उपदेश पंचक

उपदेश पंचक

इस उपदेश पंचक में श्रीशङ्कराचार्यजी ने अपने अन्तिम उपदेश में जीवन के सार का वर्णन किया है।

उपदेश पंचक

उपदेशपञ्चक

Upadesh panchak

जिस समय महेश्वर परावतार भगवान् आचार्य श्रीशङ्कर स्वामी जी का वैदिक धर्म का उद्धार एवं अवैदिक धर्म का मर्दनरूपी अवतार- कार्य समाप्त हुआ और श्रीशङ्कर स्वामीजी महाकैलास का प्रस्थान करने के लिये उद्युक्त हुये, उस समय श्रीस्वामीजी के समीप अनेक गृहस्थ, ब्रह्मचारी, एवं संन्यासी शिष्य मण्डली विशेषरूप से उपस्थित थी, क्योंकि प्रथम से ही उनलोगों को श्रीस्वामीजी ने अपने प्रस्थान का समय बतला दिया था । उस सभी प्रकार की शिष्य मण्डली की बिनम्र प्रार्थना से श्रीशङ्करस्वामीजी अन्तिम उपदेश देने लगे, जो पांच श्लोकों में संक्षिप्त है--

उपदेशपञ्चकम्

वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयताम् !

तेनेशस्य विधीयतामपचितिः काम्ये मतिस्त्यज्यताम् ॥

पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसंधीयता-

सात्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहाचूर्ण विनिर्गम्यताम् ॥ १ ॥

वेदों का प्रतिदिन अध्ययन करो। वेदों में कहे हुए याग, दान, होमं, तप, जप आदि शुभ कर्मों का श्रद्धा भक्ति के साथ अनुष्ठान करो । इन शुभ कर्मों के समर्पण द्वारा एकमात्र उस जगदन्तर्यामी, चराचरव्यापी, परमेश्वर की निष्काम प्रेम से उपासना करो । इस असार संसार की तुच्छ कामनाओं में अपनी बुद्धि को न लगाओ। बुरी वासनाओं रूपी पाप समुदाय का सदाचार एवं सद्विचार से नाश करो । संसार के क्षणिक, दुःखबहुल, नाममात्र के विषय सुखों में दोषों का बारंबार अनुसंधान करो । प्रबल तत्त्वजिज्ञासा को धारणकर सांसारिक अपनी तुच्छ इच्छाओं का विध्वंस करो। पश्चात् यानी अधिकार परिपक्क होनेपर ममतास्पद अपने गृह से शीघ्र ही बाहर हो जाओ, अर्थात् सन्यास को ग्रहण करो ।

सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढाऽऽधीयताम् ।

शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम् ॥

सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुके सेव्यताम् ।

ब्रह्मेकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम् ॥ २ ॥

सदाचारी, उदार चरित, पवित्र, महानुभावों का सदा संग करो । उस जगन्नियन्ता, आनन्दनिधि, विश्वनाथ, भगवान् में अनन्य, निष्काम, प्रेममयी दृढ़ भक्ति धारण करो । शान्ति, दान्ति, उपरति, आदि दैवी गुणों का निरन्तर सेवन करो। राग-द्वेष प्रचुर, अशान्तिप्रद, कर्मो का शीघ्र ही परित्याग करो । ब्रह्मश्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, विरक्त, विद्वान् महापुरुषों के समीप जाओ, और प्रतिदिन उन महापुरुषों की पादुकाओं का सेवन करो, यानी उनकी यथाशक्य सेवा- शुश्रुषा करके उनकी सदुपदेशरूपी आज्ञाओं का पालन कर उनके कृपापात्र बनो । ॐ रूपी एकाक्षर ब्रह्म का अर्थानुसंधानपूर्वक निरन्तर चिन्तन करो और वेदों का सर्वोत्तम भागरूपी उपनिषद्- वाक्यों का अर्थ सहित उन महापुरुषों से श्रवण करो ।

वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरः पक्षः समाश्रीयताम् ।

दुस्तर्कात्सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तक ऽनुसन्धीयताम् ॥

