शाण्डिल्य भक्ति सूत्र
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्र के रचयिता शाण्डिल्य ऋषि हैं। इस भक्ति सूत्र में कुल १०० (सौ) सूत्र
है,
जिसे तीन अध्यायों में बांटा गया है। प्रत्येक अध्याय का दो
आह्निक (भाग) है। यहाँ क्रम से तीनों अध्याय दिया जा रहा है-
शाण्डिल्य भक्ति सूत्र
Shandilya bhakti sutra
श्रीशाण्डिल्य भक्ति सूत्रम्
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्रम्
शांडिल्यभक्तिसूत्र प्रथम अध्याय
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्रम् प्रथम आह्निक
अथातो
भक्तिजिज्ञासा ॥ १ ॥
अब भक्ति-तत्त्व
का विचार किया जाता है।
सा
परानुरक्तिरीश्वरे ॥ २ ॥
वह (भक्ति )
ईश्वर के प्रति परम अनुरागरूपा हैं । ( इसे ही पराभक्ति कहा गया है ।)
तत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात्
॥ ३ ॥
क्योंकि ईश्वर
में जिसकी संस्थिति (सम्यक् निष्ठा - भक्ति) है, वह अमृतत्व को प्राप्त होता है,
ऐसा श्रुति का उपदेश है। * (अत: भक्ति की जिज्ञासा आवश्यक
है।)
* ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति । ( छा० उ० २। ३ । २) ।
२०
ज्ञानमिति
चेन्न द्विषतोऽपि ज्ञानस्य तदसंस्थितेः ॥ ४ ॥
संस्था का
अर्थ ज्ञान है, अतः वह भक्ति ज्ञानरूप है, ऐसा कहें तो ? यह ठीक नहीं है; क्योंकि ज्ञान तो द्वेष रखनेवाले शत्रु को भी होता है,
किंतु वह ज्ञातव्य व्यक्ति के प्रति उसकी निष्ठा (भक्ति) -
का बोधक नहीं होता। (अतः भक्ति ज्ञानरूप नहीं है ।)
तयोपक्षयाच्च
॥ ५ ॥
तथा भक्ति (के
उदय होने) से ज्ञान का क्षय होता है। ( इसलिये भी भक्ति और ज्ञान की एकता नहीं
है।) तब भक्ति अनुरागरूप ही है इसमें प्रमाण ?
द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च
रागः ॥ ६ ॥
द्वेष की
विरोधिनी तथा रस* शब्द से प्रतिपाद्य होनेके
कारण भी भक्ति रागस्वरूपा है।
* रसह्येवायं लकवाऽऽनन्दी भवति ( तै० उ० २।७) ।
रसवर्ज
रसोऽप्यस्य । ( गीता २ । ५९ ) ।
न क्रिया
कृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत् ॥ ७ ॥
भक्ति क्रियारूप
नहीं है,
क्योंकि ज्ञान की भाँति वह भी कर्ता के प्रयत्न की अपेक्षा
नहीं रखती।
अत एव
फलानन्त्यम् ॥ ८ ॥
इसीलिये भक्ति
का फल अनन्त है।
तद्वतः
प्रपत्तिशब्दाच्च न ज्ञानमितर- प्रपत्तिवत् ॥ ९ ॥
ज्ञानवान् का भी
शरणागत होना बतलाया गया है; * अतः शरणागति (भक्ति) ज्ञानरूप नहीं है;
जैसे सकाम अज्ञानी कामनावश अन्य देवता की शरण लेते हैं।* किन्तु उनकी
वह प्रपत्ति ( शरणागति ) ज्ञानरूप नहीं है, उसी प्रकार भगवच्छरणागति भी ज्ञान से भिन्न है।
* ज्ञानवान् मां प्रपद्यते । (गीता ७ । १९ ) ।
* कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः
। (गीता ७।२०)
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्रम् प्रथम आह्निक सम्पूर्ण॥
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्रम् द्वितीय आह्निक
सा
मुख्येतरापेक्षितत्वात् ॥ १० ॥
वह भक्ति
मुख्य है;
क्योंकि ज्ञानयोगादि इतर साधन उसकी अपेक्षा रखते हैं (अन्य
साधन अङ्ग हैं और भक्ति अङ्गी है)।
प्रकरणाच्च ॥
११ ॥
( छान्दोग्य के)
प्रकरण से* भी (भक्ति की ही मुख्यता सिद्ध
होती है ) ( क्योंकि वहाँ रतिरूपा भक्ति का ही फल स्वाराज्य सिद्धि) बतायी गयी है।
* प्रकरण इस प्रकार है, छान्दोग्योपनिषद्में
मन्त्र है-
आत्मैवेदं
सर्वमिति स वा एष एवं पश्यन्नेवं मन्वान एवं विजानन्नात्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन
आत्मानन्दः स स्वराड् भवति । ( ७। २५ । २)
अर्थात्
'यह
सब कुछ परमात्मा ही है; जो ऐसा देखता, ऐसा मानता और ऐसा समझता है, वह
