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तत्वमसि स्तोत्र
इस तत्वमसि अथवा
तत्त्वमसि स्तोत्र को पढ़ने से ब्रह्म पद प्राप्त होता है ।
तत्त्वमसि स्तोत्रम्
तत्वमसि का
क्या अर्थ है?
तत् त्वम् असि
(संस्कृत: तत् त्वम् असि या तत्त्वमसि) अद्वैत परंपरा से एक संस्कृत मंत्र है,
जिसका आम तौर पर अनुवाद "मैं वह हूँ" या "तू
वह है" के रूप में किया जाता है। यह प्राचीन हिंदू ग्रंथ,
उपनिषदों के चार प्रमुख महावाक्यों या "महान
कथनों" में से एक है। तत् त्वम् असि का उपयोग हिंदू और योग दर्शन में आत्मा
(व्यक्तिगत स्व या आत्मा) की ब्रह्म (सार्वभौमिक चेतना या निरपेक्ष) के साथ एकता
को संदर्भित करने के लिए किया जाता है।
इस शब्द का
सीधा अनुवाद तीन संस्कृत मूलों से निकला है:
तत् का अर्थ
है "वह"।
त्वम् का अर्थ
है "आप"।
असि का अर्थ
है "आप थे"।
तत् त्वमसि का
जाप बार-बार किया जा सकता है या ध्यान अभ्यास के एक भाग के रूप में मौन रूप से
इसका उच्चारण किया जा सकता है।
तत्वमसि स्तोत्र
Tattvamasi stotra
तत्त्वमसि स्तोत्रम्
मनः कल्पितमेवेदं जगज्जीवेशकल्पनम् ।
तदेकं सम्परित्यज्य निर्वाणमनुभूयताम् ॥ १॥
यह जगत,
जीव और ईश्वर सब मन की कल्पना है;
एक बार उस कल्पना को छोडकर निर्वाण पद का अनुभव करो ।
सति सर्वस्मिन्सर्वज्ञत्वं
सत्यल्पे वा स्वल्पज्ञत्वम् ।
सर्वाल्पस्याभावे कस्मा-
ज्जीवेशौ वा तत्त्वमसि ॥ २॥
सर्व के होने
से सर्वज्ञता है और अल्प के होने से अल्पज्ञता है; जहां सर्व का और अल्प का अभाव है वहां जीव और ईश का भेद
कहां से ?
सर्व और अल्प के भाव से रहित जो तत्त्व है वह तू है ।
सत्यां व्यष्ट्यौ जीवोपाधिः
सति सर्वस्मिन्नीशोपाधिः ।
व्यष्टिसमष्ट्योर्ज्ञाने कस्मा-
ज्जीवेशौ वा तत्त्वमसि ॥ ३॥
व्यष्टि के
होने से जीव की उपाधि है और समष्टि के होने से ईश्वर की उपाधि है;
व्यष्टि और समष्टि का ज्ञान होने पर जीव और ईश का भेद किस
लिये ?
दोनों उपाधियों के दूर होने पर जो रहा वह तत्त्व तू ही है ।
सत्यज्ञाने जीवत्वोक्ति-
र्मायासत्वे त्वीशत्वोक्तिः ।
मायाविद्याबाधे कस्मा-
ज्जीवेशौ वा तत्त्वमसि ॥ ४॥
अज्ञान होने
के कारण जीव कहा जाता है और माया के कारण ईश्वर कहा जाता है;
अविद्या और माया दोनों का बाध होने पर वहां जीव और ईश कहां ?
इन दोनों भावों से रहित तत्त्व है वह तू है ।
सति वा कार्ये कारणतोक्तिः
कारणसत्त्वे कार्यत्वोक्तिः ।
कार्याकारणभावे कस्मा-
ज्जीवेशौ वा तत्त्वमसि ॥ ५॥
कार्य का भाव
होने से कारण कहा जाता है और कारण के भाव से कार्य कहा जाता है;
कार्य कारण रहित हो वहां जीव और ईश का भेद कहां ?
