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- षोडशी हृदय स्तोत्र
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- श्रीविद्याकवच
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- गायत्री पञ्जर स्तोत्र
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- भवनभास्कर
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- भवनभास्कर अध्याय २१
- नारदसंहिता अध्याय ४६
- भवनभास्कर अध्याय २०
- नारदसंहिता अध्याय ४५
- भवनभास्कर अध्याय १९
- नारदसंहिता अध्याय ४४
- भवनभास्कर अध्याय १८
- नारदसंहिता अध्याय ४३
- भवनभास्कर अध्याय १७
- नारदसंहिता अध्याय ४२
- भवनभास्कर अध्याय १६
- नारदसंहिता अध्याय ४१
- भवनभास्कर अध्याय १५
- नारदसंहिता अध्याय ४०
- भवनभास्कर अध्याय १४
- नारदसंहिता अध्याय ३९
- भवनभास्कर अध्याय १३
- नारदसंहिता अध्याय ३८
- भवनभास्कर अध्याय १२
- नारदसंहिता अध्याय ३७
- भवनभास्कर अध्याय ११
- नारदसंहिता अध्याय ३६
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- वार्षिक नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ९
- दैनिक व मास नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ८
- नवचण्डीविधान
- भवनभास्कर अध्याय ७
- देवी के नवनाम और लक्षण
- भवनभास्कर अध्याय ६
- सप्तशती प्रति श्लोक पाठ फल प्रयोग
- भवनभास्कर अध्याय ५
- दत्तात्रेयतन्त्र
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २२
- भवनभास्कर अध्याय ४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१
- भवनभास्कर अध्याय ३
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- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २०
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- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १९
- नारदसंहिता अध्याय ३३
- दुर्गा सप्तशती प्रयोग
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- बगलामुखी सहस्त्रनामस्तोत्र
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- बगलामुखी शतनाम स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १०
- बगलामुखी कवच
- नारदसंहिता अध्याय ३१
- विद्वेषण प्रयोग
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १८
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान
श्रीदुर्गा तंत्र के इस भाग १४ में नवचण्डीविधान अंतर्गत् शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान का वर्णन है।
शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान
अथ शतचण्डीसहस्रचण्ड्यादिविधानम् :
तत्रादौ पूजासामग्री-
अशीतिगुञ्जाप्रमाणा कस्तूरी १,
तावन्मानं केसरम् २, तावज्जातीफलम् ३,
तावान्कर्पूर: ४, एतच्चतुष्टयं पलमात्रं
चन्दनेन घर्षयेत् ।
तेन पलद्वयमनुलेपनं भवति ।
पलं तु विंशत्युत्तरत्रिंशद्गुञ्जामितम्
५,
वस्त्रस्य तु मानामुक्तेः स्त्रीजनपरिधानयोग्यं ग्राह्मम् ६,
गद्याणत्रयहेमनिर्मितालङ्काराः स्त्रीजनोचिताः गद्याणमानं तु
लौकिकतौलस्यार्धम् ७, पुष्पाणि २५०००-८, पलद्वयमतिः गुग्गुलुः ९, दीपा विंशतिर्घृतपूरिताः १०,
