माहेश्वरतन्त्र पटल ७
माहेश्वरतन्त्र के पटल ७ में मोह की
उत्पत्ति का कारण, ब्रह्म विचार, ब्रह्म द्वारा लीलाओं से ब्रह्माण्ड की सृष्टि
एवं संहार तथा भगवान् कृष्ण का दिव्य वृन्दावन वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल ७
Maheshvar tantra Patal 7
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ७
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र सप्तम पटल
अथ सप्तमं पटलम्
पार्वत्युवाच --
देवदेव ! महादेव ! करुणार्णव !
शङ्कर ! ।
श्रुत्वा त्वदीयवचनं नात्मा मे
परितुष्यति ॥ १ ॥
नारायणादिरूपाणि त्वयोक्तानि च
शङ्कर ! ।
तदुद्भवे हेतुमात्रं ब्रह्माज्ञानं
निरूपितम् ॥ २ ॥
पार्वती ने कहा- हे देवों के देव
महादेव,
करुणा के समुद्र भगवान शकर आपके वचनों को सुनकर मेरी आत्मा ठीक से
सन्तुष्ट नहीं हुई है । आपके द्वारा, हे शंकर, विष्णु के नारायण आदि रूपों का वर्णन किया गया। उनके उद्भव में ब्रह्म के
अज्ञान रूप एकमात्र हेतु का निरूपण किया गया ।। १-२ ।।
ब्रह्मण्यज्ञानसम्बन्धः सन्देहस्ते
निवारितः ।
कारण ब्रूहि देवेश मोहोत्पत्तौ
विशेषतः ॥ ३ ।।
ब्रह्म के अज्ञान के सम्बन्ध में
संदेह भी आपके द्वारा निवारित कर दिया गया । हे देवेश ! अब आप विशेष रूप से मोह की
उत्पत्ति का कारण बतलाइये ॥ ३ ॥
शिव उवाच---
शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि रहस्यं
वेदगोपितम् ।
यस्य कस्यापि नो वाच्यं वाच्यं
सर्वस्वदायिने ॥ ४ ॥
शिवजी ने कहा- हे देवि ! बेदों से
भी गोपित रहस्य को मैं कहूंगा। जिसे जिस किसी से भी नहीं कहना चाहिए। सर्वस्व दान
करने वाले को भी नहीं कहना चाहिए। उसे सुनो ॥ ४ ॥
तव स्नेहवशाद्देवि ! कथयामि न
चान्यथा ।
सच्चिदानन्दकं ब्रह्म सदंशेन क्षरं
जगत् ।। ५ ।।
हे देवि ! आपके स्नेह के कारण मैं
आप से कहता हूँ । अन्यथा यह किसी से भी कहने योग्य नहीं है । यह ब्रह्म सत्,
चित् और आनन्द रूप है । यह ब्रह्म अक्षर है । सदंश के कारण जगतरूप
से क्षर अर्थात् विनाशशील है ॥ ५ ॥
चिद्रूपं ब्रह्म परमं
नित्यमक्षरमव्ययम् ।
बाललीलाविनोदेन
कोटिब्रह्माण्डसंहतीः ॥
सृजते संहरत्येव निर्विकारं तथादि
यत् ॥ ६ ॥
चित् रूप ब्रह्म श्रेष्ठ है,
नित्य है, अक्षर है और अव्यय है। वही ब्रह्म
बाल लीलाओं के विनोद से कोटि ब्रह्माण्ड के समूह की रचना करते हैं और उनका संहार
भी करते हैं । फिर भी वह विकार रहित रहता है ॥ ६ ॥
तस्मादप्यक्षरा दूर्ध्वं
परमानन्दसुन्दरम् ।
नित्यवृन्दावनानन्दि
नानाक्रीडारसार्णवम् ॥ ७ ॥
उस अक्षर ब्रह्म से भी ऊपर परमानन्द
सुन्दर वृन्दावन में नित्य आनन्द लेने वाले नाना प्रकार की क्रीड़ाओं के रस के
समुद्र भगवान् कृष्ण हैं ॥ ७ ॥
विराजति ब्रह्मपुरे
मनोवाग्विषयातिमम् ।
अम्भोजकर्णिकावच्च नित्यवृन्दावनान्तरे
॥
तत्पत्रवदने कैश्चिन्महोद्यानैर्विराजितम्
॥ ८ ॥
निजं धामं रसानन्दं स्वप्रकाशं
महोज्ज्वलम् ।
कालिन्दी यत्र कोट्यर्क
भास्वद्रत्नतटोन्नता । ९ ।।
मन वाणी और विषय से भी परे वह
ब्रह्मपुर में विराजते हैं। वृन्दावन के मध्य वे नित्य कमल की कली के समान रहते
हैं और उसके पत्ते के समान अनेक महान् उद्यान में विराजते हैं। वह प्रभु निज धाम
में रहने वाले, नाना रस का आनन्द लेने वाले,
स्वयं प्रकाश से अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं जिस वृन्दावन में यमुना
नदी कोटि सूर्य से भासमान रत्नों से युक्त एवं उঁचे-नीच तटों वाली है ।। ८-९ ॥
हंससारसकारण्डनानापक्षिनिनादिता ।
फुल्लाम्भोजवनामोदलुब्धभ्रमर मण्डला
।। १० ।।
उस यमुना नदी का तट हंस,
सारस, कारंडव आदि नाना पक्षियों से निनादित है
। वहाँ फूले हुए कमल के वन की सुगन्ध से लुभायमान भ्रमरों का समूह शोभित है ।। १०
।।
नवरत्नमयीभिस्तु सिकताभिरलंकृता ।
महामणितटोत्तुङ्गकुट्टिभै: परिमण्डिता
॥ ११ ॥
यमुना तट की भूमि नवीन रत्नों से और
