नारद भक्ति सूत्र

नारद भक्ति सूत्र

नारद भक्ति सूत्र हिंदू धर्म की परंपराओं में पूजनीय एक प्रसिद्ध सूत्र है, इसे प्रसिद्ध ऋषि नारद ने बोला था। यह पाठ भक्ति ( भक्ति ) या भक्ति योग की प्रक्रिया का विवरण देता है । यह चौरासी छंद अथवा ८४ सूत्र में विभाजित है। इस ग्रन्थ में नारद शुद्ध भक्ति की पूर्णता अवस्था की व्याख्या करते हैं; इस अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया; विषय-वस्तु पर अन्य वैदिक व्यक्तित्वों के उद्धरण देते हैं; भक्ति विकसित करते समय किन बातों से बचना चाहिए; और अंततः निस्वार्थ प्रेम की प्रकृति तथा परम पुरुष के प्रति आसक्ति के विभिन्न रूपों की व्याख्या करते हैं।

नारद भक्ति सूत्र

नारद भक्ति सूत्र

Narad bhakti sutra

श्रीनारद भक्ति सूत्रम्

नारद भक्ति सूत्रम्

नारदभक्तिसूत्र

अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥

अब हम भक्ति की व्याख्या करेंगे।

सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा ॥ २ ॥

वह (भक्ति ) ईश्वर के प्रति परम प्रेमरूपा है।

अमृतस्वरूपा च ।। ३ ।।

और अमृतस्वरूपा भी है।

यल्लब्धवा पुमान सिद्धो भवति,

अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ ४ ।।

जिसको (परम प्रेमरूपा और अमृतरूपा भक्ति को) पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, (और) तृप्त हो जाता है।

यत्प्राप्य न किन्चिद्वाच्छति न 

शोचती न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ ५ ॥  

जिसके (परम प्रेमरूपा और अमृतरूपा भक्ति के) प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न किसी बिछुड़े व्यक्ति या वस्तु के लिए शोक प्रकट करता है, न द्वेष करता है, न किसी वस्तु में आसक्त होता है और न उसे (विषयभोगों की प्राप्ति में) उत्साह होता है।

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो 

भवति आत्मारामो भवति ॥ ६॥

जिसको (परम प्रेम रूपा और अमृतरूपा भक्ति को ) जान ( प्राप्त) कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध (शान्त) हो जाता है, (और) आत्माराम बन जाता है।

सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ।। ७ ।।

वह (परम प्रेमरूपा और अमृतरूपा भक्ति) कामनायुक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोध स्वरूपा (त्यागमयी) है।

निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ।। ८ ।।

लौकिक और वैदिक (समस्त) कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं।

तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ ९ ॥

उस प्रियतम भगवान में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध कहते हैं।

अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ॥ १० ॥

(अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर) दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है।

लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषसूदासीनता ।। ११ ।।

लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान् के अनुकूल कर्म करना ही उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता है।

भवतु निश्चयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ १२ ।।

दृढ़ निश्चय (अलौकिक प्रेम प्राप्ति का) हो जाने पर भी भगवान के अनुकूल शास्त्रोक्त कर्म करने चाहिये।

अन्यथा पातित्याशड कया ।। १३ ।।

(शास्त्रोक्त कर्म नहीं करने से) पतित (गिर जाने) हो जाने की शंका (सम्भावना) है।

लोकोऽपि तावदेव किन्तु 

भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ १४ ॥

बाह्य ज्ञान शेष रहने तक लौकिक कर्म विधिपूर्वक सम्पन्न होने चाहिए। भोजनादि कार्य तो शरीर के रहने तक होते रहेंगे।

तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ १५ ॥

अब भिन्न-भिन्न मतानुसार उस (प्रेमा भक्ति) के लक्षण कहे जाते हैं।

पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ।। १६ ।।

महर्षि पराशर पुत्र श्रीव्यासजी के अनुसार भगवान् की पूजा में अनुराग का होना भक्ति है।

