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कर्मकाण्ड

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दुर्गा पूजा महात्म्य

दुर्गा पूजा महात्म्य

श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है, इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस भाग १५ में दुर्गा पूजा पद्धति और दुर्गा पूजा के महात्म्य का वर्णन है।

दुर्गा पूजा महात्म्य

दुर्गा पूजा महात्म्य

अथ दुर्गापूजापद्धतिप्रारम्भः

तत्रादौ दुर्गापूजामहात्म्यमुक्ते च पाद्मे सृष्टिखण्डे ।

पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में दुर्गापूजा का माहात्म्य इस प्रकार कहा गया है

भीष्म उवाच :

चण्डिकानुग्रहाद्दैत्या गताः शिष्टा रसातलम्‌ ।

तद्वदस्व महाप्राज्ञ चण्डिकापूजने फलम्‌ ॥१॥

यथा सम्पूज्यते देवी तुष्टा यच्छति यत्फलम्‌ ।  

श्रोतुं कौतुहलं मेऽद्य तद्वदस्व सविस्तरम्‌ ॥२॥

भीष्मजी बोले : बचे-खुचे दैत्य चण्डिका देवी की कृपा से रसातल को चले गये । हे राजन्, आप चण्डिका-पूजन का फल कहें । किस प्रकार देवी की पूजा की जाती है जिससे वह प्रसन्न होकर फल प्रदान करती हैं ? आज मुझे इसको जानने की अत्यन्त उत्कण्ठा है। सो आप विस्तार से मुझे सुनायें ।  

पुलस्त्य उवाच :

श्रृणुष्व नृपशार्दूल चण्डिकापूजने फलम्‌ ।

यत्कृत्वा स्वर्गभुड्मर्त्य: पश्चान्मोक्षं व्रजेद्‌ ध्रुवम्‌ ॥ ३॥

यत्यूजने फलं देव्या न तत्क्रतुशतैरपि ।

लभ्यते नितरां तात तीर्थदानव्रतादिभि: ॥ ४॥

पुलस्त्य बोले : हे नृपशार्दूल, चण्डिकापूजन से जो फल होता है उसे आप सुनो जिसे करके मनुष्य स्वर्गभोग कर अन्त में निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करता है । देवी के पूजन में जो फल मिलता है वह सैकड़ों यज्ञों, तीर्थ तथा दान आदि से भी नहीं प्राप्त होता ।  

चण्डिकां पूजयेद्भक्त्या यो नरः प्रत्यहं- नृप ।

न क्षमस्तत्फलं वक्‍तुं साक्षाद्देवः पितामह: ॥५॥

अश्वमेधसहस्नाणि वाजपेयशतानि च ।

चण्डिकापूजनस्यैव लक्षांशेनापि नो समः ॥६॥

स दाता स मुनिर्यष्ट स तपस्वी स तीर्थपः ।

यः सदा पूजयेद्दुर्गा नानापुष्पानुलेपनैः | ७॥

धुपैर्दिपैस्तथै: भोज्यैः प्रणमेद्वापि भावनीम्‌ ।

स योगी स मुनिः श्रीमांस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता ॥ ८॥

वर्षमेकं तु यो दुर्गां पूजयेद्विजितेन्द्रियः ।

एकाहारो महाबाहों सोऽग्निष्टोमफलं लभेत्‌ ॥ ९॥  

हे राजन, जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रतिदिन चण्डिका देवी की पूजन करता है, उसका फल साक्षात्‌ ब्रह्मा भी कहने में समर्थ नहीं हैं । हजारों अश्वमेध तथा सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी चण्डिकापूजन के लाखवें भाग को नहीं पहुँच सकते । वही दाता, मुनि, यष्टा, तपस्वी तथा तीर्थपायी है जो नाना प्रकार के पुष्पों और अनुलेपनों से, धूप, दीप तथा भोज्यों से भवानी की पूजा करता है और उन्हें प्रणाम करता है। वही योगी, मुनि तथा श्रीमान्‌ है । मुक्ति उसके हाथ में स्थित रहती है । जो अपनी इन्द्रियों को वश में रख कर एक समय आहार करके एक वर्ष तक दुर्गा की पूजा करता है उसे, हे महाबाहो, अग्निष्टोम का फल प्राप्त होता है।  

पौर्णमास्यां नवभ्यां च अष्टम्यां च नराधिप ।  

स्रापयित्वा शुभां दुर्गा वाजपेयफलं लभेत्‌ ॥१०॥

शुक्लपक्षे नवम्यां तु अष्टम्यां परमेश्वरीम्‌ ।  

त्रिकालं पूजयेद्यस्तु चतुर्दश्यां नराधिप ॥११॥

सगच्छति परं स्थानं यत्र देवी व्यवस्थिता ।  

क्रीडित्वा सुचिरं कालं राजा भवति भूतले ॥१२॥

नवम्यां सोपवासस्तु यः पूजयति चण्डिकाम्‌ ।

दशानामश्वमेधानां फलं प्राप्नेति मानवः ॥१३॥

जितेन्द्रियो ब्रह्मचारी शुचिर्भूत्वा तु यो नरः ।  

चण्डिकां पूजयेद्भक्त्या स याति परमां गतिम्‌ ॥ १४ ॥।

स्नानोपवासनियमै: पूजाजागरमार्जनै: ।

सर्वकालेषु सर्वेषु चण्डिकां यः प्रपूजयेत्‌ ॥१५॥

विमानवरमारुह्य ध्वजमालाकुलं नृप ।

ब्रह्मलोकं नरो गत्वा मोदते शाश्वतीः समाः ॥१६॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यथाविभवविस्तरै: ।  

पूजयेत्सततं दुर्गा महापुण्यफलेच्छया ॥१७॥

हे नराधिप, पूर्णमासी में, नवमी में, अष्टमी में, शुभ दुर्गा को स्नान कराकर मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है। शुक्लपक्ष में नवमी और अष्टमी तथा चतुर्दशी को तीनों कालों में जो देवी की पूजा करता है, वह उस परम स्थान को प्राप्त करता है जहाँ देवी स्वयं निवास करती हैं। वहाँ वह बहुत समय तक आनन्दपूर्वक रहकर पुनः पृथिवी पर राजा बनता है। नवमी के दिन जो उपवास करके चण्डिका का पूजन करता है वह दश अश्वमेध यज्ञों का फल पाता है। जो जितेन्द्रिय, ब्रह्मचारी और पवित्र होकर चण्डिका देवी का पूजन करता है वह परमगति को प्राप्त होता है । स्नान, उपवास, नियम, पूजा, जागरण तथा मार्जन से सदा और सभी स्थानों में जो चण्डिका का पूजन करता है वह हे राजन, विमान पर आरूढ होकर ध्वजा और माला से सुशोभित होकर ब्रह्मलोक को जाकर वहाँ शाश्वतकाल तक आनन्दोपभोग करता है। इसलिए सभी उपायों से अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार महापुण्य के फल की इच्छा से दुर्गा देवी की निरन्तर पूजा करनी चाहिये।

अयने विषुवे चैव षडशीतिमुखे नृप ।

मासैश्चतुर्भियत्पुण्यं विधिना पूज्य चण्डिकाम् ॥१८॥

तत्फलं लभते वीर नवम्यां कार्तिकस्य तु ।  

हे राजन, दोनों अयनों में (उत्तरायण और दक्षिणायन), विषुव अर्थात्‌ दोनों संक्रान्तियों में (मकरसंक्रान्ति तथा मेषसंक्रान्ति ),षडसीति मुख में (२७ नक्षत्रों से युक्त छियासी मुखों वाले चक्र में ),चार मासों में विधिपूर्वक चण्डिका की पूजा से जो फल मनुष्य प्राप्त करता है वह फल कार्तिक की नवमी में दुर्गा की पूजा से प्राप्त कर लेता है।  