कुम्भप्रमाणं घृत कुम्भस्तु विंशतिद्रोण:, द्रोणस्तु
खार्या: खलु षोडशांशः ११, कुडवद्वयमात्रं हविष्यान्नभोजनम्
१२, नैवेद्य पलचतुष्कं कुडवः १३, शतद्बयं
नागवल्लीदलम् १४, तदनुरूपं पूगीफलादिक कूर्परादि च
ग्राह्मम् १५, इति संगृद्य पूजामारभेत् ।
प्रारम्भ में पूजा-सामग्री का
संग्रह करना चाहिये :
१, कस्तूरी ८० गुञ्जाभर; २, केसर
८० गुञ्जाभर; ३, जायफल ८० गुञ्जाभर; ४. कपूर ८० गुञ्जाभर;
५. चन्दन एक पल ।
चन्दन से उपरोक्त चारों वस्तुओं को
घिस कर एक रस बनावें । इस प्रकार यह अनुलेपन दो पल हुआ । एक पल ३२० गुंजा के बराबर
होता है । वस्त्र का मान नहीं कहा गया है इस कारण स्त्रियों के परिधानयोग्य वस्त्र
लेना चाहिये । तीन गद्याण सोने के बने स्त्रियों के आभूषण (एक गद्याण आधे तोले के
बराबर होता है), फूल २५०००८, गुग्गुल २ पल, घी से भरे बीस दीपक तथा एक कुम्भ घी
(कुम्भ बीस द्रोण के बराबर होता है और एक द्रोण एक खारी का सोलहवाँ भाग होता है),
२ कुडव हविष्यान्न भोजन (चार पल का एक कुडव होता है ), नैवेद्य १ कुडव, दो सौ पान । उनके ही अनुसार सुपारी
तथा कपूर आदि ग्रहण करना चाहिये । इन सब द्रैव्यों का संग्रह करके पूजा प्रारम्भ
करनी चाहिये ।
तत्र अनावृष्टयाद्यखिलदुरितशान्त्यर्थ
राज्यावाप्त्यादिसकलकामनासिद्धयर्थ यजमानः शिवालयसमीपे सुसमे भूप्रदेशे भूमिं
संशोध्य षोडशस्तम्भसहित मण्डपं सवितानं चतु्द्धारं तोरणवेष्टितं कृत्वा दिव्यवस्त्र
पट्टदुकूलादिभिर्देवतागारं श्रीगिरिं कृत्वा कदलीस्तम्भविराजितं सुमनोहरं
पुष्पमालोपशोभितं शतचण्डयां षोडशहस्तं सहस्त्रचण्ड्यां विंशतिहस्तं मण्डपं
प्रसाध्य सर्वदेवोपयोगिपद्धतिमार्गेण स्तम्भंतोरणादिप्रतिष्ठापूजनं कृत्वा तदाग्ने
यस्तं भे वडवागणेशकूर्मशेषवसुधानां पूजां कृत्वा ताम्रपात्रेर्मादाय जानुभ्यामवनी
गत्वा “आगच्छ सर्वकल्याणि वसुधे
लोकधारिणि ।
उद्धृतासि वराहेण सशैलवनकामना ।
मण्डपं कारयाम्यद्य त्वदूर्ध्व
शुभलक्षणम् ।
गृहाणार्ध्य मया दत्त प्रसन्ना
शुभदा भवेति”' भूम्यै अर्ध्य॑
दत्त्वा मंडपं विधाय आरंभदिने कर्ता सपत्नीकस्तिलतैलेन कृताभ्यङ्गो भूषिताङ्ग:
सम्पूर्णकलशहस्तो “भद्रंकर्णेभिरिति” मण्डपं
प्रदक्षिणीकृत्य पश्चिमद्वारेण प्रविश्योपविश्य देशकालौ स्पृत्वा “ममामुककामनासिद्धयर्थ सनवग्रहमखां शतचण्डीं सहस्रचण्डीं वा ब्राह्मणद्धारा
कारयिष्ये ।
तदङ्गतया विहितं गणेशपूजनं
पुण्याहवाचनं मातृकापूजन नांदीश्रार्द्ध॑ चाह करिष्ये ।”
इति सङ्कल्पय तानि यथायत्कृत्वा
अत्र शतचण्डीजपे ऋत्विजो नव* ९ आचार्यों दशमः
सहस्रचण्ड्यां शतमृत्विज: अष्टौ लोकपाला: सर्वेषां मधुपर्कादिना पूजां कृत्वा
पद्धतिमार्गेण वृत्वा वस्त्रद्वयमासन द्वयमेकैकमर्घ्य पात्रजल
पात्रांगुलीयककर्णभूषणादि दद्यात् ।
आचार्याय तु द्विगुणम् ।
ततः आचार्य: भूतापसारणमन्त्रं पठित्वा
सर्षपान् विकीर्य पञ्चगव्यै: कुशै: आपो हिष्ठति त्र्यृचेन मण्डपं प्रोक्ष्य स्वस्त्ययनमिति
मन्त्रद्वयं पठेत् ।
ततो मध्यवेद्यां पीठे सुखासने
उपविश्य ततः पूजावेद्यां
आग्नेय्यां विष्णवे नमः ॥ १ ॥
पूर्वस्यामिन्द्राय नमः ।२॥
ऐशान्याम् ब्रह्मणे नमः ॥३॥
पश्चिमे गणेशाय नमः ।। ४ ॥
वेदीमध्ये
