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कर्मकाण्ड

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रघुवंशम् सर्ग १९

रघुवंशम् सर्ग १९         

महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १९ में सूर्य वंश के अंतिम नृपति अग्निवर्ण के कामुक जीवन के भरपूर विलास का चित्रण करता है, अत्यधिक विलासी जीवन के परिणाम स्वरूप अग्निवर्ण क्षयरोग से पीड़ित हुआ। रोग के प्रभाव से दिन प्रतिदिन दुर्बल होकर निस्संतान मृत्यु को प्राप्त हुआ। मृत्यु के पश्चात् प्रधान महिषी (गर्भवती) ने राज्य भार संभाला और मंत्रियों के परामर्श से राज्य को सुव्यस्थित किया। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।

रघुवंशम् सर्ग १९

रघुवंशमहाकाव्यम् एकोनविंशः सर्गः                    

रघुवंशं सर्ग १९ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् उन्नीसवां सर्ग          

रघुवंश महाकाव्य                 

एकोनविंशः सर्गः                  

रघुवंश महाकाव्य सर्ग १९ 

॥ रघुवंशं सर्ग १९ अग्निवर्णशृङ्गार कालिदासकृतम् ॥

अग्निवर्णमभिषिच्य राघवः स्वे पदे तनयमग्नितेजसम् ।

शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिमः पश्चिमे वयसि नैमिषं वशी ॥ १९ -१॥

भा०-शास्त्र जाननेवालों में मुख्य जितेन्द्रिय रघुवंशी ने वृद्धावस्था में अपने स्थान पर अग्नि समान तेजस्वी पुत्र अग्निवर्ण को अभिषेकित कर नैमिषारण्य में वास किया ॥१॥

तत्र तीर्थसलिलेन दीर्घिकास्तल्पमन्तरितभूमिभिः कुशैः ।

सौधवासमुटजेन विस्मृतः संचिकाय फलनिःस्पृहस्तपः ॥ १९ -२॥

भा०-वहां तीर्थ के जल से विहार की बावड़ियों को, पृथ्वी में बिछाये कुशों से शय्या को पर्णकुटी से महलों को भुलाकर वह फल की इच्छा त्यागकर तप संचय करने लगा॥२॥

लब्धपालनविधौ न तत्सुतः खेदमाप गुरुणा हि मेदिनी ।

भोक्तुमेव भुजनिर्जितद्विषा न प्रसाधयितुमस्य कल्पिता ॥ १९ -३॥

भा०-उसके पुत्र ने प्राप्त किये राज्य की पालनविधि में खेद न पाया, कारण कि बाहु से शत्रु जीतनेवाले उसके पिता ने पृथ्वी इसके भोगने ही के निमित्त दी थी कंटक शोधन को नहीं ॥३॥

सोऽधिकारमभिकः कुलोचितं काश्चन स्वयमवर्तयत्समाः ।

संनिवेश्य सचिवेष्वतःपरं स्त्रीविधेयनवयौवनोऽभवत् ॥ १९ -४॥

भा०-वह कामी कुल योग्य राज्य को कुछ दिनों तक स्वयं पालन करके पीछे मंत्रियों को सौंप स्त्री के आधीन नवयौवनवाला हुआ ॥४॥

कामिनीसहचरस्य कामिनस्तस्य वेश्मसु मृदङ्गनादिषु ।

ऋद्धिमन्तमधिकर्द्धिरुत्तरः पूर्वमुत्सवमपोहदुत्सवः ॥ १९ -५॥

भा०-स्त्रियों के साथी कामी उसके मृदंगों के शब्दवाले महलों में पहले बढे हुए उत्सव का पिछले बढे हुए उत्सव ने तिरस्कार कर दिया ॥५॥

इन्द्रियार्थपरिशून्यमक्षमः सोढुमेकमपि स क्षणान्तरम् ।

अन्तरेव विहरन्दिवानिशं न व्यपैक्षत समुत्सुकाः प्रजाः ॥ १९ -६॥

भा०-इन्द्रियों के विषय बिना एक क्षण का भी अन्तर सहने को असमर्थ वह रात दिन महलों में ही विहार करता भया दर्शन की इच्छा करनेवाली प्रजा को भी न देखता हुआ ॥६॥

गौरवाद्यदपि जातु मन्त्रिणां दर्शनं प्रकृतिकाङ्क्षितं ददौ ।

तद्गवाक्षविवरावलम्बिना केवलेन चरणेन कल्पितम् ॥ १९ -७॥

भा०-कभी जो मंत्रियों के गौरव से प्रजाओं का इच्छा किया हुआ दर्शन दिया, तो गवाक्ष में लटकते हुए केवल एक चरण से ॥ ७॥

तं कृतप्रणतयोऽनुजीविनः कोमलात्मनखरागरूषितम् ।

भेजिरे नवदिवाकरातपस्पृष्टपङ्कजतुलाधिरोहणम् ॥ १९ -८॥

भा०-सुकुमार नखों की लाली से युक्त, प्रभात के सूर्य की धूप लगे हुए कमल की उपमा को प्राप्त हुए उस (पद) को सेवकजन प्रणाम करके सेवन करते भये॥ ८॥