कथादिष्विति गर्गः।।१७।।

श्री गर्गाचार्य के अनुसार भगवान् की कथा में अनुराग का होना भक्ति है।

आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ १८ ।।

महर्षि शाण्डिल्य के अनुसार आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग का होना भक्ति है।

नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता 

तद्विस्मरणे परम व्याकुलतेति ।। १९ ।।

देवर्षि नारद के अनुसार समस्त कर्मों को भगवान को अर्पण करना और भगवान् का थोड़ा भी विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है।

अस्त्येवमेवम् ।। २० ॥

ठीक ऐसा ही है।

(देवर्षि नारद ने उन्नीसवें सूत्र में बतलाया कि समस्त कर्मों को भगवान को अर्पण करना और भगवान का थोड़ा भी विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है। इस बीसवें सूत्र में उक्त सिद्धान्त की दृढ़ता दिखलाने के लिए कह रहे हैं कि वस्तुतः भक्ति का यही स्वरूप है ।)

यथा वज्रगोपिकानाम् ॥ २१ ॥

जैसे व्रजगोपियों की भक्ति ।

(देवर्षि के अनुसार व्रज की गोपियों ने जिस प्रकार अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण को सौंप दिया था वही प्रेमाभक्ति का सच्चा उदाहरण है। इस प्रेमाभक्ति में इष्ट के माहात्म्य ज्ञान की स्मृति अवश्यमेव रहनी चाहिए अन्यथा इसे अलौकिक प्रेम नहीं कहा जा सकता। भगवान् की भक्ति अगर उनके ईश्वरत्व को बिना जाने सम्पन्न हो तब यह अधोमुखी अपवित्र जारों के लौकिक प्रेम के समान होगा। बाइसवें और तेइसवें सूत्र में इसी तथ्य को निरूपित करते हुए देवर्षि कह रहे हैं )

तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ।। २२ ।।

इस अवस्था में भी (गोपियों में) माहात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं ।

तद्विहीनं जाराणामिव ॥ २३ ।।

उसके बिना ( भगवान को भगवान जाने बिना किया जाने वाला ऐसा प्रेम) जारों के ( प्रेम के) समान है।

नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ।।  २४ ।।

उसमें (जार के प्रेम में) प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है।

( अब प्रेमा भक्ति की महत्ता बतला रहे हैं देवर्षि । )

सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ २५ ॥

वह (प्रेमा भक्ति) तो कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है।

फलरूपतवात् ॥ २६ ॥

क्योंकि ( वह भक्ति) फल रूपा है।

ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ २७॥

ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष और दैन्य (दीनता, समर्पण) से प्रियता है।

(अर्थात् ईश्वर अभिमानी का उद्धार उसे दण्ड देकर करते हैं और दीन सेवक का उद्धार उसे प्रेम से गले लगा कर करते हैं।)

तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ।। २८ ।।

उसका (भक्ति का साधन ज्ञान ही है, किन्हीं (आचार्यों) का यह मत है।

अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ २९ ।।

दूसरे (आचार्यों) का यह मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं।

स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ ३०॥

ब्रह्मकुमारों (सनत्कुमार आदि और नारद के ) मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है।

उदाहरण स्वरूप अगले दो सूत्रों का प्रयोग करते हुए इकतीसवें और बत्तीसवें सूत्र में देवर्षि कहते हैं कि राजगृह (राजमहल) की जानकारी से राजा की प्रसन्नता प्राप्त नहीं होगी और भोजन के सुस्वादु होने के विषय में जान लेने से जैसे क्षुधा (भूख) शान्त नहीं होगी वैसे ही भक्ति के स्वरूप को जान लेने मात्र से ईश्वर की कृपा प्राप्त नहीं होगी। इसके लिये तो भक्ति ही करनी होगी, भक्त बनकर ईश्वर सामीप्य प्राप्त करना होगा।

राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ।। ३१ ।।

राजगृह और भोजनादि में ऐसा ही देखा जाता है।

न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ ३२ ।।

न उससे (जान लेने मात्र से) राजा की प्रसन्नता होगी, न क्षुधा (भूख) मिटेंगी।

तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ ३३ ।।

अतएव (संसार के बंधन से) मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए।

तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ ३४ ।।

आचार्यगण उस भक्ति के साधन बतलाते हैं।

तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ।। ३५ ।।

वह (भक्ति साधन) विषय त्याग और संग त्याग से सम्पन्न होता है।

अव्यावृत भजनात् ।। ३६ ।।

अखण्ड भजन से (भक्ति साधन) सम्पन्न होता है।

लोकेऽपि भगवद्गुण श्रवणकीर्तनात् ॥ ३७ ॥

लोकसमाज में भी भगवत्-गुण-श्रवण और कीर्तन से ( भक्ति साधन) सम्पन्न होता है।

मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ ३८ ।।

मुख्यतः यह ( प्रेम भक्ति) महापुरूषों की कृपा से अथवा किञ्चित भगवत्कृपा से होता है।

महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ।। ३९ ।।

महापुरूषों का संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है ।

लभ्यतेऽपि तत्कृप्यैव ॥ ४० ॥

उस (भगवान्) की कृपा से ही (महत्पुरूषों) का संग भी मिलता है।

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ।। ४१ ।।

(क्योंकि) भगवान और उनके भक्त में अभेद है अर्थात् कोई भेद नहीं है ।

तदेव साध्यतां तदेव साध्यतां ।। ४२ ।।

उस (महत्संग) की ही साधना करो, उसी की साधना करो।

दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ ४३ ॥

दुःसंग का सर्वथा ही त्याग करना चाहिये ।

कामक्रोधमोहस्मृति भ्रंश बुद्धिनाश 

सर्वनाश कारणत्वात् ।। ४४ ।।

( क्योंकि दुःसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।

तरंगायिता अपी संगात्समुद्रायन्ति ॥ ४५ ॥

दुःसंग से ये (काम क्रोधादी) तरंग रूप उत्पन्न होकर भी समुद्र का आकार ग्रहण कर लेते हैं।

कस्तरति कस्तरति मायाम् यः 

संगास्त्यजति यो महानुभावं सेवते

निर्ममो भवति ।। ४६ ॥

(प्रश्न) कौन करता है? (दुस्तर) माया से कौन करता है?

(उत्तर) जो ममतारहित (पुरूष) समस्त संगों का त्याग और महानुभावों की सेवा करता है।

यो विविक्तस्थानं सेवते

यो लोकबन्धमुन्मूलयति,

निस्त्रैगुण्यो भवति

योगक्षेमंत्यजति ॥ ४७ ॥

जो निर्जन स्थान में रहता हुआ लौकिक बन्धनों को तोड़कर तीनों गुणों (सत्, रज, तम) से परे जाकर भोग तथा क्षेम का भी परित्याग कर दे ( वही तरता है, दुस्तर माया से वही तरता है) ।

यः कर्मफलं त्यजति कर्माणि 

संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवती ।। ४८ ।।

जो कर्मफल तथा कर्मों का भी त्याग करता है और अन्ततः द्वन्द्व रहित हो जाता है।

वेदानपि संन्यस्यति

केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ ४९ ।।

जो वेदों का भी त्याग कर अखण्ड भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेता है (वही तरता है, दुस्तर माया से वही तरता है) ।

स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ ५० ।।

वह तरता है, वह तरता है, वह लोकों को तार देता है।

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूप ॥ ५१ ॥

प्रेम के स्वरूप का बखान नहीं किया जा सकता। प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है।

मुकास्वादनवत्  ॥ ५२ ॥

गूँगे के स्वाद की तरह (अनिर्वचनीय) है।

प्रकाश्यते क्वापि पात्रे ॥ ५३ ॥

किसी-किसी योग्य पात्र में ही ऐसा प्रेम प्रकट होता है।

गुणरहितं कामनारहितं 

प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं 

सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ ५४ ॥

यह प्रेम गुण और कामना रहित है। यह प्रतिक्षण बढ़ता है। इसमें विच्छेद नहीं है अर्थात् इसकी निरन्तरता बनी रहती है। यह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है और अनुभवरूप है।

तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव 

श्रृणोति तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति ॥ ५५ ॥

इस प्रेम को पाकर (प्रेमी) इस प्रेम को देखता सुनता, वर्णन करता और चिन्तन करता है।

गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादि भेदाद्वा ॥ ५६ ॥  

गौणी भक्तिगुणभेद तथा आर्तादिभेद से तीन प्रकार की होती है। (सात्विकी गौणी भक्ति - १. पापनाश का उद्देश्य, . कर्मफलों को भगवान को अर्पण करना ३. भगवद् पूजन को कर्त्तव्य मानना । राजसी गौणी भक्ति विषय, यश और ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु प्रतिमा का पूजन । तामसी गौणी भक्ति - हिंसा, ईर्ष्या और अहंकार से की जाने वाली भक्ति ) ।

उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्व पूर्षा 

श्रेयाय भवति ॥ ५७ ॥

( उनमें बाद के क्रमों से पहले के क्रम वाली भक्ति कल्याणकारिणी होती है। (तामसी की अपेक्षा राजसी और राजसी की अपेक्षा सात्विकी भक्ति उत्तम है ।)

अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ।। ५८ ।।

अन्य सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है।

प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् 

स्वयं प्रमाणत्वात् ॥ ५९ ॥

(यह ) स्वयं प्रमाणरूप है, इसके लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।

शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्य ॥ ६० ॥

भक्ति शान्ति और परमानन्द स्वरूपा है।

लोकहानौ चिन्ता न कार्या 

निवेदितात्मलोक वेदत्वात् ॥ ६१ ॥

लौकिक और वैदिक (समस्त) कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुके भक्त को लोकहानि की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।

न तदसिद्धौ लोकव्यवहारो हेयः 

किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ ६२ ।।

भक्ति में सिद्धि प्राप्त होने तक लोक व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए, किन्तु फल का त्याग कर उस भक्ति का साधन करना चाहिए।

स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं 

न श्रवणीयम् ॥ ६३ ॥

स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिये ।

अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ ६४ ॥

अभिमान और दम्भ आदि का त्याग कर देना चाहिए।

तदर्पिताखिलाचारः सन् 

कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ ६५ ।।

भगवान को समस्त आचार समर्पित करने के बाद भी यदि काम, क्रोध और अभिमान आदि बचे रह गए हो तो उन्हें भी भगवान के प्रति ही प्रदर्शित करना चाहिए।

त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ता 

भजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ ६६ ॥

तीन (स्वामी, सेवक, सेवा) रूपों को भंग कर नित्य दास भक्ति से या नित्य कान्ता भक्ति से प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए।

भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ ६७ ।।

एकान्त (अनन्य) भक्त ही श्रेष्ठ है।

कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं 

लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ।। ६८ ।।

ऐसे अनन्य भक्त रुँधे हुए कंठ से (कंठावरोध) रोमांचित और आँखों से आँसू बहाकर परस्पर संभाषण करते हुए कुल और पृथ्वी दोनों को पवित्र करते हैं।

तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मी कुर्वन्ति 

कर्माणि सच्छास्त्री कुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ ६९ ।।

ऐसे भक्त तीर्थों को सुतीर्थ, कर्मों को सुकर्म और शास्त्रों को सत्-शास्त्र कर देते हैं।

तन्मयाः ॥ ७०॥

(क्योंकि) वे तन्मय हैं ।

मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः 

सनाथा चेयं भूर्भवति ।। ७१ ।।

(इन्हें देखकर) पितरगण प्रमुदित (प्रसन्न ) होते हैं, देवता नाचने लगते हैं और पृथ्वी सनाथा हो जाती है।

नास्ति तेषु जातिविद्यारूप 

कुलधन क्रियादिभेदः ।। ७२ ।।

उनमें (भक्तों में) जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादि का भेद नहीं है।

