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कर्मकाण्ड

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सौंदर्य लहरी

सौंदर्य लहरी

सौन्दर्य लहरी को दो भागों में विभक्त किया जाता है। प्रथम भाग जिसमें ४१ श्लोक है, आनन्द लहरी के नाम से विख्यात है। यह नाम श्लोक ८ में स्पष्ट रूप से मिलता है और २१ वे श्लोक में भी परमाह्लाद लहरी पद का प्रयोग तदर्थ वाचक है। इस भाग में शंकर भगवत्पाद ने पिंडस्थ शक्ति और तत्संबंधी श्री चक्र, श्री विद्या, षट् चक्र वेध और उनका मातृकाओं के द्वारा परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणि से, और सब के पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डाला है, जिसका उद्देश्य कुण्डलिनी शक्ति के जागरण द्वारा अद्वैत सिद्धान्त के जीव ब्रह्मैक्य ज्ञान की अपरोक्षानुभूति कराना मात्र है ।

सौन्दर्य लहरी के उत्तरार्ध में विश्व को भगवती का विराट् देह मानकर, प्रकृति देवी के दिव्य देह का चित्र खेंचा गया है जो छन्दशास्त्रोक्त आभूषणों से अलंकृत, सर्व भाव पूर्ण नवरसों में पगी अनादि अनन्त महामाया महादेवी आदि शक्ति की झांकी दिखाने वाली, वास्तव में सौन्दर्य लहरी ही है, जिसको पढकर अनात्मवादी भी पुराण कवि भगवान शंकर के अवतार भगवत्पाद की इस वैखरी झरी के रसों का आस्वादन कर के, अपनी अनात्म देह में स्थित अधिष्टातृ चेतना देवी की अनन्त महिमा की किंचित झांकी पाकर आत्म विश्वासी बन सकता है।

श्री मच्छंकर भगवत्पाद ने भगवती उमा के सौन्दर्य का आनख शिख चित्र, एक भक्त के दृष्टिकोण से, उपासकों के ध्यान लाभार्थ खेचा है । १ श्लोक में किरीट, ३ श्लोकों में केश, एक में ललाट एक में भ्रू, २. श्लोकों में नेत्र, २ में दृष्टि, १ में कपोल, १ में कर्ण एक में नासिका, १ में दान्त, १ में मुस्कराहट, १ में मुख का तांबूल, १ में वाणि, १ में चिबुक, २ में ग्रीवा और कंठ, १ में चार हाथ, १ में नखों की युति, ४ श्लोकों में स्तन पान द्वारा वात्सल्य स्नेह, ३ श्लोकों में नाभि, २ में कटि, १ में नितम्ब, १ में जानु, १ में पैर, ८ श्लोकों में चरण, १ में शरीर की आभा, शेष श्लोकों में प्रार्थना युक्त सामान्य रूप से सर्वांग सौन्दर्य का चित्र खेचा गया है । अनुमान होता है, कि कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की प्रातःकालीन उषा के रूप में विराट देवी का ध्यान कराया गया है।

सौन्दर्य लहरी (उत्तरार्द्ध)

सौन्दर्य लहरी

सौन्दर्य लहरी (उत्तरार्द्ध)

               सौन्दर्यलहरी

मुकुट का ध्यान

गतैर्माणिक्यत्वं गगनमणिभिः सान्द्रघटितं

   किरीटं ते हैमं हिमगिरिसुते कीर्तयति यः ।

स नीडेयच्छायाच्छुरणशबलं चन्द्रशकलं

   धनुः शौनासीरं किमिति न निबध्नाति धिषणाम् ॥ ४२॥

अर्थ:- हे हिमाचल की पुत्रि ! जो मनुष्य तेरे सुवर्ण के बने हुए किरीट का वर्णन करे तो उसकी धारणा ऐसी क्यों न होगी, कि मानो इन्द्र धनुष निकला हुआ है। क्योंकि वह किरीट गगन मणियों अर्थात् तारागण रूपी मणियों से घनीभूत जड़ा हुआ है और चन्द्रमा के टुकडे का पक्षि के घोंसले सदृश जान पड़ता है और जो उपः कालीन प्रकाश में रंगबिरंगा चमक रहा है।

केशों का ध्यान

धुनोतु ध्वान्तं नस्तुलितदलितेन्दीवरवनं

   घनस्निग्धश्लक्ष्णं चिकुरनिकुरुम्बं तव शिवे ।

यदीयं सौरभ्यं सहजमुपलब्धुं सुमनसो

   वसन्त्यस्मिन् मन्ये वलमथनवाटीविटपिनाम् ॥ ४३॥

अर्थः- हे शिवे ! तेरे गहरे चिकने मुलायम केशों का समूह जो खिले हुए इन्दीवर(नीलकमल) के वन की तुलना करता है। हमारे अज्ञानान्धकार को हटावे, जिसमें गुंथे हुए इन्द्र की वाटिका के वृक्षों के पुष्प, मेरी समझ में, उसकी सुगंधि से स्वयं सहज ही सुगंधित होने के लिये वहां आब से हैं।

तनोतु क्षेमं नस्तव वदनसौन्दर्यलहरी-

   परीवाहस्रोतःसरणिरिव सीमन्तसरणिः ।

वहन्ती सिन्दूरं प्रबलकबरीभारतिमिर-        

   द्विषां बृन्दैर्बन्दीकृतमिव नवीनार्ककिरणम् ॥ ४४॥

अर्थः-- तेरे मुख की सौन्दर्य लहरी के प्रवाहस्रोत के मार्ग के सदृश सिन्दूर से भरी तेरे केशों की मांग हमारे क्षेम (कल्याण) का प्रसार करे, जो मांग केशों के भारमय अन्धकार रूपी प्रबल दुष्मनों के वृन्दों से बन्दी की हुई उदय होने वाले नवीन सूर्य की अरुण किरण के सदृश हैं।

अलकों का ध्यान

अरालैः स्वाभाव्यादलिकलभसश्रीभिरलकैः

   परीतं ते वक्त्रं परिहसति पङ्केरुहरुचिम् ।

दरस्मेरे यस्मिन् दशनरुचिकिञ्जल्करुचिरे

   सुगन्धौ माद्यन्ति स्मरदहनचक्षुर्मधुलिहः ॥ ४५॥

अर्थः-स्वाभाविक घुंघराली जवान भौंरा की कांतियुक्त अलकावलि से घिरा हुआ तेरा मुख, कमलों की शोभा का परिहास करता है । जिनमें स्फटिक सदृश शोना वाले दन्तों में किंचित् मुस्कराते समय निकलने वाली सुगंध पर काम के दहन करने वाले शिवजी के नेत्र रूपी भौंरे भोर मस्त हो जाते हैं।

ललाट का ध्यान

ललाटं लावण्यद्युतिविमलमाभाति तव य-

   द्द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चन्द्रशकलम् ।

विपर्यासन्यासादुभयमपि संभूय च मिथः

   सुधालेपस्यूतिः परिणमति राकाहिमकरः ॥ ४६॥

अर्थः- लावण्य कांति से युक्त विमल चमकने वाला जो तेरा ललाट है, उसे मैं मुकुट में जडी हुई चन्द्रमा की दूसरी कला समझता हूं, जो एक दूसरे पर उलट कर रखी होने के कारण दोनों का एक रूप बनकर और अमृत के लेप में जुड कर पूर्ण चन्द्रमा बन गया है।