बालुओं से अलंकृत हैं। उसका तट महामणि से जटित उतुङ्ग फर्शो से परिभण्डित है ॥ ११
॥
नानादिव्यलता कुञ्जैरम्लान कुसुमोज्ज्वलै:।
दिव्यगन्धसमाकृष्टभृङ्गझङ्कारपेशलै:।।
१२ ।।
वहीं नाना प्रकार की दिव्य लताओं के
कुञ्ज विद्यमान थे जिनमें सदैव उज्ज्वल फूल खिले रहते थे । उनकी दिव्य सुगन्ध से
आकृष्ट हुए भ्रमरों की झङ्कार से वातावरण बड़ा ही मनोरम था ॥ १२ ॥
सप्ततीर्थे दिव्य
रत्नराजिराजितभूतलेः
उपरिस्थ मणिभ्राजत्कुट्टिमेर्दिव्य
मण्डपैः॥ १३ ॥
वहीं सात तीर्थों से लाए गए दिव्य
रत्नों की पक्ति से भूतल शोभित थे । उसके ऊपर मणियाँ जटित दिव्य मण्डल चमक रहा था
।। १३ ।।
शोभमानामृतजला स्वर्णपङ्कजमालिनी ।
रक्ततुण्डपदेश्चित्रपक्षैः
पक्षिगणैः शिवे ।। १४ ।।
हे शिवे ! वहाँ के अमृत जल में
स्वर्ग के कमल खिले थे । वहाँ लाल चोंच और लाल पैरों वाले तथा विभिन्न वर्णों के
चित्र विचित्र पंखों वाले पक्षियों का समूह विहार कर रहा था ।। १४ ।।
सेव्यमाना
सुखस्पर्शैर्वायुभिश्चलपङ्कजा ।
क्वचित्पर्यस्तमुक्तालिमहामरकतावनौ ।
शुद्धतामसहृद्युच्चैर्भाति भक्त्यङ्कुरा
इव ।। १५ ।।
उन स्वर्णिम कमलों से छूकर आई हुई
वायु के सुख स्पर्श का वे सेवन कर रहे थे । कहीं-कहीं मुक्तामणि बिखरी हुई थी और
सभी जगह महामरकत मणि से पृथ्वी बड़ी ही सुन्दर लग रही थी। ऐसा लगता था मानों शुद्ध
तामस हृदय में भक्ति- का अङकुर ऊपर उठा हो ।। १५ ।।
यत्रोन्नदन्तः शुकसारसाद्याः
पठन्ति दिव्यां गुणचित्रसत्कथाम् ।
शाखास्थिताः कल्पमहीरुहाणां
मन्दानिलान्दोलित पल्लवश्रियाम् ॥
१६ ॥
जिस कालिन्दी के तीर पर कल्प वृक्ष
की शाखा पर स्थित, ऊपर चोंच किए हुए
शुक एवं सारस आदि पक्षि गण दिव्य गुणों और विचित्र प्रकार की सुन्दर कथा का पाठ कर
रहे थे वहाँ मन्द मन्द वायु से आन्दोलित पत्तों की श्री अत्यन्त सुहावनी लग रही थी
। १६ ॥
न यत्र शोको न भयं मृतिर्वा
कालो न यत्र प्रभवेदनन्तः ।
यदेत्य शोचन्ति पुनर्न हीश्वराः
कुञ्जेषु लीला वपुषोऽमलाशया ।। १७
।।
उस कालिन्दी के तट पर शोक या भय
अथवा मृत्यु भी नहीं थी । जहाँ काल की माप नहीं थी। वह अनन्त था। जहां पर आकर ईश्वर
भी पुनः वहां से लौटने की नहीं सोंचते थे । वहाँ के कुञ्जों में लीलावपुधारी
भगगान् श्री कृष्ण बिहार करते थे ॥ १७ ॥
प्रतप्तजाम्बूनदसुन्दर त्विषः
कटाक्ष विक्षेपविलोभितेश्वराः।
चरन्ति मूर्त्ता इव विद्युतः स्फुटा
घनेषु कुञ्जध्वनियोषिताङ्गणाः ॥ १८
॥
वहाँ की युवतियाँ जाम्बूनद की
सुन्दरता से प्रतप्त कान्ति वाली थीं। उनके कटाक्ष के विक्षेप से देवता भी लुभा
जाते थे । वे जब आंगन में चलती थीं - ऐसा लगता था कि मानों बिजली सी मूर्तिमान
होकर चल रही हो । उनकी मन्द ध्वनि से ऐसा लगता था कि मानों बादलों की घड़घड़ाहट हो
रही है ॥ १८ ॥
प्रफुल्लचाम्पेय वनोल्लसल्लता-
शतोपशङ्क ययिता समीरणः ।
तनुष्विवानन्द परंपरां परां
तनोति तारुण्यभृतोन्नतद्भ्रवाम् ।।
१९ ।।
फूली हुई चम्पा की लता के वन से
शोभित और उधर से आई हुई सुगन्धि युक्त वायु ऊँची भौहों वाली तरुणियों के शरीर के
आनन्द की परम्परा को और भी बढ़ा देती थी ।। १९ ।।
सख्यः कुशेशयदृशो विलसद् विभूषाः
प्रोत्तुङ्गपीनकुचमण्डललम्बिहाराः।
काश्मीरनीर लुलिताम्बर रश्मिमाला
निर्भत्सितो दिसदिवाकरबिम्बशोभाः ॥
२० ॥
कमल के समान लोचन वाली सखियाँ चित्र
विचित्र वेषभूषा में शोभित थी । ऊँचे उठे हुए मोटे-मोटे स्तनों पर उसकी गोलाई तक
हार लटक रहा था। काश्मीर [ केसर ] के नीर (जल) से आलोडित अम्बर रूप ललाट के तिलक
की रश्मि के समूहों से उदीयमान सूर्य की लाली की शोभा को तिरस्कृत करते हुए शोभित
हो रहे वे ॥ २० ॥
दिव्यन्ति यत्र सुरसिद्ध दुरापलोकाः।
श्रुत्युल्लसत्कनककुण्डललोल गल्लाः
।। २१ ।।
सुरसिद्ध-दुरायलोकों की अङ्गनाएं
सुनने में मधुर लगने वाले सुवर्ण के कुण्डलों से शोभित गलों से युक्त होकर जहाँ