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीभ्यो नमः ।
इति सम्पूज्य आचार्य ईशाने
ग्रहवेद्यां ग्राहन् संस्थाप्य सम्पूज्य पद्धतिमार्गेण आसनादिभूतशुद्ध प्राणप्रतिष्ठांत
र्मातृकाबहिर्मातृकादि मूलविद्यान्यासादिकं कृत्वा कलशस्थापनं कुर्यात् ।
वेदीमध्ये सर्वतोभद्र-मण्डलं कृत्वा
पीठपूजां विधाय पीठदेवताः संस्थाप्य तन्मध्ये हैमरजतताम्रमृन्मयान्यतमं वा कलश
पद्धतिमार्गेण संस्थाप्य रक्तवस्त्रे नवार्णयंत्रं लिखित्वा कलशोपरि स्थापयेत् ।
( *
देवीरहस्यतन्त्रे :
नवभिर्ब्राह्मणैः सार्ध
कृत्वाचार्यो द्विजोत्तमः ।
ददाति नव विप्रेभ्य आचार्यश्चचण्डिकामयः
।
क्रोडतन्त्रे :
आयुग्मब्राह्मणैः कार्या शतावृत्ति:
सुसिद्धये ।
देवीमाहात्म्यपठनं युग्मविप्रकृतं
तु यत् ।
निष्फलं च भवेत्सर्व भूतिनाशः
प्रजायते ।
मन्त्रमहोदधौ :
स्नात्वा नित्यकृतिं कृत्वा वृणुयाद्दशवाडवान्
।
तेनाचार्यसमेतेन क्रम एष मनीषिणाम्
।
रुद्रयामले :
आचार्य समं विप्रान्वरयेद्दश
सुव्रतान्- इति बोध्यम् ।)
अनावृष्टि आदि समस्त दु:खों की
शान्ति के लिए, तथा राज्य प्राप्ति आदि समस्त
कामनाओं की सिद्धि के लिए यजमान शिवालय के समीप समतल भूप्रदेश में भूमि का संशोधन
करके सोलह स्तम्भों, वितान, चार द्वार, तोरण वेष्टित मण्डल का निर्माण करे दिव्यवस्त्र, पट्ट,
दुकूल आदि से देवता के घर को श्रीगिरि करके केलों के स्तम्भों से
सुशोभित मनोहर पुष्प और मालाओं से सुशोभित शतचण्डी में सोलह हाथ तथा सहस्रचण्डी
में तीन हाथ का मण्डप बनाकर सर्वदेवोपयोगी पद्धति से स्तम्भतोरणादि की प्रतिष्ठा
पूजन करके उसके आग्नेय स्तम्भ में बडवागणेश, कूर्म, शेष तथा वसुधा की पूजा करके ताम्रपात्र में अर्घ्य लेकर घुटनों के बल पृथिवी
पर बैठ कर : “आगच्छ सर्वकल्याणि वसुधे लोक धारिणि । उद्धृतासि
वराहेण सशैलवनकानना । मण्डपं कारयाम्यद्य त्वदूर्ध्व शुभलक्षणम् । गृहाणार्घ्य मया
दत्तं प्रसन्ना शुभदा भव ।” इससे भूमि के लिए अर्घ्य
देकर मण्डप बनाकर आरम्भ के दिन पूजनकर्ता यजमान सपत्नीक तील के तेल को शरीर पर
मर्दन करके नहाकर आभूषण धारण करके भरे हुए कलश को हाथ में लेकर “भद्रंकर्णेभि:” इस मन्त्र से मण्डप की
प्रदक्षिणा करके पश्चिम द्वार से प्रवेश करके देशकालौ संकीर्त्य “ममामुककामनासिध्यर्य सनवग्रह्मखां शतचण्डीं सहस्नचण्डीं वा ब्राह्मण
द्वारा करिष्ये । तदङ्गतया बिहितं गणेश-पूजनं पुण्याह-वाचनं मातृका-पूजनं
नान्दी-श्राद्धं चाहं करिष्ये ।” इससे संकल्प करक़े उनको
यथावत पूरा करे । यहाँ शतचण्डी जप में ऋत्विज नव तथा आचार्य दसवाँ होता है । सहस्रचण्डी
में सौ ऋत्विजों तथा आठ लोकपालों आदि सबकी मधुपर्क आदि से पूजा करके पद्धतिमार्ग
से वरण करके दो वस्त्र, दो आसन, एक-एक
अर्ध्यपात्र, जलपात्र, अंगूठी, कान के आभूषण (कुण्डल) आदि देवे । आचार्य के लिए इससे दूना देवे । इसके
बाद आचार्य 'भूतापसारणे' मन्त्र
पढ़कर सरसों चारों ओर छिटक कर पञ्चगव्य और कुशाओं से “आपोहिष्ठेति'
आदि तीन मन्त्रों से, मण्डप का प्रोक्षण करके “स्वस्त्वयनमिति” दो मन्त्रों का पाठ करे । इसके
बाद मध्य वेदी में पीठ पर सुखमय आसन पर बैठ कर पूजावेदी पर आग्नेयी दिशा में “विष्णवे नमः ॥ १ ॥ पूर्वस्तामिन्द्राय