भृकुटि का ध्यान   

भ्रुवौ भुग्ने किंचिद्भुवनभयभङ्गव्यसनिनि

   त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकररुचिभ्यां धृतगुणम् ।

धनुर्मन्ये सव्येतरकरगृहीतं रतिपतेः

   प्रकोष्ठे मुष्टौ च स्थगयति निगूढान्तरमुमे ॥ ४७॥

अर्थः-हे भुवन के भय का नाश करने में आनन्द लेने वाली उमे ! भ्रुवों की त्योरी चढ़ने पर मैं उसकी बायें हाथ में लिये हुए कामदेव के धनुष से उपमा देता हूं, जिसकी प्रत्यंचा भौंरौं की कांति वाले तेरे दोनों नेत्रों की बनी है और जिसका मध्य भाग मुट्ठी के और कलाई के नीचे छुपा हुआ है।

तीन नेत्रों का ध्यान                 

अहः सूते सव्यं तव नयनमर्कात्मकतया

   त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया ।

तृतीया ते दृष्टिर्दरदलितहेमाम्बुजरुचिः

   समाधत्ते संध्यां दिवसनिशयोरन्तरचरीम् ॥ ४८॥

अर्थ:-तेरा दक्षिण नेत्र सूर्यात्मक होने से दिन बनाता है, और बायां चन्द्रात्मक होने से रात्रि की सृष्टि करता है और किंचित् विकसित सुवर्ण के बने हुए कमल की शोभा से युक्त तेरी तीसरी दृष्टि दिन और रात दोनों के बीच में रहने वाली संध्या है।

विशाला कल्याणी स्फुटरुचिरयोध्या कुवलयैः

   कृपाधाराधारा किमपि मधुराभोगवतिका ।

अवन्ती दृष्टिस्ते बहुनगरविस्तारविजया

   ध्रुवं तत्तन्नामव्यवहरणयोग्या विजयते ॥ ४९॥

अर्थः- तेरी दृष्टि विशाला, कल्याणी खिले हुए कमलों की शोभा की उपमा से उंची अयोध्या, कृपा की धारा सदृश धारा, कुछ२ मधुरा, भोगवति का, सबकी रक्षा करने वाली अवन्तिका और अनेक नगरों के विस्तार को जीतने वाली विजया है और निश्चय से इन प्रत्येक नगरियों के नाम से संबोधित नाना अर्थो के संदेह को हरण करने के योग्य है। अर्थात् प्रत्येक के नाम की भाव सूचक है।

कवीनां संदर्भस्तबकमकरन्दैकरसिकं

   कटाक्षव्याक्षेपभ्रमरकलभौ कर्णयुगलम् ।

अमुञ्चन्तौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वादतरला-

   वसूयासंसर्गादलिकनयनं किंचिदरुणम् ॥ ५०॥

अर्थ:-कवियों की कविता रूपी स्तवक से उठने वाली सुगंध के रसिक कानों का माथ न छोडने वाले तेरे कटाक्ष विक्षेप युक्त, तिरछी निगाह से देखने वाले, भ्रमरों के सदृश और कविताओं के ९ रसों का आस्वाद लेने को बेचैन, चंचल दोनों नेत्रों को देख कर इर्ष्या के संसर्ग से तेरा (तीसरा) मस्तक वाला नेत्र कुछ लाल रंग युक्त है।

शिवे श्रृङ्गारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा

   सरोषा गङ्गायां गिरिशचरिते विस्मयवती ।

हराहिभ्यो भीता सरसिरुहसौभाग्यजयिनी

   सखीषु स्मेरा ते मयि जननी दृष्टिः सकरुणा ॥ ५१॥

अर्थः- शिव के प्रति तेरी दृष्टि श्रृंगारार्द्र है, इतर जनों के प्रति कुत्सित उपेक्षा युक्त, गंगा पर सरोष, शिवजी के चरित्रों पर विस्मय प्रकट करने वाली, शिवजी के सर्पों से भीत, कमलों की शोभा को पराजित करने वाली, सखियों के प्रति मुस्कान लिए हुए है और हे जननि मेरे ऊपर तेरी करुणायुक्त दयादृष्टि है।

गते कर्णाभ्यर्णं गरुत इव पक्ष्माणि दधती

   पुरां भेत्तुश्चित्तप्रशमरसविद्रावणफले ।

इमे नेत्रे गोत्राधरपतिकुलोत्तंसकलिके

   तवाकर्णाकृष्टस्मरशरविलासं कलयतः ॥ ५२॥

अर्थः- हे पर्वतराज के कुल की प्रमुख कली ! ये तेरे बाणों सदृश दोनों नेत्र कानों तक पहुंचे हुए हैं, जो पंखों के स्थान पर पलकें धारण किए हुए हैं और पुरारि के चित्त की शान्ति का भंग करने वाले फल से युक्त है, कान तक ताने हुए वे कामदेव के बाणों का कार्य कर रहे हैं।

विभक्तत्रैवर्ण्यं व्यतिकरितलीलाञ्जनतया

   विभाति त्वन्नेत्रत्रितयमिदमीशानदयिते ।

पुनः स्रष्टुं देवान् द्रुहिणहरिरुद्रानुपरतान्

   रजः सत्त्वं बिभ्रत्तम इति गुणानां त्रयमिव ॥ ५३॥

अर्थः- हे ईशान की दयिते ! ये तेरे तीनों नेत्र तीन रंग का अंजन लगाने से मानों पृथक २ तीन रंग के चमक रहे हैं और महा प्रलय के अन्त में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र को जो प्रलय काल में उपरत हो गये थे, फिर पैदा करने के लिये रज, सत्व और तम तीनों गुणों को धारण किये हुए से प्रतीत होते हैं।

पवित्रीकर्तुं नः पशुपतिपराधीनहृदये

   दयामित्रैर्नेत्रैररुणधवलश्यामरुचिभिः ।

नदः शोणो गङ्गा तपनतनयेति ध्रुवममुं

   त्रयाणां तीर्थानामुपनयसि संभेदमनघम् ॥ ५४॥

अर्थः-- पशुपति शंकर भगवान की पराधीनता में हृदय समर्पण करने वाली हे भगवती ! अरुण, शुक्ल, और श्याम वर्णों की शोभा से युक्त दयापूर्ण अपने नेत्रों से सोणनदी, गंगा और सूर्यतनया ( जमुना ) इन तीनों तीर्थों के सदृश निश्चय ही हम लोगों को पवित्र करने के लिये तू पवित्र संगम बना रही है।

निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती

   तवेत्याहुः सन्तो धरणिधरराजन्यतनये ।

त्वदुन्मेषाज्जातं जगदिदमशेषं प्रलयतः

   परित्रातुं शङ्के परिहृतनिमेषास्तव दृशः ॥ ५५॥

अर्थ:-हे धरणिधर राजन्य हिमाचल की पुत्री ! सन्तों का कहना है कि तेरे निमेष (नेत्र बंद करने) से जगत् का प्रलय और उन्मेष अर्थात् नेत्र खोलने से उद्भव अर्थात् सृष्टि होती है । यह सारा जगत् प्रलय के पश्चात् तेरे उन्मेष से उत्पन्न हुआ है, उसकी रक्षा करने के लिये ही मुझे शंका होती है, कि तेरी आंखों ने झपकना बंद कर रखा है।

