भद्र सूक्तम्
भद्र अर्थात् अच्छा या शुभ। वह सूक्त जिसमें शुभता की कामना की गई है भद्र सूक्तम् कहा जाता है । इसे भद्रसूक्त अथवा स्वस्ति सूक्तम् अथवा स्वस्तिवाचन भी कहा जाता है ।
भद्र सूक्तम्
स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। सभी
शुभ एवं मांगलिक धार्मिक कार्यों को प्रारम्भ करने से पूर्व वेद के कुछ मन्त्रों
का पाठ होता है, जो स्वस्तिपाठ या स्वस्तिवाचन
कहलाता है। इस स्वस्तिपाठ में 'स्वस्ति' शब्द आता है, इसीलिये इस सूक्त का पाठ कल्याण
करनेवाला है। ऋग्वेद प्रथम मण्डल का यह ८९वाँ सूक्त शुक्लयजुर्वेद वाजसनेयी-संहिता
(२५ / १४-२३), काण्वसंहिता, मैत्रायणीसंहिता
और ब्राह्मण तथा आरण्यक ग्रन्थों में भी प्राय: यथावत् रूप में प्राप्त होता है ।
इस सूक्त में १० ऋचाएँ हैं, इस सूक्त के द्रष्टा ऋषि गौतम
हैं तथा देवता विश्वेदेव हैं । आचार्य यास्क ने 'विश्वेदेव'
शब्द में 'विश्व' को 'सर्व' का पर्याय बताया है, तदनुसार
विश्वेदेव से तात्पर्य इन्द्र, अग्नि, वरुण
आदि सभी देवताओं से है। दसवीं ऋचा को अदिति-देवतापरक कहा गया है। मन्त्रद्रष्टा
महर्षि गौतम विश्वेदेवों का आवाहन करते हुए उनसे सब प्रकार की निर्विघ्नता तथा
मंगलप्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। सूक्त के अन्त में शान्तिदायक दो मन्त्र पठित
हैं; जो आधिदैविक, आधिभौतिक तथा
आध्यात्मिक-त्रिविध शान्तियों को प्रदान करनेवाले हैं। यहाँ भद्र सूक्त अथवा
स्वस्ति सूक्त अथवा स्वस्तिवाचन के प्रत्येक ऋचा को भावानुवाद के साथ दिया जा रहा
है-
भद्र सूक्त अथवा स्वस्ति सूक्तम् अथवा स्वस्तिवाचन
Bhadra suktam or swasti suktam or Swastivachan
भद्रसूक्त अथवा स्वस्तिसूक्त अथवा स्वस्तिवाचन
भद्र सूक्तम् अथवा स्वस्ति सूक्तम्
अथवा स्वस्तिवाचन
भद्र सूक्तम्
॥ स्वस्तिवाचन ॥
ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु
विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे
असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे ॥१॥
सब ओर से निर्विघ्न,
स्वयं अज्ञात, अन्य यज्ञों को प्रकट करनेवाले
कल्याणकारी यज्ञ हमें प्राप्त हों। सब प्रकार से आलस्यरहित होकर प्रतिदिन रक्षा
करनेवाले देवता सदैव हमारी वृद्धि के निमित्त प्रयत्नशील हों॥१॥
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां
देवाना ئ
रातिरभि नो निवर्तताम् ।
देवाना ئ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ॥२॥
यजमान की इच्छा रखनेवाले देवताओं की
कल्याणकारिणी श्रेष्ठ बुद्धि सदा हमारे सम्मुख रहे, देवताओं का दान हमें प्राप्त हो, हम देवताओं की
मित्रता प्राप्त करें, देवता हमारी आयु को जीने के निमित्त
बढ़ायें ॥२॥
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं
मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम् ।
अर्यमणं वरुण ئ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥३॥
हम वेदरूप सनातन वाणी के द्वारा
अच्युतरूप भग, मित्र, अदिति,
प्रजापति, अर्यमा, वरुण,
चन्द्रमा और अश्विनीकुमारों का आह्वान करते हैं। ऐश्वर्यमयी सरस्वती
महावाणी हमें सब प्रकार का सुख प्रदान करें ॥ ३ ॥
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं
तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो
मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥४॥
वायुदेवता हमें सुखकारी औषधियाँ
प्राप्त करायें। माता पृथ्वी और पिता स्वर्ग भी हमें सुखकारी औषधियाँ प्रदान करें।
सोम का अभिषव करनेवाले सुखदाता ग्नावा उस औषधरूप अदृष्ट को प्रकट करें। हे
अश्विनीकुमारो! आप दोनों सबके आधार हैं, हमारी
प्रार्थना सुनिये ॥४॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं
धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम् ।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता
पायुरदब्धः स्वस्तये ॥५॥