यौवनोन्नतविलासिनीस्तनक्षोभलोलकमलाश्च दीर्घिकाः ।

गूढमोहनगृहास्तदम्बुभिः स व्यगाहत विगाढमन्मथः ॥ १९ -९॥

भा०-महाकामी वह यौवन से उन्नत हुए विलासिनियों के स्तनों के क्षोभ से चलायमान कमलवाली जलों से ढंके हुए क्रीडा मंदिरवाली वावडियों में विहार करता भया ॥९॥

तत्र सेकहृतलोचनाञ्जनैर्धौतरागपरिपाटलाधरैः ।

अङ्गनास्तमधिकं व्यलोभयन्नर्पितप्रकृतकान्तिभिर्मुखैः ॥ १९ -१०॥

भा०-तहां स्त्रियों ने स्नान से अंजन मिटे हुए नेत्र, लाख की लाली मिटे हुए होठवाले, स्वाभाविक शोभा पाये हुए मुखों से उसे अधिक लुभाया॥१०॥

घ्राणकान्तमधुगन्धकर्षिणीः पानभूमिरचनाः प्रियासखः ।

अभ्यपद्यत स वासितासखः पुष्पिताः कमलिनीरिव द्विपः ॥ १९ -११॥

भा०-स्त्रियों का सखा वह नासिका की प्रिय मदगन्धि से (चित्त) खेंचनेहारी पान भूमि की रचना में हथिनियों का सखा हाथी फूली हुई कमलिनियों में मानों प्रवृत्त हुआ ॥११॥

सातिरेकमदकारणं रहस्तेन दत्तमभिलेषुरङ्गनाः ।

ताभिरप्युपहृतं मुखासवं सोऽपिबद्बकुलतुल्यदोहदः ॥ १९ -१२॥

भा०-स्त्रियें एकान्त में अन्यन्त मद करनेवाला उसका दिया हुआ मुख का आसव अभिलाषा से लेती हुई बकुल की समान अभिलाषा करनेवाला वह भी उनका दिया हुआ मुख का आसव पीता हुआ ॥ १२॥

(मौलसरी का वृक्ष स्त्रियों के मुखासव से अधिक प्रफुल्लित होता है यह कवि प्रसिद्धि है)।

अङ्कमङ्कपरिवर्तनोचिते तस्य निन्यतुरशून्यतामुभे ।

वल्लकी च हृदयंगमक्षमा वल्गुवागपि च वामलोचना ॥ १९ -१३॥

भा०-गोदी में बैठने योग्य दोनों ने उसकी गोदी पूर्णता को पहुंचाई, मनोहर शब्दवाली वीणा ने और मनोहर वचनवाली स्त्री ने ॥ १३ ॥

स स्वयं प्रहतपुष्करः कृती लोलमाल्यवलयो हरन्मनः ।

नर्तकीरभिनयातिलङ्घिनीः पार्श्ववर्तिषु गुरुष्वलज्जयत् ॥ १९ -१४॥

भा०-कृतकृत्य, स्वयं वाजा वजाते हुए, माला कंकण हिलते हुए मन हरते हुए उसने गति सूली हुई नाचनेवालियों को निकटवर्ती नाट्याचार्यों के सन्मुख लज्जित किया ॥१४॥

चारु नृत्यविगमे स तन्मुखं स्वेदभिन्नतिलकं परिश्रमात् ।

प्रेमदत्तवदनानिलः पिबन्नत्यजीवदमरालकेश्वरौ ॥ १९ -१५॥

भा०-सुन्दर नृत्य के अन्त में परिश्रम के कारण पसीने से तिलक मिटे हुए नर्तकी मुख को प्रेम से मुख की पवन दे पीते हुए उसने इन्द्र और कुवेर से अपना जीवन श्रेष्ठ माना ॥ १५ ॥

तस्य सावरणदृष्टसंधयः काम्यवस्तुषु नवेषु सङ्गिनः ।

वल्लभाभिरुपसृत्य चक्रिरे सामिभुक्तविषयाः समागमा ॥ १९ -१६॥

भा०-अन्यत्र जा कर नवीन २ वस्तुओं में आसक्त होनेवाले उसके समागमों को प्रगट और गुप्त उपायों से हाथ आये हुए को प्यारियें अधभोगा रखती हुई ॥ १६ ॥

अङ्गुलीकिसलयाग्रतर्जनं भ्रूविभङ्गकुटिलं च वीक्षितम् ।

मेखलाभिरसकृच्च बन्धनं वञ्चयन्प्रणयिनीरवाप सः ॥ १९ -१७॥

भा०-वह प्यारियों को ठगता हुआ उंगलियों के पोरों की तर्जना और भाव भंगकर तिरछी चितवन और करधन से वार वार बंधन को पाता हुआ ॥१७॥

तेन दूतिविदितं निषेदुषा पृष्ठतः सुरतवाररात्रिषु ।

शुश्रुवे प्रियजनस्य कातरं विप्रलम्भपरिशङ्किनो वचः ॥ १९ -१८॥

भा०-उसने रति के दिन की रात्रियों में दूतियों से जाने हुए पीठ पीछे बैठकर विहार की शंका से प्यारियों के कातर वचन सुने ॥१८॥