तवापर्णे कर्णेजपनयनपैशुन्यचकिता

   निलीयन्ते तोये नियतमनिमेषाः शफरिकाः ।

इयं च श्रीर्बद्धच्छदपुटकवाटं कुवलयम्

   जहाति प्रत्यूषे निशि च विघटय्य प्रविशति ॥ ५६॥

अर्थ:-हे अपर्णे ! निमेष रहित मछलियां तो सदा पानी में छुपी रहती हैं, उनको यह भय रहता है कि कहीं तेरी आंखें ईर्ष्या वश उनकी चुगली तेरे कानों से न कर दें और यह लक्ष्मी सवेरा होने पर कपाटों के सदृश बंद हो जाने वाले दलयुक्त कुमुदिनी को छोड़ जाती है और रात्रि को उन्हें खोल कर प्रवेश करती है।

दृशा द्राघीयस्या दरदलितनीलोत्पलरुचा

   दवीयांसं दीनं स्नपय कृपया मामपि शिवे ।

अनेनायं धन्यो भवति न च ते हानिरियता

   वने वा हर्म्ये वा समकरनिपातो हिमकरः ॥ ५७॥

अर्थ:-हे शिव ! किंचित विकसित् नीलोत्पल की शोभा से युक्त दूर तक पहुंचने वाली अपनी दृष्टि से कृपया दूर स्थित मुझ दीन को भी स्नान करा दे । उससे यह धन्य हो जायगा और ऐसा करने से तेरी कोई हानि नहीं हैं, क्योंकि चन्द्रमा की किरणें वन में और महलों में समान रूप से पड़ती हैं।

कनपटियों का ध्यान

अरालं ते पालीयुगलमगराजन्यतनये

   न केषामाधत्ते कुसुमशरकोदण्डकुतुकम् ।

तिरश्चीनो यत्र श्रवणपथमुल्लङ्घ्य विलस-

   न्नपाङ्गव्यासङ्गो दिशति शरसंधानधिषणाम् ॥ ५८॥

अर्थः-हे पर्वत राज की पुत्रि तेरी दोनों वक्र कनपटियां किसकी बुद्धि में पुष्पवाण धारण करने वाले धनुष के कोणों का कौतुहल न करेंगी। जहां श्रवणपथ का उल्लंघन करके तेरा तिरछा कटाक्ष कनपटि को लांघकर कान तक पहुंचा हुआ बाण सदृश दिखता है, जो दोनों भौंहों के धनुष पर चढ़ा हुआ है, कनपटियां धनुष के कोण हैं। भगवती की त्योरी रूपी धनुष पर चढे हुए कटाक्ष रूपी बाण से समस्त बाधाओं का नाश होता है।

मुख का ध्यान

स्फुरद्गण्डाभोगप्रतिफलितताटङ्कयुगलं

   चतुश्चक्रं मन्ये तव मुखमिदं मन्मथरथम् ।

यमारुह्य द्रुह्यत्यवनिरथमर्केन्दुचरणं

   महावीरो मारः प्रमथपतये सज्जितवते ॥ ५९॥

अर्थः-तेरे चमकते हुए कपोलों पर प्रतिबिंबित दोनों कर्णफूलों युक्त तेरा मुख मुझे चार पहियों वाला कामदेव का रथ जंचता है, जिस पर चढ़कर अथवा जिसका आश्रय लेकर महावीर कामदेव, सूर्य और चन्द्रमा दो पहियों वाले पृथिवी रूपी रथ पर युद्धार्थ सुज्जित शंकर के विरुद्ध अड़ा है।

सरस्वत्याः सूक्तीरमृतलहरीकौशलहरीः

   पिबन्त्याः शर्वाणि श्रवणचुलुकाभ्यामविरलम् ।

चमत्कारश्लाघाचलितशिरसः कुण्डलगणो

   झणत्कारैस्तारैः प्रतिवचनमाचष्ट इव ते ॥ ६०॥     

अर्थः- हे शर्वाणि ! सरस्वती की सुन्दर युक्ति को जो अमृत की लहरी के कौशल को हरती है श्रवण रूपी चुल्लुओं द्वारा अविरल पान करते समय तेरे कुंडलगण चमत्कार पूर्ण उक्तियों की श्लाधा सूचक सिर हिलाते समय, झण २ बजकर मानों ॐकार का उच्चारण सदृश हुँकार द्वारा उत्तर दे रहे हैं।

नाशिका ध्यान

असौ नासावंशस्तुहिनगिरिवंशध्वजपटि

   त्वदीयो नेदीयः फलतु फलमस्माकमुचितम् ।

वहन्नन्तर्मुक्ताः शिशिरतरनिश्वासगलितं

   समृद्ध्या यत्तासां बहिरपि च मुक्तामणिधरः ॥ ६१॥

अर्थः- हे तुहिन गिरि अर्थात् हिमाचल के वंश की ध्वजा की पताके । तेरे नाक का यह बांस हमको शीघ्र उचित फल का देने वाला हो । अथवा उस पर हमारे लिये उचित फल लगें । क्योंकि उसके भीतर तेरे अति शीतल निश्वासों से मोती बन रहे हैं, और उनकी बायें नथने में इतनी समृद्धि है कि एक मुक्तामणि बाहर भी दिखा रहा है। यहां नथ के मोती से अभिप्राय है जो बांये नाक में पहनी जाती है।

ओष्टों का ध्यान

प्रकृत्या रक्तायास्तव सुदति दन्तच्छदरुचेः

   प्रवक्ष्ये सादृश्यं जनयतु फलं विद्रुमलता ।

न बिम्बं तद्बिम्बप्रतिफलनरागादरुणितं

   तुलामध्यारोढुं कथमिव विलज्जेत कलया ॥ ६२॥

अर्थः-हे सुन्दर दातों वाली भगवति ! स्वाभाविक लाल रंग के तेरे होठों की शोभा का सादृश्य करने वाले पदार्थों के नाम कहता हूं। मूंगे की लता में यदि फल आ जाय, (तो उतने सुन्दर कहे जा सके हैं), परन्तु बिंब फल तो नहीं, क्योंकि उनकी अरुणिमा तो तेरे विम्ब की प्रतिबिंबित् अरुणिमा की झलक सदृश है, यदि उनमे किसी प्रकार तेरे होठों की तुलना भी की जाय, तो वे तेरे होठों की सुन्दरता की एक कला के बराबर भी सुन्दर न उतरने से क्या लज्जित नहीं होते ?

