शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय २

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय २

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र के रचयिता शाण्डिल्य ऋषि हैं। इस भक्ति सूत्र में कुल १०० (सौ) सूत्र है, इसके अध्याय – १ में २६ सूत्र है। अब यहाँ अध्याय २ दिया जा रहा है-

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय २

शाण्डिल्य भक्ति सूत्र अध्याय- २

Shandilya bhakti sutra chapter 2

श्रीशाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् द्वितीय: अध्याय:

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् द्वितीयोऽध्याय:

शांडिल्यभक्तिसूत्र दूसरा अध्याय

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् अध्याय २ प्रथम आह्निक

बुद्धिहेतुप्रवृत्तिराविशुद्धेरवघातवत् ॥ २७॥

बुद्धि (ब्रह्मज्ञान) - के हेतुभूत श्रवण-मनन आदि साधनों में तबतक लगे रहना चाहिये जबतक कि अन्तःकरण शुद्ध न हो जाय; जैसे 'व्रीहीन् अवहन्ति' ( धान कूटे) इस शास्त्र वाक्य के अनुसार धान पर तबतक मूसल का आघात करना आवश्यक होता है, जबतक कि सारी भूसी अलग न हो जाय।

तदङ्गानां च ॥ २८ ॥

ब्रह्मज्ञान के हेतुभूत जो श्रवण-मननादि साधन हैं, उनके अङ्गभूत गुरुसेवन, शास्त्र-विचार तथा शमदमादि साधनों का भी अन्तःकरण की शुद्धि होनेतक अनुष्ठान करते रहना चाहिये ।

तामैश्वर्यपरां काश्यपः परत्वात् ॥ २९ ॥

आचार्य कश्यप ऐसा मानते हैं कि बुद्धि जब एकमात्र परमेश्वर का ही आश्रय लेती है, तभी वह मोक्षदायिनी होती है; क्योंकि परमेश्वर सब जीवों से परे है। (इनके मत में परमेश्वर और जीवात्मा में सर्वथा भेद है ।)

आत्मैकपरां बादरायणः ॥ ३० ॥

आचार्य बादरायण ( वेदव्यास) केवल चिद्घन आत्मा का आश्रय लेनेवाली बुद्धि को ही मोक्षदायिनी मानते हैं। * (इनके मत में एकमात्र विशुद्ध चित्सत्ता ही परमार्थ वस्तु है; परमात्मा और जीवात्मा का भेद कल्पित है, वास्तविक नहीं।)

* आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति चेति । (ब्र० सू० ४। १ । ३)

उभयपरां शाण्डिल्यः शब्दोपपत्तिभ्याम् ॥ ३१ ॥

शाण्डिल्य वेद-वाक्य तथा युक्ति के आधार पर ब्रह्म तथा जीवात्मा दोनों का आश्रय लेनेवाली बुद्धि को मुक्तिदायिनी स्वीकार करते हैं।

* 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत । 

"एष म आत्माऽन्तर्हृदयेऽणीयान् एतद् ब्रह्मैतमितः प्रेत्याभिसम्भवितास्मीति यस्य स्यादद्धा न विचिकित्सास्तीति ह स्माह शाण्डिल्यः शाण्डिल्य: । '( छा० उ० ३ । १४ । १-४ )

यह शब्दप्रमाण है। युक्ति यह है कि ब्रह्म परमेश्वर रूप से वर्णित है और जीवरूप से भी 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । ' ( तै० उ० ३ । २ । १ ) इसमें परमेश्वररूप से उसका वर्णन हुआ है और 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । ' (गीता १५ । ७) इत्यादि में जीवरूप से ।

वैषम्यादसिद्धमिति चेन्नाभिज्ञानव-दवैशिष्ट्यात् ॥ ३२ ॥

दोनों (ब्रह्म और जीव) में समानता न होने के कारण बुद्धि उन दोनों का ही आश्रय लेगी, यह सिद्ध नहीं होता, यदि ऐसा कहें तो ठीक नहीं; क्योंकि यह वही है, इस प्रत्यभिज्ञा (पहचान) बुद्धि के द्वारा जैसे 'यह' और 'वही' की एकता होती है, उसी प्रकार जो ब्रह्म है, वही जीवरूप में स्थित है, ऐसी बुद्धि होने से दोनों में विषमता नहीं रहती (शाण्डिल्य के मत में भी जीव और ब्रह्म की एकता ही है) ।