नमः ॥ २ ॥ ऐशान्याम् ब्रह्मणे नमः ॥ ३ ॥ पश्चिमे गणेशाय नमः ॥ ४ ॥ वेदी के बीच में महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतिभ्यो नमः ॥ इसके
पूजा करके आचार्य ईशानी दिशा में ग्रहवेदी पर ग्रहों की स्थापना तथा पूजा करके
पद्धति मार्ग से आसनादि की भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा,
मातृका, बहिर्मातृका आदि मूलविद्यान्यासादिक
करके कलश- स्थापन करे । वेदी के बीच में सर्वतोभद्रमण्डल बनाकर पीठपूजा करके
पीठ-देवताओं की स्थापना करके उनके बीच सोने-चौंदी-ताँबे या मिट्टी में से किसी एक
के कलश को पद्धति मार्ग से स्थापित करके रक्तवस्त्र पर नर्वाण मन्त्र लिखकर कलश पर
स्थापित करे ।
ततः शतचण्ड्यां ( मूर्ति देव्या:
प्रकुर्वीत सुवर्णस्य पलेन वै । तदर्धेन तदर्धेन तदर्धेन महामते )
पलेन सहस्त्रचण्ड्यां पञ्चपलेन
तदर्धेन तदर्धार्धेन वा महिषमर्द्दिनीप्रतिमां कृत्वा
अग्नयुत्तारणप्रतिष्ठापूर्वकमासनमन्त्रेणासनं
दत्त्वा तस्मिन्कलशे यन्त्रमध्ये स्थापयित्वा पद्धतिमार्गेण
पाद्यादिपुष्पान्तैरुपचारै:
सम्पूज्य आवरणपूजां च कृत्वा धूपादिनमस्कारान्तं सम्पूज्य
गणेशबटुकक्षेत्रपालयोगिनीभ्यो बलिं
दत्वा भूतबलिं दद्यात् । तद्यथा ।
इसके बाद शतचण्डी में एक पल से,
सहस्रचण्डी में पाँच पल या ढाई पल या सवा पल महिषमर्दिनी की प्रतिमा
बनवाकर अग्न्युत्तारण, प्राणप्रतिष्ठापूर्वक आसन-मन्त्र से
आसन देकर उस कलश पर यन्त्र को रखकर पद्धतिमार्ग से पाद्य से लेकर पुष्पांजलि दान
पर्यन्त उपचारों से पूजा करके आवरण-पूजा करे । तदनन्तर धूपदान से लेकर नमस्कार
पर्यन्त पूजा करके गणेश, बटुक, क्षेत्रपाल
तथा योगिनियों को बलि देकर इस प्रकार भूतबलि देवे ।
“ॐ सर्वपीठोपपीठानि
द्वारोपस्तरणेपि च ।
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञसंदोहाः सर्वे
दिग्भागसंस्थिताः ॥१ ॥
योगिनीयोग-वीरेन्द्रा: सर्वे
यन्त्रसमागता: ।
नगरे त्वथ वा ग्रामे अटव्यां
सरितस्तटे ॥ २ ॥
वापी-कूपेषु वृक्षेषु श्मशाने च
चतुष्पथे
नानारूप धरा ये च वटुरूपधराश्च ये ॥३
॥
सर्वेतत्रैव सन्तुष्टा: बलिं
गृहणन्तु मे सदा ।
शरणागतोस्म्यहं तेषां ते सर्वे मे
सुखप्रदाः ॥ ४ ॥
बलिदानेन सन्तुष्टा: प्रयच्छन्तु
ममेप्सितम् ।
सर्वकार्याणि कुर्वन्तु दोषांश्च
ध्नन्तु मे सदा ॥५॥”
इनसे सबको बलि देवे ।
ततः कुमार्य: प्रत्यहं शतं नव वा
पूज्या: ।
सुवासिनीपुजनं च विधाय द्वितीयदिने
द्विगुणं तृतीयदिने त्रिगुणं चतुर्थ चतुर्गुणमिति
शतचण्ड्यां कृत्वा सहस्रचण्ड्यां
दशोत्तरां वृद्धि कुर्यात् ।
पूजां देव्यै समर्प्य सर्वे विप्राः
कृताङ्गन्यास: शत नवार्णमन्त्रं कवचार्गलाकीलकानि च
सकृज्जपित्वान्ते रहस्यानि नवार्ण शतं
जपेयुः ।
इसके बाद प्रतिदिन सौ या नव उत्तम
वस्त्र धारण की हुई कुमारियों की पूजा करनी चाहिये । इनकी पूजा करके दूसरे दिन
दूनी,
तीसरे दिन तिगुनी, चौथे दिन चौगुनी की पूजा
शतचण्डी में करके सहस्रचण्डी में दश-दश आगे बढ़ाये । देवी की पूजा समर्पित करके
सभी ब्राह्मण अङ्गन्यास करके सौ नवार्ण मन्त्र, कवच, अर्गला तथा कीलक का एक बार जप कर रहस्य और नवार्ण को सौ बार जपें।