मुस्कान का ध्यान

स्मितज्योत्स्नाजालं तव वदनचन्द्रस्य पिबतां

   चकोराणामासीदतिरसतया चञ्चुजडिमा ।

अतस्ते शीतांशोरमृतलहरीमम्लरुचयः

   पिबन्ति स्वच्छन्दं निशि निशि भृशं काञ्जिकधिया ॥ ६३॥

अर्थः- तेरे चन्द्रवदन की मुस्कान रूपी ज्योत्स्ना (चांदनी) की प्रचुरता को पीकर, अति मधुर होने के कारण चकोरों की चंचु अति रसास्वाद से जड हो गई है अर्थात् हट गई है। इसलिये वे खट्टे रस के इच्छुक चन्द्रमा के अमृत की लहरी को कांजी सदृश समझ कर प्रतिरात्रि खूब स्वच्छन्द पीते रहते हैं।

जिह्वा का ध्यान

अविश्रान्तं पत्युर्गुणगणकथाम्रेडनजपा

   जपापुष्पच्छाया तव जननि जिह्वा जयति सा ।

यदग्रासीनायाः स्फटिकदृषदच्छच्छविमयी

   सरस्वत्या मूर्तिः परिणमति माणिक्यवपुषा ॥ ६४॥

अर्थः- हे जननि ! बिना थके पति के गुणानुवाद का बारंबार जप करने वाली, तेरी जवाकुसुम की द्युति सदृश लाल जिह्वा की जय है। जिसके अग्र भाग पर आसीन स्फटिक पत्थर की जैसी शुद्ध कांतिमयी सरस्वती की मूर्ति के शरीर का वर्ण माणिक्य सदृश परिणत हो गया है।

रणे जित्वा दैत्यानपहृतशिरस्त्रैः कवचिभिर्-

   निवृत्तैश्चण्डांशत्रिपुरहरनिर्माल्यविमुखैः ।

विशाखेन्द्रोपेन्द्रैः शशिविशदकर्पूरशकला

   विलीयन्ते मातस्तव वदनताम्बूलकबलाः ॥ ६५॥

अर्थ:--हे मां ! दैत्यों को रण में जीतकर अपहृत शिरस्त्र और कवचों को उतारकर, शिवजी के निर्माल्य से विमुख जो चंड का भाग होता है, स्कन्द, इन्द्र और उपेन्द्र तीनों तेरे मुख के पान के पास को, जिसमें चन्द्रमा जैसे स्वच्छ कपूर के टुकडे पडे हैं, ग्रहण करते हैं।

वाणी की प्रशंसा

विपञ्च्या गायन्ती विविधमपदानं पशुपतेः

   त्वयारब्धे वक्तुं चलितशिरसा साधुवचने ।

तदीयैर्माधुर्यैरपलपिततन्त्रीकलरवां

   निजां वीणां वाणी निचुलयति चोलेन निभृतम् ॥ ६६॥

अर्थः-- पशुपति के विविध अपदानों को वीणा पर गाते समय, तेरे शिर हिलाकर मरस्वती की श्लाघा के वचन कहना आरंभ करने पर, जो अपनी मधुरता से वीणा के कलरव को फीका करते हैं, सरस्वती अपने वीणा को कपडे में लपेट कर रख देती हैं।

चिबुक का ध्यान

कराग्रेण स्पृष्टं तुहिनगिरिणा वत्सलतया

   गिरीशेनोदस्तं मुहुरधरपानाकुलतया ।

करग्राह्यं शम्भोर्मुखमुकुरवृन्तं गिरिसुते

   कथङ्कारं ब्रूमस्तव चिबुकमौपम्यरहितम् ॥ ६७॥

अर्थः-- हे गिरीसुते ! उपमारहित तेरी चिबुक (ठोडी) का वर्णन हम कैसे करें ? जिसे हिमाचल ने अर्थात् तेरे पिता ने वात्सल्य प्रेम से अपनी अंगुलियों से स्पर्श किया है और गिरीश ने अधरपान करने की आकुलता से बार २ उठाया है और जो उस समय ऐसी प्रतीत होती है मानों वह शंभु के हाथ में मुख देखने के लिये उठाए हुए दर्पण का दस्ता हो।

ग्रीवा का ध्यान

भुजाश्लेषान् नित्यं पुरदमयितुः कण्टकवती

   तव ग्रीवा धत्ते मुखकमलनालश्रियमियम् ।

स्वतः श्वेता कालागुरुबहुलजम्बालमलिना

   मृणालीलालित्यम् वहति यदधो हारलतिका ॥ ६८॥

अर्थ- तेरी ग्रीवा जो पुरारि की भुजा के नित्य स्पर्श से खरदरी हो रही है, तेरे मुखकमल को धारण करती हुई कमलनाल ( मृणाली) जैसी सुन्दर लगती है, जो स्वतः तो गौर वर्ण है परन्तु अधिक समय तक अगर के गाढे लेप से कीचड़ में सनी हुई सी मलीन दिखती है और जिसके नीचे हार पहना हुआ है।

गले का ध्यान

गले रेखास्तिस्रो गतिगमकगीतैकनिपुणे

   विवाहव्यानद्धप्रगुणगुणसंख्याप्रतिभुवः ।

विराजन्ते नानाविधमधुररागाकरभुवां

   त्रयाणां ग्रामाणां स्थितिनियमसीमान इव ते ॥ ६९॥

अर्थः-हे गति, गमक और गीत में निपुणे! तेरे गले में पड़ी हुई तीन रेखायें जो विवाह के समय बांधी गई तीन सौभाग्यसूत्रों की लडियों से पड़ गई हैं, ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो वे नानाविध मधुर राग रागिनियों के तीनों ग्रामों पर गाने से उनके स्थिति नियम की सीमा के चिन्ह हों।

चारों भुजाओं का ध्यान

मृणालीमृद्वीनां तव भुजलतानां चतसृणां

   चतुर्भिः सौन्दर्यं सरसिजभवः स्तौति वदनैः ।

नखेभ्यः सन्त्रस्यन् प्रथममथनादन्धकरिपो-

   श्चतुर्णां शीर्षाणां सममभयहस्तार्पणधिया ॥ ७०॥

अर्थ-शिवजी के नखों के द्वारा पहिले पुराकाल में कभी (पांचवा शिर) मथन किया जाने की स्मृति से संत्रस्त होकर, चारों शिरों की एक समान रक्षा के लिये, तेरे अभयदान देने वाले हाथ की शरण में समर्पण बुद्धि रखकर, मृणाली सदृश कोमल तेरी चारों लता जैसी भुजाओं के सौंदर्य की, ब्रह्मा चारों मुखों मे स्तुति किया करते हैं।

हाथों का ध्यान

नखानामुद्द्योतैर्नवनलिनरागं विहसतां

   कराणां ते कान्तिं कथय कथयामः कथमुमे ।

कयाचिद्वा साम्यं भजतु कलया हन्त कमलं

   यदि क्रीडल्लक्ष्मीचरणतललाक्षाऽऽरुण दलम् ॥ ७१॥

अथः- हे उमे ! तेरे हाथों की कांति का कहो कैसे वर्णन करूं, जिनके नखों की द्युति नवविकसित कमल की अरुणिमा का परिहास करती है। यदि किसी अंश में किसी प्रकार कमल के दलों की अरुणिमा से सामान्यता की जाय, तो अरे ! वह तो लक्ष्मी के क्रीडा करते समय चरणों में लगी लाक्षा के कारण है।