ब्रह्मैवास्मि विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम् ।

देहेऽहंमतिरुज्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम् ॥ ३ ॥

'अयमात्मा ब्रह्म' 'अहं ब्रह्मास्मि' 'तत्त्वमसि' 'प्रज्ञानं ब्रह्म' आदि महावाक्यों का अर्थ उन महापुरुषों के द्वारा एकाग्रता से विचारो । वेदों का शिरोमणि उपनिषद् भाग से प्रतिपादन किया हुआ अद्वैत सिद्धान्त- रूपी पक्ष का बड़े ही, आदरपूर्वक आश्रय करो । वहिर्मुख- दुराग्रही मनुष्य-परिकल्पित, प्रमाणशून्य झूठे तर्क-वितर्कों से उपराम हो जाओ । श्रुतिरूपी प्रमाण-मूलक, बिबेकी सत्पुरुषों के मान्य, सत्तर्को का अनुसंधान करो । मैं सच्चिदानन्द परिपूर्ण नित्य शुद्ध बुद्ध ब्रह्म हूँ' इस प्रकार निरन्तर अपने असली आत्मस्वरूप की दृढ भावना रक्खो । जाति, कुल, विद्या, आदि मायिक पदार्थों के गर्व को एकदम छोड़ दो । क्षणभङ्गुर, तुच्छ, शरीर आदि में अहं बुद्धि का शीघ्र ही परि त्याग करो। श्रद्धेय, ब्रह्मनिष्ठ विरक्त, विद्वानों के साथ मिथ्या वाद बिवाद करना छोड़ दो, यानी उनसे बतलाये हुए पथ का श्रद्धा के साथ अवलम्बन करो।

याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यताम् ।

स्वाद्वनं न तु याच्यतां विधिवशात्प्राप्तन संतुष्यताम् ॥

शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यताम् ।

औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानिष्ठुर्यमुत्सृज्यताम् ॥ ४ ॥

क्षुधारूपी रोग के निवारण के लिये प्रतिदिन भिक्षारूपी औषधि का भक्षण करो यानी औषधि की तरह भिक्षाऽन्न का सेवन करो । स्वादिष्ट भोजन की कदापि अभिलाषा न करो। प्रारब्धवश से जैसी भिक्षा मिल जाय उसी में ही संतोष करो। शीत-उष्ण, मान-अपमान, सुख-दुःख, आदि द्वन्द्वों को आनन्द से निश्चिन्त भाव से सहन करो । भूल से भी कभी व्यर्थ वाक्य का उच्चारण न करो। उदासीन अवस्था, यानी असङ्ग निर्विकार शान्त अवस्था को हरदम प्राप्त करो और तमाम संसार के पदार्थों से राग-द्वेष का परित्याग करो ।

एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् ।

पूर्णात्मा समीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम् ॥

प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिवलान्नाप्युत्तरैः श्लिष्यताम् ।

प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥ ५ ॥

एकान्त, पवित्र, शान्त स्थान में बड़ी ही प्रसन्नता के साथ बैठो। उस सचिदानन्द सर्वात्मा नारायण-तत्त्व में अपने चित्त को स्थिर करो। ऊपर-नीचे, भीतर-बाहर, सभी दिशाओं में ठसाठस परिपूर्ण उस एकमात्र पूर्णात्मा ब्रह्म का ही अनुभव करो । नाम रूपात्मक जगत्को मिथ्या कल्पित समझकर उसका उस अधिष्ठान ब्रह्मतत्व में बांघ कर दो। प्रारब्ध कर्म का लय करो, यानी प्रारब्धकर्म से होनेवाला सुख-दुःख रूपी भोग का स्मरण ही न होने दो । निर्मल तत्त्वज्ञान के प्रभाव से सञ्चित एवं क्रियमाण कर्मों का संश्लेष ( सम्बन्ध ) न होने दो । आनन्द से प्रारब्ध का भोग भोगो और सदा सर्वथा अपने आत्माकी परब्रह्ममय स्थिति का सम्पादन करो ।

उपदेशपञ्चकं महात्म्य

यः श्लोकपञ्चकमिदं प्रपठन् मनुष्यः,

संचिन्तयत्यनुदिनं स्थिरतामुपेत्य ।

तस्याशु संसृतिदवान लतीव्रघोर,

तापः प्रशान्तिमुपयाति चितिप्रसादात्

जो कोई सज्जन, आचार्य श्रीशङ्कर स्वामी प्रणीत इन पांच श्लोकों का बड़े प्रेम से पाठ करता है, और प्रतिदिन चित्त की एकाग्रता के साथ उनके अर्थों का चिन्तन करता है। शुद्ध चेतन परब्रह्म की विमल कृपा से उसके संसाररूपी दावानल से पैदा होनेवाले आध्यात्मिक आदि, तीव्रतर तापों की शान्ति हो जाती है ।

॥ इति उपदेशपञ्चक ॥

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