कवचादीनां प्रत्यावृत्तौ नावृत्तिः ।
एवं प्रथमे एकावृत्ति: द्वितीये
द्वितीयावृत्तिः तृतीये तृतीयावृत्तिः चतुर्थ चतुर्थावृत्ति: ।
एवं शतसहस्रावृत्तयः सम्पद्यन्ते ।
नित्यक्षीरान्नभोजनमशक्तौ
हविष्यान्न सर्वेषां प्रत्यहं शत सहस्नं वा ब्राह्मणान् भोजयेत् ।
एवं चतुर्दिनपर्यन्तं* कृत्वा पञ्चमेह्नि होमं*
कुर्यात् । तद्यथा ।
(*१-
मन्त्रमहोदधौ :
एवं चतुर्दिनं कृत्वा पञ्चमे
होममाचरेत् ।
रुद्रयामले :
एकं द्वे त्रीणि चत्वारि जपेद्दिनचतुष्टयम्
।
पञ्ममे दिवसे प्राप्ते होमं
कुर्याद्विधा नतः ।
क्रोडतन्त्रे :
त्रिपञ्चसप्तभिर्वापि
नवैकादशभिस्तथा ।
अदीर्घदिवसै: क्षिप्रं
विदध्याच्वण्डिकामखम् ।
इति वचनात् ।
*२-
पायसान्नैस्त्रिमध्वाक्तैर्द्राक्षारम्भाफलैरपि ।
मातुलिंगैरिक्षुदण्डैनारिकेलैः
पुरस्तिलैः ।
जातीफलैराम्रफलैरन्यैर्मधुरवस्तुभिः
सप्तशत्या दशावृत्त्या प्रतिश्लोकेन वै हुनेत् ।
अयुतं नवार्णमन्त्रे ।
होमः रुद्रयामलेः शर्करां पावसं
दूर्वास्तिलांछुक्तान्यवानपि ।
चण्डीपाठस्य होमे तु प्रतिश्लोके
दशांशत ।
इति होमयेत् ।)
कवच आदि की प्रत्यावृत्ति में
आवृत्ति नहीं होती । इस प्रकार प्रथम दिन एक आवृत्ति,
दूसरे दिन दो आवृत्ति, तीसरे दिन तीन आवृत्ति,
चौथे दिन चार आवृत्ति इस प्रकार सौ हजार आवृत्तियाँ होती हैं । नित्य
दूध और अन्न का भोजन करना चाहिये । असमर्थता में सबके लिए हविष्यान्न प्रतिदिन सौ
या हजार ब्राह्मणों को खिलाये । इस प्रकार चार दिन पर्यन्त करके पाँचवें दिन इस
प्रकार होम करे :
मण्डपमध्ये ऐशान्यां हस्तमात्रं द्वयंगुलवप्रां
ग्रहवेदीं कृत्वा तत्पश्चिमे च शतचण्ड्यां द्विहस्तं
सहस्रचण्ड्यां चतुर्हस्तं कुण्ड स्थण्डिलं वा चतुरस्त्रं पद्मकुण्डं वा कुर्यात् ।
वेदीमध्ये ब्रह्माणम् ।। १ ॥।
उत्तरादिषु सोमादीन् वायुसोममध्यादिक्रमेण अपः १ वसून् २ रुद्रान् ३ द्वादशादित्यान् ४ यक्षान् ५ सर्पान् ६ अप्सरसः ७ गन्धर्वान् ८ ब्रह्मसोममध्ये कुमारम् १ ऋषभम् २ अदितिम् ३ ब्रह्मेन्द्रयोर्मध्ये गुर्गम् १ विष्णुम् २ ब्रह्माग्निमध्ये सुधाम् १ ब्रह्मयममध्ये मृत्युम् १ रोगम् २ ब्रह्मनिऋृति मधो गणपतिम् १ ब्रह्मवरुणमधो अपः १ ब्रह्मवायुमध्ये मरुतः १ ब्रह्मपादमूले भूमिम् १ तत्रैव गङ्गादिनदीः धाम्नो धाम्ना इति सप्तसागरान् बहिः सोमादिसन्निधौ क्रमेण गदाम् १ त्रिशूलम् २ व्रजम् ३ शक्तिम् ४ दण्डम् ५ खङ्गम् ६ पाशम् ७ अंकुशम् ८ पुनरुत्तरादिषु गौतमम् १ भरद्वाजम् २ विश्वामित्रम् ३ कश्यपम् ४ जमदग्निम् ५ वसिष्ठम् ६ अत्रिम् ७ अरुन्धतीं च। पूर्वादिषु ऐन्द्रीम् १ कौमारीम् २ ब्राह्मीम् ३ वाराहीम् ४ चामुण्डाम् ५ वैष्णवीम् ६ माहेश्वरीम् ७ बैनायकीम् ८ आवाह्य सम्पूज्य बलिं दत्त्वा अग्निस्थापनं कृत्वा प्रधानहोमं समाप्य कवचार्गलाकीलकरहस्यै: प्रतिश्लोकं हुत्वा जपदशांशतो मूलेन जुहुयात् ।
मण्डप के मध्य ऐशानी दिशा में एक
हाथ को अंगुल ऊँची ग्रहवेदी बनाकर उसके पश्चिम में शतचण्डी में दो हाथ तथा सहस्रचण्डी
में चार हाथ का कुण्ड या स्थण्डिल या चौकोर पद्मकुण्ड बनावे । वेदी के बीच में
ब्रह्मा को, उत्तर आदि दिशाओं में सोम,
आदि को; वायु सोम मध्य आदि क्रम से १. अप,
२. वसु, ३. रुद्र, ४.
