ब्रह्मा ज्ञानावली माला
ब्रह्म ज्ञान
वली माला का अर्थ है ब्रह्म ज्ञान की मालाओं की पंक्तियाँ। श्री शंकराचार्य द्वारा
रचित इन श्लोकों में वर्णन किया गया है जिसने यह जान लिया कि कि वह ब्रह्म है। वह
ब्रह्म ज्ञानी हो जाता है और उन्हे ही मुक्ति- मोक्ष सिद्धि मिलता है।
ब्रह्म ज्ञान वली माला
Brahma gyan vali mala
ब्रह्मज्ञानावलीमाला
ब्रह्मज्ञान वली
माला
सकृच्छ्रवणमात्रेण
ब्रह्मज्ञानं यतो भवेत् ।
ब्रह्मज्ञानावलीमाला
सर्वेषां मोक्षसिद्धये ॥ १॥
जिसके एक बार
श्रवणमात्र से अधिकारी को ब्रह्मज्ञान हो जाता है । ऐसी 'ब्रह्मज्ञानावलीमाला' सभी
अधिकारियों के मोक्ष- सिद्धि के लिये मैं आचार्य शङ्कर बनाता हूँ ।
ब्रह्मज्ञानावलीमाला
असङ्गोऽहमसङ्गोऽहमसङ्गोऽहं
पुनः पुनः ।
सच्चिदानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ २॥
'मैं असङ्ग
हूँ' 'मैं असङ्ग हूँ' 'मैं असङ्ग हूँ'
'मैं अव्यय हूँ' 'मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ'
ऐसी पवित्र भावना अधिकारियों को बार- बार करनी चाहिये ।
नित्यशुद्धविमुक्तोऽहं
निराकारोऽहमव्ययः ।
भूमानन्दस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ३॥
‘मैं नित्य
हूँ' ‘मैं शुद्ध हूँ' ‘मैं विमुक्त हूँ'
'मैं निराकार हूँ' 'मैं अव्यय हूँ' 'मैं भूमानन्दस्वरूप हूँ' 'मैं अव्यय हूँ' ।
नित्योऽहं
निरवद्योऽहं निराकारोऽहमुच्यते ।
परमानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ४॥
मैं नित्य हूँ, सकल अविद्यादि दोष रहित हूँ, निराकार हूँ, अच्युत हूँ, मैं
परम आनन्दस्वरूप हूँ, अव्यय हूँ ।
शुद्धचैतन्यरूपोऽहमात्मारामोऽहमेव
च ।
अखण्डानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ५॥
मैं शुद्ध
चैतन्यस्वरूप हूँ, मैं आत्माराम हूँ, मैं अखण्डानन्द-स्वरूप हूँ,
मैं अव्यय हूँ ।
प्रत्यक्चैतन्यरूपोऽहं
शान्तोऽहं प्रकृतेः परः ।
शाश्वतानन्दरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ६॥
मैं प्रत्यक्
चैतन्यस्वरूप हूँ, प्रकृति से पर हूँ, शान्त हूँ,
अचल अखण्डआनन्दस्वरूप हूँ, अव्यय हूँ ।
तत्त्वातीतः
परात्माहं मध्यातीतः परः शिवः ।
मायातीतः
परंज्योतिरहमेवाहमव्ययः ॥ ७॥
जो
चतुर्विंशतितत्वों से अतीत परमात्मा है-सो मैं हूँ, जो संसार के मध्य से अतीत है एवं संसार का मूल कारण माया से
भी अतीत, स्वयं ज्योति, सबसे श्रेष्ठ
कल्याणस्वरूप अव्ययतत्त्व है-सो मैं हूँ ।
नानारूपव्यतीतोऽहं
चिदाकारोऽहमच्युतः ।
सुखरूपस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ८॥
मैं अनेक रूप से
रहित एक अद्वयवरूप हूँ, चैतन्यस्वरूप अच्युत हूँ, विशुद्ध एकरस सुखरूप हूँ,
अव्यय-अविनाशी हूँ ।
मायातत्कार्यदेहादि
मम नास्त्येव सर्वदा ।
स्वप्रकाशैकरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ९॥
माया और माया का
कार्य देहादि प्रपञ्च, मुझ विशुद्धस्वरूप में तीन काल में भी नहीं है, मैं
एकमात्र सदा स्वयं प्रकाशस्त्ररूप हूँ, अव्यय-अविकारी हूँ ।
गुणत्रयव्यतीतोऽहं
ब्रह्मादीनां च साक्ष्यहम् ।
अनन्तानन्तरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ १०॥
मै तीन गुणों से
रहित हूँ, ब्रह्मादि देवों का भी साक्षी - द्रष्टा
हूँ,. अनन्त-आनन्दस्वरूप अन्यय हूँ।
अन्तर्यामिस्वरूपोऽहं
कूटस्थः सर्वगोऽस्म्यहम् ।
परमात्मस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ ११॥
मैं
अन्तर्यामीस्वरूप हूँ, कूटस्थ हूँ, सर्वव्यापक हूँ, परमात्म-स्वरूप
अव्यय-अविनाशी हूँ ।
निष्कलोऽहं
निष्क्रियोऽहं सर्वात्माद्यः सनातनः ।
