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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
मनीषा पंचक
यह आदि
शंकराचार्य लिखित पांच श्लोकों का संग्रह है।
ऐसी मान्यता है कि ये पांच श्लोक श्री शंकराचार्य के अद्वैत
वेदांत के स्तम्भ हैं जिसे उन्होंने वाराणसी में लिखा था। इस स्तोत्र की प्रत्येक
स्तुति के अन्त में कहा गया है- ”इस सृष्टि को जिस किसी ने भी अद्वैत-दृष्टि से देखना सीख
लिया है,
वह चाहे कोई ब्राह्मण हो चण्डाल हो;
वही मेरा सच्चा गुरु है।" इन श्लोकों कि संख्या पांच
है और प्रत्येक के अंत में ‘मनीषा’ शब्द आता है इसीलिए इन्हें “मनीषा पंचकं” कहा गया है।
मनीषा पञ्चकं
Manisha panchakam
अवतरणिका
अनुष्टुप छंद
-
सत्याचार्यस्य
गमने कदाचिन्मुक्तिदायकम् ।
काशीक्षेत्रं
प्रति सह गौर्य मार्गे तु शंकरम् ॥
अन्त्यवेशधरं
दृष्ट्वा गच्छ गच्छेति चैब्रवीत् ।
शंकरःसोऽपि
चांडालस्तं पुनः प्राह शंकरम् ॥
एक बार भगवान्
भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्कर स्वामी श्रीकाशी धाम में श्रीगंगाजी से स्नान करके आ
रहे थे। मार्ग में क्या देखा कि.... सामने से एक चाण्डाल आ रहा है, मैले-कुचेले चीथडों की गुदड़ी पहिने हुए है,
लम्बा कद है, लाल लम्बी डाढी है, बूढे होने के कारण कुछ-कुछ श्वेत होगयी है, ऐसी ही
लम्बी-लम्बी मूँछे हैं, हाथ में एक झाड़ू है, साथ में दो काले-काले कुत्ते हैं । भाष्यकार उसको देखकर बचने लगे । परन्तु
जैसे आजकल ब्राह्मण आदि को देख- कर भङ्गी चमार आदि प्रायः बचते नहीं हैं; किन्तु भेटते हुए ही निकलते हैं। इसी प्रकार वह चाण्डाल भी बचा नहीं,
किन्तु ज्यों- ज्यों भाष्यकार हटते जाय त्यों त्यों ऊपर ही चला आवे,
जब भाष्यकार हटते ही चले गये और कुछ बोले नहीं तब वह इस प्रकार कहने
लगा---
आर्य वृत्त -
अन्नमयादन्नमयमथ्वा
चैतन्यमेव चैतन्यत् ।
यतिवर
दूरीकर्तुं वाञ्चसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति ॥
हे महातपस्वी!
मुझे बताओ। क्या तुम चाहते हो कि मैं 'चले जाओ' 'चले जाओ' कहकर जातिच्युत समझकर तुमसे दूर रहूँ?
क्या यह अन्न से बने एक शरीर से अन्न से बने दूसरे शरीर को
संबोधित करना है, या यह चेतना से चेतना है - जिसे हे तपस्वियों में श्रेष्ठ
तुम 'चले जाओ, चले जाओ' कहकर दूर करना चाहते हो? मुझे बताओ।
शार्दुल
विक्रीडित -
प्रत्यग्वस्तुनि
निस्तरङ्गसहजानन्दावबोधाम्बुधौ
विप्रोऽयं
श्वपचोऽयमित्यपि महानकोऽयं विभेदभ्रमः।
किं गंगाम्बुनि
बिम्बितेऽम्बरमणौ चांडालवीथिपयः
संपूर्ण
वाऽन्तरमस्ति कंचनघटीमृत्युकुम्भयोर्वाऽम्बरे ॥
मुझे जवाब
दें। जबकि सर्वोच्च सत्ता हर वस्तु में प्रतिबिंबित होती है जैसे सूर्य का
प्रतिबिंब शांत लहर रहित जल निकायों में देखा जा सकता है,
यह संदेह भ्रम और भेदभाव क्यों है। क्या कोई ब्राह्मण है या
बहिष्कृत?
कौन श्रेष्ठ है आदि? क्या गंगा के पानी में या एक बहिष्कृत व्यक्ति की गली में
मौजूद पानी में सूर्य के प्रतिबिंब में कोई अंतर है? इसी प्रकार, क्या कोई अंतर है जब जल के पात्र सोने के बर्तन और मिट्टी
के बर्तन होते हैं?