मासि चाश्वयुजे वीर शुक्लपक्षे त्रिशूलिनीम्‌ ॥१९॥

नवम्यां पूजयेद्यस्तु तस्य पुण्यफलं श्रृणु ।

अश्वमेधसहस्रस्य राजसूयशतस्य च ॥२०॥

तत्फलं लभते वीर दिवि देवगणैर्वृत्त: ।

मासिमासि नरो भकत्या पूजयेद्यस्तु चण्डिकाम्‌ ॥२१॥

ब्रजेत्षाण्मासिकंपुण्यं नवम्यां तु न संशयः ।

मेरु पर्वततुल्योपि राशिः पापस्य कर्मण: ॥२२॥

चण्डिकावैद्यमासाद्य नश्यते दुष्टरोगवत्‌ ।

दुर्गार्चने, रतो नित्यं महापातकसम्भवैः ॥२३॥

दोषर्न लिप्यते वीर पद्मपत्रमिवांभसा ।        

छित्त्वा भित्त्वा च भूतानि हत्वा सर्वमिदं जगत् ॥२४॥

प्रणम्य शिरसा देवीं न स पार्पैविलिप्यते ।

सर्वावस्थां गतो वापि युक्तो वा सर्वपातकै: ॥ २५॥

दुर्गा दृष्टवा नर:सोपि प्रयाति परमं पदम् ।  

स्वपंस्तिष्ठन्व्रजन मार्गे प्रलपन्भोजने रत: ॥२६॥

स्मरते सततं दुर्गा स च मुच्येत बन्धनात् ।  

हे वीर, जो आश्विन के शुक्लपक्ष में नवमी के दिन जो दुर्गा पूजा करता है, उसका फल सुनो ।  

वह हजार अश्वमेध तथा सौ राजसुययज्ञ का फल प्राप्त करता है।  जो व्यक्ति प्रतिमास भक्तिपूर्वक पूजा करता है वह देवताओं के साथ घिरा हुआ उक्त फल प्राप्त करता है । नवमी के दिन पूजा करने से मनुष्य छः महीने की पूजा का फल पाता है इसमें कोई संशय नहीं है । यदि मेरुपर्वत के समान भी पापकर्मों की राशि हो तो वह भी चण्डिका देवी की पूजा से उसी प्रकार समाप्त हो जाती है जैसे वैद्य को देखकर रोग भाग जाते हैं। जो व्यक्ति दुर्गा के पूजन में नित्य लगा हुआ है वह महापातको में लिप्त होने पर भी दोषों से उसी प्रकार छूट जाता है जैसे कमलपत्र पर जल का प्रभाव नहीं होता। समस्त प्राणियों को मारकाट कर तथा सारे संसार को छिन्नभिन्न करके भी देवी को शिर से प्रणाण करने से वह पापों से छूट जाता है। चाहे वह चारों तरफ से पापकर्म में लिप्त ही क्यों न हो, दुर्गाजी को देखकर वह व्यक्ति परम पद को प्राप्त होता है। जो मनुष्य सोते, मार्ग में चलते, बातें करते, भोजन करते हुए निरन्तर दुर्गा का स्मरण करता है, वह बन्धनों से मुक्त हो जाता है।  

न तद्देशे तु दुर्भिक्ष न च दुःखं प्रवर्तते ॥२७॥

न कश्चिन्म्रियते राजन्पुज्यते यत्र चण्डिका ।  

यो दुर्गां पूजयेन्नित्यं श्वपचों वा जितेन्द्रियः ॥२८॥

भावेन च समायुक्तः सोपि याति परां गतिम्‌ ।

पूजयित्वा तु तां भक्त्या श्रद्धया सर्वमङ्गलाम्‌ ॥२९॥

प्रयाति परमं स्थानं यत्र सा सर्वमङ्गला ।

व्रताभिषेकं यः कुर्यादहोरात्रं नराधिपः ॥ ३०॥

सूक्ष्मधारेण ताम्रेण भगवत्या विचक्षण: ।

मासि चाश्वयुजे वीर सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ ३१॥

हे राजन्, जहाँ पर चण्डिका का पूजन होता है, उस स्थान पर न दुर्भिक्ष होता है, न कोई दुःख होता है और न किसी की मृत्यु होती है। यदि चाण्डाल भी जितेन्द्रिय और श्रद्धाभाव से युक्त होकर नित्य दुर्गा की पूजा करता है तो वह भी परमगति को प्राप्त होता है। हर प्रकार से मङ्गल करने वाली दुर्गाजी की भक्ति से पूजा करके वह परमगति को प्राप्त होता है और उस स्थान को पहुँच जाता है जहाँ सर्वमङ्गला दुर्गा देवी का निवास है। हे राजन, जो रात-दिन सूक्ष्मधार वाले ताम्र से आश्विन मास में दुर्गा का ब्रत और अभिषेक करता है वह सभी पापों से छूट जाता है ।

कार्तिके पौर्णमास्यां यः सोपवासोर्चयेदुमाम्‌ ।

सोग्निष्टोमफलं बिन्देत्सूर्यलोकं च गच्छति ॥ ३२ ॥

जो कार्तिक पूर्णणासी को उपवास के साथ उमा की पूजा करता है वह अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त करता है तथा सूर्यलोक को जाता है।

आषाढे पौर्णमास्यां तु योऽर्चयेदम्बिकां नरः ।  

सोपवासो महाभागः स याति परमां गतिम्‌ ॥ ३३॥

पौर्णमास्यां तु यो माघे पूजयेद्विधिवच्छिवाम्‌ ।

सोश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोके महीयते ॥ ३४॥

अषाढ़ पूर्णमासी को जो मनुष्य उपवास के साथ अम्बिका का पूजन करता है वह परमगति को प्राप्त होता है ।  माघ की पूर्णिमा को जो दुर्गाजी की विधिवत्‌ पूजा करता है, वह अश्वमेध का फल प्राप्त करता है और विष्णुलोक में विराजमान होता है ।

