दुर्गा कवचम्

दुर्गा कवचम्

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ४८ में दुर्गापञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत दुर्गाकवचम् के विषय में बतलाया गया है।

दुर्गाकवचम्

दुर्गाकवचम्

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् अष्टचत्वारिंश: पटल:

Shri Devi Rahasya Patal 48      

देवीरहस्य पटल ४८ दुर्गा कवच

अथाष्टाचत्वारिंशः पटलः

श्रीदुर्गाकवचम्

श्रीभैरव उवाच

अधुना देवि वक्ष्यामि कवचं मन्त्रगर्भकम् ।

दुर्गायाः सारसर्वस्वं कवचेश्वरसंज्ञकम् ॥ १ ॥

परमार्थप्रदं दिव्यं महापातकनाशनम् ।

योगिप्रियं योगगम्यं देवानामपि दुर्लभम् ॥ २ ॥

विनानेन न मन्त्रस्य सिद्धिर्देवि कलौ भवेत् ।

कवच माहात्म्य श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! अब मैं श्रीदुर्गा के मन्त्रगर्भ कवच का वर्णन करता हूँ। यह दुर्गासार सर्वस्व है। इसे कवचेश्वर कहते हैं। यह नित्य परमार्थ-प्रदायक है। महापापों का विनाशक है। योगियों को प्रिय है, योगगम्य है। देवों को भी दुर्लभ है। कलियुग में इसके बिना मन्त्रसिद्धि नहीं मिलती ।। १-२ ।।

धारणादस्य देवेशि शिवस्त्रैलोक्यनायकः ॥३॥

भैरवो भैरवेशानो विष्णुर्नारायणो बली ।

ब्रह्मा पार्वति लोकेशो विघ्नध्वंसी गजाननः ॥४ ॥

सेनानीश्च महासेनो जिष्णुलोंकर्षभः प्रिये ।

सूर्यस्तमोपहश्चैव चन्द्रोऽमृतनिधिस्तथा ॥५॥

बहुनोक्तेन किं देवि दुर्गाकवचधारणात् ।

मर्त्योऽप्यमरतां याति साधको मन्त्रसाधकः ॥६॥

इसे धारण करके ही शिव तीनों लोकों के नायक हैं। हे पार्वति ! भैरव, भैरवेशानी, विष्णु एवं नारायण बल सम्पन्न हुये हैं। ब्रह्मा लोकेश हुये हैं एवं गजानन विघ्नों के विनाशक हुये हैं। कार्त्तिकेय सेनानायक हुये हैं एवं विजयी होकर लोकपूजित हुये हैं। अन्धकार दूर करने वाले सूर्य और चन्द्रमा अमृत के भण्डार हुये हैं। बहुत कहने से क्या लाभ? हे देवि! इस दुर्गा कवच को धारण करने से मरणधर्मा साधक भी अमरता प्राप्त करता है ।। ३-६ ।।

ऋष्यादिकथनम्

कवचास्यास्य देवेशि ऋषिः प्रोक्तो महेश्वरः ।

छन्दोऽनुष्टुप् प्रिये दुर्गा देवताष्टाक्षरा स्मृता ॥ ७ ॥

चक्रिबीजं च बीजं स्यान्माया शक्तिरितीरिता ।

तारं कीलकमीशानि दिग्बन्धो वर्णितोऽश्मरी ।

धर्मार्थकाममोक्षार्थे विनियोग इति स्मृतः ॥८ ॥

विनियोग ऋषि आदि - हे देवेशि! इस कवच के ऋषि महेश्वर कहे गये हैं। इसका छन्द अनुष्टुप् है और अष्टाक्षरा दुर्गा देवता कहे गये हैं। दुं इसका बीज है और ह्रीं शक्ति कही गई है। ॐ से इसका कीलक होता है एवं नमः से दिग्बन्धन किया जाता है। धर्म-अर्थ- काम एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु इसका विनियोग किया जाता है।। ७-८।।

दुर्गाकवचम् विनियोगः

विनियोगः अस्य श्रीदुर्गाकवचस्य महेश्वर ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः श्रीदुर्गा देवता, दुं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं चतुर्वर्गसिद्धये पाठे विनियोगः । नम इति दिग्बन्धः ।

दुर्गा ध्यानम्

दूर्वानिभां त्रिनयनां विलसत्किरीटां शङ्खाब्जखड्गशरखेटकशूलचापान् ।

संतर्जनीं च दधतीं महिषासनस्थां दुर्गा नवारकुलपीठगतां भजेऽहम् ॥

ध्यान - श्रीदुर्गा का वर्ण दूर्वा के समान है। तीन नेत्र हैं। माथे पर किरीट शोभित है। हाथों में शङ्ख, पद्म, खड्ग, वाण, मुशल, त्रिशूल, धनुष और तर्जनी है। महिष के आसन पर आसीन हैं। नवयोनि पीठगत दुर्गा का हम ध्यान करते हैं।