दिव्य आनन्द ले रही थी ॥ २१ ॥
घुमणिमणिसमुद्यत्कान्तिसन्दोह
रम्याः
विशदमरकतानामंशुकिमीरिताश्च।
प्रचलदचलशोभः पद्मरागैः सरागैः
प्रकटपरमशोमा भूमयो यत्र भान्ति ।।
२२ ।।
सूर्यकान्तमणि से स्फुरित होने वाली
कान्ति के समूह से रम्य और विशद मरकत मणि की किरणों से मिश्रित होकर वहाँ की भूमि
शोभित थी । इस प्रकार वहाँ की भूमि मानों प्रकृष्ट रूप से चन्चल किन्तु अचल शोभा
से युक्त रञ्जित पद्मरागमणि द्वारा श्रेष्ठ प्रकट कमलों से शोभित हो रही थी ।। २२
।।
नीलाद्रिकान्तिसन्दोहैरूर्ध्वगैः
सर्वतः प्लुतेः ।
दूरादाभाति वसुधा हरितृणमयाङ्कुरा ॥
२३ ॥
नीले पर्वत की कान्ति के सन्दोह
[संघात] से सभी ओर ऊपर उठती हुई पृथ्वी की आभा दूर से ऐसी लगती थी मानों हरित तृण
सभी ओर अङकुरित हों ।। २३ ।।
परापरविभागेन
नीलपुष्पमयौ गिरी ।
नानाश्चर्यमयो दिव्यो
दिव्योद्यानमनोहरी ॥ २४ ॥
नीचे और ऊपर के विभाग से ऐसा लगता
था मानों सम्पूर्ण पर्वत नीले रंग के पुष्पों से युक्त हो। दोनों ही,
नाना प्रकार के आश्चर्यों से युक्त दिव्य और दिव्य उद्यान से युक्त
मनोहर लग रहे थे ।। २४ ॥
स्फुरन्मयूखमालाभिः प्रकाशितदिगन्तरः
।
पद्मरागाचलः श्रीमानास्ते यत्र
महाद्विमान् ॥ २५ ॥
ऊपर उठती हुई किरणों की कान्ति से
दिक और दिगन्तर प्रकाशित थे । जहाँ श्री से युक्त पद्मराग के पर्वत महान् समृद्धि
से युक्त थे ।। २५ ।।
सरांसि यत्र भूयांसि
चित्सुधारसवन्ति च ।
विलसन्ति महारत्नशिलाबद्धानि सर्वतः
।। २६ ।।
जहाँ के बहुत से सरोबर चित् सुधा रस
से युक्त थे । महारत्नों की शिला से बँधे हुए वे चारों ओर से सुशोभित थे ।। २६ ।
यत्रोद्यानलताकुल्या वमन्ति मधुरां
सुधाम् ।
यूथश: खेलमानास्ताः
पिबन्त्यानन्दनिर्भराः ।। २७ ।।
जहाँ पर उद्यान,
लता और झरने मधुर अमृत की धारा बहा रहे थे । आनन्द में विभोर होकर
वे सखियाँ झुण्ड झुण्ड में खेलते हुए जलपान करती थीं ॥। २७ ॥
यत्रेव कुञ्जसदनानि हसन्मुखानि
व्याकीर्णकाञ्चनभूगासनमण्डितानि ।
प्रत्याहसन्मणिविजृम्भितकुट्टिमानि
कूजद्विहङ्गमकुलानि शिवानि नित्यम्
॥ २८ ॥
जहाँ पर कुञ्जों के गृह हँसते हुए
मुख वाली सखियों से युक्त थे । वे गृह बिखरे हुए सोने की भूमि से मानों मण्डित थे
। नित्य प्रति जहाँ की मणि जटिल फर्शो पर फुदकती हुई कल्याणकारी चिड़ियों के झुण्ड
कूर्दन किया करते थे ॥ २८ ॥
स्फूर्जन्मणिप्रविततिर्वितनोति
लक्ष्मीं
विस्फूर्ज दूरुशशिकान्त शिलातलेषु ।
कूलप्ररूढनलिनीदलरश्मिबिम्बा
रूढेषु कामपि नितान्त मुद: प्रणाली
॥ २९ ।।
चन्द्रकान्तमणि की शिलाओं के ऊपर
स्फुरित होती हुई कान्ति अन्य मणियों की ऊपर उठती हुई शोभा को बढ़ा रही थी। झरनों
के तट पर उगे हुए नलिनी दल की रश्मि के प्रतिबिम्बों में मानों पुष्पों की कतारें
बना रहे से प्रतिबिम्ब शोभित हो रहे थे ।। २९ ।।
वैदूर्यवीरुध इह प्रतिभान्ति
विष्वक्
या सुल्लसन्त्य रुणविद्रुमनत्तनानि ।
दूरादुपेतसित मौक्तिक रश्मिलेश
शोभां दधाति विमलां विलसन्तमार्याम्
॥३० ॥
वैदूर्यमणि की लताएं यहाँ चारों ओर
शोभित थीं जिसमें लाल-लाल मूंगे की छटा उल्लसित थी । दूर से सफेद मोतियों की रश्मि
के लेशमात्र से युक्त होकर विमल एवं श्रेष्ठ शोभा को पर्वत धारण कर रहे थे ॥ ३० ॥
यत्रेव चम्पकवनानि जयन्ति विष्वक
मत्तभ्रमद् भ्रमरदूरतरोज्झितानि ।
प्रत्युन्नदन्ति विटपेष्वनिशं
द्विजेन्द्रा
गीतध्वनि सुखसमीरसमुन्नमत्सु ॥ ३१ ॥
जहाँ पर चारो ओर चम्पा के फूल के वन
सुशोभित थे। जिस चम्पक वन में मंडराते हुए मतवाले भ्रमर दूर से ही मानों बिखेर दिए
गए थे। वहाँ के पेड़ों पर पक्षि सदैव कलरव कर रहे थे । सुख से मन्द मन्द चलने वाला
वायु मानों गीत ध्वनि को पैदा कर रहा था ॥ ३१ ॥
श्यामोदरद्युतिसरोजवनी स्थिताभिः
कान्तिच्छटाभिरभितोघृतदुर्दिनेषु ।
प्रोत्फुल्लपङ्कज कदम्बपरागपुञ्जो
विद्युच्छवि वहति गन्धवहः प्रणुन्नः
।। ३२ ॥
श्याम वर्ण [उदर ?]
