अगस्त्य संहिता अध्याय १०

अगस्त्य संहिता अध्याय १०                

अगस्त्य संहिता के इस अध्याय १० में इस अध्याय में श्रीराम की सांगोपांग अर्चना की विधि का वर्णन है । इसके अनुसार श्रीराम के द्वार, पीठ पर स्थित अंग तथा परिवार देवताओं में गणेश, सूर्य, शिव, क्षेत्रपाल, धात्री, ब्रह्मा, गंगा, यमुना, कुलदेवता, शंख. पद्म, निधि, वास्तोष्पति, लक्ष्मी, गुरु, सरस्वती, आधारशक्ति, कूर्म, नागाधिपति, पृथ्वी, क्षीरसागर, धर्म, ज्ञान, वैराग्य, विमला, उत्कार्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हनुमान्, सुग्रीव, भरत, विशीषण, लक्ष्मण, अंगद, शत्रुघ्न, जाम्बवान्, धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल, सुमन्त, वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, गोतम, भरद्वाज, कौशिक, वाल्मीकि, नारद, नल, नील, गवय गवाक्ष, गन्धमादन, सुरभि आदि देवों की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि इनके प्रसन्न होने पर ही श्रीराम और श्रीसीता का प्रसाद प्राप्त हो सकेगा। इस अध्याय में एक नारदीय स्तोत्र है, जिसमें इन सभी देवों के प्रति नमस्कार अर्पित किया गया है। इस स्तोत्र को प्रातःकाल पाठ करने से भोग और मोक्ष दोनों की सिद्धि बतलायी गयी है । यहाँ इन देवों की पूजा पंचोपचार, एकादशोपचार या षोडशोपचार से करने का संकेत किया गया है।

अगस्त्य संहिता अध्याय १०

अगस्त्यसंहिता अध्याय १०         

Agastya samhita chapter 10

अगस्त्य संहिता दशम अध्याय

अगस्त्य संहिता

अगस्त्यसंहिता दसवाँ अध्याय

अथ दशमोऽध्यायः

अगस्त्य उवाच

पूजाविधानं वक्ष्यामि नारदाभिमतं च यत् ।

वाल्मीक मुनीन्द्राय द्वारपूजादिकं तथा ।। 1 ।।

आकर्णय मुनिश्रेष्ठ सर्वाभीष्टफलप्रदम् ।।2।।

अगस्त्य बोले- हे मुनि श्रेष्ठ सुतीक्ष्ण ! नारद ने मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि को जो पूजा तथा द्वार पूजा विधि बतलायी थी वह मैं कहता हूँ, उसे सुनो इससे सभी मनोरथ सफल हो जाते हैं ।

श्रीरामद्वारपीठाङ्गपरिवारतया स्थिताः ।

ये सुरास्तानिह स्तौमि तन्मूला: सिद्धयो यतः ।

श्रीराम के द्वार पर, पीठ पर, अङ्ग के रूप में तथा परिवार के रूप में जो देवगण उल्लिखित हैं, उनकी स्तुतियाँ मैं करता हूँ; क्योंकि सिद्धियाँ उन्ही के द्वारा प्राप्त होतीं हैं।

वंदे गणपतिं भानुं त्रिलोकस्वामिनं शिवम् ।।3।।

क्षेत्रपालं तथा धात्रीं विधातारमनन्तरम् ।

गृहाधीशं गृहं गंगां यमुनां कुलदेवताम् ।।4।।

प्रचण्डचण्डौ च तथा शंखपद्मनिधी अपि ।

वास्तोष्पतिं द्वारलक्ष्मीं गुरुं वागधिदेवताम् ।।5।।

सर्वप्रथम गणेश, सूर्य, तीनों लोकों के स्वामी शिव, क्षेत्रपाल तथा धात्री की पूजा करें। इसके बाद ब्रह्मा की पूजा करें। फिर वास्तु के स्वामी, वास्तु, गंगा, यमुना और कुलदेवता की पूजा करें। प्रचण्डा, चण्ड, शंख, पद्म, निधि, वास्तोष्पति, द्वारलक्ष्मी, गुरु और वाक् की देवता सरस्वती की पूजा करें ।

एताः संपूज्य भक्त्याहं श्रीरामद्वारदेवताः ।

श्रीराम के इन द्वार-देवताओं की पूजा कर प्रार्थना करें –

राम माहात्म्य नारदीय स्तोत्र

महामण्डूककालाग्निरुद्राभ्यां प्रणमाम्यहम् ।।6।।

आधारशक्तिकूर्माभ्यां नागाधिपतये तथा ।

पृथिव्यै च तथा लक्ष्म्यै सागराय नमो नमः ।।7।।

'महामण्डूक और कालाग्निरुद्र को प्रणाम करता हूँ। आधारशक्ति और कूर्मदेव को प्रणाम । शेषनाग को प्रणाम । पृथ्वी, लक्ष्मी और सागर को प्रणाम ।