दोनों स्तनों का ध्यान

समं देवि स्कन्दद्विपवदनपीतं स्तनयुगं

   तवेदं नः खेदं हरतु सततं प्रस्नुतमुखम् ।

यदालोक्याशङ्काकुलितहृदयो हासजनकः

   स्वकुम्भौ हेरम्बः परिमृशति हस्तेन झडिति ॥ ७२॥

अर्थः- हे देवि ! स्कन्द और गणेशजी के पान किये हुए तेरे दोनों स्तन, जिनके मुख से दूध टपक रहा है, सदा हमारे खेद का हरण करें, पीते समय जिन स्तनों को देखकर गणेशजी शंका से आकुलित हृदय होकर झट अपने ही सिर के कुंभवत् भागों को टटोलकर हास्यजनक चेष्टा करते हैं।

अमू ते वक्षोजावमृतरसमाणिक्यकुतुपौ

   न संदेहस्पन्दो नगपतिपताके मनसि नः ।

पिबन्तौ तौ यस्मादविदितवधूसङ्गरसिकौ

   कुमारावद्यापि द्विरदवदनक्रौञ्चदलनौ ॥ ७३॥

अर्थ:-हे हिमाचल पर्वतराज की पताका सदृश्य पुत्रि ! अमृत रस से भरे माणिक्य के बने कुप्पों अथवा कलशों के सदृश तेरे स्तनों को देखकर हमारे मन में संदेह का स्पन्द भी नहीं होता (जैसा कि स्त्रियों के स्तनों से होना संभव है ) क्योंकि (उनका ऐसा प्रभाव है कि ) उनके दुग्ध पान करने से गणेशजी और स्कन्द दोनों आज भी कुमार ही हैं और उनको स्त्री संगम का रस विदित नहीं है।

वहत्यम्ब स्तम्बेरमदनुजकुम्भप्रकृतिभिः

   समारब्धां मुक्तामणिभिरमलां हारलतिकाम् ।

कुचाभोगो बिम्बाधररुचिभिरन्तः शबलितां

   प्रतापव्यामिश्रां पुरदमयितुः कीर्तिमिव ते ॥ ७४॥

अर्थः-हे मां ! तेरा कुचभाग (छाती का भाग) जो गजासुर के मस्तक रूपी कुंभ से निकली हुई मुक्तामणियों की विमल माला पहने हुए है, उस पर तेरे बिंबसदृश लाल होठों की कान्ति पड़ने से अरुण छाया दिखती है, इसलिये वह हार शिवजी की प्रताप-मिश्रित-कीर्ति का प्रतीकवत् है।

तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः

   पयःपारावारः परिवहति सारस्वतमिव ।

दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत्

   कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता ॥ ७५॥

अर्थः-हे धरणिधर कन्ये ! मैं ऐसा समझता हूं कि तेरे स्तनों के दूध का पारावार तेरे हृदय से बहने वाला सारस्वत ज्ञान सदृश है। जिसे पीकर, दयावती होकर तेरे स्तनपान कराने पर द्रविडशिशु ने प्रौढकवियों के सदृश कमनीय कविता की रचना की थी।

नाभि का ध्यान

हरक्रोधज्वालावलिभिरवलीढेन वपुषा

   गभीरे ते नाभीसरसि कृतसङ्गो मनसिजः ।

समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये धूमलतिका

   जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति ॥ ७६॥

अर्थ:--. हे अचल तनये ! हर के क्रोध की ज्वालाओं से लिपटे हुए शरीर से कामदेव ने गहरे सरोवर सदृश तेरी नाभि में जब गोता लगाया, उनमे लता सदृश उठने वाले धूवे की जो रेखा बनी, उसे जन साधारण, हे जननि ! तेरी नाभी के ऊपर उठने वाली रोमावलि समझते हैं।

यदेतत् कालिन्दीतनुतरतरङ्गाकृति शिवे

   कृशे मध्ये किंचिज्जननि तव यद्भाति सुधियाम् ।

विमर्दादन्योऽन्यं कुचकलशयोरन्तरगतं

   तनूभूतं व्योम प्रविशदिव नाभिं कुहरिणीम् ॥ ७७॥

अर्थः- हे शिवे, हे जननि ! यह जो यमुना की बहुत पतली तरंग के सदृश आकृति वाली (रोमावलि) तेरे कृश कटि भाग में किंचित दिख रही है, वह सदबुद्धि वाले मनुष्यों को ऐसी जान पड़ती है, मानो तेरे कुच कलशों के बीच एक दूसरे की रगड़ से पिस २ कर पतला होने पर आकाश तेरी नाभि के बिल में अथवा नाभि में सर्पिणी की तरह प्रवेश कर रहा है।

स्थिरो गङ्गावर्तः स्तनमुकुलरोमावलिलता-

   कलावालं कुण्डं कुसुमशरतेजोहुतभुजः ।

रतेर्लीलागारं किमपि तव नाभिर्गिरिसुते

   बिलद्वारं सिद्धेर्गिरिशनयनानां विजयते ॥ ७८॥

अर्थ:- हे गिरि सुते ! तेरी नाभि की जय है। उसकी उपमा नीचे दिये हुए किसी भी प्रकार से दी जा सकती है । (१) गंगा का स्थिर भंवर, (२) तेरे स्तन रूपी विकसित पुष्पों को धारण करने वाली रोमावलि रूपी लता के उगने का गमला, (३) काम देव के तेज रूपी अग्नि को धारण करने वाला हवन कुंड ( ४ ) रति का क्रीडा स्थल, अथवा (५) गिरीश शंकर के नयनों को सिद्धि प्राप्त करने के लिये तप करने की गुफा का द्वार ।

निसर्गक्षीणस्य स्तनतटभरेण क्लमजुषो

   नमन्मूर्तेर्नारीतिलक शनकैस्त्रुट्यत इव ।

चिरं ते मध्यस्य त्रुटिततटिनीतीरतरुणा

   समावस्थास्थेम्नो भवतु कुशलं शैलतनये ॥ ७९॥

अर्थः-- हे शैल तनये ! तेरे मध्य भाग की सम अवस्था चिर कुशल रहे, जो स्वाभाविक ही क्षीण है और स्तन रूपी तट के भार से क्लान्त होने के कारण झुकी हुई तेरी मूर्ति के नाभि देश पर पड़ने वाली वलियों पर शनैः २ नदी के तट के वृक्ष के सदृश टूटता सा प्रतीत होता है।

कुचौ सद्यःस्विद्यत्तटघटितकूर्पासभिदुरौ

   कषन्तौ दोर्मूले कनककलशाभौ कलयता ।

तव त्रातुं भङ्गादलमिति वलग्नं तनुभुवा

   त्रिधा नद्धं देवि त्रिवलि लवलीवल्लिभिरिव ॥ ८०॥

अर्थः हे देवि ! कांखों की रगड़ से झट २ पसीना आने के कारण जिनके किनारे पर से अंगिया फट गई है सुवर्ण कलश की आभायुक्त तेरे कुच द्वय के हिलने से टूटने से बचाने के लिये अलम् अर्थात् पर्याप्त हैं इतना मात्र जुडा हुआ तेरा (कटि प्रदेश) मानो काम देव ने लवली वल्लि (एक प्रकार की बेल) से वलियों से तीन बार बांध रखा है।

