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कर्मकाण्ड

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शंकर स्तुति

शंकर स्तुति

जो मनुष्य भगवान् शंकर के इस स्तुति का पाठ करता है उनके लिए भगवान् शिव शंकर सदा ही सुलभ हो जाता है यह स्वयं सदाशिव का ही कथन है ।

शंकर स्तुति

शंकर स्तुति: श्रीवामनपुराणान्तर्गत

संसार के पितामह ब्रह्मा ने देवों के इष्टदेव, तीनों लोकों के स्वामी वरदानी भगवान् शंकर की स्तुति करनी आरम्भ की-

ब्रह्मोवाच

अनन्ताय नमस्तुभ्यं वरदाय पिनाकिने ।

महादेवाय देवाय स्थाणवे परमात्मने ॥ ५ ॥

नमोऽस्तु भुवनेशाय तुभ्यं तारक सर्वदा ।

ज्ञानानां दायको देवस्त्वमेकः पुरुषोत्तमः॥ ६ ॥

नमस्ते पद्मगर्भाय पद्मेशाय नमो नमः ।

घोरशान्तिस्वरूपाय चण्डक्रोध नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥

नमस्ते देव विश्वेश नमस्ते सुरनायक ।

शूलपाणे नमस्तेऽस्तु नमस्ते विश्वभावन ॥ ८ ॥

शंकर स्तुति हिन्दी भावार्थ 

पिनाक धारण करनेवाले वरदानी अनन्त महादेव! स्थाणुस्वरूप परमात्मदेव! आपको मेरा नमस्कार है। भुवनों के स्वामी भुवनेश्वर तारक भगवान् ! आपको सदा नमस्कार है। पुरुषोत्तम! आप ज्ञान देनेवाले अद्वितीय देव हैं। आप कमलगर्भ एवं पद्मेश हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। (प्रचण्ड) घोर-स्वरूप एवं शान्तिमूर्ति ! आपको नमस्कार है। विश्व के शासकदेव! आपको नमस्कार है। सुरनायक! आपको नमस्कार है। शूलपाणि शंकर! आपको नमस्कार है। (संसार के रचनेवाले) विश्वभावन! आपको मेरा नमस्कार है॥५-८॥

ऋषियों और ब्रह्मा ने जब इस प्रकार शंकर की स्तुति की तब महादेव शङ्कर ने कहा-भय मत करो; जाओ (तुम लोगों के कल्याणार्थ) लिङ्ग फिर भी (उत्पन्न) हो जायगा। मेरे वचन का शीघ्र पालन करो। लिङ्ग की प्रतिष्ठा कर देने पर निस्सन्देह मुझे अत्यन्त प्रसन्नता होगी। जो व्यक्ति भक्ति के साथ मेरे लिङ्ग की पूजा करेंगे उनके लिये कोई भी पदार्थ कभी दुर्लभ न होगा।

शंकर स्तुति:

