अर्थ पंचक
प्राप्य, प्राप्त, प्राप्ति के
उपाय, फल, प्राप्त के विरोधी, इन प्राप्य आदि परम कल्याणकारक पाँचों तत्त्वों का श्रीहनुमानजी द्वारा अगस्त्य ऋषि के प्रति ज्ञान का उपदेश देना अर्थ पंचक कहा गया है।
अर्थपञ्चकम्
Artha panchak
अर्थपंचकम्
श्रीअगस्त्य
उवाच -
कथं श्रीरामे
संप्रीतिर्जायते पवनात्मज ।
गृहदार्कुटुम्बेषु!
वैराग्यञ्च कथं भवेत् ॥१ ॥
श्रीअगस्त्यजी
बोले,
हे पवनात्मज! भगवान श्रीराम में सम्यक् प्रीति किस प्रकार
उत्पन्न हो और घर, पत्नी और परिवार से वैराग्य कैसे हो?
यह आपके लिए धन्यवाद है।
श्रीहनुमान
उवाच -
कुम्भोद्भवपरश्रेयः
शृणुष्व ते वदाम्यहम् ।
विश्वासं
विश्वासं विश्वासञ्च सर्वदा ॥ २॥
श्रीहनुमानजी
बोले कुम्भोद्भव अगस्त्य ! सुनिये मैं आपको परम कल्याणकारक तत्त्व का उपदेश देता
हूँ। यह तत्व सर्वकाल में विश्वास है, विश्वास है, विश्वास है।
ज्ञेय
-
ज्ञेयं
प्राप्यस्य रामस्य रूपं प्राप्तुस्तथैव च ।
प्राप्त्युपायं
फलञ्चैव तथा प्राप्तिविरोधि च ।
अर्थपञ्चकमेतत्तु
सङ्क्षेपेण वदामि ते ॥ ३॥
प्राप्य
(प्राप्त करने योग्य)श्रीरामचंद्रजी के स्वरूप को, प्राप्तला (प्राप्ति करने वाला)जीवात्मा के स्वरूप को और
श्रीरामचंद्रजी के प्राप्त उपाय, फल एवंप्राप्ति के विरोधी इन पांच तत्त्वों को को जानना
चाहिए। मैं अंतिम संस्कार पंचम अर्थों को सङ्क्षेपण में कहता हूँ।
अर्थ पञ्चकम्
प्राप्य
-
दिव्यनन्तगुणः
श्रीमान् दिव्यमङ्गलविग्रहः।
षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नो
मनोवाचामगोचरः ॥ ४॥
चतुर्थ वरुण
वरुणालय श्रीरामचंद्रजी अप्राकृत अनंत (अपरिमित)गुण वाले हैं। श्रीजी के साथ नित्य
संबंध बनाए रखने वाले हैं। दिव्यमंगल विग्रह को धारण करने वाले हैं। षड्गुण और
ऐश्वर्य से अभिलेख हैं। मन, वाणी के अनुशासन हैं।
वेदवेद्यः
सर्वसाक्षी सर्वोपास्यः स्वतन्त्रकः।
नित्यानां
निजभक्तानां भोग्यभूतः श्रियः पतिः ॥ ५॥
भगवान
श्रीरामचंद्रजी वेदों के द्वारा ज्ञेय हैं, सभी के साक्षी हैं। सभी के उपास्य तथा स्वतन्त्र हैं। वे
परम्बा श्रीसीताजी के पति हैं। नित्य तथा सभी निज भक्तों के भोग्य हैं।
ब्रह्मविष्णुमहेषानां
कारणं सर्वव्यापकः।
मूलं
तुह्मवताराणां धर्मसंस्थापकः परः ॥ ६॥
परमब्रह्म
श्रीराम ब्रह्मा, विष्णु और महेश के कारण और सर्वव्यापक हैं,
सभी अवतार के मूल धर्मनिर्माता तथा पर हैं।
द्विभुजश्चापभृच्छैव
भक्ताभीष्टप्रपूरकः।
वैदेहीवल्लभोर्नित्यं
कशोरे वयसि स्थितः।
एवं भूतश्च
ज्ञातव्यो रामो राजीवलोचनः ॥ ७॥
दो भुजाओं
वाले धनुर्धर श्रीराम भक्तों के अभीष्ट की उत्पादन करने वाले हैं। वे विदेहतनया के
प्रिय और सदा आनंद में रहने वाले हैं। इस प्रकार रक्त कमल के समान उत्सवों वाले
श्रीराम को पता लगाएं।
प्राप्त
-
स्थूलसूक्ष्मकारन्तो
भिन्नं कोषाच्च पञ्चकात् ।
जाग्रत्स्वप्नद्यवस्थानं
साक्षीभूतं तु सर्वदा ॥ ८॥
जीव का स्वरूप
स्थूल,
सूक्ष्म और कारण शरीरत्रय तथा पंचकोशों से भिन्न है। यह
जाग्रत तथा स्वप्नादि राज्यों का साक्षात्कर्ता तथा सर्वदा सूर्योदय रहने वाला है।
चिदानंदमयं
नित्यं दिव्यविग्रहसंयुतम् ।
अखण्डनैकरसञ्चैव
कशोरे वैश्यस्थितम् ॥ ९॥
द्विभुजं
सत्त्वसम्पन्नमीशसेवाप्रयोजनम् ।
प्रभोर्नियम्यं
शेषत्वं ज्ञातव्यं स्वस्वरूपकम् ॥ १०॥
जीवात्मास्वरूप
चिदानन्दमय, नित्य, प्रभु का नियम तथा शेष है। यह शुद्ध सत्त्वमय, रसायन में स्थित, अखंडिकारस दो भुजाओं वाले दिव्य शरीर से युक्त है। ईश्वर की
सेवा का प्रारूप इस प्रकार है, इस प्रकार अपने स्वरूप का पता लगाना चाहिए।
प्राप्ति
के उपाय -
सर्वभूतोदयैव
सर्वत्र समदर्शनम् ।