लौल्यमेत्य गृहिणीपरिग्रहान्नर्तकीष्वसुलभासु तद्वपुः ।

वर्तते स्म स कथंचिदालिखन्नङ्गुलीक्षरणसन्नवर्तिकः ॥ १९ -१९॥

भा०-अपनी स्त्रियों के समागम से दुर्लभ नाचनेवालियों में आसक्त होकर अंगली पसीजने से खिसकती हुई लेखनीवाला वह उनका चित्र (जैसे तैसे ) बनाता हुआ किसी तौर काल विताया ॥ १९ ॥

प्रेमगर्वितविपक्षमत्सरादायताश्च मदनान्महीक्षितम् ।

निन्युरुत्सवविधिच्छलेन तं देव्य उज्झितरुषः कृतार्थताम् ॥ १९ -२०॥

भा०-प्रेम से गर्वित होने के कारण सौतियाडाह और वृद्धि को प्राप्त हुए काम के कारण रानियों ने क्रोध छोडकर राजा को उत्सव के छल से मनोरथ पूरा करने वाला बनाया ॥२०॥

प्रातरेत्य परिभोगशोभिना दर्शनेन कृतखण्डनव्यथाः ।

प्राञ्जलिः प्रणयिनीः प्रसादयन्सोऽदुनोत्प्रणयमन्थरः पुनः ॥ १९ -२१॥

भा०-वह प्रातःकाल आकर भोग से शोभित दर्शन से खण्डितापन का दुःख पाई हुई प्रियाओं को हाथ जोडकर प्रसन्न करता हुआ, प्रेम से अलसाकर फिर उनको दुःखी करता भया ॥२१॥ (दूसरी में मन लगने के कारण आलस्य था)

स्वप्नकीर्तितविपक्षमङ्गनाः प्रत्यभैत्सुरवदन्त्य एव तम् ।

प्रच्छदान्तगलिताश्रुबिन्दुभिः क्रोधभिन्नवलयैर्विवर्तनैः ॥ १९ -२२॥

भा०- स्त्रिये स्वप्न में सपत्नीजन की बडाई करते हुए उस राजा को बिना बोले ही बिछौने पर आँसू गिरनेवाली क्रोध से कंकन टूटनेवाली उलटी करवटों से तिरस्कार करती भई ॥ २२ ॥

क्लृप्तपुष्पशयनाल्लतागृहानेत्य दूतिकृतमार्गदर्शनः ।

अन्वभूत्परिजनाङ्गनारतं सोऽवरोधभयवेपथूत्तरम् ॥ १९ -२३॥

भा०-उस दुतियों से मार्ग दिखाये हुए ने, (पुष्प शय्या लगे) लताकुंजों में आकर रानियों के भय से कम्पित होकर दासियों से रति की ॥२३॥

नाम वल्लभजनस्य ते मया प्राप्य भाग्यमपि तस्य काङ्क्ष्यते ।

लोलुपं ननु मनो ममेति तं गोत्रविस्खलितमूचुरङ्गनाः ॥ १९ -२४॥

भा०-मैं तेरी प्यारी का नाम जानकर उसके भग की भी सराहना करती हूं, कारण कि मेरा मन लोभी है, इस प्रकार नाम लेते में बहकते हुए उससे स्त्रियों ने कहा ॥ २४॥

चूर्णबभ्रु लुलितस्रगाकुलं छिन्नमेखलमलक्तकाङ्कितम् ।

उत्थितस्य शयनं विलासिनस्तस्य विभ्रमरतान्यपावृणोत् ॥ १९ -२५॥

भा०-कुंकुम के सुनहरी रंगवाली, मली हुई मालाओं से भरी, टूटी कोंधनीवाली, महावर के चिह्नवाली शय्या ने उठे हुए उस विलासी का विलास प्रगट किया ।। २५ ॥

स स्वयं चरणरागमादधे योषितां न च तथा समाहितः ।

लोभ्यमाननयनः श्लथांशुकैर्मेखलागुणपदैर्नितम्बिभिः ॥ १९ -२६॥

भा०-वह स्वयं स्त्रियों के चरणों में महावर लगाता भया परन्तु ढीले वस्त्र पडी, नितम्ब सहित मेखला के स्थान (जांघों) के लुभाये हुए नेत्र वाले ने यथार्थ मन देकर नहीं लगाया ॥२६॥

चुम्बने विपरिवर्तिताधरं हस्तरोधि रशनाविघट्टने ।

विघ्नितेच्छमपि तस्य सर्वतो मन्मथेन्धनमभूद्वधूरतम् ॥ १९ -२७॥

भा०-चुम्बन के समय होठ हटानेवाला, नीवी खोलने में रोके हुए हाथोंवाला सब स्थान में अभिलाष भंग किया हुआ, प्रिया का विलास भी उसको काम बढानेवाला हुआ ॥ २७॥