भाषार्थ -चाण्डाल - हे शङ्कर ! क्यों हटता है ? हटने का क्या कारण है ? क्या तू मुझमें और अपने में भेद समझता है ? जैसा
तेरा देह पाँचभूतों का कार्य हड्डी-मांस आदि का बना हुआ है और मल-मूत्र आदि से भरा
हुआ है, ऐसा ही मेरा है, तेरे और मेरे
देह में कुछ भेद नहीं है। तेरे और मेरे आत्मा में भी भेद नहीं है, क्योंकि आत्मा सबका एक है और शुद्ध बुद्ध नित्यमुक्त निष्कल निरञ्जन अखण्ड
एकरस है, इसलिये तुझमें और मुझमें भेद नहीं है। तूने मुझे
डाँट नहीं बतायी यानी अपने समीप आने से मुझे न रोका, स्वयं
ही बचता रहा, इससे तुझमें ब्राह्मण अथवा संन्यासी का लक्षण
घटता है, क्योंकि ब्राह्मण और संन्यासी का शान्ति ही परम
भूषण है, ऐसा विद्वानों का मत है। परन्तु तू मुझसे हटता
क्यों हैं ? तेरे हटने से सिद्ध होता है कि-तुझमें भेदबुद्धि
है, यदि ऐसा न हो तो तू मुझ से बचता नहीं । सुनता हूँ कि तू
शङ्कर का अवतार है, शङ्कर तो समदर्शी हैं, ब्राह्मण, गाय, कुत्ते और
चाण्डाल को एक-सा देखते हैं, तुझमें भेदबुद्धि कहाँ से आयी ?
यदि तुझमें भेदबुद्धि है तो तू शङ्कर का अवतार नहीं है, बता तेरी बुद्धि यानी तेरा निश्चय क्या है ?
गुदडी में लाल
छुप नहीं सकते। आचार्य चाण्डाल की कान्ति और भाषण से समझ गये कि यह सामान्य मनुष्य
नहीं है, चाण्डाल के वेष में विश्वनाथ मेरी परीक्षा
लेने आये हैं । महात्माओं से वाद- बिबाद करना शिष्टाचार से विरुद्ध है, ऐसा अपने मन में विचार कर, भाष्यकार आचार्य
श्रीशङ्कर स्वामी अपनी बुद्धि का परिचय नीचे का स्तोत्र पढ़ते हुए देने लगे-
मनीषापञ्चकम्
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु
स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते ।
या
ब्रह्मादिपिपीलिकान्ततनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी ॥
सैवाहं न च
दृश्यवस्त्विति दृढप्रज्ञापि यस्यास्ति चेत् ।
चाण्डालोऽस्तु
स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥
जो संवित् (
ज्ञानस्वरूप आत्मा ) जाग्रत् स्वप्न ओर सुषुप्ति स्पष्टतर फैली हुई है। जो जगत्की
साक्षिणी है, ब्रह्मा से
लेकर चिंटी तक के शरीरों में प्रोई हुई है, वही मैं हूँ,
दृश्य वस्तु देहादि मैं नहीं हूँ, ऐसी जिसकी
दृढबुद्धि है, वह चाहे चाण्डाल हो या चाहे वह द्विज हो,
वह तो मेरा गुरु ही है ऐसी मेरी मनीषा यानी बुद्धि है ।
ब्रह्मैवाहमिदं
जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितम् ।
सर्वं
चैतदविद्यया त्रिगुणयाऽशेषं मया कल्पितम् ॥
इत्थं यस्य
दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले ।
चाण्डालोऽस्तु
स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥
मैं ओर यह
समस्त जगत् ब्रह्म ही है, सर्वत्र चिन्मात्र ही फैला हुआ है और यह सर्व अशेष संसार तीन गुणवाली । अविद्या
से मैंने कल्पा है; इस प्रकार सुखतर, नित्य,
निर्मल, परमात्मा में जिसकी स्थिर एवं दृढ़
बुद्धि हैं, वह चाण्डाल हो, चाहे द्विज
हो, वह गुरु है, ऐसी मेरी बुद्धि है ।
शश्वन्नश्वरमेव
विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरो-
र्नित्यं
ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याजशान्तात्मना ॥
भूतं भावि च
दुष्कृतं प्रदहता संचिन्मये पावके ।
प्रारब्धाय
समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥
निष्कपट शान्त
मनवाले नित्य ब्रह्म का निरन्तर विचार करनेवाले, गुरु की वाणी से यह सब नामरूपात्मक विश्व सदा नाशवान् है,
मिथ्या है, ऐसा निश्चय करके अतीत एवं अनागत
पापों को जिसने ज्ञानमय अग्नि में जला दिया है, और अपना शरीर
प्रारब्ध को अर्पण कर दिया है, वह गुरु है ऐसी मेरी बुद्धि
है ।
या
तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते ।
