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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रूद्रयामल पटल १
रुद्रयामल में ९० अध्याय है । प्रथम (१) पटल में पराश्री परमेशानी के मुखकमल से श्रीयामल, विष्णु यामल, शक्तियामल और ब्रह्मयामल निस्सृत बताए गए है । यह रुद्रयामल (उन्हीं यामलों का) उत्तरकाण्ड है। दसवें श्लोक से लेकर ८२ श्लोक तक विविध प्रकार के साधनों की चर्चा की गई है । फिर रुद्रयामल की प्रशंसा है (८३--९२) और यामल शब्द का अर्थं कहा है। फिर यामल में प्रतिपादित विभिन्न साधन कहे गए हँ । ९९ से १०७ तक इस रुद्रयामल की फलश्रुति है।
रूद्रयामलम् प्रथम पटल भाग १
रूद्रयामलम्
(उत्तरतन्त्रम्)
अथ प्रथमः पटलः
सरला
साम्बं सदाशिवं नत्वा गजवक्त्रं
सरस्वतीम् ।
स्वपितरं मनसा ध्यात्वा मातरं कमलां
सतीम् ॥१॥
रामान्वितकुबेरस्य आत्मजः
श्रीसुधाकरः ।
रुद्रयामलग्रन्थस्य भाषाटीकां
तनोम्यहम् ॥२॥
सिद्धि दिशन्तु मे देव्यो मातरो
ललितादयः ।
तन्त्रप्रोक्तास्तथा देवा
भैरवीभैरवादयः ॥३॥
दूरीकुर्वन्तु विघ्नानि मङुलानि
दिशन्तु च ।
पारयन्तु च तन्त्राब्धि दुर्विगाहं
सुदुस्तरम् ॥४॥
रूद्रयामल पटल १
प्रथमः पटलः - विविध साधनानि
भैरव उवाच
परा श्रीपरमेशनीवदनाम्भोजनिःसृतम् ।
श्रीयामलं महातन्त्रं स्वतन्त्रं
विष्णुयामलम् ॥१॥
शक्तियामलमाख्यातं ब्रह्मणः
स्तुतिहेतुना ।
ब्रह्मयामलवेदाङु सर्वञ्च कथितं
प्रिये ॥२॥
भैरव ने कहा - हे प्रिये ! आपने परा
श्रीपरमेशानी के मुखकमल से निर्गत श्रीयामल नामक महातन्त्र,
( विष्णु के द्वारा प्रतिपादित ) स्वतन्त्र विष्णुयामल, शक्तियामल और ब्रह्मदेव की स्तुति से युक्त सम्पूर्ण ब्रह्मयामल नामक वेदाङ्ग
का वर्णन किया ॥१ - २॥
इदानीमुत्तराकाण्डं वद
श्रीरुद्र्यामलम् ।
यदि भाग्य्वशाद् देवि! तव
श्रीमुखपङ्कजे ॥३॥
हे देवि ! इस समय हम लोगों के
सौभाग्य से यदि आपके श्रीमुखकमल में उत्तरकाण्ड वाला श्रीरुद्रयामल तन्त्र
विद्यमान है तो उसे भी कहिए ॥३॥
यानि यानि स्वतन्त्राणि संदत्तानि
महीतले ।
प्रकाशय महातन्त्रं नान्यन्त्रेषु
तृप्तिमान् ॥४॥
सर्ववेदान्तवेदेषु कथितव्यं ततः
परम् ।
तदा ते भक्तवर्गाणां सिद्धिः
सञ्चरते ध्रुवम् ॥५॥
इतना ही नहीं भूलोकवासी जनों के
लिये जितने जितने तन्त्र आपने प्रदान किये हैं और जो अन्य तन्त्रों मे प्रतिपादित
नहीं हैं उस तृप्तिदायक महातन्त्र को आप कहें । सभी वेदान्त ( आदि दर्शनों ) एवं
सभी वेदों में प्रतिपादित वर्णनों को तथा उससे अन्य तन्त्रों के प्रतिपाद्य को भी
कहें । अतः आप स्वविषयक तन्त्र कहें क्योंकि आपके भक्त वर्गों को उसी से निश्चित
रुप से सिद्धि प्राप्त होती है ॥४ - ५॥
यदि भक्ते दया भद्रे ! वद
त्रिपुरसुन्दरि ।
महाभैरववाक्यञ्च पङ्कजायतलोचना ॥६॥
श्रुत्वोवाच महाकाली कथयामास
भैरवम् ।
हे कल्याणकारिणि ! हे कमल के समान
विशाल नेत्रों वाली त्रिपुरसुन्दरि ! यदि मुझ भक्त के ऊपर आपकी दया है तो आप अवश्य
ही महाभैरव के वाक्य को भी प्रकशित करें । इस प्रकार महाभैरव के वाक्य को सुन कर महाकाली
ने भैरव से कहा ॥६ - ७॥
शम्भो महात्मदर्पघ्न कामहीन कुलाकुल
॥७॥
चन्द्रमण्डलशीर्षाक्ष हालाहलनिषेवक
।