दर्पणेषु परिभोगदर्शिनीर्नर्मपूर्वमनुपृष्ठसंस्थितः ।

छायया स्मितमनोज्ञया वधूर्ह्रीनिमीलितमुखीश्चकार सः ॥ १९ -२८॥

भा०-वह दर्पण में संभोग के चिह्न देखती हुई वधुओं के हास्य के निमित्त पीछे बैठकर मनोहर मुस्कान की छाया से लज्जा से नीचे मुखवाली करता भया ॥ २८॥

कण्ठसक्तमृदुबाहुबन्धनं न्यस्तपादतलमग्रपादयोः ।

प्रार्थयन्त शयनोत्थितं प्रियास्तं निशात्ययविसर्गचुम्बनम् ॥ १९ -२९॥

भा०-प्यारी शयन से उठे हुए, कंठ में कोमल बाहुबंधन डाले, आगे के पैर पर पैर के तलुए धरे हुए से रात्रि बीतने पर विछुडने का चुम्बन मांगती हुई ॥२९॥

प्रेक्ष्य दर्पणतलस्थमात्मनो राजवेषमतिशक्रशोभिनम् ।

पिप्रिये न स तथा यथा युवा व्यक्तलक्ष्मपरिभोगमण्डनम् ॥ १९ -३०॥

भा०-वह युवा इन्द्र से भी अधिक शोभायमान दर्पण में अपना राजवेष देख ऐसा प्रसन्न न हुआ, जैसा प्रगट चिह्नवाली परिभोग की शोभा को देख आनन्दित हुआ॥३०॥

मित्रकृत्यमपदिश्य पार्श्वतः प्रस्थितं तमनवस्थितं प्रियाः ।

विद्म हे शठ पलायनच्छलान्यञ्जसेति रुरुधुः कचग्रहैः ॥ १९ -३१॥

भा०-मित्र के कार्य का बहाना करके चलते हुए व्याकुल उस (नृप) को स्त्रिय हे शठ भागने के छल हम भली भांति जानती हैं, ऐसे कह बाल पकड़ रोकती हुई ॥३१॥

तस्य निर्दयरतिश्रमालसाः कण्ठसूत्रमपदिश्य योषितः ।

अध्यशेरत बृहद्भुजान्तरं पीवरस्तनविलुप्तचन्दनम् ॥ १९ -३२॥

भा०-निर्दय रति के श्रम से अलसाई हुई स्त्रियां कंठसूत्र आलिंगन के बहाने से बृहत् स्तनों से घिसे चन्दनवाले उसके बडे वक्षःस्थल में सो गई ॥३२॥

संगमाय निशि गूढचारिणं चारदूतिकथितं पुरोगताः ।

वञ्चयिष्यसि कुतस्तमोवृतः कामुकेति चकृषुस्तमङ्गनाः ॥ १९ -३३॥

भा०-संगम के निमित्त रात्रि में गुप्त फिरनेवाले दूतियों के दिखाये हुए को स्त्रिय आगे आकर हे कामी ! छिपकर कहां जाता है, ऐसा कहकर पकड़ लाई ॥ ३३ ॥

योषितामुडुपतेरिवार्चिषां स्पर्शनिवृतिमसाववाप्नुवन् ।

आरुरोह कुमुदाकरोपमां रात्रिजागरपरो दिवाशयः ॥ १९ -३४॥

भा०-चन्द्रकिरणों की समान स्त्रीयों के स्पर्श से तृप्ति पाता हुआ, रात में जागने और दिन में सोनेवाला यह कुमुदवन की उपमा को प्राप्त हुआ॥ ३४॥

वेणुना दशनपीडिताधरा वीणया नखपदाङ्कितोरवः ।

शिल्पकार्य उभयेन वेजितास्तं विजिह्मनयना व्यलोभयन् ॥ १९ -३५॥

भा०-दांतों से पीडित अधरवाली नख चिह्नों से अंकित जंघावाली, वेणु और वीणा दोनों से पीडित गानेवाली उसको तिरछी चितवन से रिझाती हुई ॥ ३५॥ (बांसुरी बजाने से मुख, और वीणा गोद में रखने से जंघा दुखती थीं)

अङ्गसत्त्ववचनाश्रयं मिथः स्त्रीषु नृत्यमुपधाय दर्शयन् ।

स प्रयोगनिपुणैः प्रयोक्तृभिः संजघर्ष सह मित्रसंनिधौ ॥ १९ -३६॥

भा०-अङ्ग मन और वाणी से निर्मित नाच एकान्त में अङ्गनाओं को सिखाकर मित्रों के निकट दिखाते हुए उसने नाट्य में निपुण नाट्याचार्यों के जय की इच्छा की॥३६॥

अंसलम्बिकुटजार्जुनस्रजस्तस्य नीपरजसाङ्गरागिणः ।

प्रावृषि प्रमदबर्हिणेष्वभूत्कृत्रिमाद्रिषु विहारविभ्रमः ॥ १९ -३७॥

भा०-वर्षाकाल में कन्धे में लम्बायमान कुटज और अर्जुन की माला धारे कदम के पराग से अंगराग किये हुए उसका मदयुक्त मोरोंवाले बनाये हुए पर्वतों में विहार का विलास हुआ ॥ ३७॥