यद्भासा
हृदयाक्ष देहविषया भान्ति स्वतोऽचेतनाः ॥
तां भास्यैः
पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावयन् ।
योगी
निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥
जो स्फूर्ति (
सत्ता ) तिर्यक् नर देवताओं से 'अहं' रूप से हृदय के भीतर स्पष्ट ग्रहण की जाती है,
जिसके प्रकाश से स्वयं अचेतन हृदय, इन्द्रियाँ,
देह और विषय भासते हैं, सूर्य-मण्डल के समान
देहादि प्रकाश्यों से ढकी हुई स्फूर्ति की सदा भावना करता हुआ सुखी मनवाला योगी ही
गुरु है, ऐसी मेरी बुद्धि है।
यत्सौख्याम्बुधिलेशलेशत
इमे शक्रादयो निर्वृता ।
यश्चित्ते
नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा सुनिर्निवृत्तः ॥
यस्मिन्नित्यसुखाम्बुधौ
गलितधर्ब्रह्मैव न ब्रह्मवित् ।
यः कश्चित् स
सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥
जिस सुखरूप
समुद्र के अंश के अंश से ये इन्द्रादि सुखी होते हैं, अत्यन्त शान्तवृत्तिवाले चित्त में जिसको
प्राप्त करके मुनि सुखी हुआ जिस नित्य सुख समुद्र में लीन हुई बुद्धिवाला
ब्रह्मवित् नहीं है, किन्तु साक्षात् ब्रह्म ही है, वह जो कोई भी हो, सुरेन्द्र से बन्दित पदवाला है,
यानी सुरेन्द्र उसके चरणों की वन्दना करता है, निश्चय मेरी ऐसी बुद्धि है ।
मनीषापञ्चकं स्तोत्र उपसंहार
दासस्तेऽहं
देहदृष्ट्याऽस्मि शम्भो
जातस्तेनऽशो
जीवदृष्टया त्रिदृष्टते ।
सर्वस्याऽऽत्मन्नात्मदृष्टय
त्वमेव-
त्येवं मे
धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः ॥
हे प्रभु!
शरीर के रूप में मैं आपका सेवक हूँ। हे त्रिनेत्रधारी! जीवन के रूप में मैं आपका
ही अंश हूँ। आत्मा के रूप में आप मेरे भीतर तथा प्रत्येक आत्मा में विद्यमान हैं।
मैं अपनी बुद्धि तथा विभिन्न शास्त्रों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ।
मनीषापञ्चकं स्तोत्र
निष्कर्ष
आचार्य
भाष्यकार के इस कथन से यह अभिप्राय प्रकट होता है कि–'ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति' इस श्रुति के अनुसार ब्रह्मज्ञानी के लिये विधि-निषेध आदि कोई कर्तव्य
नहीं है, वह सबका गुरु है, फिर भी चाहे
आप हो, चाहे मैं होऊँ, जिन्होंनें जीव के
हित के लिये शरीर धारण किया है, यदि वे विधि में प्रवृत्त
हों और निषेध से निवृत्त हों, तो भी उनकी क्या हानि है ?
जैसा कि भगवान ने गीता में कहा है-
यद्यदाचरति
श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं
कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते
॥
न मे
पार्थाऽस्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवातमवासव्यं
वर्त एव च कर्मणि ॥
यदि ह्यहं न
वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम
वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ ! सर्वशः ॥
उत्सीदेयुरिमे
लोका, न कुर्या
कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च
कर्ता स्वामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥( गीता ३ । २१-२२-२३-२४ )
इसलिये
शिष्टाचार के अनुसार मैं आपसे हटकर यानी वचकर चला हूँ, ऐसा न करूँ तो मैं लोक का हित न करके अहित
करनेवाला ठहरूँ । लोक में भी ऐसा कहा है कि-'जैसा देश वैसा
वेष' इस न्याय से भी मैंने उचित ही किया है, अनुचित नहीं किया है। आप तो सबके गुरु सर्वज्ञ हैं ही, तब आपसे अधिक क्या कहूँ, आप सब जानते ही हैं ।
चाण्डालरूप
भगवान् विश्वनाथ इतना सुनकर एवं प्रसन्न होकर आचार्य श्रीशंकरके प्रति 'आपका मत प्रामाणिक एवं श्रद्धेय होगा'
ऐसा कहकर अदृश्य हो गये ।
॥ इति श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ मनीषापञ्चकं सम्पूर्णम् ॥
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