आद्वितीयाघोरमूर्त्ते
रक्तवर्णाशिखोज्ज्वल ॥८॥
महाऋषिपते देव सर्वेषाञ्च नमो नमः ।
सर्वेषा प्राणमथन श्रृणु आनन्दभैरव
॥९॥
भैरवी ने कहा --- हे शम्भो ! हे बड़े-
बड़े आत्माओं के गर्व को चूर्ण करने वाले ! हे कामहीन ! हे कुलाकुलस्वरूप ! हे शिर
पर चन्द्रमण्डलयुक्त नेत्र धारण करने वाले ! हे हलाहल विष पीने वाले ! हे
अद्वितीय! हे अघोर (निष्पाप) स्वरूप ! हे रक्तवर्ण की शिखा धारण करने वाले ! हे
महाऋषिपते ! हे सबके द्वारा बारम्बार नमस्कार किए जाने वाले आपको नमस्कार है । हे
समस्त प्राणियों के प्राणों का संहार करने वाले आनन्दभैरव ! सुनिए ॥७ - ९॥
आदौ बालाभरवीणाम साधनं षट्कलात्मकम्
।
पश्चात्कुमारीललिताशाधनं परमाद्भुतम् ॥१०॥
कुरुकुल्लाविप्रचित्तासाधनं
शक्तिसाधनम् ।
योगिनीखेचरीयक्षकन्यकासाधन ततः ॥११॥
( अब विविध साधनों को दसवें श्लोक
से लेकर सौवें श्लोक तक संगृहीत कर ग्रन्थकार ग्रन्थारम्भ में अनुक्रमणिका को
भैरवी के मुख से प्रस्तुत करते हैं - ) ( इस रुद्रयामलतन्त्र में ) प्रथमतः बाला
भैरवियों का षट्कलात्मक साधन वर्णित है । इसके पश्चात् अत्यदभुत कुमारीललिता
साधन, कुरुकुल्ला विप्रचित्तासाधन, शक्तिसाधन,
इसके बाद योगिनी, खेचरी और यक्षकन्यका साधन
वर्णित हैं ॥१० - ११॥
उन्मत्तभैरवीविद्या-कालीविद्यादिसाधनम् ।
पञ्च्मुद्रासाधनञ्च
पञ्चबाणादिसाधनम् ॥१२॥
प्रत्यङिरासाधनञ्च कलौ साक्षात्कार
परम् ।
हरितालिकास्वर्णविद्याधूम्रविद्यादिसाधनम्
॥१३॥
आकाशगङा विविधा कन्यकासाधनं ततः ।
भ्रूलतासाधन सिद्धसाधनं
तदन्तरम् ॥१४॥
उल्काविद्यासाधनं च
पञ्चतारादिसाधनम् ॥
अपराजितापुरुहूताचामुण्डासाधनं ततः
॥१५॥
फिर उन्मत्त भैरवी विद्या,
काली विद्यादि साधन, पञ्चमुद्रा साधन, पञ्चबाणादि साधना, कलि में साक्षात् फल देने वाली
प्रत्यङ्गिरा साधन, हरितालिका स्वर्णविद्या, धूम्रविद्यादि साधन, इसके बाद आकाशगङ्गा, विविधकन्यका साधन, भ्रूलता साधन, सिद्ध साधन, इसके बाद उल्काविद्या साधन, पञ्चतारादि साधन, फिर अपराजिता पुरुहूताचामुण्डा
साधन वर्णित है ॥१२ - १५॥
कालिकासाधनं कौलसाधनं घनसाधनम् ।
चर्चिकसाधनं पश्चात् घर्घसाधनं ततः
॥१६॥
विमलासाधनं रौद्री त्रिपुरासाधनं
ततः ।
सम्पत्प्रदासप्तकूटसाधनं चेटीसाधनम्
।
शक्तिकूटादिषट्कूटानवकूटदिसाधनम् ॥१७॥
कनकाभाकाञ्चनाभावहन्याभासाधनं ततः ।
वज्रकूटापञ्चकूटासकलासाधनं ततः ॥१८॥
तारिणीसाधनं पश्चात् षोडशीसाधनं
स्मृतम् ।
छिन्नादि-उग्रप्रचण्ड्यादिसाधनं
सुमनोहरम् ॥१९॥
कालिकासाधन,
कौलसाधन, घनसाधन, चर्च्चिकासाधन,
पश्चात घर्घरासाधन, विमलासाधन तथा
रौद्रित्रिपुरासाधन, फिर संपत्प्रदासप्तकूटासाधन, चेटीसाधन, इसके बाद शक्तिकूटादिषट्कूटा तथा
नवकूटादि साधन, फिर कनकाभा, काञ्वनाभा
तथा वहन्याभासाधन, फिर वज्रकूटा, पञ्चकूटासाधन,
सकलासाधन, तारिणीसाधन इसके पश्चात्
षोडशीसाधना का विधान कहा गया है । इसके बाद अत्यन्त मनोहर छिन्ना, उग्रा तथा प्रचण्डादिसाधना वर्णित है ॥१६ - १९॥
उल्कामुखीरक्तमुखीसाधनं वीरसाधनम् ।
नानाविधाननिर्माणशवसाधनमेव च ॥२०॥
कृत्वा देवीसाधनञ्च कृत्वाहिसाधनं
ततः ।
नक्षत्रविद्यापटलं कालीपटलमेव च
॥२१॥
श्मशानकालिकादेवीसाधनं भूतसाधनम् ।
