शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय ३

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय ३

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र के रचयिता शाण्डिल्य ऋषि हैं। इस भक्ति सूत्र में कुल १०० (सौ) सूत्र है, इसके अध्याय – १ में २६ सूत्र है तथा अध्याय – २ में (२७- ८४) ५८ सूत्र है। अब यहाँ अंतिम अध्याय ३ दिया जा रहा है-

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय ३

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय- ३

Shandilya bhakti sutra chapter 3

श्रीशाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् तृतीय: अध्याय:

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् तृतीयोऽध्याय:

शांडिल्यभक्तिसूत्र तीसरा अध्याय

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् अध्याय ३ प्रथम आह्निक

तृतीय अध्याय

प्रथम आह्निक

भजनीयेनाद्वितीयमिदं कृत्स्नस्य तत्स्वरूप-त्वात् ॥ ८५ ॥

यह सम्पूर्ण विश्व भजनीय भगवान्से अभिन्न है; क्योंकि सब कुछ उनका ही स्वरूप है।

तच्छक्तिर्माया जडसामान्यात् ॥ ८६ ॥

भगवान्की ऐश्वर्यशक्ति का नाम माया है। वह माया भी भगवान्से भिन्न नहीं है; क्योंकि जैसे अन्य जडतत्त्व भगवत्स्वरूप हैं, वैसे यह माया भी है।

व्यापकत्वाद्वयाप्यानाम् ॥ ८७ ॥

भगवान् सच्चिदानन्दस्वरूप से सबमें व्यापक हैं; व्याप्य वस्तुएँ व्यापक का स्वरूप होती हैं; अतः कुछ भी भगवान् से भिन्न नहीं है।

न प्राणिबुद्धिभ्यो ऽसम्भवात् ॥ ८८ ॥

(इस संसार की सृष्टि बुद्धिपूर्वक हुई है- सोच-समझकर की गयी है; यह बात इसकी सूक्ष्मता, सृष्टिक्रम, उपयोगिता एवं व्यवस्था को देखते हुए प्रतीत होती है; तो क्या किसी जीव की बुद्धि से इस जगत्का निर्माण हुआ है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं -) नहीं, प्राणियों की बुद्धि से जगत् की सृष्टि नहीं हुई है; क्योंकि जीव की स्वल्प बुद्धि के लिये यह असम्भव है (अतः ईश्वर ही इसके स्रष्टा हैं)।

श्रुतीश्च निर्मिमीते निर्मायोच्चावचं पितृवत् ॥ ८९ ॥

ऊँच-नीच अथवा स्थूल सूक्ष्म भेदवाले समस्त दृश्य-प्रपञ्च एवं प्राणिवर्ग को उत्पन्न करके भगवान् उन्हें हिताहित का परिज्ञान कराने के लिये वेदों का भी निर्माण (प्राकट्य) करते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे पिता पुत्रों को उत्पन्न करके उन्हें कर्तव्य- अकर्तव्य का ज्ञान कराने के लिये शिक्षा की व्यवस्था करता है।

मिश्रोपदेशान्नेति चेन्न स्वल्पत्वात् ॥ ९० ॥

यदि कहें, 'वेद में धर्ममय यज्ञ-यागादि के साथ कहीं-कहीं हिंसात्मक यागों का भी उपदेश देखा जाता है; अतः अधर्ममिश्रित धर्म का उपदेश देने के कारण ईश्वर पिता के समान हितकारी नहीं हैं तो यह धारणा ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी बातें बहुत थोड़ी हैं और वह भी हिंसकों की बढ़ी हुई हिंसावृत्ति को उन-उन यज्ञों में ही सीमित करके धीरे-धीरे कम करने के लिये ही वैसी बातें कही गयी हैं। (वास्तव में तो हिंसा का निषेध ही वेद का अभीष्ट मत है। ) *

* वेद का उपदेश है-

'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि'-

किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।

फलमस्माद्वादरायणो दृष्टत्वात् ॥ ९१ ॥

कर्मों का फल ईश्वर से ही प्राप्त होता है स्वतः नहीं; क्योंकि लोक में ऐसा ही देखा गया है। (जैसे कोई अपने कार्य द्वारा राजा आदि को संतुष्ट करता है तो पुरस्कार पाता है और दुर्व्यवहार से उसे रुष्ट करता है तो दण्ड का भागी होता है; इसी प्रकार ईश्वर ही शुभाशुभ कर्मों का सुख - दुःखरूप फल देते हैं।) यह बात भगवान् वेदव्यास ने (उत्तरमीमांसा-ब्रह्मसूत्र १ । १ । २ में) कही है।

व्युत्क्रमादण्ययस्तथा दृष्टम् ॥ ९२ ॥

विपरीत क्रम से भूतों का अपने कारण में लय होता है, ऐसा ही देखा गया है। (घट फूटने पर मिट्टी में लीन होता है; इसी प्रकार प्रत्येक व्याप्य वस्तु अपने में व्यापक कारण-तत्त्व में विलीन होती है; यथा पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में अग्रि का वायु में और वायु का आकाश में लय होता है।)

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् प्रथम आह्निक सम्पूर्ण ॥

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् अध्याय ३ द्वितीय आह्निक

तदैक्यं नानात्वैकत्वमुपाधियोगहाना- दादित्यवत् ॥ ९३ ॥

जीव और ईश्वर में एकता है- दोनों एक हैं; उपाधि के संयोग से उनमें नानात्व की प्रतीति होती है और उपाधि भङ्ग होने पर एकत्व का बोध स्पष्ट हो जाता है। ठीक उसी तरह, जैसे एक ही सूर्य जल से भरे हुए भिन्न-भिन्न पात्रों में पृथक्-पृथक् प्रतिबिम्बित होने पर अनेक-सा प्रतीत होता है; परंतु जलपात्ररूपी उपाधि के न रहने पर वह पुनः एक ही रह जाता है ।