अपरोक्षस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ १२॥
मैं षोडशकलाओं
से रहित हूँ, क्रिया से
रहित हूँ, सर्व का अपरोक्षस्वरूप आत्मा हूँ, सबका मूल कारण सनातन-तत्त्व हूँ, अव्यय-अविनाशी हूँ
।
द्वन्द्वादिसाक्षिरूपोऽहमचलोऽहं
सनातनः ।
सर्वसाक्षिस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ १३॥
मैं
सुख-दुःखादि यावत् द्वन्द्वों का साक्षी हूँ, अचल हूँ, सनातन हूँ, सर्व का साक्षी अव्यय - अविनाशी हूँ ।
प्रज्ञानघन
एवाहं विज्ञानघन एव च ।
अकर्ताहमभोक्ताहमहमेवाहमव्ययः
॥ १४॥
मैं
प्रज्ञानघन हूँ, विज्ञानघन
हूँ, अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, अव्यय - अविनाशी हूँ ।
निराधारस्वरूपोऽहं
सर्वाधारोऽहमेव च ।
आप्तकामस्वरूपोऽहमहमेवाहमव्ययः
॥ १५॥
मैं स्वयं
निराधार स्वरूप हूँ यानी मेरा कोई भी आधार नहीं है, तथापि मैं सर्व का आधार - अधिष्ठान हूँ, आप्तकाम पूर्णतृप्तस्वरूप अव्यय-अविनाशी हूँ ।
तापत्रयविनिर्मुक्तो
देहत्रयविलक्षणः ।
अवस्थात्रयसाक्ष्यस्मि
चाहमेवाहमव्ययः ॥ १६॥
मैं
आध्यात्मिक, आधिभौतिक,
आधिदैविक ये तीन तापों से सदा विमुक्त हूँ, स्थूल
सूक्ष्म एवं कारण ये तीन देहों से विलक्षण- असङ्ग हूँ, जाग्रतर-
स्वप्न एवं सुषुप्ति ये तीन अवस्थाओं का साक्षी अव्यय - अविनाशी हूँ ।
दृग्दृश्यौ
द्वौ पदार्थौ स्तः परस्परविलक्षणौ ।
दृग्ब्रह्म
दृश्यं मायेति सर्ववेदान्तडिण्डिमः ॥ १७॥
विश्व दृक्
एवं दृश्य यानी जड और चेतन ये दो पदार्थ हैं, ये दोनों परस्पर विलक्षण हैं, यानी एक
चेतन पदार्थ सत्य एवं सर्वाधिष्ठान है और जड पदार्थ मिथ्या एवं अध्यस्त है ।
दृक्पदार्थ को ब्रह्म कहते हैं और दृश्य को माया कहते हैं, यही
तमाम उपनिषदों का डिण्डिम घोष है।
अहं साक्षीति
यो विद्याद्विविच्यैवं पुनः पुनः ।
स एव मुक्तः
सो विद्वानिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १८॥
मैं साक्षी
हूँ साक्ष्य देहादि नहीं हूँ इस प्रकार जो देहादि-प्रपश्च से अपने शुद्ध स्वरूप को
पृथक् असङ्ग जानता है, एवं स्वस्वरूप का बारम्बार चिन्तन करता है। वही मुक्त है एवं विद्वान् है,
ऐसा वेदान्त का निर्दोष डिण्डिम घोष है ।
घटकुड्यादिकं
सर्वं मृत्तिकामात्रमेव च ।
तद्वद्ब्रह्म
जगत्सर्वमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ १९॥
जैसे घट-कुड्य
( दिवाल ) आदि सब कुछ मृत्तिका स्वरूप है, तद्वत् यह दृश्यमान सर्व जगत् ब्रह्मस्वरूप है; क्योंकि कारण से कार्य पृथक् नहीं होता है। इसलिये अधिकारी-साधक को चाहिये
कि—वह नामरूपात्मक तुच्छ भावना को छोड़कर ब्रह्ममयी उदार -
भावना का निरन्तर अभ्यास करता रहे।
ब्रह्म सत्यं
जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं
सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ २०॥
एकमात्र
ब्रह्म ही सत्य है, यह तमाम दृश्यमान नामरूपात्मक जगत् मिथ्या है, जीव
ब्रह्म ही है, ब्रह्म से पृथक् नहीं है, यही सच्छास्त्रों का पवित्र जानने योग्य सच्चा सिद्धान्त है एवं यही सर्व
उपनिषदों का डिण्डिम घोष है ।
अन्तर्ज्योतिर्बहिर्ज्योतिः
प्रत्यग्ज्योतिः परात्परः ।
ज्योतिर्ज्योतिः
स्वयंज्योतिरात्मज्योतिः शिवोऽस्म्यहम् ॥ २१॥
आंतरिक प्रकाश
बाहरी प्रकाश है, प्रत्यक्ष प्रकाश पारलौकिक प्रकाश है। मैं ज्योति हूं,
ज्योति हूं, आत्म-ज्योति हूं, आत्म-ज्योति हूं, और मैं भगवान शिव हूं।
इति
श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः
कृतौ ब्रह्मज्ञानावलीमाला सम्पूर्णा ॥
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