रतिक्रीडासाधनञ्च सुन्दरीसाधनं तथा
॥२२॥
महामालासाधनञ्च महामायादिसाधनम् ।
भद्रकालीसाधनञ्च नीलासाधनमेव च ॥२३॥
भुवनेशीसाधनञ्च दुर्गासाधनमेव च ।
वाराहीगारुडीचान्द्रीसाधनं परमाद्भुत्तम् ॥२४॥
फिर उल्कामुखीसाधन,
रक्तमुखीसाधन, वीरसाधन और नाना विधानों से
निर्माणपूर्वक शवसाधन, फिर देवीसाधन, तदनन्तर
अहिसाधन, फिर नक्षत्रविद्यापटल, कालीपटल,
फिरा श्मशान में रहने वाली कालिका देवी का साधन, भूतसाधन, रतिक्रीडा-साधन, तदनन्तर
सुन्दरीसाधन महामालासाधन, महामायादिसाधन, भद्रकालीसाधन, नीलासाधन, भुवनेशीसाधन,
दुर्गासाधन, फिर अत्यन्त अद्भुत वाराहीसाधन,
गारुडीसाधन और चान्द्रीसाधन कहा गया है ॥२० - २४॥
ब्रह्माणीसाधनं पश्चाद् हंसीसाधनमुत्तमम् ।
माहेश्वरीसाधनञ्च कौमारीसाधनं तथा
॥२५॥
वैष्णवीसाधनं धात्रीधनदारतिसाधनम् ।
पञ्चाभ्राबलिपूर्णास्या
नारसिंहीसुसाधनम् ॥२६॥
कालिन्दी
रुक्मिणीविद्याराधाविद्यादिसाधनम् ।
गोपीश्वरीपद्मनेत्रापद्मालादिसाधनम् ॥२७॥
मुण्डमलासाधनञ्च भृङासाधनं ततः ।
सकलाकर्षणीविद्याकपालिन्यादिसाधनम्
॥२८॥
गुह्यकालीसाधनञ्च बँगलामुखीसाधनम् ।
महाबालासाधनञ्च
कलावत्यादिसाधनम् ॥२९॥
कुलजाकलिकाकक्षाकुक्कुटीसाधनं महत्।
चिञ्चादेवीसाधञ्च
शाङ्करीगूढसाधनम् ॥३०॥
ब्रह्माणीसाधन,
इसके पश्चात् हंसीसाधन कहा गया है, इसके बाद
माहेश्वरीसाधन और कौमारीसाधन फिर विष्णवीसाधन फिर धात्रीसाधन एवं धनदारतिसाधन,
फिर पञ्चाभ्राबलिपूर्णास्या एवं नारसिंहीसाधन, कालिन्दी, रुक्मिणीविद्या और राधाविद्यादिसाधन,
फिर गोपीश्वरी, पद्मनेत्रा पद्ममालादिसाधन,
मुण्डमालासाधन, इसके बाद भृङ्रारीसाधन फिर
सकलाकर्षिणीविद्या, फिर कपालिन्यादिसाधन, गुह्यकालीसाधन, बगलामुखीसाधन, फिर
महाबालासाधन, कलावत्यादि साधन, फिर
कुलजा, कालिका, कक्षा एवं कुक्कुटीसाधन,
चिञ्चादेवीसाधन और शाङ्करीगूढसाधन का विस्तारपूर्वक वर्णन है ॥२५ -
३०॥
प्रफुल्लाब्जमुखीविद्याकाकिनीसाधनं
ततः ।
कुब्जिकासाधनं
नित्यासरस्वत्यादिसाधनम् ॥३१॥
भूर्लेखाशशिमुकुटा -
उग्रकाल्यादिसाधनम् ।
मणिद्वीपेश्वरीधात्रीसाधनं
यक्षसाधनम् ॥३२॥
केतकेक्मलाकान्तिप्रदाभेद्यादिसाधनम्
।
वागीश्वरीमहाविद्या
अन्नपूर्णादिसाधनम् ॥३३॥
वज्रदण्डारक्तमयीमन्वारीसाधनं तथा ।
हस्तिनीहस्तिकर्णाद्यामातङीसाधनं
ततः ॥३४॥
इसके बाद प्रफुल्लाब्जमुखीविद्या,
फिर काकिनीसाधन, फिर कुब्जिकासाधन, फिर नित्या एवं सरस्वत्यादि साधन, भूर्लेखासाधन,
शशिमुकुटा एवं उग्रकाल्यादिसाधन, फिर
मणिद्वीपेश्वरीधात्रीसाधन, यक्षसाधन, फिर
केतकी, कमला, कान्तिप्रदा एवं
भेद्यादिसाधन, फिर वागीश्वरी, महाविद्या
एवं अन्नपूर्णादिसाधन, फिर वज्रदण्डा, रक्तमयीमन्वारीसाधन,
हस्तिनीहस्तिकर्णाद्या एवं मातङ्गीसाधन का वर्णन है ॥३१ - ३४॥
परानन्दानमयीसाधनं गतिसाधनम् ।
कामेश्वरीमहालज्जाज्वलिनीसाधनं वसोः
॥३५॥
गौरीवेतालकङ्कालीवासवीसाधनं तथा ।
चन्द्रास्यासूर्यकिरणाटन्तीसाधनं
ततः ॥३६॥
किङिनी पावनीविद्या अवधूतेश्वरीति च
।
एतासां सिद्धविद्यानां साधनाद्रुद
एव सः ॥३७॥
इसके बाद परानन्दानन्दमयीसाधन,
गतिसाधन, कामेश्वरीसाधन, महालज्जा एवं ज्वालिनीसाधन, वसुसाधन फिरा गौरी,
वेताल, कङ्काली, वासवीसाधन,