न च क्लिष्टः परः स्यादनन्तरं विशेषात् ॥ ३३ ॥

ब्रह्म और जीव की एकता मानने पर भी जीवोपाधिधारी आत्मा के जो क्लेश आदि हैं, वे परमेश्वर का स्पर्श नहीं कर सकते; क्योंकि चिदश में अभेद – निर्णय के पश्चात् भी क्लेश आदि का सम्बन्ध जीवात्मा से ही है; और यही परमात्मा से जीव का अन्तर सिद्ध करता है; ऐसा निश्चय हो सकता है।

ऐश्वर्यं तथेति चेन्न स्वाभाव्यात् ॥ ३४ ॥

यदि कहें, परमेश्वर में जैसे क्लेश आदि बाधित होते हैं, उसी प्रकार ऐश्वर्य भी बाधित हो सकता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐश्वर्य तो ईश्वर का स्वभाव है (अतः उसका बाध नहीं हो सकता ) ।

अप्रतिषिद्धं परैश्वर्यं तद्भावाच्च नैवमितरेषाम् ॥ ३५ ॥

श्रुति में कहीं भी परमेश्वर के ऐश्वर्य का निषेध नहीं किया गया है। (अपितु उसमें ऐश्वर्य को स्वाभाविक कहा गया है।) इसी प्रकार जीवों के ब्रह्मभाव का प्रतिपादन होने के कारण उनके लिये भी क्लेश आदि का होना स्वाभाविक नहीं (आगन्तुक ही) है।

सर्वानृते किमिति चेन्नैवं बुद्ध्यानन्त्यात् ॥ ३६ ॥

सब जीवों की क्रमशः मुक्ति होने पर जब सब प्रकार की बुद्धियों का लय हो जाता है, तब परमात्मा की पर – उपाधि के भी बनी रहने का कोई प्रयोजन न होने से उसका भी आत्यन्तिक लय हो जायगा; फिर उनमें स्वाभाविक ऐश्वर्य रहकर क्या होगा? ऐसा कहें तो ठीक नहीं; क्योंकि जीवोपाधिक बुद्धियाँ अनन्त हैं ( अतः ऐसा कोई काल ही नहीं है, जब सभी बुद्धियोंका लय हो जाय ) ।

प्रकृत्यन्तरालादवैकार्यं चित्सत्त्वेनानु- वर्तमानात् ॥ ३७॥

(यदि परमेश्वर में कर्तृत्वरूप ऐश्वर्य मानें तो वह विकारी होगा। इसके उत्तर में कहते हैं- ) परमेश्वर प्रकृति (मायाशक्ति) को बीच में डालकर सृष्टि करता है, अतः जड-प्रपञ्च की उपादानभूत प्रकृति में ही विकार है; परमेश्वर तो अविकारी ही है। वह अपनी चित्सत्ता से प्रकृति में अनुगत है; इसी से उसमें कर्तृत्वरूप ऐश्वर्य तो है, परंतु विकृति नहीं है।

तत्प्रतिष्ठा गृहपीठवत् ॥ ३८ ॥

(यदि प्रकृति या माया द्वारा ही जगत्की सृष्टि होती है, तब तो उसी में यह जगत् प्रतिष्ठित है; फिर यह कैसे कहा जाता है कि 'तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ' – ब्रह्म में ही सारा जगत् प्रतिष्ठित है ? इस शङ्का के उत्तर में कहते हैं -) प्रकृति या माया का आश्रय भी ब्रह्म ही है, अतः उसमें प्रतिष्ठित जगत्को ब्रह्म में प्रतिष्ठित मानने में कोई आपत्ति नहीं है; जैसे घर में पीढ़ा या चौकी रखी है और उस पर कोई मनुष्य बैठा है तो भी उसके लिये यह कहा जाता है कि वह घर में बैठा है।

मिथोऽपेक्षणादुभयम् ॥ ३९ ॥

सृष्टि कार्य में ब्रह्म तथा प्रकृति दोनों एक- दूसरे की अपेक्षा रखते हैं, अतः दोनों ही उसके कारण हैं।

चेत्यचितोर्न तृतीयम् ॥ ४० ॥

चेत्य और चित् (ज्ञेय और ज्ञातारूप प्रकृति एवं पुरुष ) - से भिन्न कोई तीसरा पदार्थ (जगत्में) नहीं है।

