यं सर्वं
नेति च नेतिति विहाय ।
चैतन्यान्शे
स्वात्मनि सन्तं च विदूर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ३८॥
चेतन के
अंशरूप जीव से अभिन्न अधिष्ठानतत्त्व विष्णु में मूर्त एवं अमूर्त भूतों का यानी
पृथ्वी, जल एवं तेज अपरोक्ष और वायु एवं आकाश
परोक्ष भूतों का 'नेति नेति' यानी यह
नहीं है, यह नहीं है अर्थात् विशुद्ध विष्णुतत्त्व में
स्थूल-प्रपञ्च एवं सूक्ष्म-प्रपश्च नहीं हैं। इस प्रकार द्वैतप्रपञ्चरूप जगत्का
निषेध करके अवधिरूप से परिशिष्ट जिस तत्व को विद्वान् लोग जानते हैं, उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णुभगवान् की मैं स्तुति करता हूँ
। * 'समाधीयते चित्तमस्मिनिति समाधिर्विष्णुः' अर्थात्
जिसमें चित्त एकाग्र किया जाता है, उसका नाम समाधि है। इस
व्युत्पत्ति से समाधि शब्द का अर्थ विष्णु है ।
ओतं प्रोतं
यत्र च सर्वं गगनन्तं
योऽस्तुलाऽनानवादिशु
सिद्धोऽक्षरसंज्ञः।
ज्ञाताऽतोऽन्यो
नेत्युपलाभ्यो न च वेद्यस्
तं संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ ३९॥
जिस व्यापक
विष्णु परमात्मा में परमाणु से लेकर आकाश पर्यन्त सब जगत् ओतप्रोत है, यानी सूत में वस्त्र की तरह कल्पित है। और
जो परमात्मा ‘अस्थूलमनण्वद्द्स्वमदीर्घ' (यानी वह ब्रह्म स्थूल- मोटा नहीं है, अणु-पतला नहीं
है, हृस्व-छोटा नहीं है, दीर्घ- लम्बा
नहीं है ) इत्यादि श्रुतिवाक्यों में व्यापक होने से या अविनाशी होने से अक्षर*(* 'अश्नुते
व्याप्नोतीति, न क्षरतीत्यक्षरः' इस
व्युत्पत्ति से अक्षर शब्दका व्यापक एवं अविनाशी अर्थ है।) नाम से प्रसिद्ध है । इसलिये समस्त पदार्थों का ज्ञाता अक्षर-ब्रह्म से
भिन्न और कुछ भी उपलब्ध नहीं है और यह अक्षर ब्रह्म इन्द्रियों का विषय भी नहीं है,
उस संसार के अज्ञान को नाश करने- बाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति
करता हूँ ।
तावत्सर्वं
सत्यमिवाभाति यदेतद्
यावत्सोऽस्मित्यात्मनि
यो ज्यो न हि दृष्टांत:।
दृष्टे
यस्मिन्सर्वमसत्यं भवतिदं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ४०॥
इस कार्यकरण
सङ्घात में जो अधिष्ठान चेतन है, वह मैं हूँ, इस प्रकार का आत्मज्ञान जंब तक नहीं
होता, तब तक यह समस्त नामरूपात्मक-जगत् सत्य-सा प्रतीत होता
है। और जब जीवाभिन्न ब्रह्मात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, तब यह समस्त संसार मिथ्या प्रतीत होता है यानी प्रथम भी जगत् मिथ्या ही था,
तथापि आत्मा के अज्ञान से मिथ्या नहीं भासता था, आत्म-ज्ञान होने के बाद निःसंदेह यह जगत् स्वनवत् मिथ्या जान पड़ता है। उस
कल्पित संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
रागमुक्तं
लोह्युतं हेम यथाग्नौ
योगाष्टाङ्गेरुज्ज्वलितज्ञानमायाग्नौ
।
दग्ध्वात्मानं
ज्ञान परिशिष्टं च विदुर्यं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ४१॥