फिर चन्द्रास्या, सूर्यकिरणा एवं रटन्ती साधन,
फिर किङ्किनी, पावनीविद्या तथा अवधूतेश्वरी
साधन कहा गया है । इस प्रकार ऊपर कही गई सभी विद्याओं का साधन करने वाला साधक
साक्षाद् रुद्र स्वरूप ही है ॥३५ - ३७॥
अलकाकलियुगस्थाशक्तिटङ्कारसाधनम् ।
हरिणीमोहिनीक्षिप्रातृष्यादिसाधनं
तथा ॥३८॥
अट्टहासाघोर्नादामहामेघादिसाधनम् ।
वल्लरीकैरविण्यादिसाधनं परमाद्भुतम
॥३९॥
रङ्किणीसाधनं पश्चाद्
नन्दकन्यादिसाधनम् ।
मन्दिरासाधनं कात्यायनीसाधनमेव च
॥४०॥
फिर अलका,
कलियुगस्था, शक्तिटङ्कार का साधन, फिर हरिणी, मोहिनी, क्षिप्रा
एवं तृष्यादिसाधन, फिर अट्टहासा घोरनादा एवं महामेघादिसाधन
का विधान है । इसके बाद अत्यद्भुत वल्लरी एवं कौरविणी आदि का साधन, रङ्किणी साधन, इसके बाद नन्दकन्यादिसाधन, मन्दिरासाधन तथा कात्यायनीसाधन, कहा गया है ॥३८ -
४०॥
रजनीराजतीघोनासाधनं तालसाधनम् ।
पादुकासाधनं चित्तासाधनं
रविसाधनम् ॥४१॥
मुनिनाथेश्वरीशान्तिवल्लभसाधनं तथा
।
मदिरासाधनं वीरभद्रासाधनमेव हि ॥४२॥
मुण्डालीकालिनीदैत्यदंशिनीसाधनं ततः
।
फिर रजनीसाधन,
राजतीघोनासाधन, तालसाधन, फिर पादुकासाधन, चित्तासाधन, रविसाधन,
मुनिनाथेश्वरी, शान्ति एवं वल्लभासाधन कहा गया
है । फिर मदिरासाधन, वीरभद्रासाधन, फिर
मुण्डालीसाधन, कालिनी साधन एवं दैत्यदंशिनीसाधन का विधान कहा
गया है ॥४१ - ४३॥
प्रविष्टवर्णालघिमामीनादिसाधनं
महत्॥४३॥
फेत्कारीसाधन भल्लातकीसाधनमद्भुतम्
।
उड्डीयानेश्वरीपूर्णागिरिजासाधनं
तथा ॥४४॥
सौकरी राजवशिनीदीर्घाजङ्कादिसाधनम्
।
अयोध्यापूजितादेवीद्राविणीसाधनाद्भुतम्
॥४५॥
ज्वालामुखीसाधनञ्च
कृष्णाजिहवादिसाधनम् ।
पुनः प्रविष्टवर्णा,
लघिमा एवं महान् मीनादिसाधन, फेत्कारीसाधन,
अत्यन्त अदभुत भल्लात की साधन, उड्डीयानेश्वरी,
पूर्णा एवं गिरिजासाधन, फिर सौकरी, राजवशिनी एवं दीर्घजङ्घादिसाधन, फिर अयोध्या में
पूजित अत्यदभुत देवीसाधन तथा द्राविणीसाधन, ज्वालामुखीसाधन
एवं कृष्णजिहवादि साधन का विधान कहा गया है ॥४३ - ४६॥
पञ्चवकप्रियविद्यानन्तविद्यादिसाधनम्
॥४६॥
श्रीविद्याभुवनेशानीसाधनं कायसाधनम्
।
रक्तमालामहाचण्डीमहाज्वालादिसाधनम्
॥४७॥
प्रक्षिप्ता
मन्त्रिकाकामपूजिताभक्तिसाधनम् ।
श्वासस्थावायवीप्राप्तालेलिहानदिसाधनम्
॥४८॥
भैरवीलसितापृथ्वीवाटुकीसाधनं तथा ।
अगम्या -
आकुलीमौलीन्दाञ्जनमन्त्रसाधनम् ॥४९॥
कुलावतीकुलक्षिप्तारतिचीनादिसाधनम्
।
शिवाक्रोडादितरुणीनायिकामन्त्रसाधनम्
॥५०॥
फिर पञ्चवक्त्रप्रियाविद्यासाधन एवं
अनन्तादि विद्यासाधन,फिर श्रीविद्यासाधन,
भुवनेशानीसाधन, कायसाधन, रक्तमालासाधन, महाचण्डीसाधन, महाज्वालादिसाधन,
फिर प्रक्षिप्ता, मन्त्रिका, कामपूजिता एवं भक्तिसाधन, फिर श्वास में होने वाली
वायु के द्वारा प्राप्त लेलिहानादिसाधन, फिर भैरवीसाधन,
ललितासाधन, पृथ्वी एवं वाटुकीसाधन, फिर सर्वधा अगम्य आकुल करने वाली मौलीन्द्राञ्जनमन्त्रसाधन, कुलावती, कुलक्षिप्ता, रति एवं
चीनादिसाधन, फिर शिवा, क्रोडादि एवं
तरुणीनायिका मन्त्र साधन उक्त हैं ॥४६ - ५०॥
साधनं शैलवासिन्या
अकस्मात्सिद्धिवर्धनम् ।
मन्त्रयन्त्रस्वतन्त्रदिपूज्यमानाः
परात्पराः ॥५१॥
एताः सर्वाः कलियुगे कालिका
हरकोमलाः ।
मन्त्राद्या येन सिद्धयन्ति सत्यं