की कान्ति वाले कमल के वनों में स्थित कान्ति वाले कमल के वनों में
स्थित कान्ति की छटाए वर्षा के दिनों में चारों ओर सुहावनी लग रही थी । वायु
विकसित कमलों के गुच्छों के पराग के पुञ्ज को धारण कर रही थी और वर्षाकालीन विद्युत
की चमक से सम्पूर्ण वन सुशोभित हो रहा था ।। ३२ ।।
क्रीडासरः स्फुटमुदञ्चति कुञ्जलीन-
गुञ्जद्द्द्विरेफपटलाकुलपङ्कजश्रिः
।
वप्रप्ररूढगुणरूढ कदम्बलम्बद्
दोला सहस्रकमनीयगुणं गुणोस ।। ३३ ।।
दूरादिहाद्रितनये कमलाकराणा-
मुचत्वरागपटलैश्च समीरवेगात् ।
स्फारीभवत्सुरभिगन्धसुधामयम्भ
चेतःसरो रमयतीत्यनुरागिभावम् ॥ ३४ ॥
वर्षा ऋतु में मानों केलि क्रीडा का
सरोवर स्फुट रूप से आलोडन कर रहा था। कुञ्ज में लवलीन एवं गुञ्जार करते हुए
भ्रमरों के झुण्ड के झुण्ड कमलों पर मंडराते हुए शोभित हो रहे थे । हे गुणवान
उरुओं वाली प्रिये! सरोवर के किनारे पर उगे हुए कदम्ब के वृक्षों पर सहस्रों झूले
लटक रहे थे । हे अद्रितनये ! ( हिमालय की पुत्रि ! ) यहाँ के कमल के समूह से उठी
हुई परागों की सुगन्ध से दूर-दूर तक वायु सुगन्धित होकर फैली हुई थी। चारो ओर
व्याप्त सुरभि युक्त सुगन्ध के अमृतमय वातावरण से चित्त का सरोवर भी रमणीय अनुराग
के भाव में विभोर हो रहा था ।। ३३-३४ ।।
मध्योल्लसद्विपुलविद्रसदेहलीक
विश्रान्तिमण्डपसमृद्धसमस्त भोगम् ।
सोपान वर्त्मसु निविष्टसखीसहस्र-
याहन्यमान मृदुमर्द पूर्ण कुजम् ॥
३५ ॥
उद्यन्मयूखमय शुद्धसुधातिवर्षे-
दुल्लसति नित्यमनस्त भावः ।
नित्याभिरन्विततमः स्वकलाभिरन्तः
शुद्धेतरप्रतिपक्षविपलधामा ।। ३६ ।।
वहाँ मध्य में बहुत से मूगों को
देहली वाला विश्राम मण्डप समस्त भोगों से समृद्ध था । सीढ़ियों वाले उन मार्गों पर
हजारों सखियाँ बैठी हुई मृदु एवं मर्दल पूर्णं कुञ्ज को आकीर्ण किए हुए थी । उठती
हुई किरण से शुद्ध एवं अमृत की खूब वर्षा करने वाले रत्न रूप चन्द्र नित्य ही मन
के अनुराग भाव को उल्लसित कर रहे थे। अपनी कलाओं से नित्य मिले हुए वे चन्द्र रूप
से शोभित थे ( शुद्धतेर धामा ? ) ।। ३५-३६ ॥
यत्रामृताम्भोनिधिमध्यविस्फुर-
द्रत्नोल्लसद् द्वीपनिवेश मद्भुतम्
।
चकास्ति तस्मिन्नरमाद्भुतं मह-
न्नैकेन भास्वन्मणिना विनिर्मितम् ॥
३७ ॥
यहाँ पर मध्य में मानों अमृत
विस्फुरित हो रहा था । उस अमृत समुद्र में रत्नों की छटा अद्भुत द्वीपों को मानों
उपस्थित कर रही थी । उस परमानन्द समुद्र के मध्य महान एवं अद्भुत तथा अनेक भास्वर
मणियों से विशेषतया निर्मित भवन चमक रहा था ।। ३७ ।।
निजालयं मन्दिरमद्भुताकृति
महामणिस्तम्भविराजमानम् ।
समोदितानेकर्दिवाकरेन्दुरुक-
प्रभावनिर्भर्त्सनरत्नमण्डितम् ॥ ३८
॥
नानाविधानन्द विहार भूमिका
दशैव यस्मिन् प्रतिभान्ति पेशलाः ।
विहारशय्यासन चारुचामरा
मृतानुलेपोत्तम गन्धसाधना ।। ३९ ।।
आनन्दघन परमात्मा का स्वयं का धाम
अद्भुत आकृति वाला ऐसा मन्दिर था जिसमें महामणि के खम्भे शोभित थे। वह भवन ऐसा
रत्नों से मण्डित था जिसमें अनेक सूर्य और चन्द्रमा की किरणों की छवि भी धूमिल हो
जाती थी । वह मन्दिर नाना प्रकार के आनन्द के विहार की भूमि वाला था जिसमें दस
प्रकार के मृदु द्रव्य उपलब्ध थे । वहीं बिहार के लिए शय्या एवं आसन थे। वह मन्दिर
सुन्दर चामर तथा अमृतमय अनुलेप और उत्तम सुगन्ध साधनों से परिपूर्ण था ।। ३८-३९ ।।
गवाक्षमालापथचारिभिर्महा-
गरुद्भवैर्धूभवरैः सुगन्धिभिः ।
इतस्तत: केलिवनानिलोद्धतै:
सुवासयन्त्यो वनपुष्पसम्पदः ।। ४०
।।
उस मन्दिर के गवाक्षों से निकलने
वाले अगरु के घूए से वातावरण अत्यन्त सुगन्धि से सुवासित था । इधर-उधर केलि वन की
वायु से उठे हुए वन पुष्प की सुगन्ध से सम्पूर्ण वातावरण सुवासित हो गया था ॥ ४० ॥
क्वचिद्दिनमणिज्योत्स्नाजाले
मध्याह्नसूचकम् ।
क्वचिदजनसङ्काशैर्मणिभिर्दशितक्षपम्
॥ ४१ ॥
कहीं पर लताओं के मध्य से आती हुई
सूर्य की किरणों के जाल से ऐसा लगता था कि मध्याह्न हो गया है। कहीं पर अञ्जन के
लगने से मणियों द्वारा प्रदर्शित रात्रि का भान हो जाता था ॥ ४१ ॥
उदितार्कमिवान्यत्र
पद्मरागप्रभारुणम् ।
सन्ध्यायमानमेक्वत्र इन्द्रनीलमणित्विषा
॥ ४२ ॥
अन्यत्र कहीं उदित होते हुए सूर्य
के समान पद्मराग की प्रभा से वह मन्दिर अरुण था और अन्यत्र कही इन्द्रनील मणि की
प्रभा से सन्ध्या की प्रतीत होती थी ।। ४२ ।।
जलजाकृतिमत्यम्ब चतुरस्रा च वेदिका
।
तस्याश्चतुषु कोणेषु हेमकुभाः
सुधाभृताः ॥ ४३ ॥
वर्हां की चतुरस्र वेदिका पर कमल की
आकृति बनी हुई थी उसके चारों कोनों पर अमृतमय सुवर्ण कलश सुशोभित थे ।। ४३ ।।
रत्नपङ्कजसंशोभैर्मुखा यत्र चकासते
!