विग्रहाच्च शयने पराङ्मुखीर्नानुनेतुमबलाः स तत्वरे ।

आचकाङ्क्ष घनशब्दविक्लवास्ता विवृत्य विशतीर्भुजान्तरम् ॥ १९ -३८॥

भा०-उसने रति कलह के कारण पीठ देकर सोती हुई अबलाओं को प्रसन्न करने की शीघ्रता न की किन्तु मेघों के शब्द से व्याकुल (हो) सीधी करवट लेकर अपने वक्षःस्थल में उनके आने की आकांक्षा की ।। ३८॥

कार्तिकीषु सवितानहर्म्यभाग्यामिनीषु ललिताङ्गनासखः ।

अन्वभुङ्क्त सुरतश्रमापहां मेघमुक्तविशदां स चन्द्रिकाम् ॥ १९ -३९॥

भा०-कार्तिक की रात्रियों में शामियाने तने मन्दिर के रहनेवाले श्रेष्ठ स्त्रियों के सखा उसने सुरत का खेद मिटानेवाली मेधों के न होने से निर्मल चांदनी सेवन की॥३९॥

सैकतं स सरयूं विवृण्वतीं श्रोणिबिम्बमिव हंसमेखलम् ।

स्वप्रियाविलसितानुकारिणीं सौधजालविवरैर्व्यलोकयत् ॥ १९ -४०॥

भा०-हंसरूपी कौंधनीवाले किनारे, नितम्ब की नाई दिखाती हुई अपनी प्यारियों के विलास का अनुकरण करनेवाली सरयू को महलों के झरोखों से देखता भया ॥४०॥

मर्मरैरगुरुधूपगन्धिभिर्व्यक्तहेमरशनैस्तमेकतः ।

जह्रुराग्रथनमोक्षलोलुपं हैमनैर्निवसनैः सुमध्यमाः ॥ १९ -४१॥

भा०-मर्मरशब्दवाले, अगर और धूप की गंधयुक्त, प्रगट सुवर्ण की कोंधनीवाले जाडों के वस्त्रों से पतली कमरवाली स्त्री नितम्ब के एक तरफ नीवी बांधने और खोलने के लोभी उस (राजा) को लुभाती हुई ॥४१॥

अर्पितस्तिमितदीपदृष्टयो गर्भवेश्मसु निवातकुक्षिषु ।

तस्य सर्वसुरतान्तरक्षमाः साक्षितां शिशिररात्रयो ययुः ॥ १९ -४२॥

भा०-वायुरहित भीतर के कोठों में रक्खे हुए निश्चल लोयवाले दीपक की समान दृष्टिवाली सब प्रकार विहार में समर्थ जाडे की रात्रि उसकी साक्षिता को प्राप्त हुई ॥४२॥ (अर्थात् उसके विहार को रात ही देखती थीं)

दक्षिणेन पवनेन संभृतं प्रेक्ष्य चूतकुसुमं सपल्लवम् ।

अन्वनैषुरवधूतविग्रहास्तं दुरुत्सहवियोगमङ्गनाः ॥ १९ -४३॥

भा०-स्त्रियों ने दक्षिण पवन की उत्पन्न की हुई आम की कोपल सहित मंजरी को देखकर विरोध त्याग दुस्सह विरहवाले उस (राजा) को मनाया ॥ ४३ ॥

ताः स्वमङ्कमधिरोप्य दोलया प्रेङ्खयन्परिजनापविद्धया ।

मुक्तरज्जु निबिडं भयच्छलात्कण्ठबन्धनमवाप बाहुभिः ॥ १९ -४४॥

भा०-उनको अपनी गोदी में बैठाकर दासियों के झोंटा दिये हुए झूले में झूलते हुए ने रज्जु के छुटने के डर के बहानेवाला भुजाओं का दृढ आलिंगन पाया ।। ४४ ॥

तं पयोधरनिषिक्तचन्दनैर्मौक्तिकग्रथितचारुभूषणैः ।

ग्रीष्मवेषविधिभिः सिषेविरे श्रोणिलम्बिमणिमेखलैः प्रियाः ॥ १९ -४५॥

भा०-वे प्यारी स्त्रिये स्तनों में लगे हुए चन्दनवाले मोती जडे हुए सुन्दर भूषणोंवाले नितम्बों पर लम्बायमान मणि मेखलावाले ग्रीष्म के शृंगारों से उसे सेवन करती हुई ॥४५॥

यत्स लग्नसहकारमासवं रक्तपाटलसमागमं पपौ ।

तेन तस्य मधुनिर्गमात्कृशश्चित्तयोनिरभवत्पुनर्नवः ॥ १९ -४६॥

भा०-उसने आम का पल्लव लगा हुआ, लाल पाटल का समागमवाला आसव जो पिया, इससे वसन्त के बीतन से क्षीणता को प्राप्त हुआ भी उसका मन्मथ फिर नवीन हो गया ॥ ४६॥