युक्तौ च सम्परायात् ॥ ४१ ॥

प्रकृति और पुरुष (जड़ और चेतन) अनादि काल से परस्पर संयुक्त हैं।*

*'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । (गीता १३ । १९ )

शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम् ॥ ४२ ॥

वेद्य अर्थात् ज्ञेय प्रकृति मायारूप होने के कारण सर्वथा मिथ्या है, ऐसा नहीं मानना चाहिये; क्योंकि वह ब्रह्म की शक्ति मानी गयी है ।

तत्परिशुद्धिश्च गम्या लोकवल्लिङ्गेभ्यः ॥ ४३ ॥

भक्ति की परिशुद्धि (दृढ़ता एवं निर्मलता)- का ज्ञान लौकिक प्रीति की भाँति बाह्य चिह्नों से होता है। (जैसे लोक में प्रियतम की चर्चा से प्रिया के पुलक- अश्रुपात आदि होते देख उसकी आन्तरिक प्रीति पहचानी जाती है, उसी प्रकार भगवत्कथा-श्रवण, नाम - कीर्तन आदि में रोमाञ्च, अश्रुपात आदि चिह्न देखकर विशुद्ध एवं दृढ़ भक्ति का अनुमान करना चाहिये।)

सम्मानबहुमानप्रीतिविरहेतरविचिकित्सामहिम-

ख्यातितदर्थ प्राणस्थानतदीयतासर्व तद् भावा-

प्रातिकूल्यादीनि च स्मरणेभ्यो बाहुल्यात् ॥ ४४ ॥

अर्जुन की भाँति भगवान्‌ के प्रति सम्मान की बुद्धि, इक्ष्वाकु की भाँति भगवत्सदृश नाम या वर्ण के प्रति अधिक आदर (उसके दर्शन से भगवत्प्रेम का उदय होना), विदुर आदि की भाँति भगवान् या भगवद्भक्त दर्शन से प्रीति, गोपीजनों की भाँति भगवान्‌ के विरह की अनुभूति, उपमन्यु तथा श्वेतद्वीपवासियों के समान भगवद्भिन्न वस्तुओं से स्वभावतः अरुचि होना, भीष्म एवं व्यास आदि की तरह निरन्तर भगवान्‌ की महिमा का वर्णन, व्रजवासियों तथा हनुमान्जी की भाँति भगवान्के लिये जीवन धारण करना, बलि आदि की भाँति मैं तथा मेरा सब कुछ भगवान्‌ का ही है, यह भाव रखना, प्रह्लादजी की तरह सब में भगवद्भाव होना, भीष्म, युधिष्ठिर आदि की भाँति कभी भगवान्के प्रतिकूल आचरण न करना आदि बहुत-से भक्तिसूचक चिह्न स्मृतियों (इतिहास-पुराणों के वर्णन ) - से भी प्रायः लक्षित होते हैं।

द्वेषादयस्तु नैवम् ॥ ४५ ॥

स्वामी के प्रति अनुराग रखनेवाले सेवकों में तो स्वामी के अनुग्रह की न्यूनाधिकता होने पर उसके प्रति द्वेष तथा ईर्ष्या आदि भाव भी प्रकट होते हैं, क्या ये भी प्रेम या भक्ति के ही चिह्न हैं ? नहीं; भगवान् के भक्तों में इस प्रकार द्वेष आदि नहीं प्रकट होते।*

* प्रमाण यह है-

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।

भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ ( महा० अनु० १४० | १३५ )

यद्वाक्यशेषात् प्रादुर्भावेष्वपि सा ॥ ४६ ॥

भगवान्‌ के अवतार – विग्रहों के प्रति भी जो भक्ति होती है, वह पराभक्ति ही है; गीता में भगवान्का ऐसा ही वाक्यशेष है ( पहले देवभक्तों को देवताओं की प्राप्ति बताकर अन्त में अपने भक्तों को अपनी प्राप्ति बतायी है - गीता ७।२३) ।

जन्मकर्मविदश्चाजन्मशब्दात् ॥ ४७ ॥

भगवान्के जन्म कर्म का रहस्य जाननेवाले पुरुष का भी जन्म नहीं होता, ऐसा भगवान्ने श्रीमुख से प्रतिपादन किया है। (गीता ४ । ९)