पृथगिति चेन्न परेणासम्बन्धात् प्रकाशानाम् ॥ ९४ ॥

यदि कहें, जीवों में बद्ध - मुक्त आदि का भेद दिखायी देने के कारण यह सिद्ध है कि जीव ईश्वर से सर्वथा भिन्न हैं, तो यह ठीक नहीं; क्योंकि स्वयंप्रकाश परमात्मा के साथ उन्हींके प्रकाशस्वरूप जीवों का 'द्रष्टा- दृश्य के रूप में' सम्बन्ध नहीं हो सकता। ( अतः चैतन्य प्रकाशरूप से सभी जीव ईश्वर से अभिन्न हैं । बद्ध - मुक्त आदि की कल्पना करनेवाली तो बुद्धि है, जो अज्ञानवश ऐसी कल्पना कर लेती है।)

न विकारिणस्तु करणविकारात् ॥ ९५ ॥

जीवों में ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा आदि गुण या विकार होने के कारण उन्हें विकारी कह सकते हैं, फिर अविकारी परमात्मा से उनकी एकता कैसी ? इसके उत्तर में कहते हैं; जीवात्मा विकारी नहीं है; क्योंकि सुख-दुःख आदि विकार तो अन्तःकरण से सम्बन्ध रखते हैं, आत्मा से नहीं।

अनन्यभक्त्या तद्बुद्धिर्बुद्धिलयादत्यन्तम् ॥ ९६ ॥

अनन्य भक्ति के द्वारा बुद्धि का आत्यन्तिक लय होने से परमात्मा का साक्षात्काररूप बोध (या मोक्ष) प्राप्त होता है।

आयुश्चिरमितरेषां तु हानिरनास्पदत्वात् ॥ ९७ ॥

पराभक्ति सिद्ध होने पर भक्त को भगवत्प्राप्ति या मुक्ति में तभी तक विलम्ब है अथवा तभीतक वह जीवन्मुक्तावस्था में रहता है, जबतक उसकी आयु (प्रारब्ध) शेष है; क्रियमाण और सञ्चित आदि के रूप में जो अन्य शुभाशुभ कर्म हैं, जिनके कारण शरीर धारण करना पड़ता है, उन सबका लय हो जाता है; क्योंकि पराभक्ति से जीवन के अदृष्टमात्र का लय होकर जब बुद्धि का भी आत्यन्तिक लय हो जाता है, तब कर्मफलभोग का कोई आधार ही नहीं रह जाता है।

संसृतिरेषामभक्तिः स्यान्नाज्ञानात् कारणासिद्धेः ।। ९८ ।

जीव का संसारबन्धन भक्ति न होने के कारण ही है ( भगवान्‌ की माया से ही जीव बन्धन में बँधे हैं, भक्त पुरुष ही उस माया को जीतकर बन्धनमुक्त हो सकते हैं; अतः जबतक भक्ति का उदय नहीं होता, तभीतक बन्धन है)। अज्ञान से जीव संसार – बन्धन में पड़ा है, यह धारणा ठीक नहीं है; क्योंकि अज्ञानरूप कारण का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता है। (ज्ञान का सर्वथा अभाव किसी को नहीं होता है; कुछ-न-कुछ ज्ञान सभी जीव को रहता है, अतः बन्धन का कारण अज्ञान है - यह मान्यता भ्रमपूर्ण है ।)

त्रीण्येषां नेत्राणि शब्दलिङ्गाक्षभेदाद्रुद्रवत् ॥ ९९ ॥

पदार्थ या वस्तु तत्त्व को समझने के लिये भगवान् शङ्कर की भाँति जीवों के तीन भिन्न-भिन्न नेत्र (प्रमाण या साधन) हैं, शब्द (वेदादि शास्त्र एवं आप्तवाक्य), लिङ्ग (अनुमान) और प्रत्यक्ष ।

आविस्तिरोभावा विकाराः स्युः क्रियाफलसंयोगात् ॥ १०० ॥

उत्पत्ति विनाश आदि जो छः भाव विकार हैं, वे आविर्भाव तिरोभावरूप ही हैं- किसी स्थान या कालविशेष में एक वस्तु का प्रकट होना और उसका छिप जाना ही उन विकारों का स्वरूप है; क्योंकि उनके द्वारा क्रियाफल का संयोगमात्र होता है, किसी नूतन वस्तु की उत्पत्ति नहीं। उत्पत्ति क्रिया का फल है प्रकट होना, विनाश का फल है अदृश्य होना; इन क्रिया- फलों का स्थान या कालविशेष से जो संयोग होता है, उसी को उत्पत्ति या विनाश कहते हैं । इसी प्रकार वृद्धि-क्षय आदि विकार भी अवस्थाविशेष के प्रादुर्भाव और तिरोभाव के ही सूचक हैं। (पराभक्ति से तत्त्वज्ञान का उदय होने पर विकारबुद्धि का लय हो जाता है और सर्वत्र परमात्मा का साक्षात्कार होने लगता है; अतः भक्ति का ही आश्रय लेना चाहिये ।)

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् द्वितीय आह्निक सम्पूर्ण ॥

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् तृतीय अध्याय सम्पूर्ण ॥

शाण्डिल्य - भक्ति सूत्र सम्पूर्ण ॥

Post a Comment

0 Comments