परमात्मा में परम अनुराग परमात्मा में ही क्रीडा,
उन्हीं के संयोग का सुख तथा उन्हीं में आनन्द का
अनुभव करता हुआ स्वराट् (परमात्मस्वरूप ) हो जाता है।' इसमें
दर्शन, मनन
एवं ज्ञान आदि साधन आत्मरतिरूपा भक्ति के अङ्ग हैं,
यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है।
दर्शनफलमिति
चेन्न तेन व्यवधानात् ॥ १२ ॥
यदि कहें,
वहाँ दर्शन का ही फल (स्वाराज्य) बताया गया है,
अतः प्रकरण भी उसी का है, तो ठीक नहीं; क्योंकि 'स स्वराड् भवति' (वह परमात्मास्वरूप हो जाता है) इस वाक्य के 'सः' (वह) पद से समीपवर्ती 'आत्मरतिः' पद का ही ग्रहण होता है; दूरवर्ती एवं पश्यन्' का नहीं; क्योंकि वहाँ उससे ('आत्मरतिः' आदि पदसमूह से) व्यवधान पड़ता है। ( अतः वहाँ दर्शन का नहीं,
आत्मरतिरूपा भक्ति का ही फल स्वाराज्य सिद्धि है ।)
दृष्टत्वाच्च
॥ १३ ॥
लोक में ऐसा
ही देखा भी गया है।
(अर्थात् किसी के रूप का दर्शन, गुण का श्रवण या स्वरूप का परिचय पहले प्राप्त होता है और
उसके प्रति अनुराग पीछे होता है। अतः दर्शन या ज्ञान का फल प्रीति है,
प्रीति का फल ज्ञान नहीं; इसलिये ज्ञान अङ्ग है और भक्ति की ही मुख्यता है ।)
अत एव
तदभावाद्वलवीनाम् ॥ १४॥
क्योंकि ज्ञान
अप्रधान है और भक्ति ही प्रधान है; अतएव ज्ञान का अभाव होने पर भी केवल परमानुरागरूप भक्ति से
ही गोपाङ्गनाओं की मुक्ति हो गयी। (ऐसा पुराणों में वर्णन आता है।*)
* मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।
दिष्ट्या
यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥ ( श्रीमद्भा० १० । ८२ । ४५)
भक्त्या
जानातीति चेन्नाभिज्ञप्त्या साहाय्यात् ॥ १५ ॥
'भक्त्या मामभिजानाति' (गीता १८।५५) – भक्ति से मुझे भलीभाँति जानता है;
इस वचन के अनुसार भक्ति ही साधन और ज्ञान ही साध्य है,
ऐसा कहें तो ? यह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ 'अभिजानाति ' कहा गया है। अभिपूर्वक 'ज्ञा' धातु का अर्थ है अभिज्ञा; अभिज्ञा कहते हैं पहले की जानी हुई वस्तु के ज्ञान को पहले
ज्ञान हुआ फिर फलरूपा भक्ति हुई । वह भक्ति ही अभिज्ञप्तिरूप से पूर्वज्ञान का
स्मरण कराकर स्वयं ही जीव के भगवत्प्रवेश में सहायक होती है।
प्रागुक्तं च
॥ १६ ॥
पहले
ब्रह्मज्ञान होता है, फिर भक्ति, यह बात पहले के श्लोक में कही भी गयी है। *
*ब्रह्मभूतः
प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः
सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ (गीता १८ । ५४)
एतेन
विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः ॥ १७ ॥
ज्ञान अङ्ग है
और भक्ति अङ्गी, ऐसा निश्चय होने से इन दोनों के विकल्प पक्ष ( और समुच्चयवाद) का भी खण्डन हो
गया।*
*ज्ञान
अथवा भक्ति दोनों ही अङ्ग और दोनों ही अङ्गी हैं; किसी को भी प्रधान या गौण मानने में आपत्ति नहीं है; ऐसी मान्यता 'विकल्प'
है
जब एककी प्रधानता निश्चित हो गयी, तब दूसरा अप्रधान है ही। प्रधान और अप्रधान -
अङ्गी और अङ्ग में 'विकल्प'
नहीं
होता। ज्ञान और भक्ति दोनों एक साथ रहकर ही मुक्ति के साधन होते हैं, यह समुच्चयवाद है; उक्त निश्चय से इसका भी निराकरण हुआ।
देवभक्तिरितरस्मिन्
साहचर्यात् ॥ १८ ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद्में) गुरु-भक्ति के साथ पठित होने के कारण देवविषयक भक्ति
भी ईश्वर भिन्न देवता की भक्ति का बोधक है।*
यस्य
देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ । (श्वेता० ६ । २३)
योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्
प्रयाजवत् ॥ १९ ॥
योग तो ज्ञान