बारह आदित्य, ५. यक्ष, ६. सर्प,
७. अप्सराएँ, ८. गन्धर्व, ब्रह्मा और सोम के बीच १. कुमार, २. ऋषभ, ३. अदिति, ब्रह्मा और इन्द्र के बीच १. दुर्गा,
२. विष्णु, ब्रह्मा और अग्नि के बीच सुधा,
१. ब्रह्मा और यम के बीच, १. मृत्यु तथा २.
रोग, ब्रह्मा और निर्ऋति के बीच गणपति, ब्रह्मा और वरुण के मध्य १. अप्, ब्रह्मा और वायु
के मध्य १. मरुत्, ब्रह्मपाद के मूल में १. भूमि, वहीं गड्गा आदित नदियाँ “धाम्नो धाम्ना”
इससे सागर को, बारह सोमादि की सन्निधि से १.
गदा, २. त्रिशूल, ३. वज्र, ४. शक्ति, ५. दण्ड, ६. खङ्ग,
७. पाश, ८. अंकुश को, पुनः
उत्तर आदि दिशाओं में १. गौतम, २. भरद्वाज, ३. विश्वामित्र, ४. कश्यप, ५.
जमदग्नि, ६. वसिष्ठ, ७. अत्रि, ८. अरुन्धती को, पूर्वादि दिशाओं में १. ऐन्द्री,
२. कौमारी, ३. ब्राह्मी, ४. वाराही, ५. चामुण्डा, ६.
वैष्णवी, ७. माहेश्वरी, ८. वैनायकी को
आवाहित और पूजित करके बलि देकर अग्निस्थापन करके प्रधान होम समाप्त करके कवच,
अर्गला, कीलक तथा रहस्यों के साथ प्रतिश्लोक
से होम करके जप के दशांश से मूलमन्त्र से होम करे ।
नवरात्रे तु नवम्यामेव होम: ।
होमस्तु पद्धतिमार्गेण विधिना
कुर्यात् ।
पूजास्विष्टकृदादि सर्व
तद्वत्कुर्यात् ।
नवरात्र में तो नवमी के ही दिन होम
करना चाहिये । यह होमपद्धतिमार्ग से करना चाहिये । पूजा में स्विष्टकृदादि सब
तद्बत् करे ।
एतद्दशगुणो
विधिरयुतचण्ड्यामेतद्दशगुणो विधिर्लक्षचण्ड्यां शतब्राह्मणैरैव वा चत्वारिंशद्दनैरयुतचण्डी
कार्या ।
इससे दशगुनी विधि दश हजार चण्डी में
तथा उससे दशगुना लक्षचण्डी में या सौ ब्राह्मणों से चालीस दिनों में अयुतचण्डी
करना चाहिये ।
तत्र प्रथमदिने एकैवावृत्तिः
द्वितीयदिने द्वे तृतीये तिस्र: चतुर्थे चतस्र: तैरेव चतुःशतदिनैर्वा
लक्षचण्डीत्यादि बोध्यम् ।
वहाँ प्रथम दिन एक ही आवृत्ति,
दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन, चौथे दिन चार उन्हीं से चार सौ दिनों तक लक्षचंडी करना चाहिये ऐसा जानना
चाहिये ।
तथाच ।
निष्कं सुवर्णमथवा प्रत्येकं
दक्षिणां दिशेत् ।
भोजयेच्च शतं विप्रान्भक्ष्यभोज्यैः
पृथग्विधैः
१ सुघोरायामनावृष्ट्यां भूकम्पे च
सुदारुणे ।
परचक्रभये तीव्रे क्षयरोग उपस्थिते ॥
१ ॥
राजवश्यादिकार्येषु
आयुष्मत्सुतजन्मनि ।
महोत्पातविनाशय पञ्चविंशतियोजने ॥२॥
देशे सर्वत्र शान्त्यर्थ
शतचण्डीमिमां जपेत् ।
तथा च : “निष्क या सुवर्ण प्रत्येक को दक्षिणा देवे । नाना प्रकार के इन द्रव्यों
से सौ ब्राह्मणों को भोजन करावे । भारी अनावृष्टि में, अतिदारुण
भूकम्प में, दूसरे राजा के आक्रमण में, तीव्र क्षय रोग के उपस्थित होने पर, राजा के वशीकरण
आदि कार्यों में, आयुवृद्धि में, पुत्रजन्म
में पच्चीस योजन तक भारी उत्पात के विनाश के लिए, देश में
सर्वत्र शान्ति के लिए इस शतचण्डी का जप करना चाहिये ।
क्रोडतन्त्रे । यदायदा सतां ।
हानिरात्मनो ग्लानिरिव च ॥३॥