तच्च दिव्यं स्वशक्तिमात्रोद्भवात् ॥ ४८ ॥

भगवान्का जन्म और कर्म दिव्य है (जीव शरीर की भाँति कर्मफल के अधीन तथा पञ्चभूतों से निर्मित नहीं है); क्योंकि वह भगवान्‌ की योगमाया-शक्ति से प्रकट हुआ है (अतः अप्राकृत एवं चिन्मय है। अहंकार और फलासक्ति से रहित होने के कारण उनका प्रत्येक कर्म भी दिव्य है) ।

मुख्यं तस्य हि कारुण्यम् ॥ ४९ ॥

उनके जन्म-ग्रहण में जीवों के प्रति उनकी अहैतुकी कृपा ही मुख्य कारण है।

प्राणित्वान्न विभूतिषु ॥ ५० ॥

('मनुष्यों में मैं राजा हूँ।' (गीता १०।२७) इस भगवद्वचन के अनुसार राजा आदि विभूतियों को भगवद्रूप कहा गया है, अतः उनके प्रति की हुई भक्ति भी मोक्ष देनेवाली होनी चाहिये; इस शङ्का के उत्तर में कहते हैं -) विभूतियों के प्रति की हुई भक्ति पराभक्ति नहीं है (वह पराभक्ति का साधनमात्र हो सकती है); क्योंकि वे प्राणधारी जीव हैं। (जीवोपाधि से रहित परमेश्वरविषयक भक्ति ही परा भक्ति कहलाती है ।)

द्यूतराजसेवयोः प्रतिषेधाच्च ॥ ५१ ॥

धर्मशास्त्रों में द्यूतसेवन तथा राजा की सेवा का निषेध किया है; अतः इससे भी वे पराभक्ति के आश्रय नहीं सिद्ध होते हैं। (यदि वे ईश्वररूप से उपासनीय होते तो उनके सेवन का निषेध नहीं किया जाता। )

वासुदेवेऽपीति चेन्नाकारमात्रत्वात् ॥ ५२ ॥

यदि कहें, वासुदेव की भी तो विभूतियों- में ही गणना है (गीता १० । ३७); अतः राजा आदि की भाँति वे भी भजनीय नहीं सिद्ध होंगे तो ऐसा मानना ठीक नहीं है; क्योंकि भगवान् वहाँ आकारमात्र से ही वसुदेवपुत्र एवं मनुष्य हैं, वास्तव में तो साक्षात् परब्रह्म विष्णु ही हैं। *

* उनके विषय में ऐसा ही शास्त्रप्रमाण है-

यदोवंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।

यत्रावतीर्ण विष्ण्वाख्यं परं ब्रह्म नराकृति ॥(विष्णु० ४। ११ । २)

'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' (श्रीमद्भा० १ । ३ । २८ ) इत्यादि ।

प्रत्यभिज्ञानाच्च ॥ ५३ ॥

भगवान् वासुदेव (श्रीकृष्ण) की विष्णुरूपता के विषय में प्रत्यभिज्ञा ( पूर्व अनुभव की स्मृति) भी उपलब्ध होती है।*

* मार्कण्डेयजी युधिष्ठिर से कहते हैं-'मैंने प्रलयकाल में जिन परमेश्वर बालमुकुन्द का दर्शन किया था, वे ही आपके सम्बन्धी श्रीकृष्ण हैं'-

यः स देवो मया दृष्टः पुरा पद्मायतेक्षणः ।

स एव पुरुषव्याघ्रः सम्बन्धी ते जनार्दनः ॥ (महा० वन० १८९ । ५२ )

वृष्णिषु श्रैष्ठयेन तत् ॥ ५४ ॥

यदुवंशियों में वे सबसे श्रेष्ठ हैं, यही बताने की दृष्टि से विभूति वर्णन के प्रसंग में 'वासुदेव' का नाम भी लिया गया है। (जैसे १२ सूर्यो में विष्णु को विभूति कहा गया है (गीता १० । २१), परंतु वे विभूतिमात्र ही नहीं हैं, साक्षात् परमेश्वर हैं; आदित्यों में विष्णु नामक आदित्य ही सर्वश्रेष्ठ हैं, इतना ही प्रतिपादन करने के लिये वहाँ उनका नाम आया है।)