वह तत्त्व तू है ।
सति भोक्तव्ये भोक्तायं स्या-
द्दातव्ये वा दाता स स्यात् ।
भोग्योविध्यो भावे कस्मा-
ज्जीवेशौ वा तत्त्वमसि ॥ ६॥
भोगने के भाव
से भोक्ता और देने के भाव से वह दाता होता है; भोगने का और भोग प्रदान करने का भाव ही न हो तो जीव और ईश
का भेद कहां ? भेद रहित जो तत्त्व है वह तू है ।
सत्यज्ञाने गुरुणा बाध्यं
सति वा द्वैते शिष्यैर्भाव्यम् ।
अद्वैतात्मनि गुरुशिष्यौ कौ
त्यज रे भेदं तत्त्वमसि ॥ ७॥
अज्ञान का भाव
होने के कारण सद्गुरु उसका बोध करते हैं, द्वैतभाव मे शिष्य भावना करता है;
अद्वैत आत्मतत्त्व में गुरू कौन और शिष्य कौन ?
इसलिये भेद भाव का त्याग कर, भेद रहित वह तत्त्व तू है ।
सत्यद्वैते प्राप्तौ यत्नः
सति वा द्वैते बाधे यत्नः ।
द्वैताद्वैते ते सङ्कल्प-
स्त्यज रे शेषं तत्त्वमसि ॥ ८॥
अद्वैत है
इसलिये प्राप्ति का यत्न क्रिया जाता है । द्वैत है इसलिये उसके बाध का यत्न करना
पडता है;
द्वैत और अद्वैत तेरा ही सङ्कल्प है,
उसको छोड, शेष तत्त्व तू ही है ।
साक्षीत्वं यदि दृश्यं सत्यं
दृश्यासत्वे साक्षी त्वं कः ।
उभयाभावे दर्शनमपि किं
तूष्णीं भव रे तत्त्वमसि ॥ ९॥
दृश्य सत्य हो
तो साक्षित्व घटता है, जब दृश्य ही असत्य है तो तू साक्षी किसका ?
दृश्य और साक्षी दोनों के अभाव में दर्शन भी कहां ?
इसलिये तूष्णी अर्थात् चुप होजा,
वह तत्त्व तू है ।
प्रज्ञानामलविग्रहनिजसुख-
जृम्भणमेतन्नेतरथा ।
तस्मान्नैवादेयं हेयं
तूष्णीं भव रे तत्त्वमसि ॥ १०॥
शुद्ध
ज्ञान-स्वरूप के निजानन्द के विस्तार रूप यह संसार है और कुछ नहीं है;
इसलिये इसमें त्यागने योग्य या ग्रहण करने योग्य कुछ भी
नहीं है;
तू तूष्णी होजा, वह तत्त्व तू ही है ।
ब्रह्मैवाहं ब्रह्मैवत्वं
ब्रह्मैवैकं नान्यत्किञ्चित् ।
निश्चित्येत्थं निज समसुख भुक
तूष्णीं भव रे तत्त्वमसि ॥ ११॥
मैं ब्रह्म
हूँ,
तू भी ब्रह्म है, एक ब्रह्म ही है और कुछ भी नहीं है,
इस प्रकार निश्चय करके अपना सामान्य ब्रह्म सुख भोगते हुए
तू स्वस्थ रह, वह तू ही है ।
तत्त्वमसि स्तोत्रं महात्म्य
एतत्स्तोत्रं प्रपठता विचार्य गुरुवाक्यतः ।
प्राप्यते ब्रह्मपदवी सत्यं सत्यं न संशयः ॥
१२॥
इस स्तोत्र को
पढकर गुरु वचन से विचार करे तो वह अवश्य ही ब्रह्म पद को प्राप्त करेगा,
इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ।
इति तत्त्वमसि स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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