रघुवंशम् सर्ग ११
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की
महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १० में राम आदि चारों भाइयों के जन्म की कथा और शैशव की
लीलाएं चित्रित हैं, तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग ११ में विश्वामित्र
के साथ राम-लक्ष्मण के वन-गमन, धनुष यज्ञ
दर्शन हेतु मिथिला प्रस्थान, धनुष भंजन, चारों भाइयों का सीता इत्यादि बहिनों से विवाह, परशुराम
संवाद आख्यानों को प्रस्तुत करता है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और
पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।
रघुवंशमहाकाव्यम् एकादशः सर्ग:
रघुवंशं सर्ग ११ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् ग्यारहवां सर्ग
रघुवंश
॥ रघुवंशं सर्ग ११ कालिदासकृतम् ॥
कौशिकेन स किल क्षितीश्वरो
राममध्वरविघातशान्तये ।
काकपक्षधरमेत्य याचितस्तेजसां हि न
वयः समीक्ष्यते ॥ ११ -१॥
भा०-प्रसिद्ध है कि विश्वामित्र ने
आकर उस राजा से यज्ञक विघ्न दूर करने के निमित्त काकपक्ष (पट्टे) वाले राम को
मांगा,
क्योंकि तेजस्वियों की अवस्था नहीं देखी जाती॥
कृच्छ्रलब्धमपि लब्धवर्णभाक्तं
दिदेश मुनये सलक्ष्मणम् ।
अप्यसुप्रणयिनां रघोः कुले न
व्यहन्यत कदाचिदर्थिता ॥ ११ -२॥
भा०-विद्वानों के सत्कार करनेवाले
राजा ने वडे कष्ट से पाये हुए भी राम को लक्ष्मण सहित मुनि को दिया,
कारण कि रघुकुल में प्राण मांगने वालों की भी याचना कभी वृथा नहीं
होती है ॥२॥
यावदादिशति पार्थिवस्तयोर्निर्गमाय
पुरमार्गसंस्क्रियाम् ।
तावदाशु विदधे मरुत्सखैः सा
सपुष्पजलवर्षिभिर्घनैः ॥ ११ -३॥
भा०-राजा जब तक उनकी विदा के
निमित्त नगर के मार्ग के सजाने की आज्ञा देते हैं तब तक पवन के संखा फूल सहित जलः
बरसानेवाले,बादलों ने यह ( आज्ञा ) तुरन्त
कर दी ॥३॥
तौ निदेशकरणोद्यतौ पितुर्धन्विनौ
चरणयोर्निपेततुः ।
भूपतेरपि तयोः
प्रवत्स्यतोर्नम्रयोरुपरि बाष्पबिन्दवः ॥ ११ -४॥
भा०-आज्ञा मानने में तत्पर धनुषधारी
वें दोनो पिता के चरणों में गिरते हुए, राजा
की भी आंसू की बूंदे जाते हुए विनीत उन दोनों के ऊपर गिरीं ॥४॥
तौ पितुर्नयनजेन वारिणा
किंचिदुक्षितशिखण्डकावुभौ ।
धन्विनौ तमृषिमन्वगच्छतां पौरदृष्टिकृतमार्गतोरणौ
॥ ११ -५॥
भा०-पिता के नेत्रों के जल से कुछेक
भीजे हुए शिखोंवाले वे दोनो धनुषधारी पुरवासियों की दृष्टि को मार्ग में तोरण
बनाते हुए उन ऋषि के पीछे गये ॥५॥
लक्ष्मणानुचरमेव राघवं
नेतुमैच्छदृषिरित्यसौ नृपः ।
आशिषं प्रयुयुजे न वाहिनीं सा हि
रक्षणविधौ तयोः क्षमा ॥ ११ -६॥
भा०-ऋषि ने लक्ष्मण सहित ही
रामचन्द्र के ले जाने की इच्छा की, इस
कारण राजा ने केवल आशीर्वाद दिया और सेना नहीं, कारण कि वही
( आशिप् ) उनकी रक्षा करने में समर्थ है ॥ ६॥
मातृवर्गचरणस्पृशौ मुनेस्तौ प्रपद्य
पदवीं महौजसः ।
रेचतुर्गतिवशात्प्रवर्तिनौ
भास्करस्य मधुमाधवाविव ॥ ११ -७॥
भा०-माताओं के चरणों में नमस्कार
किये हुए वे दोनो महापराक्रमी मुनि के मार्ग को प्राप्त होकर तेजस्वी सूर्य के (
मार्ग में ) गति के कारण फिरते हुए चैत-वैशाख की नाई शोभित हुए ॥ ७॥
वीचिलोलभुजयोस्तयोर्गतं
शैशवाच्चपलमप्यशोभत ।
तूयदागम
इवोद्ध्यभिद्ययोर्नामधेयसदृशं विचेष्टितम् ॥ ११ -८॥
भा०-उन तरंग के समान चंचल बांहवालों
की चंचल गति भी बाल अवस्था के कारण वर्षा ऋतु में सदृश गुणवाली उद्धय और भिद्य
नदियों की गति के समान शोभायमान थी॥८॥
(उनका नाम यों हुआ कि वाम उसका जल
ऊंचा उठता है इससे उद्धय और तट को तोडता है इससे भिद्य नाम हुआ)
तौ बलातिबलयोः प्रभावतो विद्ययोः
पथि मुनिप्रदिष्टयोः ।
मम्लतुर्न मणिकुट्टिमोचितौ
मातृपार्श्वपरिवर्तिनाविव ॥ ११ -९॥
भा०-रत्नजटित मणि की भूमियों में
चलने योग्य वे दोनों मुनि की पढाई हुई बला और अतिबला विद्या के प्रभाव से माता की
गोद में बैठे हुए समान मार्ग, थकित नहीं हुए
॥ ९॥
पूर्ववृत्तकथितैः पुराविदः सानुजः
पितृसखस्य राघवः ।
उह्यमान इव वाहनोचितः पादचारमपि न
व्यभावयत् ॥ ११ -१०॥
भा०-वाहन पर चढने योग्य भाई सहित रामचन्द्र
पुरानी कथा जाननेवाले पिता के प्रिय मुनि के कहे हुए प्राचीन कथारूपी वाहन पर चढे
हुए पैरों के उठाने को भी न जानते हुए ॥१०॥
तौ सरांसि रसवद्भिरम्बुभिः कूजितैः
श्रुतिसुखैः पतत्रिणः ।
वायवः सुरभिपुष्परेणुभिश्छायया च
जलदाः सिषेविरे ॥ ११ -११॥
भा०-सरोवरों ने मीठे जल से,
पक्षीयों ने कानों को सुखदायक मनोहर शब्दों से, वायु ने सुगन्धिवाले फूलों की रज से और मेघों ने छाया से उन दोनों का सेवन
किया॥११॥
नाम्भसां कमलशोभिनां तथा शाखिनां च
न परिश्रमच्छिदाम् ।
दर्शनेन लघुना यथा तयोः
प्रीतिमापुरुभयोस्तपस्विनः ॥ ११ -१२॥
भा०-तपस्वियों ने जैसा आनन्द उन
दोनों के दर्शनों से पाया, वैसा न तो कमलों की
शोभावाले सरोवर और न परिश्रम मिटानेवाले वृक्षों के दर्शन से पाया॥१२॥
स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्य
दाशरथिरात्तकार्मुकः ।
विग्रहेण मदनस्य चारुणा
सोऽभवत्प्रतिनिधिर्न कर्मणा ॥ ११ -१३॥
भा०-वह धनुष चढाये राजकुमार महादेव के
जलाये हुए कामदेव के तपोवन में प्राप्त होकर अपने सुन्दर शरीर से कामदेव की मूर्ति
को प्राप्त हुए न कि कर्म से ॥ १३॥
(अंगदेश में गंगा सरयू के संगम में
कामदेव का आश्रम था, जब उसने तप करते शिवजी का तप डिगाया,
तब शिवजी ने काम को भस्म कर दिया, वह इस देश में
अंग त्याग कर अनङ्ग हुआ, इसी कारण इस देश का नाम अंग हुआ
।वा. रा. स. २३)
तौ सुकेतुसुतया खिलीकृते
कौशिकाद्विदितशापया पथि ।
निन्यतुः स्थलनिवेशिताटनी लीलयैव
धनुषी अधिज्यताम् ॥ ११ -१४॥
भा०-वे दोनों विश्वामित्र से सुनी हुई
शापित ताड़का के शुन्य किये मार्ग में धरती से नोक टेकते हुए धनुष पर लीला से ही
प्रत्यंञ्चा चढ़ाते हुए ॥ १४ ॥
(अगस्त्यजी ने ताड़का को शाप दिया
था कि तू राक्षसी हो जा, इसकी कथा यों है कि सुकेतु नाम यक्ष
के तप से प्रसन्न हो शिवजी ने सहस्र हाथियों के बलवाली कन्या दी, सुकेतु ने इसका जम्भ के पुत्र सुन्द से विवाह कर दिया, तब कुछ समय उपरान्त इसके मारीच पुत्र हुआ, किसी समय
अपराध करने से अगस्त्य ने इसके पति सुन्द को नष्ट कर दिया, तब
यह उन्हें खाने को पुत्र सहित दौडी, तब ऋषि ने उन्हें भी शाप
दिया कि तुम दोनों मनुष्यभक्षी राक्षस हो जाओ)
ज्यानिनादमथ गृह्णती तयोः प्रादुरास
बहुलक्षपाछविः ।
ताडका चलकपालकुण्डला कालिकेव निबिडा
बलाकिनी ॥ ११ -१५॥
भा०-इसके उपरान्त उन दोनों के धनुषशब्द
को ग्रहण कर अंधेरी रात की सी कान्ति और हिलते हुए कपाल के कुंडलवाली ताड़का
बंगलियों सहित घनी घटा के समान प्रगट हुई ॥१५॥
तीव्रवेगधुतमार्गवृक्षया
प्रेतचीवरवसा स्वनोग्रया ।
अभ्यभावि भरताग्रजस्तया वात्ययेव
पितृकाननोत्थया ॥ ११ -१६॥
भा०-तीव्र वेग से मार्ग के वृक्षों को
हिलानेवाली प्रेतों के वस्त्र ओढनेवाली भयंकर शब्दवाली श्मशान में उठे हुए बबूले के
समान रामचन्द्र को तिरस्कार करती हुई॥१६॥
उद्यतैकभुजयष्टिमायतीं
श्रोणिलम्बिपुरुषान्त्रमेखलाम् ।
तां विलोक्य वनितावधे घृणां पत्रिणा
सह मुमोच राघवः ॥ ११ -१७॥
भा०-एक भुजारूपी लाठी उठाये आती हुई,
कमर में पुरुषों की आंतों की मेखला लटकाय उसको देखकर रामचन्द्र
स्त्री के मारने की घृणा को बाण के साथ ही छोडते हुए ॥
(स्त्रियों के मारने का निषेध है,
परन्तु आतताई के मारने का दोष नहीं यह जानकर राम ने बाण छोडा)
यच्चकार विवरं शिलाघने ताडकोरसि स
रामसायकः ।
अप्रविष्टविषयस्य रक्षसां
द्वारतामगमदन्तकस्य तत् ॥ ११ -१८॥
भा०-वह रामचन्द्र का वाण शिला के
समान कठिन ताड़का की छाती में जो छिद्र करता हुआ, सोई मानो राक्षसों के देश में प्रथम प्रवेश न किये हुए काल के गमन का द्वार
स्वरूप हुआ ॥ १८॥
बाणभिन्नहृदया निपेतुषी सा
स्वकाननभुवं न केवलाम् ।
विष्टपत्रयपराजयस्थिरां
रावणश्रियमपि व्यकम्पयत् ॥ ११ -१९॥
भा०-बाण से भिन्नहृदयवाली गिरती हुई
वह केवल अपने वन की पृथ्वी को ही नहीं कम्पित करती हुई,
किन्तु त्रिभुवन के पराजय से स्थिर हुई रावण की लक्ष्मी को भी कंपित
करती हुई ॥ १९॥ . .
राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हृदये
निशाचरी ।
गन्धवद्रुधिरचन्दनोक्षिता
जीवितेशवसतिं जगाम सा ॥ ११ -२०॥
भा०-वह राक्षसी कामरूपी राम के कठिन
वाण से हृदय में विधी हुई गंधयुक्त रुधिररूपी चन्दन लगाये हुई जीवितेश (यमराज वा
प्रीतम) के धाम को प्राप्त हुई॥२०॥
(इस श्लोक अभिसारिका नायिका का
वर्णन किया है, जिस प्रकार संकेतकल्पना कर चन्दन सुगंधि
लगाकर स्त्री काम से प्रेरित हो अपने पति के पास जाती है, इसी
प्रकार ताड़का रामरूपी काम से प्रेरित हो रुधिरादि लगाकर यमरूपी पति के निकट गई,
परन्तु इस श्लोक, शृंगार और रौद्र दोनों रस
हैं और शृंगार तथा रौद्ररस का विरोध है इससे ॥ आद्यः (शृंगारः)
करुणावीभत्सरौंद्रवीरभयानकैः । इसके अनुसार नव्य अलंकारिक इस श्लोक में अमत
परार्थता दोष कहते हैं, क्योंकि इसमें रौद्र शृंगार का एकत्र
समावेश है इति) .
नैरृतघ्नमथ मन्त्रवन्मुनेः
प्रापदस्त्रमवदानतोषितात् ।
ज्योतिरिन्धननिपाति
भास्करात्सूर्यकान्त इव ताडकान्तकः ॥ ११ -२१॥
भा०-इसके उपरान्त ताड़का के
मारनेवाले रामचन्द्र ने पराक्रम से प्रसन्न किये मुनि से राक्षसों को मारनेवाला
मंत्र सहित अस्त्र पाया । मानो सूर्यकान्त मणि ने सूर्य से काष्ठ जलानेवाले तेज को
पाया ॥ २१॥
वामनाश्रमपदं ततः परं पावनं
श्रुतमृषेरुपेयिवान् ।
उन्मनाः प्रथमजन्मचेष्टितान्यस्मरन्नपि
बभूव राघवः ॥ ११ -२२॥
भा०-उसके उपरान्त रामचन्द्र मुनि से
सुने हुए पवित्र वामनजी के आश्रम में प्राप्त होकर प्रथम जन्म की चेष्टा न स्मरण
करके भी उत्कंठित हुए ॥ २२॥ ( इन्होंने ही पूर्वजन्म में वामन अवतार लिया था)
आससाद मुनिरात्मनस्ततः
शिष्यवर्गपरिकल्पितार्हणम् ।
बद्धपल्लवपुटाञ्जलिद्रुमं
दर्शनोन्मुखमृगं तपोवनम् ॥ ११ -२३॥
भा०-इसके उपरान्त मुनि चेलों की
संचय की हुई पूजा सामग्री वाले, पत्तों की
अंजली बांधे हुए वृक्षों से युक्त, दर्शन के निमित्त मुख
उठाये हुए मृगोंवाले, अपने आश्रम में पहुंचे ॥२३॥
तत्र दीक्षितमृषिं ररक्षतुर्विघ्नतो
दशरथात्मजौ शरैः ।
लोकमन्धतमसात्क्रमोदितौ रश्मिभिः
शशिदिवाकराविव ॥ ११ -२४॥
भा०-वह दोनों दशरथकुमार दीक्षा लिये
ऋषि की बाणों द्वारा विघ्नों से रक्षा करते हुए, मानो क्रम से उदय हुए चन्द्रमा और सूर्य किरणों द्वारा संसार की अंधकार से
रक्षा करते हुए ॥ २४॥
वीक्ष्य वेदिमथ
रक्तबिन्दुभिर्बन्धुजीवपृथुभिः प्रदूषिताम् ।
संभ्रमोऽभवदपोढकर्मणामृत्विजां
च्युतविकङ्कतस्रुचाम् ॥ ११ -२५॥
भा०-उसके उपरान्त बंधजीव (दुपहरिया)
के फल के समान बडी २ रुधिर की बूदों से दूषित वेदी को देखकर सब कर्म छोड़े हुए और
विकंकत की स्रुवा ( खैर की लकडी की करछी) त्यागे हुए ऋत्विजों को बड़ा आश्चर्य हुआ
॥
उन्मुखः सपदि लक्षमणाग्रजो
बाणमाश्रयमुखात्समुद्धरन् ।
रक्षसां बलमपश्यदम्बरे
गृध्रपक्षपवनेरितध्वजम् ॥ ११ -२६॥
भा०-शीघ्र ही रामचन्द्र तरकस से बाण
निकालते हुए और उंचा मुख किये आकाश में गीधों के पंखो से हिलती हुई ध्वजावाली
राक्षसों की सेना को देखते हुए।॥२६॥
तत्र यावधिपती मखद्विषां तौ
शरव्यमकरोत्स नेतरान् ।
किं महोरगविसर्पिविक्रमो राजिलेषु
गरुडः प्रवर्तते ॥ ११ -२७॥
भा०-उनमें जो यज्ञ विध्वंस
करनेवालों के दो अधिपति थे, रामचन्द्र ने
उन्हीं दोनो को निशाना बनाया, औरों को नहीं, बड़े नागों में वल दिखानेवाला गरुड़ कहीं सपोलों में प्रवृत्त होता है
क्या ?॥ २७॥
सोऽस्त्रमुग्रजवमस्त्रकोविदः संदधे
धनुषि वायुदैवतम् ।
तेन शैलगुरुमप्यपातयत्पाण्डुपत्रमिव
ताडकासुतम् ॥ ११ -२८॥
भा०-अस्त्र जाननेवाले वह रामचन्द्र
तीक्ष्ण वेगवाले वाय्वस्त्र को धनुष पर चढाते हए, जिससे पर्वत के समान भारी भी ताडका के पुत्र को पीले पत्ते के समान गिरा
दिया॥२८॥
यः सुबाहुरिति राक्षसोऽपरस्तत्र
तत्र विससर्प मायया ।
तं क्षुरप्रशकलीकृतं कृती पत्रिणां
व्यभजदाश्रमाद्बहिः ॥ ११ -२९॥
भा०-सुबाहु इस नामवाला जो दूसरा
राक्षस था जहां जहां माया से गया तहां तहां कुशल राम ने तक्षिणवाणों से टुकडे
टुकडे करके उसे आश्रम के बाहर पक्षियों को बांट दिया ॥ २९॥
इत्यपास्तमखविघ्नयोस्तयोः
सांयुगीनमभिनन्द्य विक्रमम् ।
ऋत्विजः कुलपतेर्यथाक्रमं वाग्यतस्य
निरवर्तयन्क्रियाः ॥ ११ -३०॥
भा०-ऋत्विजों ने इस प्रकार विघ्न
दूर करनेवाले उन दोनों का समर पराक्रम सराह कर, मौन
साधे हुए कुलपति ( विश्वामित्र ) का यज्ञ विधिपूर्वक पूर्ण किया ॥ ३० ॥
तौ प्रणामचलकाकपक्षकौ
भ्रातराववभृथाप्लुतो मुनिः ।
आशिषामनुपदं समस्पृशद्दर्भपाटलतलेन
पाणिना ॥ ११ -३१॥
भा०-यज्ञान्त स्नान किये हुए मुनि,
प्रणाम करने में चलायमान अलकोंवाले उन दोनों भाइयों को आशीर्वाद के
पीछे कुशा से चीरी हुई हथेलीवाले हाथ से छूते हुए॥
तं न्यमन्त्रयत संभृतक्रतुर्मैथिलः
स मिथिलां व्रजन्वशी ।
राघवावपि निनाय बिभ्रतौ
तद्धनुःश्रवणजं कुतूहलम् ॥ ११ -३२॥
भा०-यज्ञ करनेवाले जनक ने उस
(विश्वामित्र) को निमंत्रण भेजा, जितेन्द्रिय
वह लिथिलापुरी को जाते हुए उसके धनुष के सुने हुए कुतूहल को मन में धरनेवाले
रामचंद्र और लक्ष्मण को भी ले चले ॥ ३२॥
तैः शिवेषु वसतिर्गताध्वभिः सायमाश्रमतनुष्वगृह्यत
।
येषु दीर्घतपसः परिग्रहो
वासवक्षणकलत्रतां ययौ ॥ ११ -३३॥
भा०-मार्ग पर पहुंचे हुए उन्होंने
संध्या समय सुन्दर आश्रम के वृक्षों के नीचे वास किया,
जहां बडे तपस्वी(गौतम) की स्त्री इन्द्र की क्षणमात्र को भार्या
बनीं थी ।। ३३॥
प्रत्यपद्यत चिराय यत्पुनश्चारु
गौतमवधूः शिलामयी ।
स्वं वपुः स किल किल्बिषच्छिदां
रामपादरजसामनुग्रहः ॥ ११ -३४॥
भा०-शिलारूप गौतम की स्त्री सुन्दर
अपने शरीर को फिर पाप्त हुई, प्रसिद्ध है
कि यह पाप दूर करनेवाले राम के चरणों की रज का अनुग्रह था ॥ ३४॥
(जब अहल्या ने इन्द्र से संगम
किया तब गौतम ने शाप दिया कि तू शिला हो जा, रामचन्द्र के