एवं प्रसिद्धेषु च ॥ ५५ ॥

इसी प्रकार साक्षात् विष्णुरूप से प्रसिद्ध जो रामभद्र वामन आदि अवतारविग्रह हैं, उनके प्रति की हुई भक्ति भी मुक्तिदायिनी पराभक्ति ही है, ऐसा जानना चाहिये।

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् प्रथम आह्निक सम्पूर्ण ॥

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् अध्याय २ द्वितीय आह्निक

भक्त्या भजनोपसंहाराद्गौण्या परायैतद्धेतु- त्वात् ॥ ५६ ॥

(गीता ९ । ९४, २९ आदि श्लोकों में * ) भक्ति-पद से भजन का उपसंहार होने के कारण वहाँ गौणी भक्ति से ही तात्पर्य है; क्योंकि गौणी भक्ति पराभक्ति की प्राप्ति में हेतु है ।

* सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।

रागार्थप्रकीर्त्तिसाहचर्याच्चेतरेषाम् ॥ ५७ ॥

(गीता ११ । ३६ में) कीर्तन से भगवान्के प्रति अनुराग होने की बात कही गयी है; अतः जैसे कीर्तन अनुराग में हेतु होता है, उसी प्रकार उसके साहचर्य से भगवन्नाम-श्रवण-वन्दन आदि जो अन्य भजन- प्रकार हैं, वे भी अनुरागरूप पराभक्ति की प्राप्ति करानेवाले हैं; ऐसा मानना चाहिये।

अन्तराले तु शेषाः स्युरुपास्यादौ च काण्डत्वात् ॥ ५८ ॥

( गीता ९ । १३ से लेकर ९। २९ तक के) बीच में (९ वें अध्याय के १४, १५, २२, २५, २६, २७, २८ इन श्लोकों में) जो कीर्तन, भजनार्थ यतन, व्रत, नमस्कार, ज्ञानयज्ञ, ध्यान, याग (पूजा), दान, सर्वकर्मार्पण आदि शेष गौणी भक्तियों का श्रवण होता है, वे सब की सब पराभक्ति की ही अङ्गभूत हैं। केवल ये ही नहीं, 'मनो ब्रह्मेत्युपासीत' इत्यादि वचनों द्वारा उपासना आदि में गृहीत जो साधन हैं, वे भी पराभक्ति के अङ्ग हैं; क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्मकाण्ड भक्तिकाण्ड (भक्ति और उसके साधनों का प्रतिपादक) - रूप ही है।

ताभ्यः पावित्र्यमुपक्रमात् ॥ ५९ ॥

इन गौणी भक्तियों द्वारा पवित्रता (पापक्षयपूर्वक अन्तःकरण की शुद्धि होती है; क्योंकि नवें अध्याय के प्रारम्भ (गीता ९ । २) - में 'पवित्रमिदमुत्तमम्' कहकर इन सबको पवित्र बताया गया है।

तासु प्रधानयोगात् फलाधिक्यमेके ॥ ६० ॥

पूर्वोक्त कीर्तन आदि साधनों में जो प्रधान भक्ति का योग बताया गया है, उससे सिद्ध होता है कि पराभक्ति से युक्त मनुष्य यदि नमस्कार - कीर्तन आदि करे तो अधिक फलकी प्राप्ति होती है-ऐसा किन्हीं - किन्हीं आचार्यों का मत है।

नाम्नेति जैमिनिः सम्भवात् ॥ ६१ ॥

आचार्य जैमिनि का मत है कि 'भक्ति' का नामतः प्रयोग होने से समानाधिकरण अन्वय सम्भव है, इसलिये भक्तिपूर्वक कीर्तन से पराभक्ति प्राप्त करे; इतना ही अभिप्राय है, उससे अधिक फल की कल्पना नहीं करनी चाहिये।

अत्राङ्गप्रयोगाणां यथाकालसम्भवो गृहादिवत् ॥ ६२ ॥

यहाँ पराभक्ति के साधनभूत कीर्तन श्रवण आदि अनुष्ठान यथासमय हो सकता है; जैसे गृह आदि निर्माण करने के लिये यथासमय तृण, काष्ठ आदि का संग्रह किया जाता है। (पहले तृण लाया जाय या काष्ठ आदि, इसका आग्रह नहीं होता; उसी प्रकार पहले कीर्तन हो या श्रवण आदि इसका आग्रह न रखकर जब जो साधन सम्भव हो, करना चाहिये ।)