तदा कार्या शतावृत्तीरिपुघ्ना
भूतिवर्धिनी ।
दुःस्वनदर्शने घोरे महामारीसमुद्भवे
॥४॥
वृष्टिप्रदा शतावृत्ति: कार्या
चायु: क्षये तथा ।
क्रोडतन्त्र में कहा गया है : जब-जब
सज्जनों की हानि तथा अपने में ग्लानि हो तो कल्याणकारक, शत्रुनाशिनी शतचण्डी का जप सौ बार करना चाहिये । दुष्ट स्वप्न देखने पर,
घोर महामारी के होने पर, आयु के क्षय होने पर,
वर्षा कराने वाली शतचण्डी का सौ बार जप करना चाहिये ।
महाभये च्छेदयोगे दुर्भिक्षे मरणेपि
च ॥ ५॥
कुर्यत्तित्र शतावृत्तिं देवीमाहात्म्यकस्य
हि ।
अद्भुते च समुत्पत्ने बान्धवानां
महोत्सवे ॥ ६॥
कुर्याच्चण्डीशतावृत्ति
सर्वसम्पत्तिकारणम् ।
महाभय में,
मारकाट में, दुर्भिक्ष में तथा मरण में देवीमाहात्म्य
का सौ बार पाठ करना चाहिये । अद्भुत परिस्थिति उत्पन्न होने पर बन्धु-बान्धवों के
उत्सव में सर्वसम्पत्तिकारक चण्डी का सौ बार पाठ करना चाहिये ।
शतावृत्त्या भवेदायुः शतावृत्त्या
समागमः ॥ ७॥
वश्या भवन्ति राजानः श्रियमाप्नोति
सम्पदः ।
धनार्थी प्राप्नुयादर्थ पुत्रकामो
लभेत्सुतम् ॥ ८ ॥
विद्यार्थी प्राप्नुयाद्विद्या रोगी
रोगात्प्रमुच्चते ।
चतुर्वर्गफलावाप्तिकारणं रिपुनाशनम्
॥ ९॥
चण्डीशतावृत्तिफलं नास्ति यज्ञे
वरानने ।
शताश्वमेधगोमेधवाजपेयफलप्रदा ॥१०॥
यतः कि बहुनोक्तेन चण्डीपाठफलं
प्रिये ।
प्रत्येकावर्तनं देवि हयमेधेन
सम्मितम् ११॥
त्रिरावृत्त्या
व्रजेत्कामान् पञ्चवृत्त्या रिपूञ्जयेत् ॥ १२ ॥
सौ बार के पाठ से आयु बढ़ती है । सौ
बार के पाठ से बिछुड़ें लोगों का समागम होता है । सौ बार के पाठ से राजे वश में
होते हैं । सौ बार के पाठ से धन और सम्पत्ति प्राप्त होती है । धनार्थी धन प्राप्त
करता है तथा पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करता है । विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता
है । रोगी रोग से मुक्त हो जाता है । चारों वर्गों की प्राप्ति होती है। शत्रुओं
का नाश होता है । हे वरानने, चण्डी के सौ
बार पाठ के फल के बराबर यज्ञ का फल नहीं होता । यह शतचण्डी का पाठ सौ अश्वमेधों,
गोमेधों तथा वाजपेय यज्ञों का फल देने वाला है । हे प्रिये, अधिक कहने से क्या? एक बार चण्डी पाठ का फल एक
अश्वमेध के बराबर होता है । तीन बार का पाठ कामनाओं को पूर्ण करता है । पाँच बार
का पाठ शत्रु को जीत लेता है।
मन्त्रमहोदधौ
नृपोपद्रवः आपन्ने दुर्भिक्षे
भूमिकम्पने ।
अतिवृष्ट्यामनावृष्टौ परचक्रभये
क्षये ॥ १३॥
सर्वे विघ्ना विनश्यन्ति शतचण्डीविधौ
कृते।
रोगाणां वैरिणां नाशो
धनपुत्रसमृद्धयः ॥ १४॥
शङ्करस्य भवान्या वा प्रसादान्निकटे
शुभम् ।
एवं कृते जगद्वश्यं सर्वे
नश्यन्त्युपद्रवा: ॥ १५॥
राज्यं
धनं यशः पुत्रानिष्टमन्यल्लभेत सः ।
मन्त्रमहोदधि
में कहा गया है :
राजा द्वारा उपद्रव उपस्थित किये
जाने पर,
दुर्भिक्ष पड़ने पर, भूकम्प होने पर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा दूसरे राजा के आक्रमण करने