जैसे लोहा आदि
अन्यधातु-मिश्रित सुवर्ण को आग में तपाकर शुद्ध किया जाता है, तद्वत् राग-द्वेषादि दोषों से युक्त आत्मा को
योग के यम-नियमादि आठ अङ्गों से प्रदीप्त की हुई आत्मज्ञानरूपी अग्नि में तापकर
यानी विचार द्वारा शुद्धकर शरीर इन्द्रिय आदि से पृथक् अवशिष्ट ( सर्वनिषेधावधिरूप
से बचे हुए) शुद्ध सच्चिदानन्दरूप विष्णु तत्त्व को विरक्त विद्वान् लोग जानते हैं,
उस संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णुभगवान्की मैं स्तुति करता
हूँ ।
यं विज्ञानज्योतिषमाद्यं
सुविभन्तं
हृद्यर्केन्द्वग्न्योकस्मिद्यं
तदिदाभम् ।
भक्त्याऽऽराध्येहैव
विशांत्यात्मनि सन्तं
तं
संसारध्वन्तविनाशं हरिमीडे ॥ ४२॥
जो
विष्णुतत्त्व सबके हृदय में साक्षीरूप से वर्तमान है, बिजली के समान तेजस्वी है, स्वयंज्योति-विज्ञानस्वरूप है, सबका आदि कारण है,
सुन्दर- प्रकाशरूप है, सूर्य चन्द्र और
अग्निरूपी स्थान में उपासना के द्वारा साक्षात् करने योग्य हैं एवं स्तुति करने
योग्य हैं, ऐमे अपने आत्मस्वरूप विष्णुतत्त्व में भक्तिरूपी
आराधना के द्वारा भक्त- गण प्रवेशकर तद्रूप हो जाते हैं। उस संसार के कारण अज्ञान को
नाश करनेवाले विष्णुभगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
पयद्भक्तं
स्वात्मनि सन्तं पुरुषं यो
भक्त्या
स्तुत्यङगिरसं विष्णुरीमं मम ।
इत्यात्मानं
स्वात्मनि संहृत्य सदाकस्
तं संसारध्वन्तविनाशं
हरिमीडे ॥ ४३॥
जो विष्णुभक्त
अपने स्वस्वरूप में स्थित हैं 'मैं विष्णु ही हूँ' इस अभेद ज्ञान से युक्त हैं,
स्वस्वरूपभूत विष्णुतत्त्व में अपने मन को रोककर समस्त अङ्गों के
सारभूत विष्णुतत्त्व को भक्तिपूर्वक स्तुति करते हैं, ऐसे
भक्तजन की विष्णु भगवान् सदा रक्षा करते हैं, उस सदा एक-अद्वय
संसार के अज्ञान को नाश करनेवाले विष्णु भगवान्की मैं स्तुति करता हूँ ।
हरिमीडेस्तोत्र महात्म्यम्
इत्थं
स्तोत्रं भक्तजनेद्यं भवभिति
ध्वन्तर्कभं
भगवत्पादीयमिदं यः।
विष्णोर्लोकं
पथति शृणोति व्रजति ज्यों
ज्ञानं ज्ञेयं
स्वात्मनि चाप्नोति मनुष्यः ॥ ४४॥
जो मनुष्य, उपरोक्त प्रकार से भक्तजनों से स्तुति करने
योग्य, संसार के भयरूपी अन्धकार को दूर करने में सूर्य के
समान, भगवत्पाद - आचार्य श्रीशङ्कर स्वामी प्रणीत इस 'हरिमीडे' स्तोत्र का पाठ करता है, या दूसरे के मुख से सुनता है, वह विष्णु भगवान् के
परमधाम को प्राप्त होता है; और पश्चात् मुक्त हो जाता है तथा
जो मनुष्य, इस स्तोत्र के अर्थ का अनुसन्धान करता है,
वह अपने ही आत्मा में विष्णुतत्त्व का साक्षात्कार कर, उस तत्त्व को अभेदरूप से प्राप्त करता है, यानी वह
स्वयं परिपूर्ण आनन्दस्वरूप विष्णु ही हो जाता है।
इति श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतः हरिमीडेस्तोत्रं समाप्तम् ॥
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