चरणस्पर्श से तेरा उद्धार होगा)
राघवान्वितमुपस्थितं मुनिं तं
निशम्य जनको जनेश्वरः ।
अर्थकामसहितं सपर्यया देहबद्धमिव
धर्ममभ्यगात् ॥ ११ -३५॥
भा०-रामचन्द्र और लक्ष्मण सहित
उपस्थित हुए मुनि को सुनकर मिथिलापति जनक अर्थ और काम सहित देहधारी धर्म के समान
पूजा की सामग्री लेकर उनसे आगे मिला ॥ ३५॥
तौ विदेहनगरीनिवासिनां गां गताविव
दिवः पुनर्वसू ।
मन्यते स्म पिबतां विलोचनैः
पक्ष्मपातमपि वञ्चनां मनः ॥ ११ -३६॥
भा०-स्वर्ग से पृथ्वी में पाये हए
दो पुनर्वसु के समान स्थित हुए उन दोनो को नेत्रों से पीते हुए विदेहनगरी के
रहनेवालों का मन पलक मारने को भी विघ्न मान्ता हुआ ॥ ३६॥
यूपवत्यवसिते क्रियाविधौ
कालवित्कुशिकवंशवर्धनः ।
राममिष्वसनदर्शनोत्सुकं मैथिलाय
कथयांबभूव सः ॥ ११ -३७॥
भा०-अनुष्ठानकार्य समाप्त होने पर
समय के ज्ञाता कुशिकनंदन (विश्वामित्र) रामचन्द्र के धनुष देखने की उत्कंठा को जनक
के प्रति कहते भये ॥ ३७॥
तस्य वीक्ष्य ललितं वपुः शिशोः
पार्थिवः प्रथितवंशजन्मनः ।
स्वं विचिन्त्य च धनुर्दुरानमं
पीडितो दुहितृशुल्कसंस्थया ॥ ११ -३८॥
भा०-राजा विख्यात वंश में उत्पन्न
हुए उस बालक का मनोहर शरीर देखकर और धनुष का नमना कठिन विचारकर कन्या के शुल्क (
मोल) की प्रतिज्ञा से दुःखी हुआ ॥ ३८॥
अब्रवीच्च
भगवन्मतङ्गजैर्यद्बृहद्भिरपि कर्म दुष्करम् ।
तत्र नाहमनुमन्तुमुत्सहे
मोक्षवृत्ति कलभस्य चेष्टितम् ॥ ११ -३९॥
भा०-और मुनि से बोला भी हे भगवन् !
जो कर्म बडे २ हाथियों से भी दुष्कर है, उस
कार्य में हाथी के बच्चे की व्यर्यफलवाली चेष्टा के अनुमान करने को मैं उत्साह
नहीं करता हूं ॥ ३९ ॥
ह्रेपिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तात
धनुषा धनुर्भृतः ।
ज्यानिघातकठिनत्वचो
भुजान्स्वान्विधूय धिगिति प्रतस्थिरे ॥ ११ -४०॥
भा०-हे तात! उस धनुष ने वहुत से
धनुषधारी राजों को लज्जित किया है, वे
राजा प्रत्यंचा के फटकारों से कठिन त्वचावाली अपनी भुजाओं को धिक्कार देकर चले गये
॥ ४० ॥
प्रत्युवाच तमृषिर्निशम्यतां
सारतोऽयमथवा गिरा कृतम् ।
चाप एव भवतो भविष्यति व्यक्तशक्तिरशनिर्गिराविव
॥ ११ -४१॥
भा०-ऋषि जनक से वोले,
इसका वल सुनिये, अथ वा वाणी से क्या है,
पर्वत में वन के समान यह तुम्हारे धनुष मे ही वल दिखानेवाला होगा ॥
४१॥
एवमाप्तवचनात्स पौरुषं
काकपक्षकधरेऽपि राघवे ।
श्रद्दधे त्रिदशगोपमात्रके
दाहशक्तिमिव कृष्णवर्त्मनि ॥ ११ -४२॥
भा० -इस प्रकार आप्त मुनि के वचन मे
उसने अलकों से युक्त भी रामचन्द्र में वल का, इन्द्रवध
(चिनगारी) मात्र अग्नि में जलानेवाली शक्ति के समान विश्वाम किया ॥४२॥
व्यादिदेश गणशोऽथ
पार्श्वगान्कार्मुकाभिहरणाय मैथिलः ।
तैजसस्य धनुषः प्रवृत्तये तोयदानिव
सहस्रलोचनः ॥ ११ -४३॥
भा०-तब जनक ने सेवकों के समूह को
धनुष के लाने के निमित्त (आज्ञा दी) मानों इन्द्र ने मेघसमूहों को तेजोमय धनुष
प्रगट करने को आज्ञा दी ॥ ४३ ॥
तत्प्रसुप्तभुजगेन्द्रभीषणं वीक्ष्य
दाशरथिराददे धनुः ।
विद्रुतक्रतुमृगानुसारिणं येन बाणमसृजत्वृषध्वजः
॥ ११ -४४॥
भा०-रामचन्द्र ने सोते हुए सर्पराज के
समान उस धनुष को देखकर ग्रहण किया, जिससे
शिवजी ने पलायन करते हुए यज्ञरूपी मृग के पीछे चलनेवाला वाण त्याग किया था ॥ ४४॥
आततज्यमकरोत्स संसदा
विस्मयस्तिमितनेत्रमीक्षितः ।
शैलसारमपि नातियत्नतः पुष्पचापमिव
पेशलं स्मरः ॥ ११ -४५॥
भा०-वह राम सभासदों की आश्चर्य भरी
दृष्टि से देखे हुए पर्वत के समान सारवाले धनुष को कामदेव के कोमल फूलों के धनुष
के समान विना यत्न के ही प्रत्यंश्चायुक्त करते भये ॥४५॥
भज्यमानमतिमात्रकर्षणात्तेन
वज्रपरुषस्वनं धनुः ।
भार्गवाय दृढमन्यवे पुनः
क्षत्रमुद्यतमिव न्यवेदयत् ॥ ११ -४६॥
भा०-उस अत्यन्त खैंचने से टूटे हुए
वज्र की समान शब्दवाले धनुष ने महाक्रोधी परशुराम के अर्थ मानों क्षत्रियों का फिर
से उछत होना निवेदन किया ॥ ४६॥
दृष्टसारमथ रुद्रकार्मुके
वीर्यशुल्कमभिनन्द्य मैथिलः ।
राघवाय तनयामयोनिजां रूपिणीं
श्रियमिव न्यवेदयत् ॥ ११ -४७॥
भा०-तब जनक ने शिवजी के धनुष में
देखे हुए पराक्रमरूपी कन्या शुल्क की बडाई कर रामचन्द्र के निमित्त योनि से न
उत्पन्न हुई (पृथ्वी से उत्पन्न हुई ) कन्या को लक्ष्मी के समान निवेदन किया ॥४७॥
मैथिलः सपदि सत्यसंगरो राघवाय
तनयामयोनिजाम् ।
संनिधौ
द्युतिमतस्तपोनिधेरग्निसाक्षिक इवातिसृष्टवान् ॥ ११ -४८॥
भा ०-सत्य प्रतिज्ञावाले जनक
रामचन्द्र के अर्थ योनि से न उत्पन्न हुई कन्या को कान्तिमान तप के निधि मुनि के
निकट अग्निसाक्षी के समान शीघ्र ही देते हुए ॥४८॥
प्राहिणोच्च महितं महाद्युतिः
कोसलाधिपतये पुरोधसम् ।
भृत्यभावि दुहितुः
परिग्रहाद्दिश्यतां कुलमिदं निमेरिति ॥ ११ -४९॥
भा०-महातेजस्वी जनक ने पूजनीय
पुरोहित को दशरथ के निकट (यह कहाकर ) भेजा कि इस निमि के कुल की पुत्री के ग्रहण
करने से सेवकभाव में स्वीकार कीजिये४९॥
अन्वियेष सदृशीं स च स्नुषां प्राप
चैनमनुकूलवाग्द्विजः ।
सद्य एव सुकृतां हि पच्यते
कल्पवृक्षफलधर्मि काङ्क्षितम् ॥ ११ -५०॥
भा०-वह दशरथ पुत्र के सदृश वधू की
इच्छा करते थे और अभिलाषित कहने वाला ब्राह्मण उनके पास पहुंचा,
कारण कि पुण्यात्माओं की अभिलाषा कल्पवृक्ष के फल के स्वभाववाली
शीघ्र ही पकती है ॥५०॥
तस्य कल्पितपुरस्क्रियाविधेः
शुश्रुवान्वचनमग्रजन्मनः ।
उच्चचाल बलभित्सखो वशी
सैन्यरेणुमुषितार्कदीधितिः ॥ ११ -५१॥
भा०-इन्द्र के सखा जितेन्द्री (वह
दशरथ) पूजन और आदर किये उस ब्राह्मण- का वचन श्रवण कर सेना की धूरि से सूर्य के
किरणों को आच्छादन करते हुए चले५१॥
आससाद मिथिलां स
वेष्टयन्पीडितोपवनपादपां बलैः ।
प्रीतिरोधमसहिष्ट सा पुरी स्त्रीव
कान्तपरिभोगमायतम् ॥ ११ -५२॥
भा०-वह सेना से पीडित किये वृक्षों के
बागोंवाली मिथिला को घेरते हुए पहुंचे, वह