हम स्थावर-जंगम के स्वामी,
बुद्धि को सन्तोष देनेवाले रुद्रदेवता का रक्षा के निमित्त आह्वान
करते हैं। वैदिक ज्ञान एवं धन की रक्षा करनेवाले, पुत्र आदि
के पालक, अविनाशी पुष्टिकर्ता देवता हमारी वृद्धि और कल्याण
के निमित्त हों॥५॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तायो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥६॥
महती कीर्तिवाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र
हमारा कल्याण करें; सर्वज्ञ, सबके पोषणकर्ता सूर्य हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को
कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी
के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें॥६॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं
यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे
नो देवा अवसागमन्निह ॥७॥
चितकबरे वर्ण के घोड़ोंवाले,
अदितिमाता से उत्पन्न, सबका कल्याण करनेवाले,
यज्ञशालाओं में जानेवाले, अग्निरूपी
जिह्वावाले, सर्वज्ञ, सूर्यरूपनेत्रवाले
मरुदगण और विश्वेदेव-देवता हविरूप अन्न को ग्रहण करने के लिये हमारे इस यज्ञ में
आयें ॥७॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा ئ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥८॥
हे यजमान के रक्षक देवताओ! हम दृढ़
अंगोंवाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण
की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं
को देखें, देवताओं की उपासना योग्य आयु को प्राप्त करें॥८॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा
नश्चक्रा जरसं तनूनाम् ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो
मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥९॥
हे देवताओं! आप सौ वर्ष की
आयुपर्यन्त हमारे समीप रहें, जिस आयु में
हमारे शरीर को जरावस्था प्राप्त हो, जिस आयु में हमारे पुत्र
पिता अर्थात् पुत्रवान् बन जायँ, हमारी उस गमनशील आयु को आप
लोग बीच में खण्डित न होने दें॥९॥
अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता
स पिता स पुत्रः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना
अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥१०॥
अखण्डित पराशक्ति स्वर्ग है,
वही अन्तरिक्षरूप है, वही पराशक्ति माता,
पिता और पुत्र भी है। समस्त देवता पराशक्ति के ही स्वरूप हैं,
अन्त्यजसहित चारों वर्गों के सभी मनुष्य पराशक्तिमय हैं, जो उत्पन्न हो चुका है और जो उत्पन्न होगा, सब
पराशक्ति के ही स्वरूप हैं ॥१०॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ئशान्तिः पृथिवी
शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः
शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः
सर्वئशान्तिः शान्तिरेव
शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥११॥
द्युलोकरूप शान्ति,
अन्तरिक्षरूप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति,
जलरूप शान्ति, ओषधिरूप शान्ति, वनस्पतिरूप शान्ति, सर्वदेवरूप शान्ति, ब्रह्मरूप शान्ति, सर्वजगत्-रूप शान्ति और संसार में
स्वभावतः जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की
कृपा से प्राप्त हो॥११॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः
पशुभ्यः॥१२॥
हे परमेश्वर! आप जिस रूप से हमारे
कल्याण की चेष्टा करते हैं, उसी रूप से हमें
भयरहित कीजिये। हमारी सन्तानों का कल्याण कीजिये और हमारे पशुओं को भी भयमुक्त
कीजिये॥१२॥
सुशान्तिः सर्वारिष्टशान्तिर्भवतु॥
[शु० यजुर्वेद ]
इति: भद्र सूक्तम् अथवा स्वस्ति सूक्तम् अथवा स्वस्तिवाचन॥
सभी मन्त्रों में आपने 'ग्वंग' लिखना छोड़ दिया है। ऐसा क्यो?
ReplyDeleteवैसे आपने अत्यंत प्रशंसनीय कार्य किया है।
ئ चिन्ह को गुंग पढे
Deleteधन्यवाद मान्यवर ग्वंग लिखना छूट गया था सुधार दिया गया है ।