अयने दक्षिणे यस्तु पूजयेदम्बिकां नृप ।  

सकृद्गन्धोदकैश्चैव गन्धर्वसदने  वसेत्‌ ॥ ३५॥

पश्चगव्येन उक्षित्वा पश्चचूडाचलं व्रजेत्‌ ।

आप: क्षीरं कुशाग्राणि तण्डुला हविरक्षताः ॥ ३६॥

सह  सिद्धार्थका दूर्वा कुंकुमं रोचना मधु ।

अर्घोयं कुरुशार्दूल द्वादशाङ्ग उदाहृतः ॥ ३७॥

अनेन पूजयेद्यस्तु स याति परमं पदम्‌ ।

दारवेणार्धपात्रेण दत्त्वार्ध्य विधिवन्नृप ॥ ३८॥

देव्यै तदा महाराज अग्निष्टोमफलं ब्रजेत् ।  

अब्दमेकशतं दिव्यं शक्रलोके महीयते ॥३९॥

गन्धानुलेपनं कृत्वां ज्योतिष्टोमफलं ब्रजेत् ।  

चन्दनेनावलिप्यार्यामग्निष्ठोमफलं ब्रजेत् ॥४०॥

विलिप्य  कृष्णागरुणा वाजपेयफलं भजेत्‌ ।  

कुंकुंमेन विलिप्यार्या गोसहस्त्रफलं भजेत्‌ ॥ ४१ ॥

चन्दनागुरुकपूरै: सूक्ष्मपत्रै: सकुंकुमै: ।

दुर्गामालिप्य विधिवत्कल्पकोटिं वसेद्दिवि ॥ ४२ ॥

अग्निहोत्रपरे विप्रे वेदवेदाङ्गपारगे ।  

सुवर्णानां सुवर्णानां शते दत्ते तु यत्फलम्‌ ॥४३॥

तत्फलं लभते राजन्पूजयित्वा तु चण्डिकाम्‌ ।  

हे राजन, दक्षिणायन में जो मनुष्य सुगन्धित जल से दुर्गाजी का पूजन करता है वह गन्धर्वों के लोक में निवास करता है। पञ्चगव्य में सिंचन करके पञ्चचूडाचल पर्वत पर जाये । जल, दूध, कुशा, चावल, हविष्‌, अक्षत, पीली सरसों, दूब, केसर, गोरोचन, मधु, ये अर्ध्य द्वादशाङ्ग कहलाते हैं। हे कुरुशार्दूल, यदि कोई इन द्रव्यों से दुर्गा की पूजा करता है तो वह परमपद को प्राप्त करता है। हे राजन, लकड़ी के अर्धमात्र से जो विधिवत्‌ अर्घ्य देकर पूजा करता है वह अग्निष्टोम यज्ञ के फल को प्राप्त करता है। वह एक सौ एक वर्ष तक इन्द्रलोक में आनन्द से निवास करता है । सुगन्धित द्रव्यों का अवलेपन करके साधक ज्योतिष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त करता है तथा देवी को चन्दन का अवलेपन करके अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त करता है। काले अगर का देवी को अवलेपन करने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है। केसर से देवी का अवलेपन करने से एक हजार गायों के दान का फल प्राप्त करता है।  चन्दन, अगर, कपूर, सूक्ष्मपत्र (जङ्गली जीरा ) और केसर से दुर्गा का विधिवत्‌ अवलेपन करके एक करोड़ वर्ष तक देवलोक में निवास करता है। हे राजन, अग्निहोत्र करनेवाले वेदवेदाङ्ग के पारगामी ब्राह्मण को सौ सोने के सिक्के दान देने से जो फल होता है वह चण्डिका की पूजा करने से मनुष्य पा जाता है।  

मालया बिल्वपत्राणां नवम्यां च पुरेण च ॥४४॥

मालाद्वयेन सम्पूज्य दुर्गा देवीं नराधिप ।

विल्ववृक्षस्य पुष्पैश्च राजसूयफलं भजेत्‌ ॥४५॥

करवीरस्य स्रग्भिश्च पूजयेद्यस्तु चण्डिकाम्‌ ।  

वाजपेयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥४६॥

द्रोणपुष्पसुस्रग्भिस्तु पूजयेद्यस्तु चण्डिकाम्‌ ।

राजसूयफलं प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ॥४७॥

पूजयित्वा तु राजेन्द्र श्रद्धया विधिपूर्वकम्‌ ।

अन्यपुष्पस्य मालाभिः पितृलोके महीयते ॥ ४८॥

शमीपुष्पस्य मालाभिस्त्वार्या सम्पूज्य भक्तितः ।  

गोसहस्रफलं लब्ध्वा विष्णुलोके महीयते ॥४९॥

जो मनुष्य नवमी के दिन बेल के पत्तों की दो मालाओं से बेल के पत्तों के दोने में बेल के फूलों से देवी की पूजा करता है वह राजसूय यज्ञ का फल पाता है। जो कनेर के फूलों की मालाओं से चण्डिका की पूजा करता है वह वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है और स्वर्गलोक में निवास करता है। हे राजन, इसी प्रकार अन्य फूलों की मालाओं से श्रद्धापूर्वक दुर्गा की पूजा करके पितृलोक में निवास करता है। शमी के फूल की मालाओं से भक्तिभाव से देवी की पूजा करके एक हजार गायों के दान का फल पाकर विष्णुलोक में निवास करता है ।

सर्वेषामेव पुष्पाणां प्रवरं नीलमुत्पलम्‌ ।

नीले कमल का फुल सब फूलों में श्रेष्ठ है ।  

नीलोत्पलसहस्रेण यस्तुमालां प्रयच्छति ॥५०॥

दुर्गायै विधिवद्वीर तस्य पुण्यफलं श्रृणु ।  

वर्षकोटिसहस्राणि वर्षकोटिशतानि च ॥५१॥

दिव्यमूर्तिधरो भूत्वा रुद्रलोके महीयते ।

सर्वासां पुष्प जातीनां यत्फलं परिकीर्तितम्‌ ॥ ५२॥

तस्माच्छतगुणं प्राप्य दुगलोके महीयते ।

नीलोत्पलस्नजां देवीं पूजयेद्यस्तु चण्डिकाम्‌ ॥ ५३॥

वाजपेयफलं प्राप्य रुद्रलोके महीयते ।

अलाभे पुष्पजातीनां पत्राण्यपि निवेदयेत्‌ ॥ ५४ ॥

पत्राणामप्यलाभे तु औषधीस्तु निवेदयेत्‌ ।

औषधीनामलाभे तु भक्त्या भगवती जिता ॥५५॥

हे वीर, जो एक हजार नीले कमल के फूलों की माला देवी पर विधिवत्‌ चढ़ाता है उसका पुण्यफल सुनो। इस प्रकार पूजा करने वाला मनुष्य दिव्य शरीर धारण करके ग्यारह अरब वर्ष तक रुद्रलोक में आनन्दपूर्वक निवास करता है। जो नीले कमल की माला से चण्डिका की पूजा करता है वह सभी प्रकार के फूलों के जो फल कहे गये हैं उनसे सौ गुना फल पाकर दुर्गा के धाम में निवास करता है। फूलों के अभाव में केवल पत्रों से ही पूजा करनी चाहिये। पत्रों के अभाव में औषधियों से ही पूजा करनी चाहिये। औषधियों के अभाव में केवल भक्ति से भी भगवती प्राप्त हो जाती हैं ।

प्रत्येकमुक्तपुष्पेषु कुशेष्वपि फलं नृप ।

आङ्गीरसेषु तेष्वेव द्विगुणं काञ्चनस्य तु ॥५६॥

मल्लिकामुत्पलं पत्रं शमी पूतन्नागचम्पकम्‌ ।  

कर्णिकारमशोकं च द्रोणपुष्पं विशेषतः ॥ ५७॥

चन्दनं च जपापुष्पं नागकेसरमेव च ।

यः प्रयच्छति पुण्यात्मा पुष्पाण्येतानि भावतः ॥ ५८ ॥

चण्डिकायै नरश्रेष्ठ: स च प्रोक्तफलं भजेत्‌ ।

सम्प्राप्प कालाद्राजत्वं चण्डिकानुचरो भवेत्‌ ॥५९ ॥  

पद्माकृतिं च यः कुर्यान्मण्डलं चण्डिकागृहे ।

सब्रह्मणः पुरं गत्वा मोदते ब्रह्मणा सह ॥ ६०॥

हे राजन, पूर्वोक्त फूलों तथा कुशों में प्रत्येक का जो फल कहा गया है यदि वे आंगरिस हों या सोने के हों तो उनका दूना फल होता है। मल्लिका, कमल, शमीपत्र, पुन्नाग, चम्पा, कनेर, अशोक, द्रोणपुष्प, विशेष रूप से चन्दन, अढ़उल का फुल, नागकेसर इन फूलों को जो पुण्यात्मा भावपूर्वक चण्डिका देवी पर चढ़ाता है, हे  नरश्रेष्ठ, वह पूर्वोक्त फलों को प्राप्त करता है और समय पर राज्याधिकार प्राप्त कर चण्डिका का अनुचर हो जाता हैं। जो चण्डिका के मन्दिर में कमल की आकृति बनाता है वह ब्रह्मधाम में जाकर ब्रह्मा के साथ आनन्द करता है।

शङ्खवर्णं तु यः कुर्यन्मण्डलं विधिवन्नृप ।  

स दिव्यं यानमारुह्म चन्द्रलोकमवाप्नुयात्‌ ॥ ६१ ॥  

नानावर्णेन चूर्णेन कृत्वा मण्डलमुत्तमम्‌ ।

गत्वा माहेश्वरीलोक मोदते शाश्वतीः समा: ॥ ६२ ॥  

हे राजन, जो विधिपूर्वक शङ्खवर्ण का मण्डल बनाता है, वह दिव्य यान पर बैठकर चन्द्रलोक को प्राप्त करता है। जो अनेक प्रकार के चूर्ण से दुर्गा के सम्मुख उत्तम मण्डल बनाता है वह माहेश्वरी लोक में जाकर सदाकाल आनन्दपूर्वक निवास करता है ।  