दुर्गाकवचम्

ॐ मे पातु शिरो दुर्गा ह्रीं मे पातु ललाटकम् ।

दुं नेत्रेऽष्टाक्षरा पातु चक्री पातु श्रुती मम ॥ ९ ॥

मठं गण्डौ च मे पातु देवेशी रक्तकुण्डला ।

वायुर्नासां सदा पातु रक्तबीजनिसूदिनी ॥ १० ॥

लवणं पातु मे चोष्ठौ चामुण्डा चण्डघातिनी ।

भेकीबीजं सदा पातु दन्तान् मे रक्तदन्तिका ॥ ११ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं पातु मे कण्ठं नीलकण्ठाङ्कवासिनी ।

ॐ ऐं क्लीं पातु मे स्कन्धौ स्कन्दमाता महेश्वरी ॥१२॥

कवच - ॐ दुर्गा मेरे शिर की और ह्रीं मेरे ललाट की रक्षा करें। दुं अष्टाक्षरा मन्त्र मेरे नेत्र की रक्षा करे। मेरे कानों की रक्षा दुं करे । र्गां देवेशी रक्तकुण्डला मेरे कपोलों की रक्षा करे। यै रक्तबीजनिसूदिनी मेरे नासा की रक्षा सर्वदा करे। नं चामुण्डा चण्डघातिनी मेरे ओठों की रक्षा करें। मः बीज रक्तदंतिका मेरे दाँतों की रक्षा सर्वदा करे। ॐ ह्रीं श्रीं मेरे कण्ठ की रक्षा नीलकण्ठाङ्कवासिनी करे। ॐ ऐं क्लीं स्कन्दमाता महेश्वरी मेरे कन्धों की रक्षा करे।। ९-१२ ।।

ॐ सौः क्लीं मे पातु बाहू देवेशी बगलामुखी ।

ऐं श्रीं हृीं पातु मे हस्तौ शिवाशतनिनादिनी ॥ १३ ॥

सौः ऐं हृीं पातु मे वक्षो देवता विन्ध्यवासिनी ।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं पातु कुक्षिं मम मातङ्गिनी परा ॥ १४ ॥

श्रीं ह्रीं ऐं पातु मे पार्श्वों हिमाचलनिवासिनी ।

ॐ स्त्रीं हूं ऐं पातु पृष्ठं मम दुर्गतिहारिणी ॥ १५ ॥

ॐ सौः क्लीं देवेशी बगलामुखी मेरे बाहुओं की रक्षा करे। ऐं श्रीं ह्रीं शिवाशतनिनादिनी मेरे हाथों की रक्षा करे। सौः ऐं ह्रीं देवी विन्ध्यवासिनी मेरे वक्ष की रक्षा करे। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं परा मातङ्गिनी मेरी कुक्षि की रक्षा करे। श्रीं ह्रीं ऐं हिमाचलनिवासिनी मेरे पार्श्वों की रक्षा करें। ॐ स्त्रीं हूं ऐं दुर्गतिहारिणी मेरे पीठ की रक्षा करे ।। १३-१५।।

ॐ क्रीं हूं पातु मे नाभिं देवी नारायणी सदा ।

ॐ ऐं क्लीं सौः सदा पातु कटिं कात्यायनी मम ।। १६ ।।

ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं पातु शिश्नं देवी श्रीभगमालिनी ।

ऐं सौ: क्लीं सौः पातु गुह्यं गुह्यकेश्वरपूजिता ॥१७॥

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्सौः पायादूरू मम मनोन्मना ।

ॐ जुं सः सौः पातु जानू जगदीश्वरपूजिता ॥ १८ ॥

ॐ क्रीं हूं देवी नारायणी सर्वदा मेरी नाभि की रक्षा करें। ॐ ऐं क्लीं सौः कात्यायनी सर्वदा मेरे कमर की रक्षा करें। ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं श्रीभगमालिनी देवी मेरे लिङ्ग की रक्षा करें। ऐं सौं क्लीं सौः गुह्यकेश्वरपूजिता मेरे गुह्य की रक्षा करे। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्सौः मनोन्मना मेरे ऊरू की रक्षा करे। ॐ जूं सः सौः जगदीश्वरपूजिता मेरे जानुओं की रक्षा करे।। १६-१८ ।।