श्वेतद्वीपाय रत्नाद्रौ कल्पवृक्षाय ते नमः ।

सुवर्णमण्डपायथ पुष्पकाय महार्हते ।।8।।

विमानायाष्टरत्नाय सम्यक्सिंहासनाय च ।

उद्यदादित्यसंशोभिपद्माय तदनन्तरम् ।।9।।

श्वेतद्वीप और रत्नपर्वत पर स्थित कल्पवृक्ष को प्रणाम । सुवर्ण - मण्डप और विशाल पुष्पक विमान को प्रणाम । आठो रत्नों को और सुन्दर सिंहासन को प्रणाम। इसके बाद उगते हुए सूर्य के समान शोभायमान कमल पुष्प को प्रणाम ।

नमामि धर्मज्ञानाभ्यां वैराग्याद्यग्नितः क्रमात् ।

ऐश्वर्याय नमो धर्माज्ञानाभ्यां पूर्वतस्तथा ।।10।।

अवैराग्याय च तथानैश्वर्याय नमो नमः ।

इसके बाद धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य को अग्निकोण से आरम्भ चारो कोणों में प्रणाम । पूर्व में धर्म और अज्ञान, दक्षिण में ज्ञान और अवैराग्य पश्चिम में वैराग्य और अनैश्वर्य तथा उत्तर में ऐश्वर्य और अधर्म को प्रणाम ।

अं अर्कमण्डलायाहमुपर्युपरि सर्वदा ।।11।।

सत्त्वाय रजसे नित्यं तमसेपि नमो नमः ।

चं चन्द्रमण्डलमिति ध्यात्वाध्यात्वा नमाम्यहम् ।। 12 ।।

रमग्निमण्डलायेति सम्पूज्यैव प्रयत्नतः ।

विमलोत्कर्षिणीज्ञानाक्रियायोगाभ्य इत्यपि ।। 13 ।।

नमामि प्रह्वीसत्याभ्यामीशानायै दलान्तरे ।

पूर्वादितोऽनुग्रहायै प्रणमामि तदन्तरे ।। 14 ।।

यन्त्र पर सूर्यमण्डल के ऊपर हमेशा सत्त्व, रजस् और तमस् को प्रणाम । चन्द्रमण्डल को बार-बार ध्यान कर प्रणाम । '' स्वरूप अग्निमण्डल को प्रणाम । इस प्रकार यत्नपूर्वक पूजित दलों के मध्य में- विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या और ईशाना को पूर्व से प्रारम्भ कर प्रणाम। इसके बाद अनुग्रहा को प्रणाम ।

नमो भगवते तद्वद् विष्णवे तदनन्तरम् ।

सर्वभूतात्मने चेति वासुदेवाय इत्यपि ।।15।।

ततः सर्वात्मकायेति योगपीठात्मने नमः ।

प्रणवादिनमोऽन्ताय मन्त्रपीठात्मने नमः ।।16।।

इसके बाद भगवान् विष्णु को प्रणाम । प्रत्येक प्राणी की आत्मा में रहनेवाले वासुदेव को प्रणाम । तब सभी की आत्मा के स्वरूप योगपीठ स्वरूप सिंहासन को प्रणाम । आदि में प्रणव (ॐ कार ) और अन्त में 'नमः' से युक्त मन्त्र पीठस्वरूप को प्रणाम ।

यजामहे स्वरामों ह्रीं आत्मना संव्यवस्थितौ ।

नमोऽन्ताय रामाय ससीताय नमो नमः ।। 17 ।।

सांनिध्याधारयोगेन नियतेन षडात्मना ।

व्यवस्थिताय रामाय नमोऽनन्ताय विष्णवे ।। 18 ।।

श्रीबीजाद्योऽपि सीतायै स्वाहान्तोऽयं षडक्षरः ।

तदेतन्मन्त्ररूपाय रामाय ज्योतिषे नमः ।।19।।

ॐ रां रां यजामहे, ॐ ह्रीं आत्मने नमः, ॐ रामाय नमः, ॐ ससीताय नमः । सान्निध्य और आधार के संयोग से नियत रूप में 'छह स्वरूपों में स्थित हैं, ऐसे श्रीराम को प्रणाम । ॐ अनन्ताय नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ श्रीं सीतायै स्वाहा ये षडक्षर मन्त्र हैं । इन मन्त्रों के स्वरूप ज्योतिःस्वरूप राम को प्रणाम ।