वज्राकृतिं वज्रचूर्णैर्य: कुर्यान्मण्डलं नृप ।

ऐरावतं समारूढ इन्द्राणीलोकमाप्नुयात्‌ ॥६३ ॥

यः करोति नरो भक्त्या दुर्गायाः पुरतो महत्‌ ।

श्वेतकृष्णै: सितैर्वर्णै: श्रीवत्साङ्कित्मुत्तमम्‌ ॥ ६४ ॥  

मण्डलं स नरो वीर विमानवरमाश्रितः ।

सेव्यमानोप्सरोव्रातैर्व्रजेच्छीलोकमुत्तमम्‌ ॥६५॥

हे राजन, जो मनुष्य वज़चूर्ण से वज़ के समान मण्डल बनाता है, वह ऐरावत हाथी पर सवार होकर इन्द्राणी लोक को जाता है । जो दुर्गा के सामने श्वेत, काले और सफेद वर्णों से श्रीवत्सांकित आकृति बनाता है, हे राजन्‌, वह श्रेष्ठ विमान पर बैठकर अप्सराओं से सेवित उत्तम श्रीलोक को जाता है ।  

यः करोति नरो भक्तया मण्डलं चाम्बिकान्वितम्‌ ।

रमते किन्नरै: सार्ध॑ यावदाभूतसंप्लवम्‌ ॥ ६६॥

चक्रैर्वा शतशाखैस्तु  क्षीरवृक्षसमुद्भवैः ।

हेमजैश्चापि कलशैर्जलक्षीरघृतान्विते ॥ ६७ ॥

अनेकवर्णसंयुक्तरक्षतैर्नीरतण्डुलै: ।

य करोति नरो भक्त्या चक्राकारं तु मण्डलम्‌ ॥६८ ॥  

चण्डिकाया: पुरो राजञ्जलजैः स्थलसम्भवैः ।

पत्रै: पुष्पैर्यथालाभं सर्वर्तुषूद्भवै: शुभै: ॥ ६९ ॥

वन्यानां सर्वपत्रैश्च पुष्पैश्चैव प्रपूजयेत्‌ ।

शुभं वाप्यशुभं वापि फलं पुष्पं निवेदयेत्‌ ॥ ७० ॥

भक्त्या युतो नरः सर्वं स च देवत्वमाप्नुयात्‌ ।

जो मनुष्य भक्तिभाव से अम्बिका सहित मण्डल बनाता है, वह प्रलयकाल तक किन्नरों के साथ रमण करता है । जो क्षीरी वृक्ष के काष्ठ से, सौ शाखाओं वाले चक्रों से, जल, दूध और घी से पूर्ण स्वर्ण के कलशों से अनेक वर्णों से संयुक्त अक्षत और नीरतण्डुलों से चण्डिका के सामने चक्राकार मण्डल बनाता है, सब ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फूलों और पत्रों में से जो मिले, उनसे तथा जङ्गली फूलों और पत्तों से पूजा करता है तथा जो शुभ या अशुभ फल पुष्प जो मिले उसे देवी को चढ़ाता है, वह मनुष्य देवत्य को प्राप्त होता है ।  

नानापुष्पस्य मालाभिर्मण्डपं चण्डिकोपरि ॥ ७१॥

यः कुर्याद्विधिवद्भक्त्या विष्णुलोके महीयते ।  

कुर्यात्पुष्पगृहं भक्‍त्या विधिवच्चण्डिकोपरि ॥ ७२ ॥

नवम्यां पूर्वकाले वा विचित्रकुसुमोज्ज्वलम्‌ ।

विमानवरमारुह्य पुष्पदामोपशोभितम्‌ ॥ ७३ ॥

अक्षयं मोदते कालं चण्डिकालयमाश्रितः ।

जो मनुष्य अनेक प्रकार के फूलों की मालाओं से चण्डिका के ऊपर भक्तिपूर्वक मण्डप बनाता है वह विष्णुलोक में निवास करता है। जो नवमी या इससे पहले चण्डिका के ऊपर भक्ति और विधिपूर्वक विचित्र उज्ज्वल फूलों का गृह बनाता है, वह फूलों की रस्सियों से युक्त श्रेष्ठ विमान पर बैठकर चण्डिका के धाम में अक्षयकाल तक आनन्द करता है।  

पूजाविभक्तविन्यासरचनादिषु सर्वतः ।

फलमेव समासेन ज्ञेयं विज्ञानुसारतः ॥ ७४॥

घृतपिष्टप्रदीपाद्यैर्घृतमिश्रितपल्‍लवैः ।

औषधीभिश्च मेध्याभिः सर्वबीजैर्यवादिभिः ॥ ७५॥

नवम्यां सर्वकाले तु यात्राकाले विशेषतः ।  

यः कुर्याच्छ्द्धया वीर दिव्यं नीराजनं नरः ॥ ७६ ॥

जयशब्दै: पुष्कलैश्च शिवलोकं स गच्छति ॥७७॥

लवणेनाक्षतैः कृत्वा देवीनीराजनं परम्‌ ।  

तावत्कल्पहसस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥७८॥

सुवर्णरौप्यवर्णैश्च कृत्वा नीराजनं नरः ।        

भगवत्यै महाराज  ब्रह्मलोके महीयते ॥७९॥

पुजाविभक्तिविन्यास, रचना आदि सब स्थानों पर साधारण रूप से ज्ञानवानों के अनुसार फल को जानना चाहिये।  हे राजन, जो घी, आटा, प्रदीप आदि से तथा घी मिश्रित पल्‍लवों से, पवित्र औषधियों से, यव आदि सभी बीजों से, नवमी में, अथवा सदा विशेष रूप से यात्राकाल में, शङ्ख, भेरी आदि वाद्यों के महान्‌ घोषों से और पुष्कल जयजयकार ध्वनियों से श्रद्धापूर्वक नीराजन करता है वह शिवलोक को प्राप्त होता है। नमक और अक्षतों से जो देवी का नीराजन करता है वह उतने ही समय तक स्वर्गलोक में निवास करता है।  हे राजन, सुनहले और रुपहले वर्णों से देवी का नीराजन करके मनुष्य ब्रह्मलोक में निवास करता है ।  

त्रिकालं यो नरः कुर्याददुर्गायाः पुरतो नृप ।

नृत्यं गीतं च वादित्रं तस्य पुण्यफलं श्रुणु ॥८०॥

यावन्त्यब्दान्हिकुरुते गीतं नृत्यं च वादितम्‌ ।

तावत्कल्पान्हि राजेन्द्र देवीलोके सुखं वसेत्‌ ॥८१॥

एकाहमपि यो भक्त्या पञ्चगव्येन चण्डिकाम्‌ ।

स्नापयेन्नृपशार्दूल स गच्छेत्सुरभीपूरम्‌ ॥ ८२ ॥  

कपिलापञ्चगव्येन घृतक्षीययुतेन च ।

स्नान शतगुणं प्रोक्तमितरेभ्यो नराधिपः ॥८३॥

वर्षैश्व षट्सहस्राणां पापानां समुपार्जनम्‌ ।

तत्वसर्व॑ विलयं याति तोयेन लवणं यथा ॥८४॥

घृताभ्यंगेन देव्यास्तु कृतेन विधिवन्नृप ।

तस्मादभ्यञ्जयेद्भक्त्या नित्यं भगवती नृप ॥८५॥।     

हे राजन, जो दुर्गा के सम्मुख तीनों काल में नृत्य, गायन और वादन का आयोजन करता है उसका पुण्य फल सुनो। जितने वर्ष तक मनुष्य गीत, नृत्य और वादन का आयोजन करता है उतने कल्प तक है राजन, वह देवीलोक में सुखपूर्वक निवास करता है। जो व्यक्ति एक दिन भी भक्तिपूर्वक पञ्चगव्य से चण्डिका को स्नान कराता है वह गोलोक को प्राप्त होता है। कपिला गाय के घी और दूध से युक्त पञ्चगव्य से देवी को स्नान कराना अन्यों की अपेक्षा हे राजन, सौ गुना फलदायक होता है । हे राजन, देवी के देह में विधिवत्‌ घी का अवलेपन करने से छः हजार वर्षों से सञ्चित पाप भी उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार पानी से नमक नष्ट हो जाता है। इसलिये भगवती देवी को सदा भक्तिपूर्वक घी का अवलेपन करना चाहिये ।  