ॐ ऐं क्लीं मे पातु जङ्गे मेरुपर्वतवासिनी ।

ॐ ह्रीं श्रीं गीं सदा पातु गुल्फौ मम गणेश्वरी ॥१९॥

ॐ ह्रीं दुं पातु मे पादौ पार्वती षोडशाक्षरी ।

पूर्वे मां पातु ब्रह्माणी वह्नौ मां वैष्णवी तथा ॥ २० ॥

दक्षिणे चण्डिका पातु नैर्ऋत्ये नारसिंहिका ।

पश्चिमे पातु वाराही वायव्ये माऽपराजिता ॥ २१ ॥

उत्तरे पातु कौमारी चैशान्यां शाम्भवी तथा ।

ऊर्ध्वं दुर्गा सदा पातु पात्वधस्ताच्छिवा सदा ॥ २२ ॥

ॐ ऐं क्लीं मेरु पर्वतवासिनी मेरे जङ्घों की रक्षा करें। ॐ ह्रीं श्रीं गीं गणेश्वरी मेरे गुल्फों की रक्षा करें। ॐ ह्रीं श्रीं दुं षोड़शाक्षरी पार्वती मेरे पैरों की रक्षा करें। पूर्व में मेरी रक्षा ब्राह्मी करे। अग्निकोण में वैष्णवी रक्षा करे। दक्षिण में मेरी रक्षा चण्डिका और नैर्ऋत्य में नारसिंही करे। पश्चिम में वाराही और वायव्य में अपराजिता मेरी रक्षा करें। उत्तर में कौमारी और ईशान में शाम्भवी मेरी रक्षा करें। ऊपर में दुर्गा और नीचे में शिवा मेरी रक्षा करे ।। १९-२२।।

प्रभाते त्रिपुरा पातु मध्याह्ने मां महेश्वरी ।

सायं सरस्वती पातु निशीथे च्छिन्नमस्तका ॥ २३ ॥

निशान्ते भैरवी पातु सर्वदा भद्रकालिका ।

अग्नेरम्बा च मां पातु जलान्मां जगदम्बिका ॥ २४ ॥

वायोर्मां पातु वाग्देवी वनाद् वनजलोचना ।

सिंहात् सिंहासना पातु सर्पात् सर्पान्तकासना ॥ २५ ॥

प्रभात में त्रिपुरा और मध्याह्न में महेश्वरी मेरी रक्षा करें। शाम में सरस्वती और निशीथ में छिन्नमस्तिका मेरी रक्षा करें। निशान्त में भैरवी और भद्रकालिका मेरी रक्षा सर्वदा करें। अग्नि में अम्बा और जल में जगदम्बिका मेरी रक्षा करें। वायु से वाग्देवी रक्षा करें और वन में वनजलोचना रक्षा करें। सिंहासना सिंह से और सर्पन्तिकासना सर्पों से मेरी रक्षा करें।। १३-२५।।

रोगान्मां राजमातङ्गी भूताद् भूतेशवल्लभा ।

यक्षेभ्यो यक्षिणी पातु रक्षोभ्यो राक्षसान्तका ।। २६ ।।

भूतप्रेतपिशाचेभ्यः सुमुखी पातु मां सदा ।

सर्वत्र सर्वदा पातु ॐ ह्रीं दुर्गा नवाक्षरा ॥ २७ ॥

राजमातङ्गी रोगों से और भूतेशवल्लभा भूतों से मेरी रक्षा करें। यक्षिणी यक्षों से और राक्षसों से राक्षसान्तका मेरी रक्षा करें। भूत, प्रेत, पिशाचों से मेरी रक्षा सुमुखी सदैव करें। सर्वत्र सर्वदा मेरी रक्षा ॐ ह्रीं दुर्गा नवाक्षरा करे ।। २६-२७।।

दुर्गाकवचम् फलश्रुतिः

इतीदं कवचं गुह्यं दुर्गासर्वस्वमुत्तमम् ।

मन्त्रगर्भं महेशानि कवचेश्वरसंज्ञकम् ॥ २८ ॥

वित्तदं पुण्यदं पुण्यं वर्म सिद्धिप्रदं कलौ ।

अष्टसिद्धिप्रदं गोप्यं परापररहस्यकम् ॥ २९ ॥

श्रेयस्करं मनुमयं रोगनाशकरं परम् ।

महापातककोटिघ्नं मानदं च यशस्करम् ॥ ३० ॥

अश्वमेधसहस्रस्य फलदं परमार्थदम् ।

अत्यन्तगोप्यं देवेशि कवचं मन्त्रसिद्धिदम् ॥ ३१ ॥

पठनात् सिद्धिदं लोके धारणान्मुक्तिदं शिवे ।

फलश्रुति यह उत्तम कवच गुह्य और दुर्गा-सर्वस्व है। हे महेशानि! इस मन्त्र-गर्भित कवच को कवचेश्वर कहते हैं। कलियुग में यह कवच धनद, पुण्यद, पुण्य और सिद्धिप्रदायक है। यह परापर रहस्य, गोप्य और अष्ट सिद्धियों का दाता है। परम श्रेयष्कर मन्त्रमय और रोगों का विनाशक है। करोड़ों महापापों का विनाशक, मानप्रद और यशदायक है। एक हजार अश्वमेध यज्ञों के फल के साथ परमार्थदायक है। इसके पाठ से संसार में सिद्धि मिलती है। हे शिवे इसके धारण करने से मोक्ष प्राप्त होता है ।। २८-३१।।

