मोह मुद्गर

मोह मुद्गर

मोह मुद्गरअर्थात् 'भ्रम-नाशक मुद्गर या मोंगरी' । संसार असार है केवल भगवत् नाम शाश्वत है। शंकराचार्य ने तृष्णा को छोड़ सत्य के मार्ग में चलने को इस स्तोत्र में कहा है।

मोह मुद्गर

मोहमुद्गर

Moh mudgar

मोह मुद्गर

मूढ़ ! जहीहि धनागमतृष्णां,

कुरु सद्बुद्धि मनसि वितृष्णाम् ।

लभसे निजकर्मोपात्तं

वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ १ ॥

हे मूढ़ ! धन प्राप्ति की तृष्णा को छोड़ दे, मन में संतोष रख और सद्बुधि को धारण कर, तेरे कर्म के अनुसार न्याय से तुझे जो कुछ धन प्राप्त हो, उससे ही चित्त को शान्त कर सर्वदा प्राप्त हो यानी यदृच्छालाभ संतुष्ट होकर सर्वदा प्रसन्न रहा कर ।

अर्थमनर्थ भावयनित्यं,

नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् ।

पुत्रादपि धनभाजां भीतिः,

सर्वत्रैषा कथिता नीतिः ॥ २ ॥

स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि पदार्थ राग द्वेष आदि महा अनर्थ करनेवाले हैं, ऐसी तू निरन्तर भावना किया कर। उन पदार्थों से तनिक भी सुख नहीं हो सक्ता है, ऐसा तू निश्चय रूप से समझ यानी उनमें तू सुखबुद्धि का परित्याग कर । धनवालों को, बदमाश- गुण्डों की तो बात ही क्या किन्तु अपने पुत्र से भी भय बना रहता है, ऐसा नियम सब जगह पाया जाता है और विवेकी लोग कहते भी हैं ।

मा कुरु धनजनयौवनगर्व,

हरति निमेषात्कालः सर्वम् ।

मायामयमिदमखिलं हित्वा

ब्रह्मपदं प्रविशाशु विदित्वा ॥ ३ ॥

हे मूर्ख ! धन का, स्त्री पुत्र आदि स्वजनों का, एवं जुवानी का गर्व मतकर । याद रख, इन सब को एक ही क्षण में कालदेवता नष्ट कर देता है, मायामय इस नामरूपात्मक मिथ्या जगत्को छोड़ दे। सद्गुरु के द्वारा ब्रह्मस्वरूप आत्मा को जानकर उसमें ही शीघ्र प्रवेश कर, यानी अनात्मचिन्तन को छोड़कर एकमात्र आत्मतत्व का ही निरन्तर चिन्तन कर ।

नलिनीदलगत जलंबत्तरलं,

तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् ।

क्षणमपि सज्जन संगतिरेका,

भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ ४ ॥

कमल-पत्रक ऊपर रहे हुए जल के समान यह जीवन अत्यन्त ही चंचल हैं, क्षणिक है यानी जीवन के एकक्षण का भी विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः इस क्षणिक असार जीवन में सत्संगति ही सार है, एक क्षणमात्र की सज्जन विरक्त विद्वानों की संगति भी संसाररूपी सागर के तरने को नौकारूप है ।

यावज्जननं तावन्मरणं,

तावज्जननी जठरे शयनम् ।

इति संसारे स्फुटतरदोषे,

कथभित्र मानव! तव संतोषः ॥ ५ ॥

जब तक जन्मना हैं, तब तक मरना है, यानी मरने के लिये ही जन्म लिया जाता है और तबतक माता के गन्दे उदर में सोना भी पड़ता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष दोषवाले महाअनर्थरूप असार संसार में हे मूर्ख मनुष्य ! तुझको कैसे सन्तोष हो रहा है, अर्थात् तू इस संसार से सन्तुष्ट होकर उसमें ही क्यों आसक्त बना बैठा है ।

कामं क्रोधं मोहं लोभं

त्यक्त्वाऽऽत्मानं भावय कोऽहम् ।

आत्मज्ञानविहीना मूढास्ते

पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥ ६ ॥

काम, क्रोध, लोभ एवं मोह का परित्याग कर 'मैं कौन हूँ' इस प्रकार आत्मा की खोजकर, याद रख कि- आत्मज्ञान से रहित मुढ़ मनुष्य घोर नरक में सर्वदा पच-पचकर महादुःखी होते रहते हैं ।

सुरमंदिरतरुमूलनिवासः,

शय्या भूतलमजिनं वासः ।

सर्वपरिग्रहभोगत्यागः,

कस्य सुखं न करोति विरागः ॥ ७ ॥

एकान्त देवमन्दिर में या वृक्ष के मूल में निवास करना, पृथ्वी को शय्या बनाना एवं मृगचर्म को वस्त्र बनाकर पहिनना और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि सभी प्रकार के परिग्रह को छोड़ देना, तथा हृदय से भोग-वासना का सर्वथा परित्याग करना, यही वैराग्य का सच्चा स्वरूप है। ऐसा निर्मल वैराग्य किसको सुख नहीं देता, यानी सब को सुख देता है, वैराग्य ही निर्मल सुख का सच्चा साधन है ।