ईश्वरतुष्टेरेकोऽपि बली ॥ ६३ ॥

पूर्वोक्त कीर्तन आदि साधनों में एक का भी विशेषरूप से अनुष्ठान करने पर वही परमेश्वर को संतुष्ट करके बलवान् (पराभक्ति की प्राप्ति कराने में समर्थ ) हो जाता है।

अबन्धोऽर्पणस्य मुखम् ॥ ६४ ॥

भगवान्‌ को समर्पित किया हुआ कर्म अपना शुभाशुभ फल देने में असमर्थ होने के कारण बन्धनकारक नहीं होता। उसकी वह अबन्धकता ही पराभक्ति की प्राप्ति का द्वार है।

ध्याननियमस्तु दृष्टसौकर्यात् ॥ ६५ ॥

ध्यान का नियम इसलिये बताया जाता है कि उसके द्वारा ध्येय के स्वरूप में चित्त भलीभाँति लगे; यही ध्यान का दृष्ट फल है और इसी की सुविधा के हेतु उसका नियम बताना आवश्यक है।

तद्यजिः पूजायामितरेषां नैवम् ॥ ६६ ॥

"( गीता ९ । २५ ) यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्' इस वाक्य में जो 'यज' धातु का प्रयोग है, वह अनिष्टोम आदि यज्ञों का वाचक है या अन्य किसी अर्थ का ?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं, वहाँ 'यज' धातु पूजा-अर्थ में है इतर यज्ञ-यागादिकों में 'यज' धातु पूजा के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुआ है।

पादोदकं* तु पाद्यमव्याप्तेः ॥ ६७ ॥

'पादोदक' शब्द पाद्य (पाँव पखारने के उद्देश्य से भगवान्को अर्पित किये जानेवाले जल ) - के अर्थ में प्रयुक्त होता है; 'साक्षात् चरणों का जल' अर्थ करने पर अव्याप्तिदोष होगा; क्योंकि साक्षात् भगवच्चरणों का जल सुलभ नहीं है।

* पादोदकं भगवतः प्रपुनाति सद्यः । (नृ० पु० ५९ । ६४)

स्वयमर्पितं ग्राह्यमविशेषात् ॥ ६८ ॥

'भगवान्‌ को निवेदित की हुई वस्तु वैष्णव को देनी चाहिये' यह नियम है। प्रत्येक वैष्णव भक्त को अपने द्वारा भगवान्‌ को निवेदित किये हुए नैवेद्य आदि का प्रसाद ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि विष्णुभक्त होने से वह भी उसका अन्य वैष्णवों के समान ही अधिकारी है।

निमित्तगुणाव्यपेक्षणादपराधेषु व्यवस्था ॥ ६९ ॥

पूजा के जो अनेक अपराध बताये गये हैं, उनमें निमित्त, गुण और अनपेक्षा के अनुसार व्यवस्था होती है। (कहीं किसी निमित्त से, कहीं गुण (स्वभाव) - से और कहीं अनिच्छा से अपराध बनते है; इनमें अनिच्छापराध से निमित्तापराध और उससे भी गुणापराध भारी है।)

पत्रादेदनमन्यथा हि वैशिष्ट्यम् ॥ ७० ॥

( गीता ९ । २६ ) के अनुसार पत्र-पुष्प आदि उपलक्षित सब प्रकार का दान, जो भगवान्के उद्देश्य से किया गया हो, पराभक्ति का अङ्ग है। यदि ऐसा न माने तो केवल पत्र, पुष्प, फल और जल- इन चार वस्तुओं से विशिष्ट दान ही भक्ति का अङ्ग होगा।

सुकृतजत्वात् परहेतुभावाच्च क्रियासु श्रेयस्यः ॥ ७१ ॥

पूर्वोक्त गौणी भक्तियाँ पूर्व-पुण्य के फलरूप से प्राप्त होती हैं और पराभक्ति की प्राप्ति में सहायक होती हैं; इसलिये वे समस्त क्रियाओं में कल्याणकारिणी होती हैं।

