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कर्मकाण्ड

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विज्ञान नौका अष्टक

विज्ञान नौका अष्टक

यह आदि शंकराचार्य द्वारा लिखी गई आठ श्लोकों का दार्शनिक स्तवनों में से एक है। इसमें अपने स्वस्वरूप का वैज्ञानिक विधि से अनुसंधान कर मैं नित्य-शुद्ध परब्रह्म ही हूँ अर्थात् अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) को जाने, इस अवधारणा को प्रतिध्वनित करती है। अतः इस स्तुति का नाम स्वरूपानुसन्धानाष्टकम् अथवा विज्ञाननौका अथवा विज्ञान नौका अष्टक या विज्ञाननौकाष्टकम् कहा जाता है। अनुसन्धान अथवा शोध किसी भी क्षेत्र में 'ज्ञान की खोज करना' या 'विधिवत गवेषणा' करना होता है। वैज्ञानिक अनुसन्धान में वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हुए जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश की जाती है। जिसमें बोधपूर्वक तथ्यों का संकलन कर व्यवस्थित व सावधानीपूर्वक सूक्ष्म बुद्धि से तथ्यों का अवलोकन कर नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्‌घाटन किया जाता है।

विज्ञान नौका अष्टक

विज्ञाननौकाष्टकम्

Vigyan nouka ashtakam

स्वरूपानुसन्धानाष्टकम् अथवा विज्ञाननौकाष्टकं  

विज्ञान नौका

स्वरूप अनुसंधान अष्टक अथवा विज्ञाननौकाष्टकम् 

विज्ञान-नौका

 (भुजङ्गप्रयात छन्द)

तपोयज्ञदानादिभिः शुद्धबुद्धि-

विरक्तो नृपादौ पदे तुच्छबुद्ध्या ।

परित्यज्य सर्वं यदाप्नोति तत्त्वं,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ १ ॥

तप, यज्ञ, दान आदि शुभकर्म से जिसका अन्तःकरण मल-रहित शुद्ध हुआ है, सांसारिक दृष्टि से जो सर्वोत्तम है, ऐसे राजा-सम्राट् आदि के ऐश्वर्य से भी जो सुतरां विरक्त है, यानी ऐसे ऐश्वर्य में भी जिसकी तुच्छ-बुद्धि है। ऐसा अधिकारी-मुमुक्षु, देहादि अनात्म-वर्ग का परित्याग कर जिस तत्त्व को प्राप्त कर लेता है, वह परब्रह्म नित्य-तत्व मैं ही हूँ ।

दयालु गुरुं ब्रह्मनिष्ठं प्रशान्तं,

समाराध्य भक्त्या विचार्य स्वरूपम् ।

यदाप्नोति तत्त्वं निदिध्यास्य विद्वान्,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ २ ॥

दयालु, ब्रह्मनिष्ठ, प्रशान्त सद्गुरु की भक्तिपूर्वक अच्छी प्रकार से आराधना करके शुद्ध स्वरूप का विचारकर एवं निदिध्यासन करके जिस शुद्ध-तत्त्व को विद्वान् प्राप्त होता है, वह परब्रह्म नित्य- तत्व मैं ही हूँ ।

यदानन्दरूपं प्रकाशस्वरूपं,

निरस्तप्रपञ्चं परिच्छेदशत्यम् ।

अहं ब्रह्मवृत्यैकगम्यं तुरीयं,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ ३ ॥

जो विशुद्ध-अखण्ड आनन्दस्वरूप है, स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप है, नामरूपात्मक द्वैतप्रपञ्चका जिसमें अत्यन्ताभाव है, जो देश काल वस्तुकृत परिच्छेद से रहित है, यानी जो सर्वव्यापक त्रिकालाबाध्य सर्वात्म वस्तु है, ‘अहं ब्रह्मास्मि' में ब्रह्म हूँ, इस महावाक्यजन्य अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति से जो जानने योग्य है, एवं जो जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं का साक्षी द्रष्टा चेतनतत्त्व है, वह परब्रह्म नित्य- तत्व मैं हूँ ।

यदज्ञानतो भाति विश्वं समस्तं,

विनष्टं च सद्यो यदात्मप्रबोधे ।

मनोवागतीतं विशुद्धं विमुकं,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ ४ ॥

जिस परब्रह्म-तत्त्व के अज्ञान से, यानी अघटघटनापटीयसी अनिर्वचनीय मायाशक्ति से यह नामरूपात्मक समस्त द्वैतप्रपञ्च भासता है, जिस ब्रह्मात्मस्वरूप के साक्षात्कार से यह द्वैतप्रपञ्च अज्ञान सहित शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जो तत्त्व मन-वाणी का अगोचर यानी अविषय है, अत्यन्त शुद्ध एवं नित्य-मुक्त है, वह परब्रह्म नित्यतत्त्व मैं ही हूँ।

