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विष्णु पञ्जर स्तोत्र

विष्णु पञ्जर स्तोत्र

पञ्जर का अर्थ है-रक्षक। यह विष्णु का स्तोत्र हम सबका रक्षक है, इसलिये विष्णुपञ्जरस्तोत्र कहा जाता है। यहाँ अग्निपुराण अन्तर्गत विष्णुपञ्जरम् दिया गया है।

विष्णुपञ्जरस्तोत्र

विष्णुपञ्जरस्तोत्रम्

Vishnu panjar stotram

श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्र अग्निपुराणान्तर्गतम्

विष्णुपञ्जरम् स्तोत्र

श्रीविष्णुपञ्जर स्तोत्रं

पुष्कर उवाच

त्रिपुरञ्जघ्नुषः पूर्वं ब्रह्मणा विष्णुपञ्जरं ।

शङ्करस्य द्विजश्रेष्ठ रक्षणाय निरूपितं ॥१॥

पुष्कर कहते हैं-द्विजश्रेष्ठ परशुराम! पूर्वकाल में भगवान् ब्रह्मा ने त्रिपुरसंहार के लिये उद्यत शंकर की रक्षा के लिये 'विष्णुपञ्जर' नामक स्तोत्र का उपदेश किया था।

वागीशेन च शक्रस्य बलं हन्तुं प्रयास्यतः ।

तस्य स्वरूपं वक्ष्यामि तत्त्वं शृणु जयादिमत् ॥२॥

इसी प्रकार बृहस्पति ने बल दैत्य का वध करने के लिये जानेवाले इन्द्र की रक्षा के लिये उक्त स्तोत्र का उपदेश दिया था। मैं विजय प्रदान करनेवाले उस विष्णुपञ्जर का स्वरूप बतलाता हूँ, सुनो ।

विष्णुपञ्जरम्

विष्णुः प्राच्यां स्थितश्चक्री हरिर्दक्षिणतो गदी ।

प्रतीच्यां शार्ङ्गधृग्विष्णुर्जिष्णुः खड्गी ममोत्तरे ॥३॥

मेरे पूर्वभाग में चक्रधारी विष्णु एवं दक्षिणपार्श्व में गदाधारी श्रीहरि स्थित हैं। पश्चिमभाग में शाङ्गपाणि विष्णु और उत्तरभाग में नन्दक-खङ्गधारी जनार्दन विराजमान हैं।

हृषीकेशो विकोणेषु तच्छिद्रेषु जनार्दनः ।

क्रोडरूपी हरिर्भूमौ नरसिंहोऽम्बरे मम ॥४॥

भगवान् हृषीकेश दिक्कोणों में एवं जनार्दन मध्यवर्ती अवकाश में मेरी रक्षा कर रहे हैं। वराहरूपधारी श्रीहरि भूमि पर तथा भगवान् नृसिंह आकाश में प्रतिष्ठित होकर मेरा संरक्षण कर रहे हैं।

क्षुरान्तममलञ्चक्रं भ्रमत्येतत्सुदर्शनं ।

अस्यांशुमाला दुष्प्रेक्ष्या हन्तुं प्रेतनिशाचरान् ॥५॥

जिसके किनारे के भागों में छुरे जुड़े हुए हैं, वह यह निर्मल 'सुदर्शनचक्र' घूम रहा है। यह जब प्रेतों तथा निशाचरों को मारने के लिये चलता है, उस समय इसकी किरणों की ओर देखना किसी के लिये भी बहुत कठिन होता है।

गदा चेयं सहस्रार्चिःप्रदीप्तपावकोज्ज्वला ।

रक्षोभूतपिशाचानां डाकिनीनाञ्च नाशनी ॥६॥

भगवान् श्रीहरि की यह 'कौमोदकी' गदा सहस्रों ज्वालाओं से प्रदीप्त पावक के समान उज्ज्वल है। यह राक्षस, भूत, पिशाच और डाकिनियों का विनाश करनेवाली है।