मुक्तामय वितानानि
मणिभूमिप्रभाङ्कुरैः ।। ४४ ॥
वनिताओं के मुख रत्न कमल के समान
प्रकाशमान थे। उस मन्दिर का वितान (छत) मोती जड़ा हुआ था । मणिमय भूमि की प्रभा से
दूर्वा के अङकुर की प्रतीत होती थी ॥ ४४ ॥
निर्भिन्नानीह लक्ष्यन्ते
नानाचित्राकृतीनि च ।
कर्णिकावन्महासौधं परितस्तस्य
सुन्दरि ।। ४५ ।।
हे सुन्दरि ! नाना प्रकार के
चित्रों की आकृतियां प्रत्यक्ष रूप से पास-पास दिखाई दे रही थीं । उस मन्दिर की
चहार दिवारी चारो ओर कर्णिका के समान थी ।। ४५ ।।
द्वादशैव सहस्राणि प्रियाणां
सोधपङ्क्तय ।
प्रवाल देहलीकानि मणिद्वाराणि पार्वति
।
मुक्तातोरणवन्त्युच्चैर्नानाश्चर्यमयान्यपि।।
४६ ।।
हे पार्वति ! प्रियाओं की
सौघपङिक्तयाँ बारह हजार था । उन भवनों की देहली मूंगे की और द्वार मणियों के बने
थे । मोतियों के तोरण से युक्त द्वारा नाना प्रकार के आश्चर्यमय सजावट से युक्त थे
।। ४६ ।।
नानावर्णैर्महाचित्रै श्वित्रितानि समन्ततः
।
गवाक्षमालाविलसन्मणिदीपोज्ज्वलानि च
।। ४७ ।।
दीर्घिकाभिश्च दीर्घाभिर्विक
चोत्पलपङ्क्तिभिः ।
गाहमानाभिरनिशं सखीवृन्दे विभूषितैः
।। ४८ ।।
चारो ओर द्वार पर नाना वर्णं के
बड़े-बड़े चित्र चित्रित थे और गवाक्षों की पक्ति मणि दीपों के प्रकाश से प्रकाशित
थी । बड़ी-बड़ी दीर्घिकाओं से युक्त वह भवन सदैव सखीवृन्द से विभूषित था ।। ४७-४८
।।
क्वणत्कनकभूषाढ्यैः कौशम्भाम्बरशोभितै:
।
नानाकेलिरसास्वादविघूर्णित विलोचनैः
॥ ४९ ॥
स्वर्ण के बजते हुए आभूषणों से
युक्त वे सखियाँ कुसुम्भी रंग की साड़ियाँ पहने हुए सुन्दर प्रतीत हो रही थीं । वे
सखियाँ नाना प्रकार के केलि क्रीडा के रस के आस्वाद से मत्त लोचनों वाली थी ।। ४९
।
महाद्वारमहं वन्दे भास्वद्रत्न
कपाटकम् ।
सन्मुखं दूरतो यस्य विमति यमुना नदी
॥ ५० ॥
इस प्रकार के मन्दिर के सिंहद्वार
की मै वन्दना करता हूँ जिसमें चमकते हुए रत्नों से जटित दरवाजे लगे थे। जिस
सिंहद्वार के सम्मुख यमुना नदी शोभित हैं मैं उसे प्रणाम करता हूँ ।। ५० ।।
तत्प्राङ्गणं कुङकुमपङ्कपिच्छलं
समुद्यदादित्यसहस्रभास्वरम् ।
मुक्तामयूखावलिमिश्रितैर्महा-
मणिप्रकाशैररुणीकृतान्तरम् ॥ ५१ ॥
वहाँ का आँगन कुङ्कुम के कीचड़ से
फिसलन वाला हो गया था। उस रक्तिम फर्श पर ऐसा लगता था कि मानों हजारों भास्वर
सूर्य उदित हो रहे हों । मुक्तामणि की किरणों को पङ्ति से मिश्रित होकर महामणि के
प्रकाश से आँगन का सभी भीतरी भाग लाल वर्ण का हो रहा था ॥ ५१ ॥
यत्र कार्त्तस्वरमयी
पर्यस्तमणिमौक्तिका ।
परमानन्दभवन विभाति विविधास्थली ।।
५२ ॥
जहाँ पर मानों कार्तस्वर करती हुई
मुक्तामणि बिखरी हुई थी । वहाँ विविध प्रकार की भूमि परम आनन्द भवन के रूप में
शोभित हो रहीं थी ।। ५२ ।।
सव्यापसव्ययोर्यस्य पुरश्व
सुरवन्दिते ।
कुट्टिमानि विचित्राणि भान्ति
भूयांसि यत्र वै ।। ५३ ।।
हे सुरवन्दिते ! सम्मुख तथा बाई ओर
और दाहिनी तरफ की विविध प्रकार की चित्रित फर्श शोभायमान थी ।। ५३ ।।
यत्र जाम्बूनद
स्तम्भेष्वारोपितमणिव्रजाः ।
प्रपुष्णन्ति महीदीपशोभा मधूतवर्चसः
॥ ५४ ॥
जहाँ पर जाम्बूनद के स्तम्भों पर
मणियों के समूह लगाए गए थे। इस प्रकार वे मणि वहाँ की पृथ्वी में बिना हिले हुए लौ
वाले द्वीपों की शोभा को मानों पुष्ट कर रहे थे ॥ ५४ ॥
तन्मध्यतो जयति कश्चिदनर्घ्यमुक्ता
माणिक्य राशिरचितो विलसत्पताकः ।
विद्रुमविनिर्मितदेहलीक:
श्री मण्डपः कुसुमराशिभिरुद्यतश्रीः
॥ ५५ ॥
उस मण्डप के बीच में कोई अनमोल
मुक्ता एवं माणिक्य आदि रत्नों से खचित शोभा पा रही थी। वैदूर्य मणि और मूंगे से
निर्मित देहली वाला और पुष्पों की राशि से समृद्ध वह श्री मण्डप अत्यन्त कान्तिमान
था ॥ ५५ ॥
नृत्यन्ति कुर्जदलघध्वनिनूपुराणां
केयूरचा वलयावलिभासुराणाम् ।
यूथानि सस्मितमुखद्युतिनर्त्ताकीना-