सत्यं न संशयः ॥५२॥
अकस्मात् सिद्धि वर्धन करने वाला
शैलवासिनी का साधन है । मन्त्र, यन्त्र एवं
स्वतन्त्र इत्यादि रूप से पूज्यमान परात्परारूपा तथा हरकोमला पार्वती ये सभी
देवियाँ कलियुग में कालिका स्वरूपा हैं । ये सभी देवियाँ मन्त्रों आदि के द्वारा
पूजित होकर सभी सिद्धियों को ठीक रूप से प्रदान करती हैं -इसमें कोई संशय नहीं है
॥५१-५२॥
महाकाल शिवानन्द
परमानन्दपारग ।
भक्तानमनुरागेण विद्यारत्नं पुनः
श्रृणु ॥५३॥
अब हे महाकाल ! हे शिवानन्द
! हे परमानन्द के भी परस्थान पारगामी ! सदाशिव ! पुनः भक्तों के प्रति
अनुराग के कारण ( मेरे द्वारा कहे गए ) विद्यारल को आप सुनिए ॥५३॥
आदौ वैष्णवदेवस्य मन्त्राणाम नित्यसाधनम्
।
ततस्ते मङुलं मन्त्रसाधनं
परमादुभुतम् ॥५४॥
साधकों के कर्तव्य --- ( भक्तों के
सिद्धि हेतु ) सर्वप्रथम विष्णु मन्त्रों का नित्यसाधन एवं उसके बाद
मङ्गलदायी परमादभुत आप( शिव ) के मन्त्र का
साधन सुनिए ॥५४॥
अकस्माद्विहिता सिद्धिर्येन
सिद्धयाति भूतले ।
बालभैरवयोगेन्द्रसाधनं शिवसाधनम्
॥५५॥
महाकालसाधनञ्च तथा रामेश्वरवस्य च ।
अघोरमूर्ते रमणासाधनं श्रृणु यत्नतः
॥५६॥
भूतल पर जिन मन्त्रों में विहित
सिद्धि अकस्मात् प्राप्त हो जाती है उस बालभैरवयोगेन्द्र साधन,
शिव साधन, महाकालसाधन तथा रामेश्वर मन्त्र का
साधन और रमणासाधन को, हे अघोरमूर्ते ! सदाशिव ! आप
यत्नपूर्वक सुनिए ॥५५ - ५६॥
क्रोधरजभूतराजएकचक्रादिसाधनम् ।
गिरिन्द्रसाधनं पश्चात्कुलनाथस्य
साधनम् ॥५७॥
बटुकेशादिश्रीकण्ठेशादिसाधनमेव च ।
मृत्युञ्जयस्य रौद्रस्य
कलान्तकहरस्य च ॥५८॥
उन्मत्तभैरवस्यापि तथा पञ्चास्यकस्य
च ।
कैलासेशस्य शम्भोश्च तथा शूलिन एव च
॥५९॥
भार्गवेशस्य सर्वस्य महाकालस्य
साधनम् ।
सुरान्तकस्य पूर्णस्य तथा देवस्य
शङ्कर ॥६०॥
हे क्रोधराज ! हे भूतराज !
एकचक्रादि साधन, गिरीन्द्रसाधन, इसके पश्चात कुलनाथ का साधन, बटुकेशादि तथा
श्रीकण्ठेशादिसाधन, मृत्युञ्जयमन्त्रसाधन, रौद्र कालान्तकहर का, उन्मत्त भैरव तथा पञ्चास्यक का, कैलासेश्वर श्री शम्भु का मन्त्र,
शूलीमन्त्र, भार्गवेश, शर्व
एवं महाकाल का साधन, सुरान्तक का तथा पूर्णदेव मन्त्र का
साधन, हे शङ्कर ! सुनिए ॥५७ - ६०॥
हरिद्रागननाथस्य वरदेश्वरमालिनः ।
ऊर्ध्वकेशस्य धूम्रस्य जटिलस्यापि
साधनम् ॥६१॥
आनन्दभैरवस्यापि बाणनाथस्य साधनम् ।
कंरीन्द्रस्य शुभा~उस्य हिल्लोलमर्दकस्य च ॥६२॥
पुष्पनाथेश्वरस्यापि वृषनाथस्य
साधनम् ॥
अष्टमूर्तेः
कालमूर्त्तेश्चन्द्रशेखरसाधनम् ॥६३॥
हरिद्रागणनाथ का,
वरदेश्वरमाली का, ऊर्ध्वकेश का, धूम्र का तथा जटिल का साधन, आनन्दभैरव का, बाणनाथ का साधन, करीन्द्र का, शुभाङ्ग
का, हिल्लोलमर्दक का, पुष्पनाथेश्वर का,
वृषनाथ ( के मन्त्र ) का, अष्टमूर्त्ति,
कालमूर्त्ति का तथा चन्द्रशेखर का साधन ( यहाँ कहा गया है उसे सुनिए
) ॥६१ - ६३॥
विमर्श
--- कपिलेश रुद्र का तथा पिङ्गाक्षक का, दिगम्बर
का, सूक्ष्म का, उपेन्द्रपूजित का,
अवधूतेश्वर का, अष्टवसु का साधन यहाँ कहा गया
है उसे सुनिए ॥
क्रमुकस्यापि घोरस्य कुबेराराधितस्य
च ।
त्रिपुरान्तकमन्त्रस्य कमलाक्षस्य
साधनम् ॥६४॥
इत्यादिसिद्धमन्त्राणाम मन्त्रार्थ