नवम्यां शुक्लपक्षे तु विधिवच्चण्डिकां नृप ।

घृतेन स्नापयेद्यस्तु तस्य पुण्यफलं श्रृणु ॥ ८६॥

हे राजन, शुक्लपक्ष की नवमी में विधिपूर्वक चण्डिका को जो घी से स्नान कराता है उसका तुम पुण्यफल सुनो ।

दश पूर्वान्दिशपरानात्मानं च विशेषतः ।

भवार्णवात्समुद्धृ्त्य दुगलोके महीयते ॥८७॥

क्षीराद्यै: स्रापयेद्यस्तु  श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।  

चण्डिकां स नरों याति गोलोकं तमसः परम्‌ ॥ ८८॥।

चण्डिकां स्रापयेद्यस्तु नरश्चेक्षुरसेन च।

सौपर्णकेन यानेन विष्णुना सह मोदते ॥८९॥

यो नरः स्नपयेद्दुर्गां श्रद्धया हेमवारिणा।

सौवर्ण यानमारूढो मोदते पुरुषैर्दिवि ॥ ९०॥

रक्तोदकेन विधिवत्स्नापयेच्छद्धयान्वितः ।

चण्डिकां स नरः पूर्वैर्विष्णुलोके महीयते ॥९१॥

स्नापयेद्य उमां देवीं नरः कर्पूरवारिणा ।  

सौवर्णयानमारूढ: स गच्छेद्यत्र चण्डिका ॥९२॥

चण्डिकां स्रापयित्वा तु श्रद्धयागुरुवारिणा ।

इन्द्रलोकं समासाद्य क्रीडते सह  किन्नरैः ॥९३॥

जो व्यक्ति घी से देवी को स्नान कराता है, वह अपने से पूर्व दश तथा अपने से बाद की दश पीढ़ियों का तथा विशेष रूप से अपना उद्धार करके दुर्गालोक में निवास करता है । जो श्रद्धा-भक्ति के साथ दूध आदि से चण्डिका को स्नान कराता है वह अन्धकार से दूर परम गोलोक को प्राप्त होता है। जो मनुष्य गन्ने के रस से चण्डिका को स्नान कराता है वह सौपर्ण यान द्वारा विष्णु के साथ आनन्द करता है । जो मनुष्य दुर्गाजी को सुनहले जल से स्नान कराता है, वह सुवर्ण यान पर बैठकर पुरुषों के साथ देवलोक में आनन्द करता है। जो मनुष्य श्रद्धा से विधिपूर्वक लाल जल से देवी को स्नान कराता है, वह पूर्व पुरुषों के साथ विष्णुलोक में निवास करता है। जो मनुष्य कूपर के जल से उमा को स्नान कराता है, वह सोने के यान पर बैठकर वहाँ चला जाता है जहाँ चण्डिका स्वयं निवास करती हैं । जो मनुष्य अगर के जल से चण्डिका को श्रद्धापूर्वक स्नान कराता है वह इन्द्रलोक जाकर किन्नरों के साथ क्रीड़ा करता है ।  

पितृनुद्दिश्य यो दुर्गा मधुना पायसेन च ।

स्नापयेद्विधिवद्भक्त्या तस्य पुण्यफलं श्रूणु ॥ ९४॥

तृप्ता भवन्ति पितरस्तस्य वर्षशतद्वयम्‌ ।

य एवं स्नापयेन्नित्यं स्नानद्रब्यैर्नराधिपः॥९५॥

युगपद्विघिवद्विर तस्य पुण्यफलं श्रृणु ।

अश्वमेधसहस्त्रस्य राजसूयशतस्य च ॥९६॥

अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य स फलं बिंदते नरः ।  

स्नापयित्वा नरस्ताम्रैर्वाजपेय फलं ब्रजेत्‌ ॥९७॥

सौवर्णै: स्नापयित्वा च चण्डिकां कलशैर्नृप ।

अश्वमेधफलं प्राप्य ब्रह्मलोके महीयते ॥ ९८॥

घृतस्नातां तथा दुर्गा समुद्वर्तयते तु यः ।  

यवगोधूमजैश्चूर्णैर्धर्षयेच्छर्करेण च ॥९९॥

घृतेन पयसा दध्ना स्रापयेच्चण्डिकां ततः ।  

बिल्वपत्रै: सुगन्धाढ्यैर्घर्षयेद्यत्नतः पुमान्‌ ॥१००॥

गोसहस्रशते दत्ते यत्फलं पुष्करे स्मृतम्‌ ।  

तत्फलं लभते वीर देव्या उद्वर्तने कृते ॥१०१॥

जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा-भक्ति पूर्वक दूध और मधु से दुर्गा को स्नान कराता है, उसका पुण्य फल सुनो। उसके पितर दो सौ वर्ष तक तृप्त होते हैं। हे राजन, जो इन स्नानद्रव्यों के साथ नित्य स्नान कराता है, उनका एक साथ पुण्य फल सुनो। वह मनुष्य हजारों अश्वमेधों तथा सैकड़ों राजसूय यज्ञों का और अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त करता है । मनुष्य ताँबे के घड़ों से देवी को स्नान कराकर वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है । हे राजन, सोने के घड़ों से देवी को स्नान कराने से मनुष्य अश्वमेध का फल प्राप्त कर ब्रह्मलोक में निवास करता है । जो घी से स्नान किये हुए दुर्गा को जव या गेहूँ के आटे से तथा शकर से उबटन लगाता तथा घी, दूध और दही से चण्डिका को स्नान कराकर तदनन्तर सुगन्ध से युक्त बेल के पत्रों से घर्षण करता है वह हजार गायों के दान का जो फल है तथा पुष्कर में स्नान का जो फल है वही फल वह मनुष्य देवी को उबटन लगाने से प्राप्त करता है ।

दत्त्वार्धविधिवद्भक्त्या दुर्गायै पद्मवारिणा ।

सम्पूज्यमानो गन्धर्वै रमते दिवि देववत्‌ ॥ १०२ ॥

कृतोपवासो विधिवत्स भोगी पुत्रवान्भवेत्‌ ।

उत्तरे ह्ययने यस्तु सोपवासोऽर्चतेम्बिकाम् ॥१०३॥

बहुपुत्रों बहुधनः सः नरः कीर्तिमान्भवेत्‌ ।

इत्येते कथिता वीर पूजाकाला मनिषिभिः ॥ १०४ ॥  

कृत्वोपवासं विधिवद्विषुवे योऽर्चयेच्छिवाम्‌ ।  

शक्तियान्वहुपुत्रश्च स भवेद्वलवान्नर: ॥ १०५ ॥

योऽर्चयेद्विधिवद्दुर्गा ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ।

कृत्वोपवासं विधिवत्स भवेत्पुत्रवान्नरः ॥ १०६॥

शान्तिकामो नरो यस्तु राहुग्रस्ते दिवाकरे ।  

सोपवासोऽर्चयेद्देवीं स गच्छेत्परमं पदम्‌ ॥१०७॥

इत्येते कथिता वीर पूजाकाला मनीषिभिः ।  

दुर्गायाः कुरुशार्दूल येषु ब्रह्मादिवं ब्रजेत्‌ ॥१०८ ॥  

विधिवत्‌ भक्तिपूर्वक दुर्गा को कमल के जल का अर्ध्य देकर साधक गन्धर्वों द्वारा पूजित होता हुआ देवताओं की तरह देवलोक में रमण करता है । उत्तरायण में उपवासपूर्वक जो अम्बिका की विधिवत्‌ पूजा करता है वह भोगों को प्राप्त करता हुआ पुत्रों को प्राप्त करता है । उसे बहुत पुत्र, बहुत धन प्राप्त होता है तथा वह यशस्वी होता है।  हे वीर, ये सब मनीषियों द्वारा पूजा के काल कहे गये हैं। जो मनुष्य उपवास करके उत्तरायण या दक्षिणायन में शिवा की पूजा करता है, वह शक्तियों से सम्पन्न, बहुत पुत्रों वाला और बलवान होता है । जो सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण में विधिपूर्वक दुर्गा की पूजा करता है, वह पुत्रवान होता है। शान्ति की कामना से जो मनुष्य सूर्यग्रहण में उपवास करके देवी की पूजा करता है, वह परम पद को प्राप्त करता है। हे वीर, ये मनीषियों द्वारा पूजा के काल कहे गये हैं जिनमें दुर्गा की पूजा से, हे कुरुशार्दूल, मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं ।