यतस्तदीयाः ॥ ७३॥

क्योंकि (भक्त) उनके (भगवान् के) ही हैं।

वादो नावलम्ब्य ॥ ७४ ॥

(भक्त को) वाद विवाद नहीं करना चाहिए ।

बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ।। ७५ ।।

क्योंकि ( वाद-विवाद ) बाहुल्य का अवकाश है और वह अनियत है। (वाद-विवाद लम्बा खींचने पर भी किसी सुस्पष्ट सिद्धान्त का सृजन करने में सक्षम नहीं है इसलिए भक्त को वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।)

भक्तिशास्त्राणि मननीयानि 

तदुद्बोधक कर्माण्यपि करणीयानि ॥ ७६ ।।

(प्रेमाभक्ति हेतु ) भक्तिशास्त्र के मनन के साथ-साथ वैसी प्रेरणा प्रदान करने वाले कार्य भी किए जाने चाहिए।

सुखदुःखेच्छा लाभादित्यक्ते काले 

प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपि व्यर्थं न नेयम् ।। ७७ ।।

सुख, दुःख, इच्छा तथा लाभ आदि के त्याग की प्रतिक्षा में आधा क्षण भी व्यर्थ (भक्ति कार्यों के बिना) नहीं बिताना चाहिए।

अहिंसासत्यशौचदयास्ति क्यादि 

चारित्र्याणि परिपालनीयानि ॥ ७८ ।।

(भक्त को) अहिंसा, सत्य, शौच (पवित्रता) दया तथा आस्तिकता आदि सदाचारों का पालन करना चाहिए।

सर्वदा सर्वभावेन 

निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ ७९॥

सभी समय सर्वभाव से निश्चित होकर भगवान का भजन ही करना चाहिए।

स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति 

अनुभावयति च भक्तान् ॥ ८० ॥

वे भगवान् (प्रेमपूर्वक) कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रकट होकर भक्तों को अपना अनुभव करा देते हैं।

त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी 

भक्तिरेव गरीयसी ॥ ८१॥

तीनों (शारीरिक, वाचिक, मानसिक) सत्यों में भक्ति ही श्रेष्ठ है, भक्ति ही श्रेष्ठ है।

गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति 

स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति 

कान्तासक्ति वात्सल्यासक्त्यात्मनि वेदनासक्ति 

तन्मयतासक्ति परमविरहासक्तिरूपा 

एकधाप्येकादशधा भवति ॥ ८२॥

यह प्रेमरूपा भक्ति एक होकर भी निम्न ग्यारह प्रकार की होती है-

. गुणमाहात्म्यासक्ति २. रूपासक्ति ३. पूजासक्ति ४. स्मरणासक्ति

. दास्यासक्ति ६. सख्यासक्ति ७. कान्तासक्ति ८. वात्सल्यासक्ति

. आत्मनिवेदनासक्ति १०. तन्मयतासक्ति और

११. परम विरहासक्ति इस प्रकार से ग्यारह प्रकार की होती है।

इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भया एकमताः 

कुमारव्यासशुकशाण्डिल्यगर्गविष्णुकौण्डिन्य 

शेषोद्धवारूणि बलि हनुमविभीषणादयो भक्त्याचार्याः ।। ८३ ।।

कुमार (सनत्कुमारादि) वेदव्यास, शुकदेव शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु, कौण्डिन्य, शेष, उद्धव, आरूणि, बलि, हनुमान्, विभीषण आदि भक्ति तत्व के आचार्यगण लोगों की निन्दा-स्तुति का कुछ भी भय न कर (सब) एकमत से ऐसा ही कहते हैं कि (भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है) ।

य इदं नारद प्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति 

श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभते ।। ८४ ।।

जे इस नारदोक्त शिवानुशासन में विश्वास और श्रद्धा करते हैं वे प्रियतम को पाते हैं, वे प्रियतम को पाते हैं।

इति: श्रीनारद भक्ति सूत्रम् ॥

Post a Comment

0 Comments