गौणं त्रैविध्यमितरेण स्तुत्यर्थत्वात् साहचर्यम् ॥ ७२ ॥

गौण भक्ति के तीन भेद हैं- आर्त-भक्ति, जिज्ञासा - भक्ति, अर्थार्थिता भक्ति । ज्ञान-भक्ति तो पराभक्तिरूप है; उसके साथ पूर्वोक्त तीन भक्तियों का उल्लेख उनकी स्तुति (प्रशंसा) के लिये किया गया है ।

बहिरन्तरस्थमुभयमवेष्टिसववत् ॥ ७३ ॥

स्मरण - कीर्तन आदि साधन बाहर रहकर स्वतन्त्र और पराभक्ति के साधनरूप से भीतर रहकर परतन्त्र भी होते हैं। इस प्रकार वे उभयरूप हैं। ठीक उसी तरह, जैसे अवेष्टि याग तथा बृहस्पति-सव कहीं राजसूय और वाजपेय के अङ्गरूप में भी उपलब्ध होते हैं तथा कहीं प्रधानरूप में भी रहते हैं। ('यज्ञ में जो प्रमादवश त्रुटि रह जाती है, वह विष्णु के स्मरण से ही पूर्ण होती है' इत्यादि वचनों द्वारा स्मरण - कीर्तन आदि की प्रधानता ही सूचित होती है ।)

स्मृतिकीर्त्योः कथादेश्चात प्रायश्चित्त- भावात् ॥ ७४ ॥

स्मरण, कीर्तन, कथा-श्रवण, नमस्कार आदि साधन आर्त- भक्ति में प्रयश्चित्तरूप से कहे गये हैं।*

* प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपः कर्मात्मकानि वै ।

यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥ (वि० पु० २। ६ । ३७ )

भूयसामननुष्ठितिरिति चेदाप्रयाणमुप- संहारान्महत्स्वपि ॥ ७५ ॥

यदि कहें, 'आर्त-भक्ति के द्वारा जो अपने बड़े-बड़े पापों के नाश के लिये बहुत से क्लेशसाध्य श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान नहीं हो रहा है, तब तो कीर्तन आदि लघु साधनों द्वारा उसके लघु पापों का ही क्षय हो सकता है, बड़े भारी पातकों का नहीं।' तो ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योंकि उसके लिये आमरण भगवत्स्मरण की* विधि का उपसंहार देखा जाता है । अतः बड़े भारी पातकों को दूर करने में भी वह स्मरण-कीर्तन आदि समर्थ है।

* तस्मादहर्निशं विष्णुं संस्मरन् पुरुषो मुने ।

न याति नरकं मर्त्यः संक्षीणाखिलपातकः ॥ (वि० पु० २ । ६ । ४३ )

लघ्वपि भक्ताधिकारे महत्क्षेपकमपरसर्वहानात् ॥ ७६ ॥

एक बार का किया हुआ स्मरण-कीर्तन आदि लघु होकर भी बड़े-बड़े पातकों को नष्ट करने में समर्थ होता है; क्योंकि भक्त के लिये भगवत्स्मरण या भगवच्छरणागति के सिवा, अन्य सब प्रायश्चित्तों के त्याग की विधि है *

* सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (गीता १८ । ६६ )

तत्स्थानत्वादनन्यधर्मः खले बालीवत् ॥ ७७ ॥

स्मरण - कीर्तन आदि को पाप के प्रायश्चित्तभूत कृच्छ्र- चान्द्रायणादि व्रत के स्थान में प्रतिष्ठित किया गया है; अतः उसके द्वारा पापों का नाश तो होगा ही; परंतु अन्य प्रायश्चित्तों में जो मुण्डन आदि कराने की विधि है, उन सब इतर धर्मो का पालन कीर्तनादिपरायण भक्त के लिये आवश्यक नहीं रह जाता है; जैसे खलिहान के मेह को यज्ञयूप के रूप में व्यवहार में लाने पर उसमें पशु को बाँधा तो जाता है, परन्तु यूप के लिये आवश्यक मानी जानेवाली अन्य विधियों का अनुष्ठान वहाँ आवश्यक नहीं समझा जाता है।

आनिन्द्ययोन्यधिक्रियते पारम्पर्यात् सामान्यवत् ॥ ७८ ॥

भक्ति में उच्च जाति से लेकर चाण्डालादि नीच जातितक के मनुष्यों का समानरूप से अधिकार है; ठीक उसी तरह जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि सामान्य धर्मो के ज्ञान और अनुष्ठान में सबका समान अधिकार है; गुरु तथा शास्त्रों के उपदेश की परम्परा से यही बात सिद्ध होती है।