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ

मा कुरु यत्नं विग्रहसंधौ ।

भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,

वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥८॥  

यदि तु शीघ्र ही उस आनन्दनिधि परम निर्भय विष्णुपद को प्राप्त करना चाहता है तो शत्रु, मित्र, पुत्र एवं बन्धुवर्ग के साथ यानी संसार की तमाम वस्तुओं के साथ विग्रह यानी द्वेष एवं सन्धि यानी राग-आसक्ति के लिये यत्न मत कर । सब जगह सभी वस्तुओं में समचित्तवाला हो, अर्थात सर्वत्र तू एक आनन्दरूप चेतनतत्त्व को ही देखाकर, जिससे विष्णुपद प्राप्ति के लिये प्रतिबन्धक रागद्वेष होने ही न पावें ।

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु

व्यर्थ कुप्यसि सर्वसहिष्णुः ।

सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,

सर्वत्रोत्सृज भेदाशानम् ॥९॥

तुझमें, मुझमें ओर अन्य सभी ही स्थानों में एवं तमाम वस्तुओं में एक ही सर्वव्यापक विष्णु विद्यमान है, ऐसा निश्चय कर । व्यर्थ ही क्यों किसी से नाराज होकर तू क्रोध करता है, तितिक्षु बन । याद रख कि- विष्णु के सिवाय और कोई वस्तु है ही नहीं, अतः सभी ही पदार्थों में एक विष्णुरूप आत्मा को देखाकर, और सर्वत्र भेद-रूपी अविद्या को छोड़ दे ।

प्राणायामं प्रत्याहारं

नित्यानित्यविवेकविचारम् ।

जाप्यसमेतसमाधिविधानं

कुर्वबंधानं महदवधानम् ॥१०॥

योगी ब्रह्मनिष्ठ गुरुओं के उपदेशानुसार बड़ी ही सावधानी से प्राणायाम एवं प्रत्याहार का अभ्यास कर, और नित्यानित्य वस्तु का विवेक एवं सत्यासत्त्व का निरन्तर विचार कर और जाप्यसहित समाधि का विधान भी महाप्रयत्न से सम्पादन कर ।

अष्टकुलाचलसप्तसमुद्राः,

ब्रह्मपुरंदरदिनकर रुद्राः ।

न त्वं नाहं नायं लोकस्तदपि

किमर्थं क्रियते शोकः ॥११॥

सबसे बड़े आठ कुचालक पर्वत, क्षारोदधि क्षीरोदधि आदि सात समुद्र, ब्रह्मा इन्द्र सूर्य रुद्र आदि बड़े-बड़े देवता एवं तू मैं और यह समस्त चतुर्दश भुवनरूपी लोक समुदाय भी नहीं रहेगा, एक रोज मर मिट जायगा, यानी यह तमाम दृश्य प्रपञ्च क्षणभंगुर बिनाशी एवं मिथ्या है, तथापि हे मूढ़ ! किसके लिये तू शोक करता है, क्यों हाय-हाय की होली हृदय में मचाता रहता है, विचार कर शोक का अबसर ही कहाँ है ।

सुखतः क्रियते रामाभोगः,

पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।

यद्यपि लोके मरणं शरणं

तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१२॥

हे मूढ़ · ! प्रथम तो तू सुखबुद्धि से बड़ी भारी उद्दण्डता के साथ निर्मयाद स्त्री-भोग करता है, और पीछे तेरे शरीर में बड़ा भारी रोग हो जाता है, इससे दुःखी होकर रोता है, चिल्लाता है । हे मूर्ख ! यद्यपि तू जानता है कि इस मर्त्यलोक में अन्ततोगत्वा सबका मरण ही शरण है, मृत्यु के विकराल पाश से कोई नहीं बचने पाता, तथापि बड़ी ही लज्जा की बात है कि तू पापाचरण को छोड़ना नहीं चाहता।

यावज्जीवो निवसति देहे,

कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।

गतवति वायौ देहापाये,

भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१३॥

जबतक इस मलमूत्र के पात्ररूपी देह में जीवात्मा निवास करता है तबतक घरवाले सम्बन्धी लोग इस, शरीर की कुशलता को पूछते हैं, जब प्राणवायु इस शरीर से निकल गया और यह शरीर मुरदा बन गया, तब इसे देखकर निरन्तर प्रेम करनेवाली स्त्रियाँ भी डर जाती है, उससे मुख सिकुड़ लेती है, एक क्षण के लिये भी उसके पास बैठना नहीं चाहती। अतः हे मूर्ख ! अभी से ही तू क्यों सावधान नहीं होता, इस तुच्छ शरीर से एवं इस शरीर के स्वार्थी सम्बन्धियों से मोह ममता को क्यों नहीं छोड़ता । आखिर जूते खाकर छोड़ेगा तो अवश्य ही ।

गुरुचरणाम्बुजनिर्भर भक्तः,

संसारादचिराद्भव मुक्तः ।

सेन्द्रियमानसनियमादेव द्रक्ष्यसि

निजहृदयस्थं देवम् ॥१४॥

श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओं के चरणकमलों का अनन्यभक्त बन । बड़ी ही श्रद्धा के साथ उनके सदुपदेशों को ग्रहणकर शीघ्र ही इस असार-संसार के मोहममतामय बन्धनों से मुक्त होजा । विश्वास रख, इन्द्रिय एवं मन के संयम से एकाग्रता से तू अपने हृदय में साक्षीदृष्टरूप से रहनेवाले उस स्वप्रकाश सर्वात्मा भगवान्का साक्षात्कार कर लेगा ।

।।इति भगवत्पाद श्रीमदाद्यशंकराचार्य विरचितं मोह-मुद्गर सम्पूर्णम्।।

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