विविधं मुदा ।
उदितं तद्विशेषेण सुविस्तार्य
श्रृणुष्व तत्॥६५॥
इसी प्रकार क्रमुक,
घोर एवं कुबेर से आराधित ( मृत्युञ्जय ) मन्त्र का,
त्रिपुरान्तक मन्त्र का, कमलाक्ष मन्त्र
इत्यादि सिद्धिमन्त्रों के विविध मन्त्रार्थ प्रसन्नतापूर्वक इस रुद्रयामल तन्त्रमें विशेष रूप से विस्तारपूर्वक कहे गये हैं, उन्हें सुनिए ॥६४
- ६५॥
इन्द्रदिदेवता सर्वा येन सिद्धयन्ति
भूतले ।
तत्प्रकार महादेव सावधानोऽवधारय
॥६६॥
हे महादेव ! जिन मन्त्रों से इस
पृथ्वी पर ही इन्द्रादि सभी देवतागण सिद्ध हो जाते हैं,
उन प्रकारों को सावधान मन से आनन्दपूर्वक श्रवण कीजिए ॥६६॥
उपविद्यासाधनञ्च मन्त्राणि विविधानि
च ।
नानाकर्माणि धर्माणि षट्कर्मसाधनानि
च ॥६७॥
श्रीरामसाधनं यक्षसाधनं योगसाधनम् ।
सर्वविद्यासाधनञ्च
राजज्वालादिसाधनम् ॥६८॥
मन्त्रसिद्धिप्रकारञ्च
हनुमत्साधनादिकम् ।
विषज्वालासाधनञ्च पाताललोकसाधनम्
॥६९॥
भूतलिपिप्रकारञ्च तत्तत्साधनमेव च ।
नवकन्यासाधनञ्च अष्टसिद्धिप्रकारकम्
॥७०॥
इतना ही नहीं,
उपविद्यासाधन, विविध मन्त्र, अनेक प्रकार के कर्म और धर्म, षट्कर्मों का साधन,
श्रीरामसाधन, यक्षसाधन, योगसाधन
और सर्वविद्यासाधन, राजज्वालादि साधन, मन्त्रसिद्धि
के प्रकार, हनुमत्साधनादि, विषज्वाला
साधन, पाताललोक साधन, भूतलिपि के
प्रकार तथा उसके साधन, नवकन्या साधन एवं अष्टसिद्धि के
प्रकार आदि भी कहे गए हैं ॥६७ - ७०॥
आसनानि च अङानि साधनानि बहुनि च ।
कात्यायनीसाधनानि चेटीसाधनमेव च
॥७१॥
कृष्णमार्जारसिद्धिश्च खड्गसिद्धिस्ततः
परम् ।
पादुकाजङ्कसिद्धिश्च निजजिह्रादिसाधनम्
॥७२॥
संस्कारगुटिकाकासिद्धिः
खेचरीसिद्धिरेव च ।
भूप्रवेशप्रकारत्व्म
नित्यतुङुदिसाधनम् ॥७३॥
स्तम्भनं दारुणं पश्चादाकर्षणं
मुनेरपि ।
नानाविधानि देवेश औषधादीनि यानि च
॥७४॥
हरितालदिसिद्धिश्च रसपारदसाधनम् ।
नानारससमुद्भूतं रसभस्मादिसाधनम्
॥७५॥
आसन एवं बहुत से ( योग के ) अङ्गो
के साधन,
कात्यायनी साधन, चेटी साधन, कृष्णमार्जार सिद्धि, खड्गसिद्धि इसके बाद
पादुकाजङ्वसिद्धि, निजजिहवादि साधन, संस्कारगुटिकासिद्धि,
खेचरी सिद्धि, भूप्रवेशप्रकारत्व साधन,
नित्यतुङादि साधन, स्तम्भन, दारण, मुजियों को भी आकर्षण करने के उपाय, अनेक प्रकार की विद्यमान औषधियाँ हरितालादि की सिद्धि, रस साधन, पारद साधन, अनेक
प्रकार के रसों से समुद्भूत रसभस्मादि साधन आदि वर्णित हैं ॥७१ - ७५॥
वद्धस्य तरुणाकारं साधनं परमाद्भुतम्
।
वैजयन्तीसाधनञ्च चरित्रं वासकस्य च
॥७६॥
शिवचरित्रमश्वस्य चरित्रं वायसस्य च
।
कुमारीणां प्रकारं तु वज्राणां
वारणं तथा ॥७७॥
सम्पत्तिसाधनं देशसाधनं कामसाधनम् ।
गुरुपूजाविधानञ्च गुरुसन्तोषसाधनम्
॥७८॥
निजदेवाराधनञ्च निजसाधनमेव च ।
वारुणीपौष्टिकीगौडीकैतकीमाध्विसाधनम्
॥७९॥
स्वदेहगमनं स्वर्गे मर्त्ये
मर्तैश्च दुर्लभम् ।
वृद्ध को तरुण बनाने का अत्यदभुत
साधन,
वैजयन्ती साधन, वासक के चरित्र, शिवा चरित्र, अश्व तथा वायस के चरित्र, कुमारियों के भेद, वज्रवारण के उपाय, सम्पत्ति साधन, देशसाधन, काम
साधन, गुरुपूजा का विधान, गुरुओं को
संतुष्ट करने के उपाय, अपने इष्टदेव का साधन, आत्मसाधन, १ . वारुणी, २ .