मादर्शिताभिनय मुच्चलकुण्डलश्रीः ॥
५६ ॥
(जिस मण्डप में) केयूर (बाजूबन्द)
और सुन्दर कंगनों के समूह से प्रकाशित हाथों वाली तथा मन्द मन्द नूपुरों की आवाज
से गुजार करती हुई नृत्याङ्गनाए नाच रहीं थी । मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त
नर्तकियों के समूह के अनेक झुण्ड, अपने कुण्डलों
को हिलाते हुए शोभायमान श्री से युक्त अभिनय दिखा रहे थे । ५६ ॥
यत्रेन्द्रनीलमणिनिर्मितनीलपद्मे-
षूद्भ्रान्तभृङ्गवनितापटली विभाति ।
यत्रोल्लसत्स्फटिक भूमितलोपविष्टा-
हंसा विशेषम भजन्पदचञ्चुभासा ।। ५७
।।
इन्द्रनील मणि से निर्मित नील
पद्मों में उद्भ्रान्त होकर घूमती हुई भौंरों की भ्रमरियों के झुण्ड से जहाँ की
भूमि शोभित था और जो शोभायमान स्फटिक की भूमि तल पर बैठे हुए हंस विशेष के पद और चञ्चु
की कान्ति युक्त थी ।। ५७ ।।
आमोदमोदित दिगन्तरभृङ्गसङ्घ
कल्पद्रुकोमलपरागसरागमार्गे
मन्मानसं गिरिसुते सित सैन्धवीयः
खण्डो निमज्जतु महामणिमण्डपान्तः ॥
५८ ॥
सुगन्ध से सुगन्धित दिगन्तर में
भ्रमरों के समूह से युक्त और कल्पवृक्षों के समान कोमल पराग से लालिमायुक्त मार्ग
में,
हे गिरिसुते ! श्वेत उदधि रूप हमारा मन महामणि के मण्डप के भीतर
अवगाहन करे ।। ५८ ।।
यमुनायाः परे कूले निज धाम
प्रतिष्ठितम् ।। ५९ ।।
अपरस्मिन् महेशानि धाम स्यादक्षरस्य
तु ।। ६० ।।
यमुना के एक किनारे पर भगवान् कृष्ण
का निजधाम प्रतिष्ठित है और हे महेशानि ! दूसरे किनारे पर अक्षर [ब्रह्म] का धाम
है ।। ५९-६० ।।
धाम्नोभिमुखनीशानि वनान्युपवनानि च
।
चिदानन्दमयी वापी मणिमण्डपमण्डिता
।। ६१ ।।
हे ईशानि ! उन दोनों धामों के
अभिमुख वन और उपवन विद्यमान हैं । मणिमण्डप से मण्डित चित् और आनन्दमयी वापी वहाँ
सुशोभित है ।। ६१ ।।
पारिजातवन यत्र
प्रवालकुसुमोज्ज्वलम् ।
पद्मरागमयाकारनानावृक्षं विराजितम् ।।
६२ ।।
मूंगे के समान लाल (एवं श्वेत वर्ण
के) उज्ज्वल फूलों से पुष्पित जहाँ पारिजात के वन शोभायमान थे। पद्मराग युक्त आकार
वाले नाना प्रकार के वृक्षों से वह वन शोभायमान था ।। ६२ ।।
वैदूर्यमयवल्लीनां पद्मरागपलाशकैः ।
मुक्तास्तबकयुक्तंश्च
काञ्चनाङ्कुरसंगतः ॥ ६३ ॥
वैदूर्यमणि से युक्त लताओं के
पद्मराग से युक्त पत्तों से एवं मुक्तामणि के गुच्छों से युक्त तथा सुवर्ण के
अङकुर से सम्पन्न ( वह वन था ) ।। ६३ ।।
यूथैविराजितं विष्वक्
नानाक्रीडारसालयम् ।
सपादलक्षयोजनानां संख्यायां विमलं
सरः ।। ६४ ।।
चारो ओर से सखियों के झुण्ड से
शोभायमान उस वन का विमल सरोवर नाना प्रकार की क्रीडा-केलि का आलय था जो संख्या में
सवा लाख योजन तक विस्तृत था । ६४ ॥
मणिरत्नशिलाबद्ध मणिकुट्टिममण्डपम् ।
प्रवालपद्मरागाद्यैः
क्लृप्तसोपानसुन्दरम् ॥ ६५ ॥
मणि तथा रत्न की शिला से आबद्ध और
मणियों से निर्मित फर्श के मण्डप वाला, मूंगा
एवं पद्मराग आदि से निर्मित सुन्दर सीढ़ियों से युक्त होने से शोभायमान सरोवर था ॥
६५ ॥
तत्रस्था भर्त्तु रुद्दाम यशो
गायन्ति योषितः ।
काश्चिल्लम्बन्ति दोलाभिर्गायन्त्यो
मधुरस्वरम् ।। ६६ ।।
वहाँ पर स्थित कुछ वनिताएं अपने
स्वामियों के उत्कृष्ट यश का गायन कर रही थी और कुछ झूले से झुलती थी तथा कुछ मधुर
स्वर में गायन कर रही थी ।। ६६ ।।
काश्चिन्मृदङ्गवीणाद्यैर्नाना
क्रीडा रसोज्ज्वलाः ।
खेलन्ति परमानन्दाः सखीसख्यो
मुदान्विताः ।। ६७ ॥
कुछ सखियाँ अपनी सखियों के साथ
मृदङ्ग तथा बीणा आदि बजाते हुए नाना प्रकार के क्रीडा रस से प्रसन्न परमानन्द में
खेल रही थी ।। ६७ ॥
महापद्मवनं यत्र पद्मरागमयाम्बुजम्
।
वैदूर्यदण्डपत्रालिस्फुरद्
वैडूर्यपद्मिनी ।। ६८ ।।
जहाँ पर महापद्म का वन पद्मराग से
युक्त कमलों वाला था तथा वैदूर्यमणि के दण्ड एवं पत्ते की पङक्तियों से सुशोभित था