एवमिन्द्रियसुखानि निर्विशन्नन्यकार्यविमुखः स पार्थिवः ।

आत्मलक्षणनिवेदितानृतूनत्यवाहयदनङ्गवाहितः ॥ १९ -४७॥

भा०-इस प्रकार काम से प्रेरित दूसरे कार्य से विमुख उस राजा ने इन्द्रियसुख भोगते हुए अपने २ लक्षण दिखानेवाली ऋतु विताई ॥४७॥

तं प्रमत्तमपि न प्रभावतः शेकुराक्रमितुमन्यपार्थिवाः ।

आमयस्तु रतिरागसंभवो दक्षशाप इव चन्द्रमक्षिणोत् ॥ १९ -४८॥

भा०-प्रमत्त हुए भी उसको प्रभाव से दूसरे राजा जय करने को समर्थ न हुए, परन्तु अधिक रति से उत्पन्न हुआ रोग तो दक्ष का शाप चंद्रमा की समान क्षीण करता हुआ॥४८॥

(चन्द्रमा की २७ भार्या हैं, यह सब दक्ष की कन्या हैं, परन्तु चन्द्रमा का रोहिणी पर अधिक प्यार था औरों पर नहीं, इससे दक्ष ने शाप दिया कि तुझे क्षयीरोग होगा)

दृष्टदोषमपि तन्न सोऽत्यजत्सङ्गवस्तु भिषजामनाश्रवः ।

स्वादुभिस्तु विषयैर्हृतस्ततो दुःखमिन्द्रियगणो निवार्यते ॥ १९ -४९॥

भा०-वैद्यों का वचन न माननेवाले उसने दोष देखकर भी कामोद्दीपक वस्तुओं को न त्यागा कारण कि इन्द्रियगण स्वादिष्ट विषयों से हरे जाने से फिर कठिनता से निवृत्त किए जाते हैं ॥४९॥

तस्य पाण्डुवदनाल्पभूषणा सावलम्बगमना मृदुस्वना ।

राजयक्ष्मपरिहानिराययौ कामयानसमवस्थया तुलाम् ॥ १९ -५०॥

भा०-उसकी पीले मुखवाली, थोडे गहनेवाली, दूसरे के सहारे से चलने और क्षीण शब्दवाली, क्षयीरोग की क्षीणता कामियों की दशा की समानता को प्राप्त हुई ॥५०॥

व्योम पश्चिमकलास्थितेन्दु वा पङ्कशेषमिव घर्मपल्वलम् ।

राज्ञि तत्कुलमभूत्क्षयातुरे वामनार्चिरिव दीपभाजनम् ॥ १९ -५१॥

भा०-राजा के क्षयरोग से व्याकुल होने पर वह कुल पिछली कला को प्राप्त हुए चन्द्रमावाले आकाश, तथा कीच शेष रहे कुंड और सूक्ष्मलोय रहे दीपक की समान हुआ॥५१॥

बाढमेष दिवसेषु पार्थिवः कर्म साधयति पुत्रजन्मने ।

इत्यदर्शितरुजोऽस्य मन्त्रिणः शश्वदूचुरघशङ्किनीः प्रजाः ॥ १९ -५२॥

भा०-सत्य है, यह राजा इन दिनों पुत्र जन्म के कामों में लगा है, इस प्रकार रोग छिपाते हुए इसके मंत्रियों ने उपद्रव की शंका करनेवाली प्रजाओं से नित्य कहा ॥५२॥

स त्वनेकवनितासखोऽपि सन्पावनीमनवलोक्य संततिम् ।

वैद्ययत्नपरिभाविनं गदं न प्रदीप इव वायुमत्यगात् ॥ १९ -५३॥

भा०-वह अनेक स्त्रियों के सखा होने पर भी पवित्र सन्तान को न देखकर वैद्यों के यत्न को तिरस्कार करनेवाले रोग को पवन को दीपक की समान न जीत सका ॥५३॥

( अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हुआ)

तं गृहोपवनएव संगताः पश्चिमक्रतुविदा पुरोधसा ।

रोगशान्तिमपदिश्य मन्त्रिणः संभृते शिखिनि गूढमादधुः ॥ १९ -५४॥

भा०-अन्त्येष्टिविधि के जाननेवाले पुरोहित के संग मिलकर मंत्रियों ने जनाने घर के उपवन में ही रोग शान्ति के बहाने से उसको जलती हुई अग्नि में चुपचाप रख दिया ॥ ५४॥

तैः कृतप्रकृतिमुख्यसंग्रहैराशु तस्य सहधर्मचारिणी ।

साधु दृष्टशुभगर्भलक्षणा प्रत्यपद्यत नराधिपश्रियम् ॥ १९ -५५॥

भा०-तत्काल प्रजाओं के मुख्यजनों को संग्रह करके उन मंत्रियों ने अच्छी प्रकार गर्भ के शुभ लक्षण देखी हुई उसकी धर्मपत्नी को राज्यलक्ष्मी पर स्थित किया ॥५५॥