पुरी प्रीतम के कठोर आलिंगन को स्त्री के समान, प्यारे के
घेरे को सहन करती हुई।॥५२॥
तौ समेत्य समये स्थितावुभौ भूपती
वरुणवासवोपमौ ।
कन्यकातनयकौतुकक्रियां
स्वप्रभावसदृशीं वितेनतुः ॥ ११ -५३॥
भा०-आचार में स्थित वरुण और इन्द्र के
समान दोनों राजा मिलकर अपने एश्वर्य समान पुत्रियों और पुत्रों के विवाह की क्रिया
को करते हुए ॥५३॥
पार्थिवीमुदवहद्रघूद्वहो
लक्ष्मणस्तदनुजामथोर्मिलाम् ।
यौ तयोरवरजौ वरौजसौ तौ कुशध्वजसुते
सुमध्यमे ॥ ११ -५४॥
मा०-रामचन्द्र पृथ्वी की पुत्री को
व्याहते हुए और लक्ष्मण उसकी छोटी बहन उर्मिला को, उनके जो तेजस्वी भाई ( भरत और शत्रुघ्न) थे वे अच्छी कमरवाली कुशकेतु की
कन्या (मांडवी और श्रुतिकीर्ति) को व्याहते भये ॥५४॥
ते चतुर्थसहितास्त्रयो बभुः सूनवो
नववधूपरिग्रहाः ।
सामदानविधिभेदनिग्रहाः सिद्धिमन्त
इव तस्य भूपतेः ॥ ११ -५५॥
भा०-चौथे सहित वे तीनों कुमार नई
वहुओं के विवाह करने से फलसिद्धियुक्त उस राजा के साम,
दान, विधि, भेद और दंड के
समान शोभित हुए ॥ ५५ ॥
ता नराधिपसुता नृपात्मजैस्ते च
ताभिरगमन्कृतार्थताम् ।
सोऽभवद्वरवधूसमागमः
प्रत्ययप्रकृतियोगसंनिभः ॥ ११ -५६॥
भा०-वे राजा की कन्या राजकुमारों से
और वे कुमार उनसे कृतार्थता को प्राप्त हुए, वह वर और बहुओं का समागम प्रत्यय और
प्रकृति के मेल के समान हुआ ॥ ५६ ॥
(व्याणरण में प्रत्यय और प्रकृति
के मिलने से शब्द सार्थ होता है)
एवमात्तरतिरात्मसंभवांस्तान्निवेश्य
चतुरोऽपि तत्र सः ।
अध्वसु त्रिषु विसृष्टमैथिलः स्वां
पुरीं दशरथो न्यवर्तत ॥ ११ -५७॥
मा०-इस प्रकार प्रीतिमान् वह दशरथ
तहाँ चारों बेटों को विवाह कर जनक के तीसरी मंजल पर छोडते हुए अपनी पुरी को लौटे ॥
५७ ॥
तस्य जातु मरुतः प्रतीपगा वर्त्मसु
ध्वजतरुप्रमाथिनः ।
चिक्लिशुर्भृशतया वरूथिनीमुत्तटा इव
नदीरयाः स्थलीम् ॥ ११ -५८॥
भा०-एक दिन मार्ग में ध्वजारूप
वृक्षों को कम्पित करनेवाले सन्मुख के पवन ने मानो नदी के भयंकर प्रवाह ने वन की
पृथ्वी के समान उसकी सेना को बहुत क्लेश दिया ॥२८॥
लक्ष्यते स्म तदनन्तरं
रविर्बद्धभीमपरिवेषमण्डलः ।
वैनतेयशमितस्य भोगिनो भोगवेष्टित इव
च्युतो मणिः ॥ ११ -५९॥
भा०-इसके अनन्तर सूर्य भयानक पौस के
मंडल से बंधा हुआ गरुड के वध किये सर्प की कुंडली में शिर से गिरी हुई मणि के समान
दिखाई दिया ॥ ५९॥
श्येनपक्षपरिधूसरालकाः
सांध्यमेघरुधिरार्द्रवाससः ।
अङ्गना इव रजस्वला दिशो नो
बभूवुरवलोकनक्षमाः ॥ ११ -६०॥
भा०-शिकरे के पंखो से धूसर अलकोवाली
संध्या के मेघ के समान रुधिर से गीले कपडेवाली तथा धूक्तियुक्त दिशा,
रजस्वला स्त्री के समान देखने के योग्य न हुई ॥६० ॥
भास्करश्च दिशमध्युवास यां तां
श्रिताः प्रतिभयं ववासिरे ।
क्षत्रशोणितपितृक्रियोचितं
चोदयन्त्य इव भार्गवं शिवाः ॥ ११ -६१॥
भा०-सूर्य जिस दिशा में स्थिति किए
थे,
उसी दिशा में आश्रित होकर शृगाल क्षत्रियों के रुधिर से पिता की
उचित क्रिया करनेवाले परशुराम को उभारते हुए से भयंकर रोदन करने लगे ॥ ६१॥
तत्प्रतीपपवनादिवैकृतं प्रेक्ष्य
शान्तिमधिकृत्य कृत्यविद् ।
अन्वयुङ्क्त गुरुमीश्वरः क्षितेः स्वन्तमित्यलघयत्स
तद्व्यथाम् ॥ ११ -६२॥
भा०-वह उलटे पवनादि के विकार
(कुशकुन ) देखकर कार्य के जाननेवाले पृथ्वीपति ने शान्ति के निमित्त गुरू से कहा,
गुरू ने अच्छा होगा' यह कहकर राजा की व्यथा को
हलकी किया।॥ ६२॥
तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास
किल वाहिनीमुखे ।
यः प्रमृज्य नयनानि
सैनिकैर्लक्षणीयपुरुषाकृतिश्चिरात् ॥ ११ -६३॥
भा०-फिर शीघ्र उठी हुई तेज की राशि
सेना के सन्मुख प्रगट हुई, जो कि सैनिक पुरुषों
के नेत्रों को ढक कर बहुत देर में देखने योग्य मनुष्य की मूर्ति हुई। ६३ । ।
पित्र्यवंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूर्जितं
दधत् ।
यः ससोम इव घर्मदीधितिः सद्विजिह्व
इव चन्दनद्रुमः ॥ ११ -६४॥
भा- यज्ञोपवीत के लक्षणवाला पिता का
और धनुष के बल से पाया हुआ माता का अंश धारण किये हुए जो चंद्रमा सहित सूर्य और
सर्प सहित चन्दन के वृक्ष की नाई स्थित हुए ॥ ६४॥
येन रोषपरुषात्मनः पितुः शासने
स्थितिभिदोऽपि तस्थुषा ।
वेपमानजननीशिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा
ततो मही ॥ ११ -६५॥
भा०-क्रोध से कठोर बुद्धि,
मर्यादा तोडनेवाले पिता की भी आज्ञा करने में स्थित होकर कांपती हुई
माता का शिर छेदन करके जिन्होंने प्रथम घृणा और पीछे पृथ्वी का जय किया था ॥ ६५ ॥
(रेणुका परशुराम की माता नदी से
जल भरने गई वहां वह गंधर्वराज की क्रीडा देख' कर मोहित हुई,
जमदग्नि ने यह जानकर कि इसने परपुरुष की रति देखी परशुराम से उसके
मारने को कहा, इन्होंने उसे तत्काल मार डाला, पिता प्रसन्न हो बोले पुत्र वर मांगो, तब परशुराम ने
कहा माता जी उठै और उनके 'तथास्तु' कहते
ही वह जी उठी। सहस्रार्जुन के पुत्रों ने इनके पिता को मारा था, इस कारण इन्होंने इक्कीस बार राजाओं का संहार कर पृथ्वी जय की)
अक्षबीजवलयेन निर्बभौ
दक्षिणश्रवणसंस्थितेन यः ।
क्षत्रियान्तकरणैकविंशतेर्व्याजपूर्वगणनामिवोद्वहन्
॥ ११ -६६॥
भा०-जो दक्षिण कान में पहनी हुई
(इक्कीस दानों की) रुद्राक्ष की माला के बहाने सें क्षत्रियों के नाश करने की इकीसवार
की गिनती को धारण करते शोभित हुए ॥ ६६ ॥
तं पितुर्वधभवेन मन्युना
राजवंशनिधनाय दीक्षितम् ।
बालसूनुरवलोक्य भार्गवं स्वां दशां
च विषसाद पार्थिवः ॥ ११ -६७॥
भा०-पिता के वध से उत्पन्न हुए
क्रोध से राजवंश के मारने में दीक्षित परशुराम को और अपनी दशा को देखकर बालक पुत्रोंवाले
दशरथजी बहुत दुःखी हुए॥६७ ॥
नाम राम इति तुल्यमात्मजे
वर्तमानमहिते च दारुणे ।
हृद्यमस्य भयदायि चाभवद्रत्नजातमिव
हारसर्पयोः ॥ ११ -६८॥
भा०-पुत्रों और कठोर शत्रु में समान