अतो विपक्वभावानामपि तल्लोके ॥ ७९ ॥

अतः इस लोक में जिनकी पराभक्ति परिपक्व (सिद्ध) नहीं हुई है, उनके द्वारा भी भगवान्‌ के (श्वेतद्वीप आदि) लोक में रहकर भक्तिसाधन का अनुष्ठान किया जाता है, यह बात इतिहास-पुराणों में सिद्ध होती है।*

* क्षीरोदधेरुत्तरतः श्वेतद्वीपो महाप्रभः ।

तत्र नारायणपरा मानवाश्चन्द्रवर्चसः ।

एकान्तभावोपगतास्ते भक्ताः पुरुषोत्तमम् ॥ (महा० शान्ति०, मोक्ष० ३३६ । २७-२८ )

क्रमैकगत्युपपत्तेस्तु ॥ ८० ॥

ऐसा मानने से ही क्रम गति और एक- गति का प्रतिपादन करनेवाले वचनों की संगति होती है। (अर्थात् जिनकी भक्ति परिपक्व नहीं है, वे क्रमशः भिन्न-भिन्न लोकों में होते हुए अन्त में परिपक्वावस्था में पहुँचने पर भगवान्‌ को प्राप्त होते हैं और जो यहीं पराभक्ति में परिपक्व हो चुके हैं, वे अन्य किसी गति को न प्राप्त होकर एकमात्र भगवान्‌ को ही प्राप्त करते हैं; ऐसा सिद्धान्त स्वीकार करने पर ही ये उभयविध गति के प्रतिपादक वचन संगत होते हैं ।)

उत्क्रान्तिस्मृतिवाक्यशेषाच्च ॥ ८१ ॥

गीता अध्याय ८ श्लोक १० से १३ तक जो उत्क्रान्ति ( देहत्याग ) के पश्चात् प्राप्त होनेवाली परमगति का वर्णन आया है, उसके वाक्य शेष में ( अर्थात् ८ २४ में) क्रममुक्तिका प्रतिपादन किया गया है; इससे भी यही सिद्ध होता है कि परिपक्व भक्तिवाले पुरुष को अनन्य गति (केवल भगवान्) - की प्राप्ति होती है और अविपक्व भक्तिवाले को क्रममुक्ति मिलती है।

महापातकिनां त्वा ॥ ८२ ॥

(यदि चाण्डाल-योनितक के मनुष्यों का भक्ति में अधिकार है, तब तो महापात की मनुष्यों का भी उसमें अधिकार हो सकता है। इसके उत्तर में कहते हैं -) जिनके द्वारा पतन के हेतुभूत महापातक बन गये हैं, ऐसे लोगों का केवल आर्त-भक्ति में ही अधिकार है और किसी में नहीं। (उसके द्वारा पापनिवृत्ति हो जाने पर सब प्रकार की भक्ति में अधिकार हो जाता है।)

सैकान्तभावो गीतार्थप्रत्यभिज्ञानात् ॥ ८३ ॥

भगवान्‌ के प्रति एकान्तभाव (अनन्य प्रेम) ही वह पराभक्ति है, यह बात गीता के ९ । २२; ६ । ३०; ९ । ३४; ११ । ५५; १२ । ६ आदि वचनों के अर्थ पर विचार करने से सिद्ध होती है।

परां कृत्वैव सर्वेषां तथा ह्याह ॥ ८४ ॥

पराभक्ति की प्राप्ति करके ही कीर्तन आदि गौण भक्ति-साधनों का मुक्ति में उपयोग होता है; अर्थात् वे मुक्ति के साक्षात् साधन नहीं हैं, पराभक्ति को उपलब्ध कराकर ही उसके द्वारा मोक्ष प्राप्ति में कारण बनते हैं। ऐसा ही भगवान् श्रीमुख से कहते हैं।*

* गीता में भगवान का वचन है-

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥(१८ । ६८)

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् द्वितीय आह्निक सम्पूर्ण ॥

शाण्डिल्य भक्ति सूत्रम् द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण ॥

शेष आगे जारी.......... शांडिल्यभक्तिसूत्र अध्याय 3

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