पैष्टिकी, ३ . गौडी तथा ४ . केतकी इन चारों प्रकारों के
मद्यों का साधन, सदेहस्वर्गगमन का साधन, जो मनुष्यों, किं बहुना देवताओं के लिये भी दुर्लभ
हैं ( यहाँ कहे गए हैं ) ॥७६ - ८०॥
शरीरवर्धनञ्चैव कृष्णभावस्य साधनम्
॥८०॥
नयनाकर्षणञ्चैव कालसर्पस्य दर्शनम्
।
रणक्षोभप्रकारञ्च
पञ्चेन्द्रियनिवारणम् ॥८१॥
योगाविद्यासाधनञ्च
भक्षप्रस्थानिरुपणम् ।
चान्द्रायणव्रतञ्चैव श्रृणु तद्योगसिद्धये
॥८२॥
शरीर को बड़ा करने का साधन,
अपने में कृष्णभाव का साधन, नेत्रों के द्वारा
आकर्षण, काले सांप का दर्शन, रण में
होने वाले क्षोभ ( चाञ्चल्य ) का निवारण, अपनी
पञ्चेन्द्रियों का निरोध, योगविद्यासाधन, भक्षप्रस्थ निरुपण, योगसिद्धि के लिये अत्यावश्यक
चान्द्रायण व्रत का प्रकार आदि हे शङ्कर ! सुनिये ॥८० - ८२॥
यामलाग्रेण शंसन्ति यानि सर्वानि
कानि च ।
ब्रह्मण्डे यानि वस्तूनि सर्वत्र
दुर्लभ शिवम् ॥८३॥
येऽभ्यस्यन्ति महातन्त्रं बालाद्वा मन्त्रतोपि
वा ।
यामलं मम
वक्त्राम्भोरुहसुन्दरसंभवम् ॥८४॥
अतिगुह्यं महागुह्यं शब्दगुह्यं
निराकुलम् ।
नानासिद्धिसमुद्राणां गृहं योगमयं
शुभम् ॥८५॥
शास्त्रजालस्य सारं हि
नानामन्त्रमयं प्रियम् ।
वाराणसीपुरपतेः सदामोदं सुखास्पदम्
॥८६॥
हे शिव ! यामल के रहते कोई ऐसा नहीं
कह सकता कि इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र जो जो वस्तुएं हैं वे उन्हें दुर्लभ हैं ।
इसीलिये जो लोग बालकों से अथवा मन्त्र के द्वारा मेरे मुखकमल से निःसृत इस
महातन्त्र यामल का अभ्यास करते हैं, वे
धन्य हैं । क्योंकि यह यामल अतिगुह्म है, महागुह्य है,
शब्द से भी गुह्य है तथा संशय रहित है । यह अनेक सिद्धि समूहों का
समुद्र है, योगमय है एवं शुभावह है और यह समूचे शास्त्र
समूहों का सार है । यह अनेक मन्त्रमय है, सबका प्रिय है और
वाराणसीपुर के अधिपति सदाशिव को सर्वदा आमोदप्रद एवं सुखावह है ॥८३ - ८६॥
सरस्वतीदैवतं यत्कालीषु शिखरे वृतम
।
महामोक्षं द्वारमोक्षं
सर्वसंकेतशोभितम् ॥८७॥
वाञ्छाकल्पद्रुमं तन्त्रं
शिवसंस्कारसंस्कृतम् ।
अप्रकाश्यं क्रियासारं
सहस्त्रस्तुतिराजितम् ॥८८॥
अष्टोत्तरशतं नाम सहस्त्रनाममङुलम्
।
नानाद्रव्यसाधनादिविधृताञ्जनरञ्जितम्
॥८९॥
इस रुद्रयामल तन्त्र की देवता
साक्षात सरस्वती हैं जिसे शिखर पर काली गणों के मध्य में वरण किया गया है
। यही महामोक्ष है, मोक्ष का द्वार है
और सभी प्रकार के सङ्केत से शोभित है । वाञ्छाकल्पद्रुम है शिव संस्कार से संस्कृत
तन्त्र है । इस तन्त्र का क्रिया सार प्रकाशित करने लायक नहीं है । यह सहस्त्र
स्तुतियों से सुशोभित है । इसमें अष्टोत्तरशतनाम तथा अत्यन्त मङ्गलकारी सहस्त्रनाम
हैं । इसमें अनेक प्रकार के द्रव्यादिसाधनों एवं नाना प्रकार के अञ्जनों का वर्णन
है ॥८७ - ८९॥
कालीप्रत्यक्षकथनं
कालीषोढादिसंपुटम् ।
महाचमत्कारकरं स्थितिसंहारपालकम्
॥९०॥
अष्टादशप्रकारञ्च षोढायाः
सौख्यामुक्तये ।
ये जानन्ति महाकाल यामलं कलिपावनम्
॥९१॥
आब्राह्यस्तम्बपर्यन्तं करे तस्य न
संशयः ।
इसमें काली का प्रत्यक्ष करने का
उपाय कहा गया है । छः ऐश्वर्यमय काली के संपुट से यह युक्त है । यह बहुत बडा़
चमत्कार उत्पन्न करने वाला है तथा जगत् की स्थिति, संहार एवं पालन करने वाला है । इसके अट्ठारह भेद हैं जो छः प्रकारों के (
ऐश्वर्यादि ) का सौख्य प्रदान करने वाले हैं । अतः हे महाकाल ! कलि काल में परम पवित्र
इस यामल को जो जानते हैं, निःसन्देह उनके हाथ में ब्रह्म से
लेकरा स्तम्बपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्ड है ॥९० - ९२॥
तत्प्रकारमहं वक्ष्ये निगमागममङुलम्
॥९२॥
यस्माद्रुदो भवेज्ज्ञानीं
नानतन्त्रर्थपारगः ।
अब मैं निगम और आगमशास्त्रों में
मङ्गल रूप उस यामल के भेदों को कहता हूँ जिसके करने से साधक साक्षाद् रुद्र रुप
हो जाता है तथा नाना प्रकार के तन्त्रों के अर्थों में पारङ्गत हो जाता है ॥९२ -
९३॥
यामिनीविहितं कर्म
कुलतन्त्राभिसाधनम् ॥९३॥
महावीरहित
यस्मात्पञ्चतत्त्वस्वरुपमकम् ।
लंघन नास्ति मे नाथ अस्मिन् तन्त्र
सुगोपनम् ॥९४॥
ततो यामलाख्यात चन्द्रशेखर शङ्कर ।
रुद्राक्षं
साधनोत्कृष्टं शतयागफलप्रदम् ॥९५॥
मनःसन्तोषविपुलं यामलं