देवता एवं तपस्वी ऋषियों ने भगवान् शंकर की स्तुति करने लगे-

नमस्ते परमात्मन् अनन्तयोने लोकसाक्षिन् परमेष्ठिन्

भगवन् सर्वज्ञ क्षेत्रज्ञ परावरज्ञ ज्ञानज्ञेय सर्वेश्वर

महाविरिञ्च महाविभूते महाक्षेत्रज्ञ महापुरुष

सर्वभूतावास मनोनिवास आदिदेव महादेव

सदाशिव ईशान दुर्विज्ञेय दुराराध्य महाभूतेश्वर

परमेश्वर महायोगेश्वर त्र्यम्बक महायोगिन्

परब्रह्मन् परमज्योति ब्रह्मविदुत्तम

ॐकार वषट्कार स्वाहाकार स्वधाकार परमकारण

सर्वगत सर्वदर्शिन् सर्वशक्ते सर्वदेव अज सहस्रार्चि

पृषार्चि सुधामन् हरधाम अनन्तधाम संवर्त संकर्षण

वडवानल अग्नीषोमात्मक पवित्र महापवित्र महामेघ

महामायाधर महाकाम कामहन् हंस परमहंस

महाराजिक महेश्वर महाकामुक महाहंस भवक्षयकर

सरसिद्धार्चित हिरण्यवाह हिरण्यरेता हिरण्यनाभ

हिरण्याग्रकेश मुञ्जकेशिन् सर्वलोकवरप्रद

सर्वानुग्रहकर कमलेशय कुशेशय हृदयेशय ज्ञानोदधे

शम्भो विभो महायज्ञ महायाज्ञिक सर्वयज्ञमय

सर्वयज्ञहृदय सर्वयज्ञसंस्तुत निराश्रय समुद्रेशय

अत्रिसम्भव भक्तानुकम्पिन् अभग्नयोग योगधर

वासुकिमहामणि विद्योतितविग्रह हरितनयन

त्रिलोचन जटाधर नीलकण्ठ चन्द्रार्धधर

उमाशरीरार्धहर गजचर्मधर

दुस्तरसंसारमहासंहारकर प्रसीद भक्तजनवत्सल ।।

शंकर स्तुति हिन्दी भावार्थ 

परमात्मन्! अनन्तयोने! लोकसाक्षिन्! परमेष्ठिन् ! भगवन् ! सर्वज्ञ! क्षेत्रज्ञ! हे पर और अवर के ज्ञाता! ज्ञानज्ञेय! सर्वेश्वर! महाविरिच! महाविभूते! महाक्षेत्रज्ञ! महापुरुष! हे सब भूतों के निवास ! मनोनिवास! आदिदेव! महादेव ! सदाशिव! ईशान ! दुर्विज्ञेय ! दुराराध्य ! महाभूतेश्वर ! परमेश्वर ! महायोगेश्वर ! त्र्यम्बक! महायोगिन् ! परब्रह्मन्! परमज्योति! ब्रह्मविद् ! उत्तम! ओंकार! वषट्कार! | स्वाहाकार ! स्वधाकार! परमकारण! सर्वगत! सर्वदर्शिन् ! सर्वशक्ति! सर्वदेव! अज! सहस्रार्चि! पृषार्चि! सुधामन् ! हरधाम! अनन्तधाम! संवर्त ! संकर्षण! वडवानल, अग्नि और सोमस्वरूप! पवित्र! महापवित्र! महामेध! महामायाधर! महाकाम! कामहन् ! हंस ! परमहंस! महाराजिक! महेश्वर! महाकामुक! महाहंस! भवक्षयकर! हे देवों और सिद्धों से पूजित ! हिरण्यवाह! हिरण्यरेता! हिरण्यनाभ! हिरण्यागकेश! मुअकेशिन्! सर्वलोकवरप्रद! सर्वानुग्रहकर! कमलेशय! कुशेशय! हृदयेशय! ज्ञानोदधे! शम्भो ! विभो! महायज्ञ! महायाज्ञिक! सर्वयज्ञमय! सर्वयज्ञहृदय! सर्वयज्ञसंस्तुत! निराश्रय! समुद्रेशय! अत्रिसम्भव! भक्तानुकम्पिन्! अभग्नयोग! योगधर! हे वासुकि और महामणि से द्युतिमान् शिव! हरितनयन ! त्रिलोचन ! जटाधर! नीलकण्ठ ! चन्द्रार्धधर! उमाशरीरार्धहर! गजचर्मधर! दुस्तर संसार का महासंहार करनेवाले महाप्रलयंकर शिव! हमारा आपको नमस्कार है। भक्तजनवत्सल शङ्कर! आप हम सब पर प्रसन्न हों।

इस प्रकार पितामह ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवगणों के साथ भक्तिपूर्वक स्तुति करने पर उन महात्मा ने हस्तिरूप का त्यागकर लिङ्ग में सन्निधान (निवास) कर लिया ।

इति श्रीवामनपुराणे सरोमाहात्म्ये शंकर स्तुति: चतुश्चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः।

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराण में शंकर स्तुति चौवालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४॥

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