रवौ भूर्जे लिखेद् धीमान् कृत्वा कर्माह्निकं प्रिये ॥ ३२ ॥

श्रीचक्राग्रेऽष्टगन्धेन साधको मन्त्रसिद्धये ।

लिखित्वा धारयेद् बाहौ गुटिकां पुण्यवर्धिनीम् ॥ ३३ ॥

किं किं न साधयेल्लोके गुटिका वर्मणोऽचिरात् ।

रविवार में दैनिक क्रियाकर्म करके बुद्धिमान साधक अष्टगन्ध से भोजपत्र पर श्रीचक्र के सामने इसे लिखे तो उसे सिद्धि प्राप्त होती है। लिखकर गुटिका बनाकर बाँह में इसे धारण करने से पुण्य की वृद्धि होती है। संसार में इस कवच की गुटिका से क्या-क्या नहीं प्राप्त किया जा सकता है? ।। ३२-३३ ।।

गुटिकां धारयेन्मूर्ध्नि राजानं वशमानयेत् ॥३४॥

धनार्थी धारयेत् कण्ठे पुत्रार्थी कुक्षिमण्डले ।

तामेवं धारयेद् देवि लिखित्वा भूर्जपत्रके ॥ ३५ ॥

श्वेतसूत्रेण संवेष्ट्य लाक्षया परिवेष्टयेत् ।

सुवर्णेनाथ संवेष्ट्य धारयेद् रक्तरज्जुना ।। ३६ ।।

गुटिका कामदा देवि देवानामपि दुर्लभा ।

कवचस्यास्य गुटिका धृता मुक्तिप्रदायिनी ॥ ३७ ॥

गुटिका को मूर्धा में धारण करने से राजा वश में होते हैं। धन प्राप्ति के लिये इसे कण्ठ में और पुत्र प्राप्ति के लिये कुक्षिमण्डल में धारण करना चाहिये। इसे उसी प्रकार भोजपत्र पर लिखकर गुटिका बनाकर श्वेत सूत्र से लपेटे। तब लाह से परिवेष्टित करे अथवा सोने के ताबीज में भरे लाल धागे में धारण करे। यह गुटिका मनोरथों को पूरा करती है। देवों को भी यह दुर्लभ है। इस कवच की गुटिका को धारण करने से मुक्ति-लाभ होता है।। ३४-३७।।

कवचस्यास्य देवेशि वर्णितुं नैव शक्यते ।

महिमा च महादेवि जिह्वाकोटिशतैरपि ॥३८॥

अदातव्यमिदं वर्म मन्त्रगर्भं रहस्यकम् ।

अवक्तव्यं महापुण्यं सर्वसारस्वतप्रदम् ॥ ३९ ॥

अदीक्षिताय नो दद्यात् कुचैलाय दुरात्मने ।

अन्यशिष्याय दुष्टाय निन्दकाय कुलार्थिनाम् ॥४०॥

हे देवेशि ! इस कवच की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता है। इसकी महिमा का वर्णन सौ करोड़ जीभों से भी नहीं किया जा सकता। यह मन्त्रगर्भित कवच-रहस्य किसी को भी नहीं देना चाहिये। सर्व सारस्वत क्षमताओं तथा पुण्यों के प्रदायक इस कवच को किसी से नहीं कहना चाहिये। अदीक्षित, कुचैल दुष्ट, दूसरे के शिष्य, कौलिकों के निन्दक एवं दुष्टों को इसे नहीं बताना चाहिये ।। ३८-४० ।।

दीक्षिताय कुलीनाय गुरुभक्तिरताय च।

शान्ताय कुलसक्ताय शाक्ताय कुलकामिने ।

इदं वर्म शिवे दत्त्वा कुलभागी भवेन्नरः ॥ ४९ ॥

इदं रहस्यं परमं दुर्गाकवचमुत्तमम् ।

गुह्यं गोप्यतमं गोप्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ४२ ॥

कुलाचार में दीक्षित, गुरु-भक्तिरत, शान्त, कुलासक्त, कुलकामी शाक्त को ही यह कवच देना चाहिये। इन्हें कवच देकर मनुष्य कुलभागी होता है। यह उत्तम दुर्गा कवच परम रहस्यमय है। यह गुह्य, गोप्यतम, गोप्य है और अपनी योनि के समान गोपनीय है ।। ४१-४२ ।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये दुर्गाकवचनिरूपणं नामाष्टाचत्वारिंशः पटलः ॥ ४८ ॥

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में दुर्गाकवच निरूपण नामक अष्टचत्वारिंश पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 49 

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