दुर्गाया दर्शनं पुण्यं दर्शनाभिवन्दनम्‌ ।

वन्दनात्पर्शनं श्रेष्ठं स्पर्शनादपि पूजनम्‌ ॥१०९॥

पूजनाल्लेपनं श्रेष्ठ लेपनात्तर्पणं स्पृतम्‌ ।

तर्पणान्मांसदानं तु महिषाजनिपातनम्‌ ॥ ११०॥

अहन्यहनि यो दुर्गा पूजयेद्रुधिरादिभिः ।

कुलानां शतमुद्धृत्य ब्रह्मलोके महीयते ॥१११॥

दुर्गा का दर्शन पुण्यप्रद है; दर्शन से अभिवादन अधिक पुण्यप्रद है; अभिवादन से स्पर्श श्रेष्ठ है; स्पर्श से पूजन श्रेष्ठ है, पूजन से आलेपन श्रेष्ठ है; आलेपन से तर्पण श्रेष्ठ है; तर्पण से भैंस और बकरे की बलि देना श्रेष्ठ है। जो प्रतिदिन रक्त आदि से दुर्गा की पूजा करता है, वह अपने सौ कुलों का उद्धार करके ब्रह्मलोक में निवास करता है ।  

वरं प्राणपरित्यागः शिरसः कर्तनं वरम्‌ ।

नचापुज्येह भुज्जीत चण्डिकां चण्डरूपिणीम्‌ ॥ ११२॥

यश्च देव्या गृहं नित्यं सम्मार्जयति भक्तितः ।

सः भवेद्वलवान्देव सर्वसम्पत्तिसंयुत: ॥ ११३॥

देव्या गृहं तु यो देव गोमयेनोपलेपयेत् ।

स्त्री पुमान्वा यथावच्च षण्मासाभ्यन्तरे सुर ॥ ११४॥

स भजेदीप्सितान्कामान्देवीलोकं च गच्छति ।

प्राण का परित्याग उचित है, शिर का कटा देना भी उचित है परन्तु चण्डरूपिणी चण्डिका देवी की पूजा किये बिना भोजन करना उचित नहीं है। जो देवी के घर को भक्तिपूर्वक स्वच्छ करता है, हे राजन, वह बलवान्‌ और सम्पत्ति से मुक्त होता है। हे देव, जो गोबर से देवी के घर को यथावत्‌ लीपता है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, वह छः मास के अन्दर इच्छित कामनाओं को प्राप्त करके देवी के धाम को चला जाता है।  

पुलस्त्य उवाच :

स्नानकाले महाराज नानावादित्रमङ्गलै: ॥ ११५॥

जयशब्दैश्च यो दुर्गा तर्पयेत्‌ जलादिभिः ।

सम्पूजयति भक्त्या च गन्धपुष्पादिभिस्तथा ।

स क्रीडते दिवं गत्वा गन्धर्वाप्सरसां गणै: ॥ ११६॥

कृष्णागुरु सकर्पूरं सिन्दूरं चन्दनं तथा ।

भगवत्यै नरो भूयः पदं दत्त्वा नराधिप ॥ ११७॥

इह कामानवाप्याथ शिवलोके महीयते ।

गुग्गुलुं सघृतं दत्त्वा दुर्गायै च नरर्षभ ॥११८॥

वर्षार्ध॑ विधिवद्भक्त्या गोसहस्रफलं भजेत् ।  

अगुरुधूपमावेद्य सर्वयज्ञफलं भजेत्‌ ॥११९॥

सितागुरुं नरो दत्त्वा गोसहस्रफलं भजेत् ।

सर्वेषामेव धूपानां दुर्गाया गुग्गुल: प्रिय: ॥१२०॥ 

घृतयुक्तो विशेषण सततं प्रीतिवर्धन: ।   

द्वे सहस्त्रे पलानां तु तथा पलशतद्धयम्‌ ॥ १२१ ॥

दत्त्वा शुक्लनवम्यां तु चण्डिकावल्लभो भवेत् ।

महिषाक्षं घृताक्तं तु दगध्वा बिल्वमथापि वा ॥ १२२ ॥   

वाजपेयफलं प्राप्य  सूर्यलोके महीयते ।

सकृच्चागुरुधूपेन सर्वमङ्गलप्राप्तिदा ॥ १२३ ॥

शोधयेत्पापकलिकं काञ्चनं दहनो यथा ।

पुलस्त्य ने कहा : हे राजन्, नानाप्रकार के बाजे, मङ्गल और जयजयकार के साथ जो जलादि से दुर्गा का तर्पण करता है तथा भक्तिपूर्वक गन्ध, पुष्प आदि से उनकी पूजा करता है, वह देवलोक जाकर वहां गंधर्वों और अप्सराओं के साथ आनन्द करता है। हे राजन, काले अगर, कपूर, सिन्दूर तथा चन्दन को जो मनुष्य भगवती को बार-बार चढ़ाता है, वह इस संसार में समस्त कामानाओं को प्राप्त करके शिवलोक में निवास करता हैं। हे राजन, घी के साथ गुग्गुल दुर्गाजी पर विधिपूर्वक छ: मास तक चढ़ाकर मनुष्य हजार गाय के दान का फल प्राप्त करता है । अगर, धूप दुर्गाजी पर चढ़ाने से मनुष्य समस्त यज्ञों का फल प्राप्त करता है । सफेद अगर देवी पर चढ़ा कर मनुष्य हजार गायों के दान का फल प्राप्त करता है। समस्त धूपों में दुर्गाजी को गुग्गुल अधिक प्रिय है। विशेष करके घी से युक्त गुग्गुल सदा अधिक प्रीति को बढ़ाने वाला है। दो हजार दो सौ पल गुग्गुल नवमी के दिन मनुष्य देवी को चढ़ाकर देवी का प्रिय बन जाता है । महिषाक्ष गुग्गुल घी से संयुक्त करके अथवा बेल को जलाकर मनुष्य बाजपेय यज्ञ का फल पाकर सूर्यलोक में निवास करता है । अगर का धुप एक बार भी देवी को चढ़ाना समस्त मङ्गलों की प्राप्ति कराने वाला है । यह पापों को उसी प्रकार शुद्ध कर देता है जिस प्रकार अग्नि सोने को शुद्ध कर देती है ।  

वस्त्राणि सुविचित्राणि सूक्ष्मणि सुमृदूनिच ॥ १२४॥

यप्रयच्छति दुर्गायै स गच्छति शिवालयम्‌ ।

सुवर्णघटितं वस्त्रं यो दुर्गायै प्रयच्छति ॥ १२५॥।

गोसहस्त्रफलं प्राप्य सूर्यलोके महीयते ।

एवं वित्तानुसारेण फलं ज्ञेयं समासतः ॥ १२६ ॥    

जो कोमल, पतले विचित्र वस्त्रों को दुर्गाजी पर चढ़ाता है, वह शिव के धाम जाता है । जो इससे निर्मित वस्त्र दुर्गाजी पर चढ़ाता है, वह हजार गायों के दान का फल प्राप्त करके सूर्यलोक में निवास करता है । संक्षेप से इस प्रकार धन के अनुसार फलों को जानना चाहिये ।  