सानुस्वारस्वरान्ताय वह्नये हृदयाय च ।

नमश्चैव स्वरान्ताय स्वाहान्ताय कृशानवे ।।20।।

शिरसेऽप्यग्नये चान्तः शिखायै वषडात्मने ।

ऐमस्त्राय हृदे नित्यं कवचाय हुं ते नमः ।।21।।

चतुर्दशस्वरान्ताय सानुस्वाराय वह्वये ।

नेत्राभ्यां वौषडान्ताय परोऽस्त्राय फडात्मने ।। 22 ।।

अनुस्वार के साथ अन्त में रेफ लगाकर वह्निदेव से न्यस्त हृदय को प्रणाम । वृद्धि के स्वामी अग्नि को प्रणाम । (एधेश्वराय कृशानवे स्वाहा ) शिर पर न्यस्त वकार सहित अग्नि को प्रणाम (वं अग्नये शिरसे स्वाहा ) वषट्कार जो शिखा पर न्यस्त हैं उन्हें प्रणाम। ( 'शिखायै वषट्') ऐं सहित वह्नि, जो नित्य कवच स्वरूप हैं उन्हें प्रणाम (ऐं वह्नये कवचाय हुम् ) अनुस्वार सहित चतुर्दश स्वरों के साथ वह्नि जो वौषट् स्वरूप दोनों नेत्रों में न्यस्त हैं उन्हें प्रणाम (अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠ लृं लॄं ए ऐं ओं औं वह्नये नेत्राभ्यां वौषट्) इसके बाद फट् स्वरूप अस्त्र को प्रणाम (अस्त्राय फट् ) ।

एवं नमः षडङ्गाय रामाय ज्योतिषे नमः ।

आत्मान्तरात्मपरमज्ञानात्मभ्योऽग्नितः क्रमात् ।। 23।।

इस प्रकार आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, ज्ञानात्मा स्वरूप जो ज्योतिः स्वरूप राम क्रमशः अग्नि, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान कोण में स्थित हैं, उन्हें प्रणाम ।

निवृत्त्यै च प्रतिष्ठायै विद्यायै ते नमाम्यहम् ।

शान्त्यै चात्मादिशक्तित्वे स्थित्यै तद्रूपिणे नमः ।। 24।।

वासुदेवाय ते नित्यं तथा संकर्षणाय च ।

प्रद्युम्नायानिरुद्धाय श्रियै शान्त्यै नमो नमः ।। 25।।

प्रीत्यै रत्यै नमो राम द्वितीयावरणात्मने ।

निवृति, प्रतिष्ठा, विद्या और शान्ति जो आत्मा आदि चारों की शक्तियाँ हैं, उन्हें प्रणाम । वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध इन चारो को प्रणाम । पुनः श्रीः, शान्ति, प्रीति और रति जो इनकी शक्तियाँ हैं, उन्हें द्वितीयावरण में प्रणाम ।

अग्रे हनूमान् सुग्रीवो भरतश्च विभीषणः ।। 26।।

लक्ष्मणोऽप्यङ्गदश्चैव शत्रुघ्नो जाम्बवाँस्तथा ।

धृष्टिर्जयन्तो विजयः सुराष्ट्रो राष्ट्रवर्द्धनः ।। 27 ।।

अकोपो धर्मपालश्च सुमन्तश्चाष्टमन्त्रिणः ।

ऐतेभ्यो रामरूपेभ्यो युष्मभ्यं प्रणमाम्यहम् ।। 28 ।।

आगे में हनूमान्, सुग्रीव, भरत, विभीषण, लक्ष्मण, अंगद, शत्रुघ्न, जाम्बवान्, धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्द्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त ये आठ मन्त्री हैं। ये सोलह, जो रामस्वरूप हैं, उन्हें प्रणाम ।

इन्द्राग्नियमदेवेभ्यो सायुधेभ्यो नमो नमः ।

नमो निर्ऋतये तुभ्यं वरुणाय नमो नमः ।। 29 ।।

वायवे धनदायाथ रुद्रायेशाय ते नमः ।

ब्रह्मणेऽनन्तरूपाय दिक्पालायात्मने नमः ।।30 ।।

अपने अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, रुद्र, ब्रह्मा और अनन्त इन दश दिक्पालों को प्रणाम ।

तदायुधाय वज्राय शक्तये दण्डकाय च ।

नमः खड्गाय पाशाय ध्वजाय च गदात्मने ।। 31 ।।

त्रिशूलायाम्बुजायाथ चक्राय सततं नमः ।

इनके अस्त्र-शस्त्र स्वरूप वज्र, शक्ति, दण्ड, खड्ग, पाश, ध्वज, गदा, त्रिशूल, कमल और चक्र को सदा प्रणाम ।

वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिर्गोतमस्तथा ।।32 ।।

भरद्वाजः कौशिकश्च वाल्मीकिर्नारदस्तथा ।

वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, गौतम, भरद्वाज, कौशिक, वाल्मीकि और नारद ये आठ पार्षद् ऋषि हैं ।

नलं नीलं च गवयं गवाक्षं गन्धमादनम् ।।33।।

सुरभिश्चापि मैन्दं च द्विविदं च जपेत् क्रमात् ।

नल, नील, गवय, गवाक्ष, गन्धमादन, सुरभि, मैन्द और द्विविद का भी क्रमशः जप करना चाहिए।

शङ्खचक्रगदापद्मशार्ङ्गबाणात्मने नमः ।।34 ।।

गरुत्मते नमस्तुभ्यं विष्वक्सेनादिकाश्च ये ।

शंख, चक्र, गदा, पद्म, शार्ङ्ग और वाण इन शस्त्रास्त्रों को प्रणाम । हे गरुड़ आपको प्रणाम, शार्ङ्ग धारण करने वाले विष्वक्सेन आदि को प्रणाम ।

सर्वैश्वर्यस्वरूपाय ज्योतिषे सततं नमः ।।35।।

मनोवाक्कायसहितं कर्म यद् वा शुभाशुभम् ।

तत्सर्वं प्रीतये भूयान्नमो रामाय शार्ङ्गिणे ।।36।।

सभी प्रकार के ऐश्वर्य के स्वरूप तथा प्रकाशस्वरूप श्रीराम को प्रणाम । मेरे मन, वचन तथा शरीर से जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म किये गये हैं उन सबसे श्रीराम प्रसन्न हों। शार्ङ्ग धनुषधारी श्रीराम को प्रणाम ।

एतद् रहस्यं सततं प्रत्यूषसि समाहितः ।

यः पठेद् राममाहात्म्यं सर्वैश्वर्यनिधिर्भवेत् ।।37।।

विनाशयेदसौभाग्यं दारिद्र्यौघं निकृन्तयेत् ।

उपद्रवांश्च शमयेत् सर्वलोकं वशं नयेत् ।।38 ।।

यः पठेत् प्रातरुत्थाय ब्रह्मार्पणधियान्वहम् ।

स याति शाश्वतं ब्रह्म पुनरावृत्तिदुर्लभम् ।।39 ।।

प्रतिदिन प्रातः काल इस रहस्यमय राम माहात्म्य का पाठ करते हैं, वे सभी ऐश्वर्यों के भण्डार बन जाते हैं। यह माहात्म्य दुर्भाग्य का विनाश करता है; दरिद्रताओं को काटता है, उपद्रवों को शान्त करता है, सबको वश में ला देता है। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्म को समर्पित करने की बुद्धि से प्रतिदिन स्तोत्र का पाठ करते हैं। वे उस अविनाशी ब्रह्म को पा लेते हैं, जहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता ।

नारदीयमिदं स्तोत्रं सुतीक्ष्ण मुनिसत्तम ।

पठितव्यं प्रयत्नेन रामार्चनपरायणैः ।।40।।

हे मुनिश्रेष्ठ सुतीक्ष्ण ! यह नारदोक्त स्तुति है जिसे श्रीराम की उपासना करनेवालों को प्रयत्नपूर्वक पढ़ना चाहिए।

गणपत्यादयः सर्वे द्वाराङ्गावृत्तिरूपिणः ।

प्रणवादिचतुर्थ्यादिनमोन्ताः स्वस्वनामभिः ।। 41।।

पूजनीया: प्रयत्नेन गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ।

उपचारै:षोडशभिः तथैकादशभिर्मुने ।। 42 ।।

पंचभिर्वा प्रयत्नेन स्वशक्त्यानुरूपतः।

गणपति आदि सभी जो द्वारदेवता, अङ्ग देवता और चारो ओर फेरा लगानेवाले (परिक्रमा करनेवाले) देवता हैं, उनकी पूजा गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि प्रणव (ॐकार) आरम्भ में तथा नमः अन्त में लगाकर अपने अपने नाम के चतुर्थयेन्त पद से पंचोपचार, एकादशोपचार तथा षोडशोपचार से अपनी शक्ति के अनुसार करें।

गणपत्यादयोऽप्येवं पूजनीयाः प्रयत्नतः ।

गणपत्यादयो ह्येते पूजिताः पूजयन्त्यपि ।।43 ।।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन स्तोत्रमेतत् समभ्यसेत् ।।44।।

इसी प्रकार गणपति आदि की भी पूजा करनी चाहिए। ये गणपति आदि पूजित होकर स्वयं श्रीराम की पूजा करते हैं, अतः सभी उपायों से इस स्तोत्र का अभ्यास करना चाहिए।

इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये पूजाविधिर्नाम दशमोऽध्यायः ।

आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 11

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