नितंब का ध्यान

गुरुत्वं विस्तारं क्षितिधरपतिः पार्वति निजा-

   न्नितम्बादाच्छिद्य त्वयि हरणरूपेण निदधे ।

अतस्ते विस्तीर्णो गुरुरयमशेषां वसुमतीं

   नितम्बप्राग्भारः स्थगयति लघुत्वं नयति च ॥ ८१॥

अर्थ:-हे पार्वति ! पर्वतराज हिमालय ने अपने नितंबों से काटकर अपना भारीपन और विस्तार तुझको दहेज में दिये थे, इसीलिये तेरे नितंब इतने विस्तीर्ण और भारी हैं, कि तेरे नितंब के भार से सारी पृथिवी की गति रुक गई है और तेरे विस्तार की अपेक्षा से पृथिवी छोटी दिखने लगी है।

उरुयुग्मका ध्यान

करीन्द्राणां शुण्डान् कनककदलीकाण्डपटली-

   मुभाभ्यामूरुभ्यामुभयमपि निर्जित्य भवती ।

सुवृत्ताभ्यां पत्युः प्रणतिकठिनाभ्यां गिरिसुते

   विधिज्ञ्ये जानुभ्यां विबुधकरिकुम्भद्वयमसि ॥ ८२॥

अर्थ:-हे गिरि सुते । आप अपने दोनों उरुओं मे गजेन्द्रों के मुंडों को और सुवर्ण के बने हुए केले के लंबे स्थंबों को जीतकर, पति को प्रणाम करते २ कठिन हो गये हैं ऐसे दोनों सुन्दरगोल घुटनो से बुद्धिमान हाथी के दोनों (मस्तक के) कुंभों को भी पराजित कर रही हैं।

जंघाओं का ध्यान

पराजेतुं रुद्रं द्विगुणशरगर्भौ गिरिसुते

   निषङ्गौ जङ्घे ते विषमविशिखो बाढमकृत ।

यदग्रे दृश्यन्ते दशशरफलाः पादयुगली-

   नखाग्रच्छद्मानः सुरमकुटशाणैकनिशिताः ॥ ८३॥

अर्थ:-हे गिरि सुते ! तेरी दोनों पिंडलियां रुद्र को जीतने के लिये दुगुने बाणों से भरे कामदेव के दो तरकसों के समान हैं। जिनके अग्रफल पैरों की १० अंगुलियों के नखों के अग्र भाग के रूप में दस दिख रहे हैं, जो देवताओं के मुकुट रुपी सान पर पहनाए गये है।

श्रुतीनां मूर्धानो दधति तव यौ शेखरतया

   ममाप्येतौ मातः शिरसि दयया धेहि चरणौ ।

ययोः पाद्यं पाथः पशुपतिजटाजूटतटिनी

   ययोर्लाक्षालक्ष्मीररुणहरिचूडामणिरुचिः ॥ ८४॥

अर्थ-हे मां! तेरे चरण जो श्रुतियों की मुर्धा पर शिखरवत् रखे हैं, दया करके उनको मेरे शिर भी रख दे, जिनका चरणोदक शंकर की जटाजूट से निकली हुई गंगा है और जिनके तलवों में लगी लाक्षा की कान्ति हरि के चूडा में (केशों में) धारण की हुई अरुण मणि की कान्ति के सदृश है।

नमोवाकं ब्रूमो नयनरमणीयाय पदयो-

   स्तवास्मै द्वन्द्वाय स्फुटरुचिरसालक्तकवते ।

असूयत्यत्यन्तं यदभिहननाय स्पृहयते

   पशूनामीशानः प्रमदवनकङ्केलितरवे ॥ ८५॥

अर्थ- हम तेरे इन दोनों चरणों को प्रणाम करते हैं, जो नयनों को रमणीय हैं और जिन पर लाक्षा की तीव्र कान्ति चमक रही है। जिनके अभिहनन की स्पृहा से पशुपति तेरे प्रमदावन के अशोक वृक्ष से अनन्य असूया रखते हैं।

मृषा कृत्वा गोत्रस्खलनमथ वैलक्ष्यनमितं

   ललाटे भर्तारं चरणकमले ताडयति ते ।

चिरादन्तःशल्यं दहनकृतमुन्मूलितवता

   तुलाकोटिक्वाणैः किलिकिलितमीशानरिपुणा ॥ ८६॥

अर्थ-तेरे गोत्र का अपमान करने से लज्जित नीचे नेत्र किये हुए भर्तार के ललाट पर तेरे चरण कमलों का ताड़न होने पर इशानरिपु (कामदेव ) ने जिसको चिरकाल से जलाया जाने के कारण अन्तर्दाह था उसे निकालते हुए अपना बदला देखकर, तरे नूपुरों के बजने के कणत्कार की किलकिलाहट रूपी हर्ष ध्वनि की।

हिमानीहन्तव्यं हिमगिरिनिवासैकचतुरौ

   निशायां निद्राणं निशि चरमभागे च विशदौ ।

वरं लक्ष्मीपात्रं श्रियमतिसृजन्तौ समयिनां

   सरोजं त्वत्पादौ जननि जयतश्चित्रमिह किम् ॥ ८७॥

अर्थ-हे जननि ! तेरे दोनों चरण कमल पर जय प्राप्त कर रहे हैं, इसमें आश्चर्य क्या है? क्योंकि कमल बरफ से मर जाता, तेरे चरण हिमगिरि पर निवास करने में कुशल हैं। कमल रात को सो जाता है, तेरे चरण दिन रात विशद रहते हैं; वह दिन में लक्ष्मी का पात्र रहता है और तेरे चरण समयाचार के उपासकों को खूब लक्ष्मी देते हैं।

पदं ते कीर्तीनां प्रपदमपदं देवि विपदां

   कथं नीतं सद्भिः कठिनकमठीकर्परतुलाम् ।

कथं वा बाहुभ्यामुपयमनकाले पुरभिदा

   यदादाय न्यस्तं दृषदि दयमानेन मनसा ॥ ८८॥

अर्थ-हे देवि ! तेरा पद कीर्तियों का प्रपद (स्थान) है और विपदाओं का अपद है। न जाने सत्पुरुषों ने उसकी तुलना कछुवे की कठिन खोपरी से कैसे की है, वह इतना कोमल है कि विवाह के समय पुरारि ने दयार्द्र मन से किसी प्रकार ( अर्थात् बडी हिचकिचाहट और बडे संकोच के साथ) दोनों हाथों से उठाकर उसे पत्थर पर रखा था।

विवाह में फेरों या भांवरों के समय वर वधू के एक चरण को अपने हाथों से उठाकर पत्थर पर रखकर कहता है, कि हे देवि ! तू धर्म पालनार्थ अपना चित्त इतना दृढ रखना जैसा यह पत्थर है।