वर्तनेवाला राम यह नाम उसे प्यारा और भयंकर, हार
और सर्प में रत्न के समान हुआ ॥ ६८॥
अर्घ्यमर्घ्यमिति वादिनं नृपं
सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजो यतः ।
क्षत्रकोपदहनार्चिषं ततः संदधे
दृशमुदग्रतारकाम् ॥ ११ -६९॥
भा०-उन परशुराम ने अयम् अयम् ऐसे
कहते हुए राजा को न देखकर जिघर रामचन्द्र थे उधर ही क्षत्रियों के वंश पर उत्पन्न
हुई अग्नि की ज्वाला के समान तीक्ष्णपुतलीवाली दृष्टि लगाई ॥ ६९॥
तेन कार्मुकनिषक्तमुष्टिना राघवो
विगतभीः पुरोगतः ।
अङ्गुलीविवरचारिणं शरं कुर्वता
निजगदे युयुत्सुना ॥ ११ -७०॥
भा०-धनुष में मुट्ठी लगाये बाण को
अंगलियों के विवर में फिराते, युद्ध की
इच्छा करनेवाले परशुराम, निडर हो आगे स्थित रामचन्द्र से
बोले ॥ ७० ॥
क्षत्रजातमपकारवैरि मे तन्निहत्य
बहुशः शमं गतः ।
सुप्तसर्प इव
दण्डघट्टनाद्रोषितोऽस्मि तव विक्रमश्रवात् ॥ ११ -७१॥
भा०-क्षत्रजाति अपकार करने से मेरा
वैरी है,
उन्हें बहुत बार मार के अब शांत हुआ मैं दंड छुआने से सर्प के समान
तुम्हारे विक्रम सुनकर क्रोधित हुआ हूं ॥ ७१ ॥
मैथिलस्य धनुरन्यपार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः
।
तन्निशम्य भवता समर्थये
वीर्यशृङ्गमिव भग्नमात्मनः ॥ ११ -७२॥
भा०-दूसरे राजोंसे पहले न झुकाया
हुआ जनक का धनुष तुमने तोडा है, यह सुनकर में
अपना बलरूपी शृंग टूटा हुआ सा मान्ता हूँ॥ ७२ ॥
अन्यदा जगति राम इत्ययं शब्द
उच्चरित एव मामगात् ।
व्रीडमावहति मे स संप्रति
व्यस्तवृत्तिरुदयोन्मुखे त्वयि ॥ ११ -७३॥
भा०-इस समय तक जगत में राम यह शब्द
उच्चारण किया मेरे ही आता था, अब तुम्हारे
उदय होने पर दूसरे प्राप्त होकर मुझे लज्जित करता है ॥७३॥
बिभ्रतोऽस्त्रमचलेऽप्यकुण्ठितं द्वौ
रुपू मम मतौ समागसौ ।
धेनुवत्सहरणाच्च हैहयस्त्वं च
कीर्तिमपहर्तुमुद्यतः ॥ ११ -७४॥
भा०-पर्वतमें भी न रुकनेवालं
अस्त्रको धारण करनेवाले मैंने दो समान ही शत्रु माने हैं,
कामधेनुका बछडा हरण करनेसे तो सहस्रार्जुन और मेरी कीर्ति हरनेको
उद्यत हुए तुम ॥ ७४ ॥
क्षत्रियान्तकरणोऽपि विक्रमस्तेन
मामवति नाजिते त्वयि ।
पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षवज्जलति
सागरेऽपि यः ॥ ११ -७५॥
भा०-इस कारण क्षत्रियों का अन्त करनेवाला
पुरुषार्थ मुझे तुम्हारे जय किये विना नहीं अच्छा लगता है,
अग्नि की वही महिमा गिनी जाती है जो समुद्र में भी काष्ठ की समान
प्रज्वलित हो ॥ ७५॥
विद्धि चात्तबलमोजसा हरेरैश्वरं
धनुरभाजि यत्त्वया ।
खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि
मृदुस्तटद्रुमम् ॥ ११ -७६॥
भा०-वह शिवजी का धनुष विष्णु के तेज
से सार रहित हुआ जानो,जिसे तुमने तोडा है,
नदी के वेग से जड खुदे हुए किनारे के वृक्ष को थोडी भी पवन गिरा
देता है ॥७६ ॥
तन्मदीयमिदमायुधं ज्यया संगमय्य
सशरं विकृष्यताम् ।
तिष्ठतु प्रधवमेवमप्यहं
तुल्यबाहुतरसा जितस्त्वया ॥ ११ -७७॥
भा०-इस कारण मेरा यह आयुध (वैष्णव
धनुष )तू ज्या चढाकर-बाणसहित खैंच, युद्ध
रहो, इससे भी मैं समान भुजबलवाले तुझसे जीता हुआ रहूंगा ॥७७॥
कातरोऽसि यदि वोद्गतार्चिषा तर्जितः
परशुधारया मम ।
ज्यानिघातकठिनाङ्गुलिर्वृथा
बध्यतामभययाचनाञ्जलिः ॥ ११ -७८॥
भा०-और यदि अधिकतर चमकती हुई मेरे
फरसे की धार से तर्जित होकर तू डरग या है, तो
वृथा ज्या के चिह्न से कठिन अंगुलीवाली अभय की याचना अंजली बांध ॥७८॥
(अर्थात्,
हाथ जोडकर मुझसे अभय की प्रार्थना कर)
एवमुक्तवति भीमदर्शने भार्गवे
स्मितविकम्पिताधरः ।
तद्धनुर्ग्रहणमेव राघवः प्रत्यपद्यत
समर्थमुत्तरम् ॥ ११ -७९॥
भा०-घोर दर्शनवाले परशुराम के ऐसा
कहने पर रामचन्द्र हास्य से होठ कॅपाते हुए उस धनुष के ग्रहण को ही समर्थ उत्तर
मानते भये ॥७९॥
पूर्वजन्मधनुषा समागतः
सोऽतिमात्रलघुदर्शनोऽभवत् ।
केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः किं
पुनस्त्रिदशचापलाञ्छितः ॥ ११ -८०॥
भा०-पूर्वजन्म के धनुष के प्राप्त
होने से वह अत्यंत शोभित हुए; कारण कि नवीन
मेघ स्वयं ही सुन्दर होता है, इन्द्रधनुष के संगम होने से तो
फिर कहना ही क्या? ॥८॥
तेन भूमिनिहितैककोटि तत्कार्मुकं च
बलिनाधिरोपितम् ।
निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष
इव धूमकेतनः ॥ ११ -८१॥
भा०-वलवान उन रामचन्द्र ने एक नोक
पृथ्वी में रखकर उस धनुष के ऊपर ज्या चढाई और क्षात्रयों के शत्रु (परशुराम ) धुआं
बची हुई अग्नि के समान प्रभाहीन हुए ॥ ८१॥
तावुभावपि परस्परस्थितौ
वर्धमानपरिहीनतेजसौ ।
पश्यति स्म जनता दिनात्यये पार्वणौ
शशिदिवाकराविव ॥ ११ -८२॥
भा०-आमने सामने खडे हुए बढते और
घटते तेजवाले उन दोनो को, दिन के अन्त में
चन्द्रमा और सूर्य के समान मनुष्य देखते हुए ॥ ८२॥
तं कृपामुदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः
स्खलितवीर्यमात्मनि ।
स्वं च संहितममोघमाशुगं व्याजहार
हरसूनुसंनिभः ॥ ११ -८३॥
भा०- कार्तिकेय के समान,
दया से कोमल रामचन्द्र अपने में पराक्रमहीन उन परशुराम को और अपने
चढाये हुए अमोघ बाण को देखकर बोले ॥ ८३ ॥
न प्रहर्तुमलमस्मि निर्दयं विप्र
इत्यभिभत्यपि त्वयि ।
शंस किं गतिमनेन पत्रिणा हन्मि
लोकमुत ते मखार्जितम् ॥ ११ -८४॥
भा०-तुम हमें पराभव करने को उद्यत हुए
तो भी ब्राह्मण जानकर निर्दयता से तुम पर प्रहार की इच्छा नहीं करता,
कहो इस बाण से मैं तुम्हारी गति अथवा यज्ञ से सिद्ध किये लोकों को
मिटाऊं ॥ ८४॥
प्रत्युवाच तमृषिर्न तत्त्वतस्त्वां
न वेद्मि पुरुषं पुरातनम् ।
गां गतस्य तव धाम वैष्णवं कोपितो
ह्यसि मया दिदृक्षुणा ॥ ११ -८५॥
भा०-परशुरामजी उनसे बोले स्वरूप से
मैं तुमको पुरातन पुरुष नहीं जानता हूं यह नहीं, किंतु पृथ्वी में प्राप्त हुए आपके वैष्णव तेज अवलोकन की इच्छा से मैंने
तुम्हें क्रोधित किया है ।। ८५॥ .