सन्ध्याकाले नवम्यां यो बलिं कुर्यान्नराधिप ।

चण्डिकायतने भक्त्या महिषाजनिपातनैः ॥१२७॥

विमानवरमारुह्य सर्वदेवनमस्कृतम्‌ ।

स गच्छति परं स्थान यत्र सा चण्डिका स्थिता ॥ १२८ ॥

गुडखण्डाज्यसम्मिश्रमन्नं दत्वा नराधिप ।

वैष्णवः सकलं प्राप्य सूर्यलोके महीयते ॥ १२९॥

गुडखण्डघृतानां च तथा शर्करया नृप ।  

दत्ते चोद्वर्तने देव्यै स याति ब्रह्मणः पदम्‌ ॥१३०॥

शाल्योदनं रसानां च प्रपानं विरजस्तथा ।          

य प्रयच्छति दुर्गायै स च गच्छेच्छिवालयम्‌ ॥ १३१ ॥

दुर्गामुद्दिश्य पानीयं केतकीगन्धवासितम्‌ ।

यः प्रयच्छति राजेन्द्र स गणाधिपतिर्भवेत्‌ ॥१३२॥

आम्रं च नारिकेलं च खुर्जूरं बीजपूरकम्‌ ।  

यः प्रयच्छति दुर्गायै स गच्छेत्परमं पदम्‌ ॥१३३॥

धृतदीपप्रदानेन योऽर्चयेच्चण्डिकां नरः ।

सोश्चमेधफलं प्राप्य चण्डिकानुचरो भवेत्‌ ॥१३४॥

तैलदीपं च यो दद्यात्पूजयित्वा तु चण्डिकाम्‌ ।  

नागलोकं समासाद्य क्रीडते सह किन्नरैः ॥१३५॥

आत्मदेहवसादीपं प्रज्वाल्य चण्डिकाग्रतः ।

निवेदयेन्नरो भक्त्या मोदते सोम्बिकालये ॥१३६॥    

यः कुर्यात्कार्तिके मासे शोभनां दीपमालिकम्‌ ।

चण्डिकायतने भक्त्या स सूर्यलयमाव्रजेत्‌ ॥१३७॥

नवमी को सायंकाल जो मनुष्य चण्डिका के स्थान पर भत्तिपूर्वक भैंस या बकरे की बलि देता है, वह सब देवताओं से पूजित विमान पर बैठकर उस परम धाम को जाता है जहाँ चण्डिका का स्थान है। हे राजन, गुड़, खाँड़ तथा घी से मिश्रित अन्न को जो वैष्णव देवी पर चढ़ाता है , वह सब कुछ प्राप्त करके सूर्यलोक में निवास करता है। हे राजन, गुड़, खाँड़, घी तथा शकर से जो देवी को उबटन लगाता है वह ब्रह्मधाम को जाता है । जो पवित्र होकर दाल, भात और अनेक प्रकार के रसों का पेय दुर्गाजी को चढ़ाता है वह शिव के धाम को जाता है।  जो केतकी से सुवासित जल दुर्गाजी पर चढ़ाता है वह हे राजेन्द्र, दल का नेता हो जाता है। जो आम, नारियल, खजूर और नीबू दुर्गाजी पर चढ़ाता है वह परम पद को प्राप्त करता है । जो मनुष्य घी के दीपक से चण्डिका की पूजा करता है, वह अश्वमेध का फल प्राप्त कर चण्डिका का सेवक बन जाता है। जो मनुष्य तेल के दीपक से चण्डिका का पूजन करता है वह नागलोक को प्राप्त करके किन्नरों के साथ क्रीड़ा करता है। जो मनुष्य अपनी चर्बी चण्डिका के सम्मुख जलाकर भक्तिपूर्वक चण्डिका का पूजा करता है वह चण्डिका के धाम में आनन्द करता है। जो मनुष्य कार्तिक मास में चण्डिका के स्थान पर भक्तिपूर्वक शोभादायक दीपमालिका की रचना करता है वह सूर्यलोक को प्राप्त होता है :

घृतेन कुरुशार्दूल अमायां च स्वशक्तितः ।  

विशेषतो नवम्यां तु भक्त्या श्रद्धासमन्वितः ॥१३८॥

तावद्वर्षसहस्राणि ब्रह्यलोक महीयते ।

अश्मसा रमयं कृत्वा नानादीपसमन्वितम्‌ ॥१३९॥

दीपं दत्तं समुद्बोध्य दुर्गाया: पुरतो नृप ।  

नरः कल्पायुतं साग्रं दुर्गालोक महीयते ॥१४०॥

चन्द्रांशुनिर्मलं छत्रं मणिमाणिक्यभूषितम्‌ ।

सर्वतः शोभनं कृत्वा नानापुष्पानुलेपनैः ॥ १४१ ॥

दुर्गार्धं पुरतो वीर से याति परमां गतिम्‌ ।

चामरे श्रद्धया देव्यै दत्वा च परयान्वितः ।

राजसूयफलं प्राप्य हंसलोके महीयते ॥१४२॥

सम्प्रसारितदेहो या दण्डवत्पतितो भुवि ।  

चण्डिकापुरतो वीर स याति परमां गतिम्‌ ॥१४३॥

तत्फलं लभते वीर प्रणम्य शिरसा महीम्‌ ।

दुर्गापूजोपकरणं स्वल्पं वा यदि वा बहु ॥१४४॥

कृत्वा वित्तानुसारेण इन्द्रलोक महीयते ॥१४५॥

हे कुरुशर्दूल, अमावस्या के दिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपनी शक्ति के अनुसार जो मनुष्य जितने घी के दीपक जलाता है, उतने हजार वर्ष ब्रह्मलोक में निवास करता है। पत्थर के चूर्ण से निर्मित अनेक दीपों को दुर्गाजी को सम्बोधित करके उनके सामने चढ़ाने से मनुष्य लाखों कल्पों तक दुर्गलोक में निवास करता है । चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल, मणिमाणिक्य से सुभूषित, नाना पुष्पों और अनुलेपनों से युक्त सुन्दर निर्मल छत्र बनाकर हे वीर, जो मनुष्य दुर्गाजी को चढ़ाता है, वह परमगति को प्राप्त करता है। जो मनुष्य परमशक्ति से युक्त होकर देवी को दो चंवर चढ़ाता है वह राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त करके सूर्यलोक में निवास करता है। हे वीर, जो मनुष्य चण्डिका के सम्मुख भूमि पर सब शरीर फैलाकर दण्डवत्‌ करता है वह परमगति को प्राप्त करता है। हे वीर, उसी फल को मनुष्य पृथिवी पर अपना शिर टेक कर देवी को प्रणाम करने से भी प्राप्त कर सकता है। दुर्गापूजा का साधन थोड़ा हो या अधिक, अपने धन के अनुसार जितना हो, उसी से दुर्गाजी का पूजन करके मनुष्य इन्द्रलोक को प्राप्त करता है ।  

पुलस्त्य उवाच :

देवै: पूरा जगत्कर्ता पृष्टो देवः पितामहः ।

ब्रृहि दुर्गार्चनं देव येन तुष्यति चण्डिका ॥१४६॥

पुलस्त्य ने कहा : प्राचीनकाल में जगत्कर्ता ब्रह्मा से देवताओं ने पूछा कि हे देव, आप हमें दुर्गापूजा की वह विधि बतायें जिससे दुर्गाजी सन्तुष्ट होती हैं ।  

ब्रह्मोवाच :