और भक्ति दोनों का साधन है; क्योंकि दोनों में उपकारक होने के कारण उसकी अपेक्षा रहती
है। यद्यपि योग मुख्यतः ज्ञान का अङ्ग है, तथापि जब ज्ञान भी भक्ति का अङ्ग है,
तब उसी के साथ योग भी उसका अङ्ग हो सकता है;
जैसे वाजपेय आदि का अङ्गभूत प्रयाज उसकी दीक्षा लेनेवाले
व्यक्ति की दीक्षा का भी अङ्ग माना जाता है।
गौण्या तु
समाधिसिद्धिः ॥ २० ॥
'ईश्वरप्रणिधानाद् वा' इस योगसूत्र में जो 'प्रणिधानाद्' आया है, वह गौणी भक्ति के अन्तर्गत है,
उस गौणी भक्ति से ही समाधि की सिद्धि होती है।
हेया रागत्वादिति
चेन्नोत्तमास्पदत्वात् सङ्गवत् ॥ २१ ॥
यदि भक्ति
रागरूपा है तो योगशास्त्रोक्त पाँच क्लेशों में परिगणित 'राग' में तथा इसमें कोई अन्तर नहीं है,
ऐसी दशा में मुमुक्षु के लिये यह रागस्वरूपा भक्ति भी
त्याज्य ही होगी, ऐसा कहें तो ठीक नहीं; क्योंकि इस राग का आश्रय उत्तम है- ईश्वरविषयक राग को भक्ति
कहते हैं;
अतः वह त्याज्य नहीं है। विषय-राग ही त्याज्य है। जैसे सङ्ग
को त्यागने योग्य बताया गया है; किंतु कुसङ्ग का ही त्याग उचित माना गया है,
सत्सङ्ग का नहीं; क्योंकि संत-महात्मा सङ्ग के उत्तम आश्रय हैं।
तदेव
कर्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्य-शब्दात् ॥ २२ ॥
अतः भक्ति ही
सर्वश्रेष्ठ है, यह बात निश्चित हुई; क्योंकि भगवान्ने कर्मी, ज्ञानी तथा योगी- इन सबकी अपेक्षा भक्त को ही श्रेष्ठ बताया
है।*
*
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको
योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ॥
योगिनामपि
सर्वेषां मद्रतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्
भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ (गीता ६ । ४६-४७)
प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धेः
॥ २३ ॥
(गीता के
बारहवें अध्याय में ) अर्जुन के प्रश्न और भगवान्के उत्तर से भी भक्त की ही
श्रेष्ठता सिद्ध होती है।
नैव श्रद्धा
तु साधारण्यात् ॥ २४ ॥
श्रद्धारूप ही
भक्ति है,
ऐसा नहीं मानना चाहिये; क्योंकि श्रद्धा साधारणतया कर्ममात्र की अङ्गभूत है (किंतु
ईश्वरभक्ति ऐसी नहीं है) ।
तस्यां
तत्त्वे चानवस्थानात् ॥ २५ ॥
यदि श्रद्धा को
भक्तिरूप मानें तो अनवस्थादोष आता है।*
इसलिये श्रद्धा भक्ति से भिन्न है।
भगवान्
ने गीता में कहा है, 'श्रद्धावान् भजते यो माम्' (जो श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करता है ) इस प्रकार श्रद्धा को भक्ति का अङ्ग
बताया है। यदि श्रद्धा और भक्ति एक है तो उसके अङ्गरूप से आयी हुई श्रद्धा क्या है; यदि यह भी भक्तिरूप ही है तो उसका अङ्ग भी दूसरी श्रद्धा हो सकती है; इस प्रकार यह परम्परा कहीं भी रुक नहीं सकती है; यही अनवस्थादोष है।
ब्रह्मकाण्डं
तु भक्तौ तस्यानुज्ञानाय सामान्यात् ॥ २६ ॥
श्रुति में जो
ब्रह्मकाण्ड (ब्रह्मतत्त्व के निरूपण का प्रकरण) है, वह भक्ति के लिये ही है, ज्ञान के लिये नहीं; क्योंकि जैसे ब्रह्मकाण्ड अज्ञात अर्थ का ज्ञान कराता है,
उसी प्रकार जो शेष दो काण्ड हैं,
वे भी अज्ञात अर्थ का ज्ञान कराते हैं। इस दृष्टि से सभी
काण्ड समान हैं। (यदि इतने से ही कोई ब्रह्मकाण्ड को ज्ञानकाण्ड कह दे,
तब तो धर्मज्ञान करानेवाले कर्मकाण्ड को भी ज्ञानकाण्ड नाम
दिया जा सकता है) अतः भक्ति के लिये ब्रह्मकाण्ड का आरम्भ होने के कारण उसे 'भक्तिकाण्ड' भी मानना चाहिये।
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्रम् द्वितीय आह्निक सम्पूर्ण ॥
शाण्डिल्य
भक्ति सूत्रम् प्रथम अध्याय सम्पूर्ण ॥
शेष आगे जारी.......... शांडिल्यभक्तिसूत्र अध्याय 2
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