परिकीर्त्तितम् ।
यामल के य,
म और ल का अर्थ --- कुल
तन्त्राभिसाधनरूप यह कर्म य एवं म अर्थात् यामिनी (रात्रि) में विहित है और
महावीरों का हितकारी है क्योंकि यह पाँचों तत्त्वों का स्वरुप है । हे नाथ ! इस
तन्त्र में अत्यन्त गोपनीय मर्यादा का ल अर्थात् लघंन नहीं हुआ है । इसीलिये हे
चन्द्रशेखर ! हे शङ्कर ! इसे यामल कहते है । यह रुद्र का साक्षात् नेत्र है । मन
को अत्यन्त संतोष प्रदान करता है अन्ततः यह सैकड़ों यज्ञों के फल को प्रदान करने
वाला है,
इसीलिये इसे यामल कहते है ॥९३ - ९६॥
विमर्श ---
यामिनी का अर्थ है संयमी जैसा कि गीता में कहा है ---‘
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
रुरुकादिभैरावाणाम
ब्राह्मीदेव्याश्च साधनम् ॥९६॥
नाम्बूनद लताकोटिहेमदासाधनम यतः ।
मनसाधनं यत्र लङ्कालक्ष्मीप्रसाधनम्
॥९७॥
देवतानाञ्च कवचं नानाध्यव्रतं महत्।
अन्तर्यागविधानानि कलिकालफलानि च
॥९८॥
भाति
यत्नप्रभाकार प्रायश्चित्तविमर्षणम् ।
इस यामलतन्त्र में रुरु आदि अष्टभैरवों
के साधन, ब्राह्मी देवी के साधन, जाम्बूनदसाधन, लताकोटिसाधन, हेमदा
साधन, मनसादेवी साधन, लंकालक्ष्मी साधन एवं देवताओं के कवच तथा अनेक देवों के ध्यान और व्रत,
कलिकाल में सद्यः फल देने वाले अन्तर्याग का विधान है और (जहाँ जहाँ
भी भ्रान्ति है उसे दूर करने के लिये) प्रकाश पुञ्ज के समान प्रायश्चित्त के वर्णन
से शोभित है ॥९६ - ९९॥
पटलं त्रिंशता व्याप्तं ये पठन्ति
निरन्तरम् ॥९९॥
अवश्य सिद्धिमाप्नोति यद्यदिच्छति
भूतले ।
कर्मणा मनसा वाचा महातन्त्रस्य
साधनम् ॥१००॥
करोति कमलानाथकरपद्निषेवितम् ।
ज्ञात्वा सर्वधरं तन्त्रं सम्पूर्ण
लोकमण्डले ॥१०१॥
प्राप्नोति साधकः सिद्धिं मासादेव न
संशयः ।
नानाचक्रस्य माहात्म्यं
नानाङ्कमण्डलावृतम् ॥१०२॥
सर्वज्ञसिद्धिशतक खण्डकालीकुलालयम्
।
रुद्रयामल की फलश्रुति
--- इस प्रकार तीस पटलों ( के त्रय अर्थात ९० ? ) से व्याप्त इस रुद्रयामल को जो निरन्तर पढ़ते हैं उन्हें अवश्य सिद्धि
होती है, अतः कर्मणा, मनसा तथा वाचा जो
साधक इस लोक मण्डल में सम्पूर्ण तन्त्र से युक्त तथ भगवान् विष्णु के कर
कमलों से निवेषित महातन्त्र के साधन को अच्छी प्रकार से जानकर करता है वह इस जगत
में समस्त तन्त्रों से युक्त साधक एक मास में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है इसमें
संशय नहीं है । अनेकानेक अङ्कमण्डलों से युक्त अनेक चक्रों के माहात्म्य भी इस
रुद्रयामल तन्त्र में वर्णित हैं । सर्वज्ञ सैकड़ों सिद्धियों से युक्ता तथा समस्त
कालीकुल आलय है ॥९९ - १०३॥
तरुणादित्यसंकाशं वनमालविभूषितम्
॥१०३॥
दैवतं परमं हंसं कालकूटाशिनं
प्रभुम् ।
आदौ ध्यात्वा पूजयित्वा
नमस्कुर्याद् महेश्वरम ।
प्रथमारुणसङ्काशं
रत्नालङ्काभूषिअतम् ।
वरदं वारुणीमत्तं परमहंसं नमाम्यहम्
॥१०४॥
मध्याहनकालीन प्रखर सूर्य के समान
तेजस्वी,
वनमाला से विभूषित, कालकूट नामक विष का भक्षण
करने वाले, देदीप्यमान परमहंस प्रभु महेश्वर का सर्वप्रथम
ध्यान और पूजन कर उन्हें नमस्कार करना चाहिये। उदीयकालीन अरुण के समान, रक्तवर्ण वाले रत्नालङ्कारों से विभूषित वरदाता वारुणी से मत्त मैं उन
परहंस को नमस्कार करता हूँ ॥१०३ - १०४॥
यदि न पठ्यते तन्त्रं यामलं
सर्वशङ्करम् ।
तदा केन प्रकारेण साधकः
सिद्धिभाग्भवेत्॥१०५॥
केचिच्च बुद्धिहीनाश्च मेधाहीनाश्च
ये जनाः ।
मन्दभाग्याश्च धूर्ताश्च मूढाः
सर्वापदावृताः ॥१०६॥
प्राप्नुवन्ति कथं सिद्धिं दया जाता
कथं वद ।
भैरव ने कहा --- हे देवि ! यदि कोई
साधक सब का कल्याण करने वाले इस यामल तन्त्र का अध्ययन न किया हो तो वह किस प्रकार
से सिद्धि का अधिकारी बन सकता है ? अथवा
कुछ बुद्धिहीन, मेधाहीन जन हों, मन्दभाग्य,
धूर्त्त, मूर्ख एवं सब प्रकार की आपत्तियों से
ग्रस्त हों तो वे किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करें ? ॥१०५ -
१०७॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल
उत्तरतन्त्र का प्रथम पटल भाग १ समाप्त हुआ ॥१॥
शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र प्रथम पटल भाग २
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