तस्यास्तथाविधनरेन्द्रविपत्तिशोका - दुष्णैर्विलोचनजलैः प्रथमाभितप्तः ।

निर्वापितः कनककुम्भमुखोज्झितेन वंशाभिषेकविधिना शिशिरेण गर्भः ॥ १९ -५६॥

भा०-इस प्रकार राजा के दुःख के कारण नेत्रों के गरम जल से प्रथम तपा हुआ उसका गर्भ सुवर्ण के कलशों के मुख से छुटे हुए ठंडे वंश के अभिषेक विधिवाले जल ने सींचा ॥ ५६ ॥

तं भावार्थं प्रसवसमयाकाङ्क्षिणीनां प्रजाना मन्तर्गूढं क्षितिरिव नभोबीजमुष्टिं दधाना ।

मौलैः सार्धं स्थविरसचिवैर्हेमसिंहासनस्था राज्ञी राज्यं विधिवदशिषद्भर्तुरव्याहताज्ञा ॥ १९ -५७॥

भा०-पुत्र उत्पन्न होने के समय की आकांक्षा करती हुई प्रजाओं के ऐश्वर्य के निमित्त पृथ्वी में अन्तगूढ श्रावण के वीजाकुर की समान कोख में गर्भ को धारण करती हुई सुवर्ण के सिंहासन पर बैठी हुई, बेरोक आज्ञावाली वह रानी प्राचीन मंत्री तथा वृद्ध अधिकारियों के सहित स्वामी का राज्य विधिपूर्वक पालन करती रही ॥ ५७॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदास - कृतावग्निवर्णशृङ्गारो नामैकोनविंशः सर्गः ॥

इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १९ सम्पूर्ण हुआ॥

रघुवंश

रघुवंशमहाकाव्यम् एकोनविंशः सर्गः                    

रघुवंशं सर्ग १९ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् उन्नीसवां सर्ग          