भस्मसात्कृतवतः पितृद्विषः
पात्रसाच्च वसुधां ससागराम् ।
आहितो जयविपर्ययोऽपि मे श्लाघ्य एव
परमेष्ठिना त्वया ॥ ११ -८६॥
भा०-पिता के शत्रुओं के भस्म करने
वाले और सागर पर्यंत पृथ्वी ब्राह्मणों को देनेवाले मेरी तुम परमेश्वर से की हुई
पराजय भी बडाई के योग्य है ॥ ८६॥
तद्गतिं मतिमतां वरेप्सितां
पुण्यतीर्थगमनाय रक्ष मे ।
पीडयिष्यति न मां खिलीकृता
स्वर्गपद्धतिरमोघलोलुपम् ॥ ११ -८७॥
भा०-इस कारण हे मतिमतांवर ! पवित्रतीर्थ
में जाने के निमित्त मेरी अभिलषित गति की तो रक्षा कीजिये,
क्यों कि भोग में इच्छा न करनेवाले मुझको स्वर्गपद्धति की प्राप्ति
न होनी दुःख न देगी ॥ ८७॥
प्रत्यपद्यत तथेति राघवः
प्राङ्मुखश्च विससर्ज सायकम् ।
भार्गवस्य सुकृतोऽपि
सोऽभवत्स्वर्गमार्गपरिघो दुरत्ययः ॥ ११ -८८॥
भा०- रामचन्द्र ने ऐसा ही हो'यह कहकर स्वीकार किया और पूर्व मुख करके वाण को छोडा वह वाण पुण्यात्मा
परशुराम के भी स्वर्गमार्ग को कठिन मूसला बना॥ ८८॥
राघवोऽपि चरणौ तपोनिधेः
क्षम्यतामिति वदन्समस्पृशत् ।
निर्जितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु
प्रणतिरेव कीर्तये ॥ ११ -८९॥
भा०-रामचन्द्र ने भी 'क्षमा करो' एसा कहते हुए परशुरामजी के चरण ग्रहण
किये, क्यों कि पराक्रम से जीते हुए शत्रुओं में नम्र होना
तेजस्वियों की कीर्ति बढानेवाला होता है ।। ८९॥
राजसत्वमवधूय मातृकं पित्र्यमस्मि
गमितः शमं यदा ।
नन्वनिन्दितफलो मम त्वया
निग्रहोऽप्ययमनुगृहीकृतः ॥ ११ -९०॥
भा०-माता के वंश का रजोगुण त्याग
कराकर पिता के सत्वगुण में प्राप्त कराये हुए मुझ पर वह निन्दारहित फल का दंड भी
अनुग्रह ही किया है ॥ ९० ॥
साधयाम्यहमविघ्नमस्तु ते
देवकार्यमुपपादयिष्यतः ।
ऊचिवानिति वचः सलक्ष्मणं
लक्ष्मणाग्रजमृषितिरोदधे ॥ ११ -९१॥
भा०-मैं जाता हूं देवकार्य साधन
करनेवाले तुम्हारी जय हो, लक्ष्मण सहित
रामचन्द्र से यह वचन कहते हुए ऋषि अन्तर्धान हुए ॥ ९१॥
तस्मिन्गते विजयिनं परिरभ्य रामं
स्नेहादमन्यत पिता पुनरेव जातम् ।
तस्याभवत्क्षणशुचः परितोषलाभः
कक्षाग्निलङ्घिततरोरिव वृष्टिपातः ॥ ११ -९२॥
भा०-उनके जाने पर विजयी राम को पिता
(दशरथ) आलिंगन करक स्नेह से फिर जन्मा हुआ मानते भये,
क्षणमात्र शीच करनेवाले उस (राजा) को संतोष की प्राप्ति, दावानल से झुलसे हुए वृक्ष पर वर्षा पड़ने के समान हुई ॥ ९२॥
अथ पथि गमयित्वा कॢप्तरम्योपकार्ये
कतिचिदवनिपालः शर्वरीः शर्वकल्पः ।
पुरमविशदयोध्यां मैथिलीदर्शनीनां
कुवलयितगवाक्षां लोचनैरङ्गनानाम् ॥ ११ -९३॥
भा०-महादेव के समान राजा ने अच्छी
सजावटयुक्त मार्ग में कुछेक दिन बिताकर जानकी के देखनेवाली स्त्रियों के नेत्ररूपी
कमलों से भरे हुए गवाक्षों ( झरोखों ) वाली. अयोध्या में प्रवेश किया ॥ ९३॥
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये
कविश्रीकालिदासकृतौ सीतविवाहवर्णनो नामैकादशः सर्गः ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा
रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग ११ सम्पूर्ण हुआ॥ ११ ॥
रघुवंशमहाकाव्यम् एकादश: सर्गः
रघुवंशं
सर्ग ११ कालिदासकृत
रघुवंश ग्यारहवां सर्ग संक्षिप्त कथासार
राम -विवाह
ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में यज्ञ
हो रहा था, राक्षस लोग उसमें विघ्न उत्पन्न
करते थे । यद्यपि राम अभी बच्चे ही थे, और उनके सिर पर की
बाल शिखा भी नहीं कटी थी, कि ऋषि ने महाराज दशरथ के पास जाकर
यज्ञ की रक्षा के लिए राम को भेजने की मांग की । तेजस्वियों का तेज देखा जाता है,
आयु के दिन नहीं गिने जाते । महाराज ने इच्छा न रहते भी ऋषि के
आग्रह पर राम और लक्ष्मण को उनके साथ भेज दिया । रघुकुल की यह पुरातन पद्धति थी कि
मांगनेवाले यदि प्राणों की याचना भी करें तो भी निराश नहीं होते थे। महाराज
राजकुमारों की यात्रा को मांगलिक करने के लिए अभी नगर के मार्गों की सफाई और सजावट
के सम्बन्ध में आज्ञा दे ही रहे थे कि पुष्पगन्ध से युक्त जल बरसानेवाले बादलों ने
वायु के साथ आकर उन्हें सींच दिया । जब दोनों धनुषधारी भाई जाने के समय पिता के
चरणों में झुके तब उनके सिरों पर पिता की आंखों से निकलते हुए वियोगाश्रु टपक रहे
थे । ऋषि केवल राम और लक्ष्मण को ही अपने साथ ले जाना चाहते थे, सेना को नहीं । इस कारण महाराज ने दोनों पुत्रों को आशीर्वाद दिया,
वही उनका कवच बन गया । ऋषि के साथ जाते हुए दोनों भाइयों ने माताओं
को प्रणाम करके आशीर्वाद प्राप्त किया । मार्ग में ऋषि ने राजकुमारों को बला और
अतिबला नाम की विद्या का उपदेश किया । उसमें उनका चित्त ऐसा मग्न हो गया कि मणिमय
मार्गों पर चलने के अभ्यस्त राजकुमारों के लिए कंटीले मार्ग ऐसे बन गए मानो माता
के आसपास की भूमि हो । मार्ग में ऋषि उन्हें पुराने इतिहास भी सुनाते गए जिसमें
उन्हें थकान का अनुभव न हुआ । जब वे आश्रम में पहुंचे तो तपस्वी लोगों को देखकर
उन्हें जो प्रसन्नता हुई वह न कमलों से सुशोभित जलाशयों को देख कर हुई थी, और न मार्ग की थकान को हरनेवाले छायावाले वृक्षों को देखकर। ऋषि
विश्वामित्र का वह आश्रम, जहां किसी दिन महादेव के कोप से कामदेव
के शरीर का दाह हुआ था, राजकुमारों के काम - सदृश सुन्दर
शरीरों से एक बार फिर सुशोभित हो उठा । मार्ग में एक जंगल था, जिसमें अगस्त्य ऋषि के शाप से दारुणरूप ताड़का निवास करती थी, और तपस्वियों को दु: ख देती थी । जब दोनों भाई वहां पहुंचे तो उन्होंने
धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा ली, और चौकन्ने हो गए। उनकी
प्रत्यंचा का शब्द सुनकर रात के गहरे अन्धकार के समान काली, कपालों
के कुण्डल धारण किए हुए भयानक रूप के कारण बलाकाओं वाली काली मेघमाला के समान
राक्षसी प्रादुर्भूत हो गई । उसके वेग से रास्ते के वृक्ष कांप रहे थे, मुर्दो के कफन उसके शरीर पर लटक रहे थे और वह ऊंचे स्वर से चिंघाड़ रही थी
। श्मशान से आती हुई आंधी की भांति दुर्गन्धयुक्त ताड़का को देखकर एक बार तो राम
घबरा गया । परन्तु जब उसने राक्षसी की प्रहार के लिए उठी हुई एक भुजा को देखा,
और कमर में लटकती हुई पुरुषों की आंतों की मेखला पर दृष्टि डाली,
तो स्त्री पर प्रहार करने के सम्बन्ध में उसके मन में जो घृणा की
भावना थी, वह जाती रही । उसने प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाया और
पूरे वेग से ताड़का की छाती का निशाना लगाकर छोड़ दिया । उस तीर ने ताड़का के
वक्षस्थल में जो सुराख किया, वह मानो राक्षसों के दुर्ग में
यमराज के प्रवेश का द्वार बन गया । बाण जाकर हृदय में लगा । जब ताड़का मरकर गिरी,