। वैदूर्य वर्ण की पद्मिनी वहाँ पर सुशोभित थी ।। ६८ ।।
प्रवाल केसरोद्भासिदिव्यगन्धमनोहरम्
।
सृजद्वितानमाकाशे रजोभिर्वायुनोद्धतैः
।। ६९॥
वायु से उठे हुए रजों से युक्त आकाश
में मानों मण्डप का सृजन करता हुआ मूंगे के समान केसर से उद्भासित दिव्यगन्ध के
कारण वह सरोवर मनोहर लग रहा था ।। ६९ ।
संख्यया परितो देवि
लक्षयोजनविस्तृतम् ।
यद्गन्धानन्दसंसर्गात् ब्रह्मानन्दपरम्पराः
।। ७० ।।
हे देवि ! संख्या में चारो ओर एक
लक्ष योजन विस्तृत वह आनन्द सरोवर था, जहाँ
पर सुगन्ध के आनन्द- संसर्ग से ब्रह्मानन्द की परम्परा विद्यमान थी ॥ ७० ॥
अप्रार्थनीयतमाभान्ति केनचित्सर्वथा
सदा ।
रमते भगवान् क्वापि सप्रियाभिः
समन्वितः ।। ७१ ।।
किसी सखि के प्रार्थना न करने पर भी
अपनी प्रियाओं से समन्वित भगवान् कृष्ण कहीं पर किसी के साथ सर्वथा रमण करते थे ॥
७१ ॥
वसन्ते कुंकुमाम्भोभिर्जलयन्त्रविनिर्गतः
।
वसन्तपुष्पाभरणैः स्फुरन्
मुक्ताविभूषणैः ॥ ७२ ॥
वसन्त ऋतु में कुकुम युक्त जल से जल
यन्त्र द्वारा निकली हुई और वसन्त ऋतु के पुष्पों के आभरणों से युक्त तथा चमकते
हुए मोतियों के अलङ्करणों से युक्त श्रीकृष्ण (रमण करते थे ) ॥ ७२ ॥
प्रच्छन्नाभिः प्रकाशाभिः
क्रीडाभिरितरेतरम् ।
नानापरिमलोद्गारैर्नानापक्षिगणस्वनेः।।
७३ ।।
पिककोलाहले
दिव्यनित्यानन्दविवर्द्धनः।
स्फुरत्तडितमेघा लिध्वनन्नभसि
प्रावृषि ।। ७४ ।।
प्रच्छन्न,
प्रकाश एवं एक दूसरे से क्रीडा करते हुए नाना प्रकार के सुगन्ध-
द्रव्यों से युक्त और नाना प्रकार के पक्षि गणों के कलरव से युक्त, कोयल की कूजन से युक्त, दिव्य तथा नित्यानन्द की
वृद्धि से युक्त, वर्षा काल में चमकती हुई विद्युत् वाले
मेघों के समूह के ध्वनि से युक्त आकाश में वे भगवान् क्रीडारत थे ।। ७३-७४ ॥
भूमिकासु सखीवृन्देर्गायमानः
प्रमोदते ।
एवं क्रमेण भगवान् क्रीडते ऋतुचर्यया
।। ७५ ।।
सखियों के समूह के साथ गाते हुए
आनन्द करने वाले भगवान् इस प्रकार ऋतुचर्या के अनुसार क्रीडा कर रहे थे ।। ७५ ।।
कदाचिन्मणिगेहस्थ कुट्टिमे सुमनोहरे
।
चतुर्दिक्षु महारत्नस्तम्भैः षोडशभिर्युतः
॥ ७६ ॥
किसी समय सुमनोहर तथा मणिमण्डित गृह
के फर्श पर वे चारो दिशाओं में महारत्न के १६ स्तम्भों से युक्त मण्डप में रमण
करते थे ।। ७६ ।।
अन्योन्य
प्रतिबिम्बत्वादन्योन्येतरथागतैः।
प्रियामध्यगतो भाति तारामध्ये यथा
शशी ।। ७७ ।
उन स्तम्भों में एक दूसरे के
प्रतिबिम्ब से एक दूसरे के भ्रम से वे भगवान् कृष्ण अपनी प्रियाओं के मध्य वैसे ही
सुशोभित होते थे जैसे तारागणों के मध्य चन्द्रमा सुशोभित होते है ॥ ७७ ॥
नानानर्म विनोदेश्च नानाक्रीडा
कुतूहलैः ।
रमते भगवान् यत्र स्वयं रसमयः
पुमान् । ७८ ।।
भगवान् कृष्ण नाना प्रकार के हास्य
एवं विनोदों के द्वारा अनेक क्रोडा-केलि के कुतूहलों से जहाँ रमण कर रहे थे वहाँ
एक मात्र ही रसमय पुरुष वे स्वयं थे ॥ ७८ ॥
अक्षरः परमात्मा च
पुरुषोत्तमसंज्ञकः ।
उभावप्येक एवार्थो लीलाभेदेन
सुन्दरि ॥ ७९ ॥
हे सुन्दरि ! अक्षर ब्रह्म तथा
पुरुषोत्तम नामक परमात्मा दोनों ही इस प्रकार लीला भेद से एक ही तत्व हैं।।७९।।
अक्षरे सृष्टिकर्तृत्वान्न
श्रृङ्गाररसोदयः ।
अमायत्वाद्रसात्मस्वान्नापर:
सृष्टिकृत्प्रिये ॥ ८० ॥
अक्षर ब्रह्म में सृष्टिकर्तृत्व के
कारण शृङ्गार रस का उदय नहीं होता । हे प्रिये ! माया से परे होने से रसात्मक होने
से ब्रह्म सृष्टि कर्ता से अन्य कुछ और नहीं हैं ॥ ८० ॥
दिदृक्षा ह्यक्षरस्यासील्लीलाया
दर्शने प्रिये ।
पूर्णप्रियाप्रेम पश्ये
विलसत्पुरुषोत्तमे ।। ८१ ।।
हे प्रिये ! लीला-दर्शन में अक्षर
ब्रह्म की देखने की इच्छा ही कारण है । वही ब्रह्म पुरुषोत्तम में प्रिया के पूर्ण
प्रेम को देखते हैं ।। ८१ ।।
तज्ज्ञात्वा पुरुषः श्रेष्ठः