निषेधे कृते नेतिनेतीति वाक्यैः,

समाधिस्थितानां यदाभाति पूर्णम् ।

अवस्थात्रयातीतमेकं तुरीयम्,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ ५ ॥

'नेति' 'नेति' यह नहीं, यह नहीं, अर्थात् जो मूर्त नहीं है एवं अमूर्त भी नहीं है, इस प्रकार के श्रुतिवाक्यों से जिसमें तमाम द्वैतप्रपञ्च का निषेध करने पर, जो परिपूर्ण अखण्ड आनन्दात्म-स्वरूप निर्विकल्प समाधि में स्थित योगियों को साक्षात् प्रकाशता है, जो तीनों अवस्थाओं से अतीत, तुरीय-साक्षी है, वही नित्यतत्त्व परब्रह्म मैं हूँ ।

यदानन्दलेशैः समानन्दि विश्वं,

यदाभाति सत्त्वे तदाभाति सर्वम् ।

यदालोचने रूपमन्यत्समस्तं,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ ६ ॥

जिस प्रशान्त आनन्द – महासागर के थोड़े से आनन्द को लेकर यह समस्त विश्व कामादिजन्य तुच्छ आनन्दवाला होता है, देहादि अनात्मवर्ग में जब जिसकी सत्ता-स्फूर्ति आती है, तब ही सब सत्ता स्फूर्ति से दिखाई देते हैं । अन्य समस्त रूप, जिसके अखण्ड ज्ञान-रूपी नेत्र से भासित होते हैं, वही नित्यतत्त्व परब्रह्म मैं ही हूँ ।

अनन्तं विभुं सर्वयोनिं निरीहं,

शिवं संगहीनं यदौकारगम्यम् ।

निराकारमत्युज्ज्वलं मृत्युहीनम्,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ ७ ॥

जो अनन्त (अन्त रहित) विभु (व्यापक) सर्व का कारण, चेष्टा रहित शिव (कल्याण) स्वरूप, असंग-निर्लेप है, जो ॐकार की उपासना से जानने योग्य है, जो निराकार अत्यन्त शुद्ध स्वयंप्रकाश मृत्यु रहित है । वह परब्रह्म नित्यतत्त्व मैं ही हूँ ।

यदानन्द सिन्धौ निमग्नः पुमान्स्या-

दविद्याविलासः समस्तः प्रपञ्चः ।

तदा न स्फुरत्यद्भुतं यन्निमित्तं,

परं ब्रह्म नित्यं तदेवाहमस्मि ॥ ८ ॥

जब अधिकारी (साधनचतुष्टय सम्पन्न) मनुष्य, अखण्डा- नन्द महासागररूप स्वस्वरूप में निमग्न यानी तल्लीन होता है, तब अविद्या से ही जिसका भान होता है, ऐसा समस्त प्रपश्च उस तीन काल में भी नहीं भासता है, इस प्रकार जिसके ज्ञान का प्रभाव आश्चर्ययुक्त है, वही परब्रह्म नित्य-तत्व मैं हूँ ।

स्वरूपानुसन्धानाष्टकम् अथवा विज्ञाननौकाष्टकं महात्म्य

स्वरूपानुसंधानरूपां स्तुतिं यः,

पठेदादराद्भक्तिभावो मनुष्यः ।

शृणोतीह वा नित्यमुद्युक्तचित्तो,

भवेद्विष्णुरत्रैव वेदप्रमाणात् ॥ ९ ॥

स्वस्वरूप का अनुसंधान रूप इस स्तुति को जो मनुष्य, आदर पूर्वक पूर्ण भक्ति-भाव से पढ़ता है, अथवा दत्तचित्त होकर जो प्रतिदिन सुनता है, वह वेद के स्वतः निर्दोष प्रमाण से यहाँ ही जीवितावस्था में ही विष्णुस्वरूप हो जाता है ।

विज्ञाननावं परिगृह्य कश्चि,

तरेद्यदज्ञानमयं भवान्धिम् ।

ज्ञानासिना योहि विच्छिद्य तृष्णां,

विष्णोः पदं याति स एव धन्यः ॥ ( उपजाति वृत्तम् )

जो विज्ञानरूपी नौका को ग्रहण करके, ज्ञानरूपी तलवार से तृष्णा को काटकर अज्ञानरूपी संसार समुद्र तर जाता है और विष्णु के परम-पद को प्राप्त करता है, वही धन्य है ।

।। इति भगवत्पाद श्रीमदाद्यशंकराचार्य विरचितं विज्ञान नौका अष्टक सम्पूर्णम्।।

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