उससे केवल उस जंगल की भूमि ही प्रकम्पित नहीं हुई, तीनों लोकों को परास्त करके स्थिर की हुई रावण की राजलक्ष्मी भी मूल से
हिल गई । ताड़का- वध से संतुष्ट मुनि ने मार्ग में ही राम को राक्षसों का संहार
करनेवाले अस्त्र का ज्ञान कराया था । वामनाश्रम में पहुंचने पर तपस्वियों ने दोनों
भाइयों का स्वागत - सत्कार किया । ऋषि विश्वामित्र ने दीक्षा लेकर यज्ञ आरम्भ कर
दिया । जैसे सूर्य और चन्द्रमा क्रम से उदित होकर संसार की अन्धकार से रक्षा करते
हैं, वैसे ही राम और लक्ष्मण राक्षसों से ऋषि की रक्षा करने
लगे। यज्ञ प्रारम्भ होने पर घबराए हुए ऋषियों ने देखा कि बन्धूक फूल के समान स्थूल
रक्तबिंदु आकाश से वेदी पर गिर रहे हैं, तूणीर में से बाण
निकालते हुए राम ने ऊपर दृष्टि उठाई तो उन्हें राक्षसों की सेना दिखाई दी । राम ने
उनके केवल दोनों सेनानायकों को ही अपने शरों का लक्ष्य बनाया, दूसरों को नहीं। क्या महान् सर्पों का शत्रु गरुड़ कभी छोटे सॉंपों पर भी
वार करता है ? आक्रमणकारियों का एक नेता ताड़का का पुत्र मारीच
था । राम ने वायव्यास्त्र के प्रयोग से उसके पर्वत के समान भारी शरीर को भी बहुत दूर
गिरा दिया । दूसरे नेता सुबाहु को, जो कि माया द्वारा स्थान
- स्थान पर विचरण कर रहा था, क्षरप्र नामक बाण से काटकर
आश्रम से बाहर पक्षियों और जंगली पशुओं के खाने के लिए फेंक दिया । नेताओं के वध
से शेष राक्षस भाग गए। उपद्रव के शान्त हो जाने पर ऋत्विज् लोगों ने दोनों भाइयों
की सांग्रामिक सफलता का अभिनन्दन करके मौन व्रत धारण किए हुए मुनि विश्वामित्र के
यज्ञ को शान्तिपूर्वक पूर्ण किया । यज्ञ के अन्त में दोनों भाइयों ने चमत्कृत
काकपक्ष वाले अपने सिर ऋषि के चरणों में झुका दिए । ऋषि ने आशीर्वाद देते हुए
कुशाओं से छिले हुए अपने हाथों से उनके सिरों का स्पर्श किया । मिथिला के राजा जनक
ने अपनी पुत्री सीता के स्वंयवर - यज्ञ में ऋषि को भी निमन्त्रित किया था ।
स्वयंवर में यह नियम था कि जो राजपुत्र पुराने शिव-धनुष को उठाएगा, सीता उसके गले में वरमाला डालेगी। ऋषि जब स्वयंवर - यज्ञ में जाने लगे तो
उन्होंने धनुष देखने के लिए उत्सुक राम और लक्ष्मण को भी साथ ले लिया । मार्ग में
अपने पति गौतम मुनि के शाप से पत्थर बनी अहल्या शाप के दिन व्यतीत कर रही थी ।
उसने शाप के बन्धन से छूटकर फिर अपना सुन्दर मानव - वेश प्राप्त कर लिया । यह राम
के चरण रेणु की ही कृपा थी । जब अर्थ और काम से अलंकृत शरीरधारी धर्म के समान राम
- लक्ष्मण सहित ऋषि विश्वामित्र के पधारने का समाचार मिला तो राजा जनक अगवानी के
लिए आदर – सहित उनकी सेवा में पहुंचे। पुनर्वसु नाम के नक्षत्रों के समान तेजस्वी
राजपुत्रों की छवि को देखकर मिथिलापुर निवासी इतने प्रसन्न हुए कि क्षण - भर के
लिए आंख झपकाना भी उन्हें विघ्न - सा प्रतीत हो रहा था । जब यज्ञविधि समाप्त हो गई,
तब अनुकूल समय देखकर ऋषि ने राजा को बतलाया कि राम शिव - धनुष के
दर्शन करना चाहते हैं । एक ओर राम का ऊँचा वंश और कोमल शरीर, दूसरी ओर शिव का न झुकनेवाला प्रचण्ड धनुष ! दोनों को विचारकर राजा जनक मन
में बहुत चिन्ता करने लगे । वे मुनि से कहने लगे भगवन, जिस
कार्य को बड़े- बड़े मस्त हाथी भी नहीं कर सके, उसके लिए मैं
इस कोसल - कलभ को कैसे अनुमति दूं? हे तात, धनुष की प्रत्यंचा को खींचते - खींचते जिनके हाथों की त्वचाएं कठोर हो गई
हैं, ऐसे अनेक धुनर्धारी क्षत्रिय उस धनुष को उठाने के लिए आए,
और अशक्ति के कारण अपनी भुजाओं को धिक्कारते हुए चले गए। ऋषि ने
उत्तर दिया राजन् ! सुनो, इस राम के बल को वाणी से क्या कहूं
? जब पर्वत पर बिजली की भांति यह शिव - धनुष पर पड़ेगा,
तब तुम स्वयं इसका परिचय पा जाओगे । जैसे जुगनू जितनी आग की चिनगारी
पर भी मनुष्यों की श्रद्धा हो जाती है, उसी प्रकार ऋषि के
कहने से थोड़ी आयु के कुमार पर भी राजा जनक की आस्था हो गई, और
उन्होंने अपने सेवकों को शिव धनुष दिखाने की आज्ञा दे दी । सोए हुए सर्पराज वासुकि
के समान बड़े और भयानक धनुष को राम ने सहज भाव से पकड़ा और आश्चर्य - चकित दर्शकों
के सामने ऐसी सुगमता से उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी मानो कामदेव फूलों के चाप पर
प्रत्यंचा चढ़ा रहा हो । प्रत्यंचा को चढ़ाकर राम ने खींचा तो धनुष बड़ी भीषण
ध्वनि के साथ टूट गया । वह ध्वनि इतनी ऊँची थी कि तपस्या करते हुए क्रोधी मुनि
परशुराम के कानों तक पहुंचकर उसने मानो यह समाचार दे दिया कि क्षत्रिय -वंश फिर से
जीवित हो उठा है । मिथिला - नरेश की प्रतिज्ञा थी कि जो वीर शिव- धनुष को उठा लेगा,
वह उससे अपनी कन्या का विवाह करेगा । राम ने धनुष को न केवल उठाया
अपित तोड़ भी दिया । शर्त पूरी हो जाने से प्रसन्न होकर, राजा
जनक ने लक्ष्मी के सदृश गुणवती पुत्री सीता का विवाह राम से करने की अभिलाषा प्रकट
की, और अग्नि के समान पवित्र ऋषि को साक्षी करके उसे राघव के
अर्पण कर दिया । साथ ही जनक ने अपने पुरोहित को यह निवेदन करने के लिए अयोध्या -
नरेश दशरथ के पास भेजा कि आप मेरी कन्या को अपनी पुत्र - वधू के रूप में ग्रहण
करके निमिवंश को कृतार्थ कीजिए । राजा दशरथ राम के लिए गुणवती कन्या की तलाश में
थे ही, अनुकूल सन्देश लेकर पुरोहित के पहुंचने से वे बहुत ही
सन्तुष्ट हुए । सज्जनों के संकल्प कल्पवृक्ष के फलों की भांति शीघ्र ही परिपक्व हो
जाते हैं । ब्राह्मण द्वारा मिथिलापति का संदेश पाकर महाराज दशरथ ने मिथिला की ओर
प्रयाण कर दिया, और कुछ ही दिनों में सेना- सहित जनकपुरी में
प्रवेश किया । वरुण और वासव के समान तेजस्वी दशरथ और जनक ने अपने पद और गौरव के
अनुकूल धूमधाम के साथ विवाहोत्सव सम्पन्न किया । राम की सीता से, उसकी छोटी बहिन उर्मिला का लक्ष्मण से, और माण्डवी
और श्रुतकीर्ति का भरत और शत्रुघ्न से विवाह हो गया । वे चारों भाई अनुरूप
पत्नियों का पाणिग्रहण करके सफलता से युक्त साम, दाम,
दण्ड और भेद इन चार उपायों की भांति, राजा की
महिमा को बढ़ानेवाले हो गए । जैसे प्रकृति और प्रत्यय के योग से शुद्ध और सार्थक
पद बन जाता है, उसी प्रकार उन योग्य राजकुमारियों का योग्य
कुमारों से योग भी कृतार्थता का कारण बन गया । महाराज दशरथ ने चारों पुत्रों का
विवाह करके सेना - सहित अपनी पुरी की ओर प्रस्थान किया । तीन पड़ाव शेष रहने पर
मिथिलेश्वर अपनी राजधानी को वापस हो गए। अकस्मात् मार्ग में अनेक अशुभ लक्षण प्रकट
होने लगे । जैसे बढ़ता हुआ पानी नदी के किनारों को क्लेश देने लगता है, वैसे ही वृक्षों को गिरा देनेवाला अंधड़ सैनिकों के पांव उखाड़ने लगा ।