शम्भु: पूजयते देवीं मन्त्र शक्तिमयीं शुभाम्‌ ।  

अक्षमालां करे न्यस्य तेनासौ विभवोद्भवः ॥१४७॥

दुर्गा रत्नमयीं देवा: पूजयामि सदा ह्यहम्‌ ।  

तेन प्राप्तं मया चैव ब्रह्मत्वं च सदुर्लभम्‌ ॥ १४८॥

इन्द्रनीलमयीं देवीं विष्णु: पूजयते सदा ।  

विष्णुत्वं प्राप्तवांस्तेनह्मद्भूतैकं सनातनम्‌ ॥ १४९॥   

देवीं हेममयीं दुर्गाधनदोऽर्चयते सदा ।

तेनासौ धनदो देवो धनेशत्वमवाप्ततान ॥१५०॥

विश्वे देवा महात्मनो रौप्यं देवीं मनोरमाम्‌ ।  

यजन्ति विधिवत्तेन विश्वे देवत्वमागतः ॥१५१॥

वायु: पूजयते भक्त्या देवीं पित्तलसम्भवाम्‌ ।  

वायुत्वं तेन सम्प्राप्ते ह्यनुत्तमगुणावहम्‌ ॥ १५२॥

वसवः कांस्यकां देवीं पूजयन्ति विधानतः ।

प्राप्तास्ततो महात्मानो वसुत्वं तन्महोदयम्‌ ॥ १५३॥  

अश्व्विनौ पार्थिवीं देवीं पूजयन्ती विधानतः ।  

तेन तावश्विनौ देवौ स्वर्वैद्यो सम्बभूवतु: ॥१५४॥

ब्रह्मा बोले : शम्भु भगवान्‌ अपने हाथ में रुद्राक्ष की माला लेकर मन्त्र-शक्तिमयी शुभ दुर्गाजी की पूजा करते हैं।  इसी कारण वह समस्त विभवों की उत्पत्ति के केंद्र हैं। हे देवो, मैं भी उन रत्नमयी दुर्गा की पूजा करता हूँ। उन्हीं से मुझे अत्यन्त दुर्लभ ब्रह्मत्व की प्राप्ति हुई है। विष्णु भगवान्‌ इन्द्रनीलमयी देवी की सदा पूजा करते हैं । उसी कारण उन्हें अदभुत, सनातन, अद्वितीय विष्णुत्व प्राप्त हुआ है । कुबेरजी स्वर्णमयी दुर्गाजी की सदा पूजा करते हैं। उसी कारण कुबेर ने धन के स्वामित्व को प्राप्त किया है । विश्वदेवगण रौष्यमयी मनोरमा देवी की विधिपूर्वक पूजा करते हैं, उसी से उन्हें विश्वदेवत्व की प्राप्ति हुई है । वायु पीतल की बनी दुर्गा देवी की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं, इस कारण विशिष्ट गुणों से युक्त वायुत्व उन्हें प्राप्त हुआ है। वसुगण काँसे की बनी देवी की पूजा विधानपूर्वक करते हैं, इस कारण उन्हें महान्‌ वसुत्त्व प्राप्त हुआ है। अश्विनी कुमार मिट्टी की बनी देवी की पूजा करते हैं इस कारण ये दोनों देव देवताओ के वैद्य बने हैं ।

स्फाटिकी शोभनां देवीं वरुणर्चयते सदा ।

वरुणत्वं च सम्राप्तस्तेन चद्धर्या समन्वितम्‌ ॥ १५५ ॥  

देवीं रत्नमयीं पुण्यामग्निर्यजति भावितः ।

अग्नित्वं प्राप्तवांस्तेन तेजोरूपसमन्वितम्‌ ॥ १५६॥

ताम्रां देवीं सदाकालं भक्त्या देवो दिवाकर ।  

अर्चते तेन सम्प्राप्तं सूर्यत्वं शुभमुत्तम्‌ ॥ १५७॥

मुक्ताफलमयीं देवीं सोमः पूजयते सदा ।  

तेन सोमेन सम्प्राप्तं सोमत्वं सततोज्जवलम्‌ ॥ १५८ ॥

प्रवालकमयीं देवीं पूजयन्ति विधानतः ।  

तेन ते ग्रहतां प्राप्ता ग्रह: सूर्योदयोऽनिशम्‌ ॥ १५९ ॥

वारिजां शोभनां देवीं पूजयन्त्यसुरोत्तमाः ।

वारिजाश्च महात्मानस्तेन तेऽमितविक्रमाः ॥ १६० ॥

त्रपुसीसमयीं देवीं यजन्ते पितरः सदा ।  

पितृत्वं प्राप्य ते सर्वे सम्पूज्याश्च जगत्त्रये ॥ १६१॥

तथा लोहमयीं देवीं पिशाचाः पूजयन्ति ताम्‌ ।  

तेन सिद्धिबलोपेताः प्रयान्ति परं पदम्‌ ॥ १६२ ॥

त्रैलोहिनीं सदा देवीं यजन्ते गुह्यकादयः ।  

तेन भोगबलोपेताः प्रयान्तीश्वरमन्दिरम्‌ ॥ १६३॥

वज़लोहमयीं देवीं यजन्ते भूतयोनयः ।

तेन मुक्ता सुरत्वं च लभन्ते सततं दिवि ॥१६४॥

देवास्तथा यूयमपि यदीच्छथ परां गतिम्‌ ।  

शिवां मणिमयीमिष्ठवा लप्स्यध्वे मानसेप्सितम्‌ ॥ १६४ ॥

चण्डिकां पूजयित्वा तु प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।  

कृताञ्जलि पुटो भूत्वा इदं स्तोत्रमुदीरयेत्‌ ॥ १६६॥

वरुण देव सुन्दर स्फटिक से निर्मित सुन्दर देवी की सदा पूजा करते हैं, उससे ही उन्हें ऋद्धि से युक्त वरुणत्व प्राप्त हुआ है । अग्निदेव भक्तिपूर्वक रत्नों से निर्मित पुण्यमयी देवी की पूजा करते हैं, उससे उन्हें तेजोरूपयुक्त अग्नित्व प्राप्त हुआ है । सूर्य ताँबे से बनी देवी की सदाकाल पूजा करते हैं, उससे उन्हें शुभ उत्तम सूर्यत्व प्राप्त हुआ है । सोम मोती से बनी देवी की सदा पूजा करते हैं, उससे उन्हें सदा उज्जवल रहने वाला सोमत्व प्राप्त हुआ है । सूर्यादि ग्रह मूंगे से बनी देवी की विधान से रात-दिन पूजा करते हैं, उससे उन्हें ग्रहत्व की प्राप्ति हुई है । असुर श्रेष्ठ तथा वारिज महात्मा जल से बनी देवी की पूजा करते हैं जिससे वे अमित विक्रम वाले हुए हैं । पितर लोक सीसे से बनी देवी की सदा पूजा करते हैं, उस कारण वे पितृत्व को प्राप्त हुए तथा तीनों लोकों में सबसे पूज्य हुए।  पिशाच लोग लोहे से बनी देवी की पूजा करते हैं, इस कारण वे सिद्ध तथा बलयुक्त होकर परम पद को प्राप्त करते हैं। गुह्मक आदि तीन धातुओं से बनी देवी की पूजा करते हैं, इस कारण भोग और बल से युक्त होकर वे ईश्वर के मन्दिर में जाते हैं । भूत लोग वज्र लोहे से बनी देवी की पूजा करते हैं, उससे वे मुक्त होकर देवलोक में देवत्व को प्राप्त करते हैं । तुम सभी देव भी यदि परम गति को प्राप्त करना चाहते हो तो मणियों से बनी शिवा देवी की पूजा करके इष्ट फलों को प्राप्त करोगे । चण्डिका देवी की पूजा करके प्रसन्नचित्त हाथ जोड़कर दुर्गा स्तोत्र का पाठ करना चाहिये ।

इति दुर्गा पूजा महात्म्य ।

श्रीदुर्गा तंत्र आगे जारी ........................

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