पर, शतचण्डी विधि को करने से सभी विघ्न शान्त हो जाते हैं । रोगों
और वैरियों का नाश हो जाता है। धन और पुत्र की समृद्धि होती है । शङ्कर या भवानी
के प्रसाद से शुभ निकट आ जाता है । ऐसा करने पर जगत् वश में हो जाता है । उपद्रव
नष्ट हो जाते हैं। राज्य, धन, पुत्र
तथा अन्य जो अभीष्ट होता है, वह सब साधक को मिल जाता है ।
रुद्रयामले : सहस्त्रचण्डीविषये :
सहस्रचण्डीं विधि वच्छृणु विष्णो
महामते ।
राज्यभ्रंशो ह्यकस्माच्चेज्जनमारे
महाभये १६॥
गजमारेऽश्वमारे च परचक्रभये तथा ।
इत्यादिविविधे दुःखे क्षयरोगादिजे
भये १७॥
सहस्त्रं चण्डिकापाठं कुर्याद्वा
कारयेत्तथा ।
रुद्रयामल में सहस्त्रचण्डी के विषय
में यह कहा गया है : हे महामते विष्णो, सहस्रचण्डी
को विधिवत् सुनो । यदि अकस्मात् राज्य का नाश हो जाय, जानघातक
महामारी आ जाय, हाथियों के मरने का रोग फैल जाय, घोड़ों के मरने का रोग फैल जाय, दूसरे राजा द्वारा
आक्रमण हो जाय तथा क्षयरोग का प्रसार हो जाय, अथवा इसी
प्रकार के अनेक विधि दुःख उपस्थित हों तब सहस्त्रचण्डी का पाठ करे या कराये ।
जापकास्तु शत प्रोक्ता
विंशद्धस्तस्तु मण्डपः ॥ १८॥
भोयकाः सहस्त्र विप्रेन्द्रा गोशतं
दक्षिणां दिशेत् ।
गुरवे द्विगुणं देयं शय्यादानं तथेव
च ॥१९॥
सप्तधान्यं च भूदानं श्वेताश्वश्व
मनोहरः ।
पञ्चनिष्कमिता मूर्ति: कर्तव्या
वर्धमानतः ॥ २० ॥
अष्टादशभुजां देवीं
सर्वायुधविभुषिताम् ।
अन्नं वारि च दातव्यं सहस्त्र
प्रत्यहं विभो ।। २१ ॥
शतं वा नियताहारः पयोमानेन वर्तयेत्
।
एवं यश्चण्डिकापाठं सहस्रं तु
समाचरेत् ॥२२॥
तस्य स्यात्कार्यसिद्धिस्तु नात्र
कार्या विचारणा ॥२३ ॥
इत्येष पटलो दिव्यो मन्त्रसर्वस्य
रूपवान् ।
दुर्गारहस्यभूतोपि गोपनीयो मुमुक्षुभिः
॥२४॥
इति दुर्गापटलः समाप्तः ॥ १ ॥
जप करने वाले सौ कहे गये है । बीस
हाथ का मण्डप बतलाया गया है । हजार ब्राह्मणों को भोजन कराना कहा गया है तथा सौ
गौवें दक्षिणा के लिए बतलायी गयी हैं। गुरु की दूनी दक्षिणा देनी चाहिये । शय्यादान
भी करना चाहिये । सात प्रकार के अन्न, भूमिदान,
सफेद घोड़े का दान करना चाहिये। पाँच निष्क की मूर्ति वृद्धिक्रम से
बनानी चाहिये । आठ भुजाएँ समस्त आयुधों से विभूषित देवी की मूर्ति बनानी चाहिये । हे
विभो, अन्न/ जल प्रतिदिन सहस्त्र व्यक्तियों को देना चाहिये ।
अथवा सौ व्यक्तियों को केवल दूध मात्र पर नियताहार कराना चाहिये । इस प्रकार जो
चण्डिका का एक हजार पाठ करता या कराता है, उसके कार्यों की
सिद्धि होती है। इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिये । यह मन्त्र का सर्वस्व
मूर्तिमान् दिव्य पटल समाप्त हुआ । इस दुर्गारहस्य के होते हुए भी मुमुक्षुओं को
चाहिये कि वे इसे गुप्त रक्खैं ।
इति दुर्गापटल समाप्त ।
श्रीदुर्गा तंत्र आगे जारी ........................
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