सूर्य - मण्डल के चारों ओर भयावनी धारियां दिखाई देने लगीं। दिशाएं मलिन हो गईं और
जिस दिशा में सूर्य दीखता था, उसी दिशा में रक्त के प्यासे
गीदड़ हाउ-हाउ करते सुनाई देने लगे । इन अशुभ लक्षणों को देखकर महाराज ने मुनि
वसिष्ठ से प्रश्न किया तो उन्होंने आश्वासन देते हुए कहा कि घबराओ नहीं, अन्त में परिणाम अच्छा होगा थोड़ी देर में सेना के सामने तेज की एक राशि
उठती हई दिखाई दी । जब सैनिकों ने आंखें मलकर ध्यान से देखा तो एक तेजस्वी
मनुष्यमूर्ति दृष्टिगोचर हुई । वे मुनि परशुराम थे। उनके गले में पिता के अंश के
रूप में यज्ञोपवीत पड़ा हुआ था और हाथ में माता के अंश के रूप में विशाल धनुष था ।
मानो सौम्य चन्द्रमा के संग तीव्र आदित्य हो, अथवा ऐसा चन्दन
का वृक्ष हो जिस पर सांप लिपटा हुआ है। उसने ऋषि-मर्यादा का उल्लंधन करनेवाले पिता
की आज्ञा के अनुसार, डर से कांपती हुई माता का सिर काटकर
पहले करुणा को जीता, और फिर क्रोध के आवेश में क्षत्रियों का
संहार करके सारी पृथ्वी को जीत लिया था । उसके दाहिने कान पर अक्ष के बीजों का जो
कुण्डल लिपटा हुआ था, वह मानो इक्कीस बार क्षत्रियों के
विनाश की गिनती का स्मारक था । एक ओर पिता जमदग्नि की हत्या से रुष्ट होकर
क्षत्रिय जाति का संहार करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ परशुराम पर, और दूसरी ओर अपने बालक पुत्र राम पर जब अयोध्यापति की दृष्टि पड़ी तो वह
घबरा गया । उस समय राजा की दृष्टि दो रामों पर पड़ रहीं थी - एक शत्रु था और दूसरा
पुत्र । उसे एक सांप की मणि के समान प्रतीत हुआ, तो दूसरा
माला की मणि के समान। पूजा की सामग्री लाओ! राजा की इस आज्ञा की उपेक्षा करके मुनि
ने क्षत्रियों का दाह करनेवाली क्रूर दृष्टि से उसकी ओर देखा। फिर वे राम की ओर
मुड़े । राम तब भी निर्भय था । मुनि ने एक हाथ में धनुष को लेकर, और दूसरे हाथ की अंगुलियों में तीर को पकड़े हुए क्रुद्ध होकर कहा मेरे
पिता की हत्या करने के कारण क्षत्रिय मेरे शत्रु हैं । उनका कई बार नाश करके मैं शान्त
हो गया था, परन्तु सोए हुए सांप की जो दशा लाठी की ठोकर खाकर
होती है, तेरे पराक्रम की कथा सुनकर मेरी भी वैसी ही दशा हुई
है । तुमने मिथिलेश के उस धनुष को तोड़ डाला है, जिसे अन्य
राजा झुका भी नहीं सके थे। इस व्यतिक्रम से मुझे ऐसा प्रतीत होता है, मानो मेरी शक्ति का सिर कट गया हो । पहले राम इस नाम से संसार में केवल
मेरा बोध होता था, अब तेरे बढ़ते हुए यश के कारण वह नाम मेरे
लिए लज्जा का कारण बन गया है । जिस जामदग्न्य का अस्त्र क्रौंच पर्वत से टकराकर भी
व्यर्थ नहीं हुआ था, उसके समान - रूपी से अपराधी होने के
कारण दो बड़े शत्रु हैं पहला गौ के बछड़े का हरण करने के कारण हैहय और दूसरा मेरे
यश को छीनने का यत्न करनेवाला तू! यदि मैं तुझे नहीं जीतता तो सब क्षत्रियों को
नष्ट करनेवाला अपना विक्रम भी मुझे नहीं कर सकता। अग्नि की यही तो प्रशंसा है कि
वह जैसे जंगल में जलता है, वैसे ही समुद्र में भी देदीप्यमान
होता है । यह समझ ले कि तूने समय द्वारा जर्जरित शिव के धनुष को तोड़कर कोई
बहादुरी का काम नहीं किया। जिस पेड़ की जड़ों को नदी के पानी ने खोखला कर दिया हो,
उसे हवा का हल्का - सा झोंका भी गिरा देता है । युद्ध को जाने दे
मेरे इस धनुष को ले और शर चढ़ाकर इसे खींच दे। बस, इतने ही
से मेरे समान बलवान होने के कारण तू मुझे जीत लेगा । परन्तु यदि मेरे परशु की चमकती
हुई धार से तू डर गया है तो धनुष की प्रत्यंचा खींचने से कठोर अंगुलियोंवाले अपने
निर्वीर्य हाथों को जोड़कर अभय- दान मांग ले । भार्गव के ये वचन सुनकर राम कुछ
नहीं बोले । केवल होंठों में थोड़ा - सा मुस्कराकर यही उत्तर दिया कि उनके हाथ से
धनुष ले लिया । उस ऐतिहासिक धनुष को लेकर राम अत्यन्त शोभायमान दिखाई देने लगे ।
नया बादल स्वयं ही बहुत सुन्दर होता है, फिर जब उस पर
इन्द्रधनुष अंकित हो जाए तो शोभा का क्या कहना है ! राम ने पृथ्वी पर एक कोटि
जमाकर जब उस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी तो क्षत्रियों के शत्रु जामदग्न्य का तेज
क्षीण हो गया मानो अग्नि की ज्वाला नष्ट हो गई हो, केवल धुआं
शेष रह गया हो । उस समय एक ओर बढ़ता हुआ राम और दूसरी ओर क्षीण होता हुआ राम -
दोनों लोगों को ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो सायंकाल के समय
चन्द्रमा उदित हो रहा हो, और सूर्य डूब रहा हो । राम ने धनुष
पर अमोघ बाण चढ़ा लिया । उधर मुनि एकदम उदास और क्षीण - बल हो गए । राम को दया आ
गई, वे मुनि से बोले आप ब्राह्मण हैं । आपने अपमानित किया,
तो भी आप पर निर्दय होकर प्रहार नहीं करना चाहता, परन्तु मेरा बाण अमोघ है । यह व्यर्थ नहीं जा सकता। आप बताइए कि इससे किस
वस्तु को नष्ट करूं? आपकी गति को या आपके यज्ञ द्वारा
प्राप्त किए स्वर्गलोक के द्वार को? ऋषि बोले - भगवन्! यह
नहीं कि मैं तुम्हारे स्वरूप को नहीं जानता था । मैं तो तुम्हारे मानव- शरीर में
वैष्णव तेज को प्रत्यक्ष देखना चाहता था । अतः मैंने तुम्हें उत्तेजित किया ।
मैंने अपने पिता के द्वेषियों को भस्मसात् कर दिया था, और
सारी पृथ्वी दान में दे दी थी, इतना कुछ कर लेने के पश्चात्
प्रभु द्वारा मेरी पराजय भी प्रशंसनीय ही है। मैं अपने को धन्य मानता हूं । भगवन्
! मैं पुण्यतीर्थों का भ्रमण कर सकू, अत: मेरी गति को सुरक्षित
रहने दें । मैं सुख - दु: ख की ओर से उदासीन हो चुका हूं, अत:
मेरे स्वर्ग - द्वार को नष्ट कर दें । राघव ने मुनि की बात को स्वीकार कर लिया,
और बाण को पूर्व की ओर छोड़ दिया, जिससे
भार्गव के स्वर्ग जाने का मार्ग बन्द हो गया । इसके पश्चात् राम ने धनुष एक ओर रख
दिया, और ऋषि के पांव पकड़कर क्षमा प्रार्थना की। शत्रु को
जीतकर नम्र हो जाना ही वीरों के लिए यशस्कर होता है । मुनि राम और लक्ष्मण से बोले
– माता से प्राप्त हुए शस्त्रभाव को त्यागकर मैं भी अब अपने
पिता के शस्त्रभाव को ग्रहण करता हूं। मुझ पर तुम्हारा यह दण्ड - प्रयोग भी
वस्तुत: अनुग्रह के समान ही हुआ है। अब मैं विदा होता हूं, तुम
अपने देव - कार्य में लगो । यह कहकर ऋषि अन्तर्धान हो गए। जामदग्न्य के चले जाने
पर राजा ने राम को दूसरी बार उत्पन्न हुआ मानकर प्रसन्नतापूर्वक गले लगाया,
और कुछ दिनों की सुखमय यात्रा के पश्चात् सजी हुई अयोध्यापुरी में
प्रवेश किया ।
रघुवंश
महाकाव्य ग्यारहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ ११ ॥
शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् सर्ग १२
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