प्रियाविच्छां दधे प्रिये ।
प्रार्थयामासुरेतास्तं
श्रीस्वामिन्या समन्विताः ।। ८२ ।।
हे प्रिये ! उसे जानकर भी ब्रह्म
पुरुष श्रेष्ठ प्रिया में इच्छा को धारण करते हैं और वे उन श्री स्वामिनियों से
समन्वित होकर उनसे प्रार्थना किए जाते हैं ।। ८२ ।।
सख्य ऊचुः
भो भो स्वामिन्परानन्द परात्परतर
प्रभो ।
वयं प्रियाः प्रियोऽसि त्वं
तस्मान्नः प्रियमाचर ।। ८३ ।।
सखियों ने कहा- हे स्वामि ! हे
परमानन्द ! हे परात्पर ! हे प्रभु! हम सभी [जीव] आपकी प्रिया हैं और आप हमारे
प्रिय है। अतः आप हमारा प्रिय करें ॥ ८३ ॥
अक्षरात्मा तु भगवान् या लीलाः
सृजते प्रभुः ।
अस्माभिर्नानुभूतास्ताः कीदृशीः
किविधा इति ॥ ८४ ॥
भगवान्,
जो अक्षरात्मा हैं, वहीं प्रभु लीला का सृजन
करते हैं । उन लीलाओं का हम लोगों ने अनुभव नहीं किया कि वे कैसी हैं और किस
प्रकार की हैं ॥ ८४ ॥
तद्दिदृक्षितचित्तानां कामो नः
प्रतिबाधते ।
कारयानुभवं तस्याः कारुण्येन
कृपानिधे ॥ ८५ ॥
उन लीलाओं को देखने की इच्छा वाले
हम जीवों को काम बाधित करता है अतः हे कृपानिधि ! आप कारुण्य से उन लीलाओं का हमें
अनुभव कराइए ।। ८५ ।।
श्रीकृष्ण उवाच
प्रियाः शृणुत मे वाक्यं सावधानेन
चेतसा ।
न यूयं दर्शने योग्याः
नित्यानन्दपदे स्थिताः ॥ ८६ ॥
श्री कृष्ण ने कहा- हे प्रियाओ ! आप
सभी सावधान चित्त होकर मेरे वाक्यों को सुनिए । नित्य-नन्द के पद पर स्थित आप उन
लीलाओं के दर्शन के योग्य नहीं है ॥ ८६ ॥
यत्रानन्दस्वरूपस्य हानिर्भवति
सर्वथा ।
त्रिगुणायास्तु लीलाया दर्शनेन
प्रियंवदाः ॥ ८७ ॥
हे प्रियवादिनि । जहाँ त्रिगुणात्मक
लीला के दर्शन से सर्वथा आनन्द के स्वरूप की हानि होती है ॥ ८७ ॥
मायावेशाद्विचित्रत्वं
भावरूपात्मनां भवेत् ।
स्वलीलासहितं मां च न द्रक्ष्यथ
कदाचन ॥ ८८ ॥
माया के कारण विचित्र वह लीला
भावरूपात्मक हो जाती है । अतः अपनी लीलाओं के सहित और मुझ परब्रह्म को साथ-साथ आप
कभी भी नहीं देख सकती हैं ॥ ८८ ॥
दुःखानुभव एवास्ति न सुखस्य कदाचन ।
विस्मरिष्यथ मां तत्र किमन्यत्त वदामि
भोः ।। ८९ ।।
वह लीला दुःखानुभवात्मक ही है और
कभी भी सुख का अनुभव कराने वाली नहीं है । क्योंकि मुझ परमात्मा को वहाँ आप
विस्मृत कर देगीं । अतः हे प्रियाओ ! आप सब से अन्य क्या कहूँ ।। ८९ ।।
इत्युक्तास्ताः प्रियाः सर्वाः
प्रत्यूचुः पुरुषोत्तमम् ।
तथापि प्रिय तत्सर्वं नानुभूतं
कदाचन ॥ ९० ॥
तस्मादनुभवारूढ यथा भवति तत्कुरु ।
दुःख कामो विना दुःखदर्शन न
निवर्तते ॥ ९१ ॥
विना दुःखं न च सुखं स्वरूपेण
प्रतीयते ।
तस्मात्साध्य नः कामं
गुणलीलानुदर्शने ।
एवमुक्ते प्रियाभिस्तु तथास्त्विति
जगाद सः ॥ ९२ ।।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के कहने पर उन
सभी प्रियाओं ने पुरुषोत्तम से इस प्रकारः कहा – तथापि वह सभी प्रिय लीलाएं हमलोगों द्वारा कभी भी अनुभूत नहीं हुई हैं ।
इसलिए जिस प्रकार हम सब उनका अनुभव कर सकें वैसा आप कीजिए । वस्तुतः दुःख की कामना
वाला विना दुःख का दर्शन किए उसे नहीं अनुभव कर सकता है । फिर विना दुःख के सुख के
स्वरूप की प्रतीति भी नहीं हो सकती । इसलिए हे प्रभु! आप सगुण लीला का दर्शन कराकर
हम लोगों की कामनाओं की पूर्ति कीजिए। इस प्रकार उन प्रियाओं के आग्रह पर उन
भगवान् कृष्ण ने 'तथास्तु' कहा ( और
लीला प्रारम्भ की ) ।। ९०-९२ ॥
इति श्रीमाहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे
शिवोम संवादे सप्तम पटलम् ।। ७ ।।
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के सप्तम पटल की डॉ० सुधाकर मालवीयकृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ७ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 8
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