रघुवंश महाकाव्य                 

एकोनविंशः सर्गः                  

रघुवंश महाकाव्य सर्ग १९ संक्षिप्त कथासार

रघुवंश पतन की ओर

वृद्धावस्था आने पर राजा सुदर्शन ने अपने पुत्र अग्निवर्ण को राजगद्दी पर बिठा दिया और स्वयं तपस्या करने के लिए मैथिलारण्य को चला गया । वहां तीर्थ के जल में स्नान तथा झोंपड़ी में बनी हुई कुशा की शय्या पर विश्राम करके उसने महल और बावड़ी को सर्वथा भुला दिया और फल की इच्छा त्यागकर तप करने लगा । अग्निवर्ण को राज्य के भली प्रकार से चलाने में विशेष कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि उसके शत्रुजयी पिता ने पृथ्वी का शासन भविष्य की सुरक्षा को लक्ष्य बनाकर ही किया था, केवल शौक पूरा करने के लिए नहीं । राज्य की रक्षा से निश्चिन्त होकर वह विषयभोग में प्रवृत्त हो गया । स्त्रियों के साथ उत्सवों और रागरंग का ऐसा तांता बंधा कि प्रत्येक उत्सव अपने से पहले उत्सव पर बाजी मारने लगा । इन्द्रिय-सुखों को एक क्षण के लिए त्यागना भी उसे दूभर होने लगा । महलों में इतना निरत रहने लगा कि दर्शन के लिए उत्सुक प्रजाजनों को दर्शन तक देना बन्द कर दिया । जब कभी वृद्ध मन्त्रियों के जोर देने से प्रजा को दिखाई देता भी था तो केवल झरोखे से चरण सामने कर देता था, चेहरा परोक्ष ही रहता था । प्रजाजन नखों की ज्योति से रंगे हुए, सूर्य की किरणों से विकसित कमलों के सदृश शोभायमान चरणों को प्रणाम करके ही कृतकृत्य हो जाते थे। उसकी विलासिता दिनों-दिन बढ़ती ही गई । सुरा के दौर लम्बे और गहरे होते गए । स्त्रियां उसके मुंह से लगा हुआ मधु पीना पसन्द करती थीं और वह उनके हाथों सुरा के पान में आनन्द मानता था । मधुर स्वर वाली वीणा और गायिका उसकी दिन-रात की संगिनी बन गई। नृत्य के परिश्रम से नर्तकी के मुंह पर जो पसीना आता था, उसके स्पर्श से सुगन्धित वायु को सूंघकर वह मानता था कि यह सुख देवताओं को भी दुर्लभ है । वह गायिकाओं और नर्तकियों में इतना मग्न रहने लगा कि रानियों को उसे अपने पास ले जाने के लिए आज यह उत्सव है और आज यह विधि पूर्ण करनी है इस प्रकार के बहाने बनाने पड़ते थे। धीरे-धीरे उसकी गिरावट इतनी बढ़ गई कि वह दासियों से भी सम्भोग करने लगा । उसकी बुद्धि इतनी विचलित हो गई कि एक स्त्री से बात करते हुए दूसरी का नाम ले देता था । तब वह स्त्री कहती थी कि जैसे तुमने मुझे उसका नाम दिया है, वैसे ही उसका भाग्य भी दे दो । वह सारी रात संभोग में व्यतीत करता था और दिन में सोता था । इस प्रकार वह चन्द्रकिरणों से विकसित होनेवाले और सूर्य के प्रकाश में मुरझाने वाले कुमुद समुदाय का अनुकरण करता था । एकान्त में नर्तकियों से नृत्य की आंगिक, सात्त्विक और संगीत सम्बन्धी शिक्षाओं को ग्रहण करके, वह मित्र-मण्डली में बैठकर बड़े -बड़े उस्तादों से टक्कर लेता था । बरसात के मौसम में कृत्रिम पर्वत बनाकर और उन्हें मयूरों से सजाकर बरसाती फूलों की मालाओं से सजा हुआ वह विलासी विहार करता था । अन्य सब ऋतुओं में, उनके अनुरूप रचनाएं करके वह कामवासनाओं की तृप्ति में दिन और रात व्यतीत करने लगा और राज्य के सब कार्यों को तिलांजलि देकर, केवल इन्द्रिय-सुखों में लीन हो गया । केश-विन्यास में उसने इतनी कुशलता प्राप्त कर ली थी कि उसकी मालाओं आदि की सजावट देखकर ही ऋतुओं का अनुमान लगाया जा सकता था । राघवों के पराक्रम का इतना आतंक जमा हुआ था कि यद्यपि अग्निवर्ण विषय-भोगों में रत रहता था, तो भी ब्राह्य शत्रु साकेत की ओर आंख न उठा सके, परन्तु अत्यन्त उपभोग से उत्पन्न होने वाला क्षयरोग अन्दर ही अन्दर उसे खाने लगा, जैसे दक्ष का शाप चन्द्रमा को क्षीण कर देता है । वह वैद्यों द्वारा निवारण करने पर भी सुरा और नारी के अति सेवन को न छोड़ सका। इन्द्रियां जब विषय-सुखों के पीछे भागने लगती हैं, तब उनका रोकना अत्यन्त कठिन हो जाता है। मुंह का रंग पीला पड़ गया, आभूषण कम हो गए, सहारा लेकर चलने की आवश्यकता अनुभव होने लगी और कण्ठस्वर क्षीण हो गया । राजयक्ष्मा ने अग्निवर्ण की ऐसी दशा कर दी जैसी कामातुर अवस्था में कामी लोगों की होती है। उस क्षय-रोगी राजा के कारण रघु के तेजस्वी कुल की अवस्था डूबते हुए चन्द्रमा से युक्त आकाश, गर्मी से सूखे हुए पंकावशेष तालाब और बुझते हुए दीपक- सी हो गई । जब राजा के दर्शन न होने से प्रजा के हृदयों में तरह- तरह की आशंकाएं उत्पन्न होने लगीं, तब सन्तोष देने के लिए मन्त्री यह उत्तर देने लगे कि राजा पुत्रलाभ के लिए जप आदि साधन कर रहा है । एक ओर रोग का प्रकोप और दूसरी ओर चिन्ता कि अनेक रानियों के होते हुए भी पितृऋण से मुक्त कराने वाला कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ । वैद्यों के अनेक यत्नों को लांघकर अग्निवर्ण मर गया । प्रजा में क्षोभ न हो, इस विचार से मन्त्रियों ने अन्त्येष्टि की विधि जाननेवाले पुरोहितों से घर के उपवन में ही उसकी अन्तिम क्रिया करा दी । उसके पश्चात् देश के प्रमुख पौरजनों से परामर्श करके मन्त्रियों ने एकमत हो गर्भ के शुभ चिह्रों से युक्त रानी को राजगद्दी पर बिठा दिया । पति के वियोग से दु: खी होकर रानी ने जो गर्म आंसू बहाए, गर्भगत बच्चे का पहला स्नान उनसे ही हुआ, तदनन्तर अभिषेक के शीतल जलों से हुआ । बोए हुए बीजों को जैसे पृथ्वी तब तक सुरक्षित दशा में अपने गर्भ में रखती है, जब तक अंकुर उत्पन्न न हो, वैसे ही स्वर्ण के सिंहासन पर विराजमान रानी राज्य के उत्तराधिकारी की गर्भ में रक्षा करती हुई, मन्त्रियों की सहायता से भली प्रकार राज्य का शासन करती रही ।

रघुवंश महाकाव्य उन्नीसवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १९ ॥

कालिदासकृत् रघुवंश महाकाव्य समाप्त ॥ 

रघुवंशमहाकाव्यम् पिछला   

रघुवंशं सर्ग १

रघुवंशं सर्ग २

रघुवंशं सर्ग ३

रघुवंशं सर्ग ४

रघुवंशं सर्ग ५

रघुवंशं सर्ग ६

रघुवंशं सर्ग ७

रघुवंशं सर्ग ८

रघुवंशं सर्ग ९

रघुवंशं सर्ग १०

रघुवंशं सर्ग ११

रघुवंशं सर्ग १२

रघुवंशं सर्ग १३

रघुवंशं सर्ग १४

रघुवंशं सर्ग १५

रघुवंशं सर्ग १६

रघुवंशं सर्ग १७

रघुवंशं सर्ग १८

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