अन्यत्रानिन्दनं
चैव विशेषे स्नेहाधिकं तथा ॥११॥
गुरवीश्वरबुद्धिश्च
तदाज्ञापरिपालनम् ।
स्वेषस्य
तज्जनानञ्च सेवनं मया विना ॥ १२॥
प्रभो
कृपावलंबित्वं भोक्तव्यं तत्समर्पितम् ।
सच्चस्त्रेषु
च विश्वासः प्राप्त्युपायमिहोच्यते ॥ १३ ॥
सभी
चिकित्सकों के सम्यक् प्रकारों से पालन करना, सभी में समदर्शन करना, अपने अनुयायियों की निंदा करना,
अपने इष्ट में अधिक स्नेह करना,
गुरु में ईश्वरबुद्धि रखना, अपने चिकित्सकों के सम्यक् प्रकारों से पालन करना,
अपने अनुयायियों और उनके भक्तों की कपाट के बिना सेवा करना,
प्रभु की कृपा का आश्रय लेना, भगवत्समर्पित मदिरा का सेवन करना,
ये इस ग्रंथ में प्राप्ति के उपाय कहे जाते हैं।
फल
-
प्रारब्धं
परिभुज्याथ भीत्वा सूर्यादि मंडलम् ।
प्रकृतेर्मण्डलं
त्यक्त्वा स्नात्वा तु विरजम्भसा ॥ १४॥
शवासनं
देहद्वयं विसर्ज्य विरजो भवत् ।
अतिवेगेन तं
तीर्त्य प्राप्य साकेतकं तथा ॥ १५॥
प्रविष्य
राजमार्गेण सप्तवरणसंयुतम् ।
नानारत्नमयं
दिव्यं श्रीरामभवनं शुभम् ॥ १६॥
तत्र श्री
भरतद्यैश्च सेव्यमानं सदा प्रभुम् ।
नक्षत्रं
वैदेह्या रत्नसिंहासने शुभे ॥१७॥
स्वभावनया
श्रीरामं प्राप्य सर्वसुखप्रदम् ।
परमानंदमयो
भूतत्वस्तानां फलमुच्यते ॥ १८॥
जीवात्मा
स्वकृतभक्ति (रामाकार वृत्ति)से अपने आराधक प्रभु का साक्षात्कार लेकर,
प्रारब्ध कर्म को भोगकर, देहत्यागकर, सूर्यादिमंडलों का भेद करके, प्रकृति की सीमा का त्याग करके,
विरजा नदी के जल से स्नान करके,
वहाँ दर्शन के सहित कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर को शुद्ध
करके,
निर्मल बनाकर, अतिवेग से विरजा को पारकर, अप्राकृत दिव्य साकेत धाम को प्राप्त करके,
राजमार्ग के सप्त गुणों से युक्त,
नानारत्नों से निर्मित, अलौकिक और शुभ जगन्नियन्ता प्रभु के भवन में प्रवेश करके,
वहां श्रीभारती के सदा सेवित ,
शुभरत्नसिंहासन में वैदेही के साथ,
सभी को सुख प्रदान करने वाले करुणा मूर्ति श्रीरामचंद्र को
प्राप्त करके, अत्यंत आनंदमय मनोरंजन फल कहा जाता है।
प्राप्त
के विरोधी -
अनात्मन्यात्मबुद्धिस्तुस्वात्मशेसिट्वभावन
।
भगवद्दस्यवैमुख्यं
तदाज्योल्लङ्घनं तथा ॥ १९॥
ब्रह्मेशेन्द्रादिदेवानामर्चनं
वन्दनादिकम ।
असच्चस्त्राभिलाषश्चसच्चस्त्रस्यावमानम्
॥ २०॥
मर्त्यसामान्यभावेन
गुरूवादौ नातिगौरवम् ।
स्वातंत्र्यं
चाप्यहङकारो ममकारस्तथैव च ॥२१॥
द्वादशीविमुखत्वं
च ह्यकृत्यकरणं तथा ।
ज्ञेयं
विरोधरूपं तु स्वस्वरूपस्य सर्वदा ॥ २२॥
अनंत में
आत्मबुद्धि करना, श्रीभगवान के प्रति दासभाव से विमुख होना,
श्रीभगवान की आज्ञा का उल्लघन करना,
ब्रह्मा-शिव इंद्रादि देवताओं की प्राप्ति और वंदनादि करना,
असत् की अभिलाषा करना, सत् की अभिलाषा करना , सामान्य मानवीय व्यवहार द्वारा श्रीगुरु में आदि गौरव न
करना,
स्वतन्त्रता, अहंता-ममता, ब्रह्माण्ड-उपवास से विमुख होना तथा शास्त्र कर्मों को करना
ये सभी सर्वकाल में अपने अन्तर्यामी ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति के विरोधी हैं। इन
लोगों को पता होना चाहिए।
एवं
तत्त्वपरिज्ञानादाचार्यअनुग्रहेण हि ।
तत्क्षणाज्जनकीनाथे
प्रियर्नित्यभिजायते ॥ २३॥
इस प्रकार
महान आचार्य के अनुग्रह से उक्त प्राप्य आदि पाँचों तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त
करने से एक क्षण में ही श्रीजानकीनाथ में नित्य प्रीति हो जाती है।
इति श्री हनुमत्संहितायं हनुमदगस्त्यसंवादे षष्ठोध्यायन्तर्गते अर्थपंचके श्रीमज्जनकन्नंदिनी रघुनन्दनदर्पणमस्तु ॥ 6॥
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