नखैर्नाकस्त्रीणां करकमलसंकोचशशिभि-

   स्तरूणां दिव्यानां हसत इव ते चण्डि चरणौ ।

फलानि स्वःस्थेभ्यः किसलयकराग्रेण ददतां

   दरिद्रेभ्यो भद्रां श्रियमनिशमह्नाय ददतौ ॥ ८९॥

अर्थ- हे चण्डि ! तेरे दोना चरण अपने नखों ने कल्पवृक्षों का परिहास सा कर रहे हैं, जो नख देवांगनाओं के कर रूपी कमलों को (हाथ जोड़ते समय ) बंद करने के लिये संख्या में १० चन्द्रमा सदृश हैं। कल्पवृक्ष तो स्वर्ग में रहने वाले स्वावलंबी देवताओं को अपने पल्लव रूपी कराग्रों से फल देते हैं, परन्तु तेरे चरण दरिद्रियों को निरन्तर, तुरन्त और बहुत धन देते रहते हैं।

ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिशमाशानुसदृशी-

   ममन्दं सौन्दर्यप्रकरमकरन्दम् विकिरति ।

तवास्मिन् मन्दारस्तबकसुभगे यातु चरणे

   निमज्जन्मज्जीवः करणचरणः षट्चरणताम् ॥ ९०॥

अर्थः-इस तेरे चरण में जो मंदार वक्ष के पुष्पों के स्तबक जैसा सुन्दर है, मेरा ५ ज्ञानेन्द्रिय और १ अन्तः करण रुपी ६ चरण वाला यह जीव छ; चरणों वाला मधुकर बनकर डूबा रहे। तेरा चरण जो दीनों को उनकी आशा के अनुसार निरन्तर लक्ष्मी देता रहता है और सौन्दर्य राशि के मकरन्द को खूब फैलाता रहता है और मन्दार के पुष्पों के स्तबक सदृश सुभग है।

चरणों की गति का ध्यान

पदन्यासक्रीडापरिचयमिवारब्धुमनसः

   स्खलन्तस्ते खेलं भवनकलहंसा न जहति ।

अतस्तेषां शिक्षां सुभगमणिमञ्जीररणित-

   च्छलादाचक्षाणं चरणकमलं चारुचरिते ॥ ९१॥

अर्थ:-हे चारु चरिते ! ऐसा प्रतीत होता है कि तेरे भवन के राजहंस चलते समय तेरे पदन्यास क्रीडा (चाल) का परिचय प्राप्त करने को तेरे खेल का त्याग नहीं करते । ( अर्थात् तेरे पीछे २ तेरी तरह कदम उठाकर चलते हैं, और वे इस खेल का त्याग नहीं करते) और तेरे चलते समय चरण कमलों में लगी मणियों युक्त नूपुरों की झङ्कार का शब्द मानो उनको चलने की शिक्षा का उपदेश कर रहा है।

पलंग का ध्यान

गतास्ते मञ्चत्वं द्रुहिणहरिरुद्रेश्वरभृतः

   शिवः स्वच्छच्छायाघटितकपटप्रच्छदपटः ।

त्वदीयानां भासां प्रतिफलनरागारुणतया

   शरीरी श‍ृङ्गारो रस इव दृशां दोग्धि कुतुकम् ॥ ९२॥

अर्थः-ब्रह्मा हरि रुद्र और ईश्वर द्वारा रक्षा किये जाने वाले ( क्रमश: मूलाधार, स्वाधिष्टान, मणिपूर और अनाहत् चक्र ) तेरे मंच के चार पाये हैं, अर्थात् चारों तेरा मंच बनाते हैं उस पर बिछी हुई स्वच्छ छाया की बनी हुई कपट रुपी माया की चादर शिव है, जो तेरी प्रभा के झलकने के कारण अरुण दिख पड़ने से एसी प्रतीत होती है कि मानो शृङ्गार रस शरीरी बनकर दृष्टि में कुतूहल उत्पन्न कर रहा है।

अराला केशेषु प्रकृतिसरला मन्दहसिते

   शिरीषाभा चित्ते दृषदुपलशोभा कुचतटे ।

भृशं तन्वी मध्ये पृथुरुरसिजारोहविषये

  जगत्त्रातुं शम्भोर्जयति करुणा काचिदरुणा ॥ ९३॥

अर्थः-शंभु की करुणा ( अर्थात् दया ) की, जगत की रक्षा करने के लिये मानों जो कदाचित अरुणा है सर्वत्र जय हो रही है। जिसके अर्थात् अरुणा भगवती के केश स्वाभाविक सरलता लिये हुए घूंघराले अर्थात् कुटिल हैं, मन्द २ हंसी मुख पर है, गात्र अथवा चित्त सिरस की आभा लिये हुए है, कुच पत्थर सदृश कठोर है ( अथवा स्फटिक की शोभा युक्त हैं) मध्य में कटिभाग अति पतला है और नितंब भारी हैं ( अथवा कुचों का उठाव भारी है) पाटान्तर को ग्रहण करने में शरीर के स्थान पर चित्त और नितंब के स्थान पर कुचों का दुबारा वर्णन हो जाता है। चित्त को स्फटिक में उपमित तो किया जा सकता है, परन्तु देह' की शोभा का वर्णन किया जाना अधिक उपयुक्त दिखता है और कुचों को दोबारा न बताकर नितंबों का भी वर्णन आना अत्यावश्यक है, इसलिए हमने पाठान्तरों को पृथक दिखा दिया है।

भगवती के शृङ्गारर्थ दर्पण का ध्यान

समानीतः पद्भ्यां मणिमुकुरतामम्बरमणि-

   र्भयादास्यादन्तःस्तिमितकिरणश्रेणिमसृणः ।

दधाति त्वद्वक्त्रंप्रतिफलनमश्रान्तविकचं

   निरातङ्कं चन्द्रान्निजहृदयपङ्केरुहमिव ॥ ९४ ॥

अर्थः-अंबर मणि अर्थात् सूर्य तेरे चरणों के समीप होने पर मुकुर (दर्पण) का काम दे रहा है । तेरे मुख के भय से उसने अपनी किरणों के समूह को अन्दर छुपा लिया है, इसलिये वह स्वच्छ है और तेरे मुख का प्रतिबिंब उसके हृदय कमल के सदृश सदा विकसित है (क्योंकि तेरा मुख कमल सदा विकसित रहता है और वह उसका प्रतिबिंब है) और उसको चन्द्रमा का भय नहीं है। (कमल सूर्य को देख कर खिलता है और रात्रि में मुरझा जाता है मानों उसे चन्द्रमा से भय लगता है)।

शृङ्गार के डिब्बे का ध्यान

कलङ्कः कस्तूरी रजनिकरबिम्बं जलमयं

   कलाभिः कर्पूरैर्मरकतकरण्डं निबिडितम् ।

अतस्त्वद्भोगेन प्रतिदिनमिदं रिक्तकुहरं

   विधिर्भूयो भूयो निबिडयति नूनं तव कृते ॥ ९५॥

अर्थ:----चन्द्र बिंब एक मरकत मणि के बने हुए डिब्बे के सदृश है, उसका कलङ्क (काला धब्बा ) कस्तूरी का काला रंग है और चमकती हुई कलाये कपूर सदृश हैं, दोनों को जल में पीसकर तेरे आभोग के लिये डिब्बे में भरकर रखा हुआ है, जो प्रतिरात्रि खर्च होता रहता है और ब्रह्मा उसे फिर दिन में बार २ भरता रहता है।