शार्ङ्गविस्फूर्जितञ्चैव वासुदेवस्य मद्रिपून् ।

तिर्यङ्मनुष्यकूष्माण्डप्रेतादीन् हन्त्वशेषतः ॥७॥

भगवान् वासुदेव के शार्ङ्गधनुष की टंकार मेरे शत्रुभूत मनुष्य, कूष्माण्ड, प्रेत आदि और तिर्यग्योनिगत जीवों का पूर्णतया संहार करे।

खड्गधारोज्ज्वलज्योत्स्नानिर्धूता ये समाहिताः ।

ते यान्तु शाम्यतां सद्यो गरुडेनेव पन्नगाः ॥८॥

जो भगवान् श्रीहरि की खड्गधारामयी उज्ज्वल ज्योत्स्ना में स्नान कर चुके हैं, वे मेरे समस्त शत्रु उसी प्रकार तत्काल शान्त हो जायें, जैसे गरुड के द्वारा मारे गये सर्प शान्त हो जाते हैं।

ये कूष्माण्डास्था यक्षा ये दैत्या ये निशाचराः ।

प्रेता विनायकाः क्रूरा मनुष्या जम्भगाः खगाः ॥९॥

सिंहादयश्च पशवो दन्दशूकाश्च पन्नगाः ।

सर्वे भवन्तु ते सौम्याः कृष्णशङ्खरवाहताः ॥१०॥

जो कूष्माण्ड, यक्ष, राक्षस, प्रेत, विनायक, क्रूर मनुष्य, शिकारी पक्षी, सिंह आदि पशु एवं डसनेवाले सर्प हों, वे सब-के-सब सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण के शङ्खनाद से आहत हो सौम्यभाव को प्राप्त हो जायें ।

चित्तवृत्तिहरा ये मे ये जनाः स्मृतिहारकाः ।

बलौजसञ्च हर्तारश्छायाविभ्रंशकाश्च ये ॥११॥

ये चोपभोगहर्तारो ये च लक्षणनाशकाः ।

कूष्माण्डास्ते प्रणश्यन्तु विष्णुचक्ररवाहताः ॥१२॥

जो मेरी चित्तवृत्ति और स्मरणशक्ति का हरण करते हैं, जो मेरे बल और तेज का नाश करते हैं तथा जो मेरी कान्ति या तेज को विलुप्त करनेवाले हैं, जो उपभोग सामग्री को हर लेनेवाले तथा शुभ लक्षणों का नाश करनेवाले हैं, वे कूष्माण्डगण श्रीविष्णु के सुदर्शनचक्र के वेग से आहत होकर विनष्ट हो जायें ।

बुद्धिस्वास्थ्यं मनःस्वास्थ्यं स्वास्थ्यमैन्द्रियकं तथा ।

ममास्तु देवदेवस्य वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥१३॥

देवाधिदेव भगवान् वासुदेव के संकीर्तन से मेरी बुद्धि, मन और इन्द्रियों को स्वास्थ्यलाभ हो।

पृष्ठे पुरस्तान्मम दक्षिणोत्तरे विकोणतश्चास्तु जनार्दनो हरिः ।

तमीड्यमीशानमनन्तमच्युतं जनार्दनं प्रणिपतितो न सीदति ॥१४॥

मेरे आगे-पीछे, दायें-बायें तथा कोणवर्तिनी दिशाओं में सब जगह जनार्दन श्रीहरि का निवास हो। सबके पूजनीय, मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले अनन्तरूप परमेश्वर जनार्दन के चरणों में प्रणत होनेवाला कभी दुखी नहीं होता ।

यथा परं ब्रह्म हरिस्तथा परः जगत्स्वरूपश्च स एव केशवः ।

सत्येन तेनाच्युतनामकीर्तनात्प्रणाशयेत्तु त्रिविधं ममाशुभं ॥१५॥

जैसे भगवान् श्रीहरि परब्रह्म हैं, उसी प्रकार वे परमात्मा केशव भी जगत्स्वरूप हैं इस सत्य के प्रभाव से तथा भगवान् अच्युत के नामकीर्तन से मेरे त्रिविध पापों का नाश हो जाय ।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये विष्णुपञ्जरं नाम सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

इस प्रकार आदि आग्नेय(अग्नि) महापुराण में " श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्र का कथन' नामक दो सौ सत्तरवां अध्याय पूरा हुआ॥ २७० ॥

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