भगवती की सपर्या की असुलभता

पुरारातेरन्तःपुरमसि ततस्त्वच्चरणयोः

   सपर्यामर्यादा तरलकरणानामसुलभा ।

तथा ह्येते नीताः शतमखमुखाः सिद्धिमतुलां

   तव द्वारोपान्तस्थितिभिरणिमाद्याभिरमराः ॥ ९६॥

अर्थः- तू त्रिपुरारि के अन्त:पुर की रानी है इसलिये तेरे चरणों की सपर्या पूजा की मर्यादा चंचल इंद्रियों वाले मनुष्यों को सुलभ नहीं और इन्द्र की प्रमुखता में रहने वाले ये देवगण तेरे द्वार के निकट खडी रहने वाली अणिमादि की अतुल सिद्धियों तक ही पहुंच पाते हैं ।

कलत्रं वैधात्रं कतिकति भजन्ते न कवयः

   श्रियो देव्याः को वा न भवति पतिः कैरपि धनैः ।

महादेवं हित्वा तव सति सतीनामचरमे

   कुचाभ्यामासङ्गः कुरवकतरोरप्यसुलभः ॥ ९७॥

अर्थः- विधाता की स्त्री सरस्वती को क्या कितने ही कविजन नही भजते ? और कौन थोडा सा भी धनवान होकर लक्ष्मी का पति नहीं होता ? (धनाड्य को धनपति या लक्ष्मि पति कहने लगते हैं)। परन्तु हे सति सतियों में श्रेष्ट ! महादेव को छोड़कर तेरे कुचों का संग तो कुरवक तरू को भी दुर्लभ है।

गिरामाहुर्देवीं द्रुहिणगृहिणीमागमविदो

   हरेः पत्नीं पद्मां हरसहचरीमद्रितनयाम् ।

तुरीया कापि त्वं दुरधिगमनिःसीममहिमा

   महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषि ॥ ९८॥

अर्थ:-हे पर ब्रह्म की महाराज्ञि ! शास्त्रों के जानने वाले ब्रह्मा की पत्नि को सरस्वती वाक् देवी कहते हैं, विष्णु की पत्नि को पद्मा ( कमला ) कहते हैं और हर की सहचरी को पार्वती कहते हैं। परन्तु तू महामाया कोई चौथी ही है, तेरी महिमा असीम है तूने सारे विश्व को भ्रम में डाल रखा है, तुझको जानना कठिन है।

सरस्वती का बीज मंत्र ऐं है, लक्ष्मी का श्रीं, पार्वती का क्लीं और महामाया का ह्रीं। वाग्भव कूट का तीसरा अक्षर शक्ति का वाचक है और वर्णमाला का चौथा अक्षर होने से तुरीय पद समाधि का द्योतक है और वह सब बीजाक्षरों के अन्त में रहता है। अनुस्वार भी शक्ति के साथ सदा रहता है, वह शिवात्मक है। इसे काम कला कहते हैं।

घटा अवस्था

समुद्भूतस्थूलस्तनभरमुरश्चारु हसितं

   कटाक्षे कन्दर्पः कतिचन कदम्बद्युति वपुः ।

हरस्य त्वद्भ्रान्तिं मनसि जनयन्ति स्म विमलाः

   भवत्या ये भक्ताः परिणतिरमीषामियमुमे ॥ ९९ ॥

अर्थ- हे उमे ! ऊपर उभरे हुए स्थूल स्तनों के भार से युक्त उरु:स्थल, सुन्दर हंसी और कटाक्ष में कंदर्प और कदंब वृक्ष की कुछ शोभा वाला शरीर, सब हर के मन में तरी याद दिलाकर भ्रम उत्पन्न करते हैं, क्योंकि तेरे विमल भक्तों में तेरी तद्रूपता की परिणति के कारण वे तेरे जैसे दिखने लगते हैं।

प्रार्थना

कदा काले मातः कथय कलितालक्तकरसं

   पिबेयं विद्यार्थी तव चरणनिर्णेजनजलम् ।

प्रकृत्या मूकानामपि च कविताकारणतया

   कदा धत्ते वाणीमुखकमलताम्बूलरसताम् ॥ १०० ॥

अर्थ-हे मां ! बताओ, वह समय कब आयेगा, जब मैं एक विद्यार्थी, तेरे चरणों का धुला हुआ जल ( चरणोदक ), जो लाक्षारस ( महावर ) के रंग से लाल हो रहा है, पान करूंगा, जिसमें सरस्वती के मुखकमल से निकले हुए पान की पीक के सदृश, जन्म के गूंगे को भी कविता शक्ति प्रदान करने की क्षमता है।

सरस्वत्या लक्ष्म्या विधिहरिसपत्नो विहरते

   रतेः पातिव्रत्यं शिथिलयति रम्येण वपुषा ।

चिरं जीवन्नेव क्षपितपशुपाशव्यतिकरः

   परानन्दाभिख्यम् रसयति रसं त्वद्भजनवान् ॥ १०१ ॥

अर्थ-तेरा भजन करने वाला मनुष्य सरस्वती और लक्ष्मी दोनों से युक्त होकर ब्रह्मा और हरि के सापत्नडाह का पात्र बनकर विहार करता है। और सुन्दर रम्य शरीर से रति ( कामदेव की स्त्री ) के भी पातिव्रत धर्म को शिथिल करता है, अर्थात् वह विद्वान्, धनाड्य और सुन्दर रूपलावण्य युक्त शरीर वाला हो जाता है। और पशु पाश के दु:खों को नष्ट करके चिरकाल तक परमानन्द के रस का रसास्वाद लेता हुआ जीवित रहता है।

समर्पण

निधे नित्यस्मेरे निरवधिगुणे नीतिनिपुणे

   निराघातज्ञाने नियमपरचित्तैकनिलये ।

नियत्या निर्मुक्ते निखिलनिगमान्तस्तुतिपदे

   निरातङ्के नित्ये निगमय ममापि स्तुतिमिमाम् ॥ १०२ ॥

अर्थ:-हे सदा हंसमुखि असीमगुणनिधे, नीतिनिपुणे, निरतिशयज्ञानवति, नियम परायण भक्तों के चित्त में घर करने वाली, नियति से निर्मुक्त अर्थात् नियति से अतीते, सब शास्त्र उपनिषद् जिसके पद की स्तुति करते हैं ऐसी अभये, सनातनी नित्ये ! मेरी भी इस स्तुति को स्वीकार करके अपने निगमों में स्थान दो।

प्रदीपज्वालाभिर्दिवसकरनीराजनविधिः

   सुधासूतेश्चन्द्रोपलजललवैरर्घ्यरचना ।

स्वकीयैरम्भोभिः सलिलनिधिसौहित्यकरणं

   त्वदीयाभिर्वाग्भिस्तव जननि वाचां स्तुतिरियम् ॥ १०३ ॥

अर्थः-हे जननि ! तेरी प्रदान की हुई वाक्शक्ति से की गई इस स्तुति के शब्द इस प्रकार हैं जैसे दीपक की ज्वालाओं से सूर्य की आरती उतारना, अथवा चन्द्रकान्त मणि से टपकते हुए जलकणों से चन्द्रमा को अर्ध्य प्रदान करना अथवा समुद्र का सत्कार उस ही के जल से करना ।

॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ सौन्दर्यलहरी सम्पूर्णा ॥

                 ॥ ॐ तत्सत् ॥

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