नारदसंहिता अध्याय ५०
नारदसंहिता अध्याय ५० में अथाश्वशांति
विचार का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ५०
अथाश्वशांतिः।
अश्वशांतिं प्रवक्ष्यामि तेषां
दोषापनुत्तये ।
भानुवारे च संक्रांतावयने
विषुवद्वये॥ १ ॥
अब अश्वों के दोष दूर होंने के
वास्ते अश्वशांति को कहते हैं रविवार तथा संक्रांति विषे तथा उत्तरायण दक्षिणायन
होने के समय अथवा दिन रात्रि समान होवे उस दिन ॥ १ ॥
दिनक्षये व्यतीपाते
द्वादश्यामश्विभेपि वा ।
अथ वा भास्करे स्वातिसंयुक्ते च
विशेषतः ॥ २॥
तिथिक्षय में व्यतीपात योग वा
द्वादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र विषे अथवा स्वाति नक्षत्रयुक्त रविवारविषे ॥ २ ॥
ईशान्या
त्वष्टभिर्हस्तैश्चतुर्भिर्वाथ मंडपम् ॥
चतुर्द्वारवितानस्रक्तोरणाद्यैरलंकृतम्
॥ ३ ॥
ईशान कोण में आठ हाथ प्रमाण का अथवा
चार हाथ प्रमाण का मंडप बनावे तिसको चार द्वार बंदनवाल,
माला, तोरण इत्यादिकों से शोभित करे ॥ ३ ॥
तन्मध्ये वेदिका तस्य पंचविंशशमानतः
॥
मंडपस्य बहिः कुंडं प्राच्यां
हस्तप्रमाणतः॥ ४ ॥
तिस मंडप के पच्चीसवें अंश ( भाग )
प्रमाण तिसके मध्य में बेदी बनावे और मंडप से बाहिर पूर्वदिशा में एक हाथ प्रमाण
अग्निकुंड बनावे ॥ ४ ॥
वरयेच्छ्रोत्रियान् विप्रान्
स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ।
सूर्यपुत्रं हयारूढं पंचवक्रं
त्रियंबकम् ॥ ५ ॥
फिर स्वस्तिवाचन पूर्वक वेदपाठी
ब्राह्मणों का वरण करे और सूर्य के पुत्र, अश्व
पर चढे हुए, पांच मुख और तीन नेत्रोंवाले ।। ५॥
शुक्लवर्णवसाखङ्गं रैवंतं द्विभुजं
स्मरेत् ॥
सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु नमस्ते
पंचवक्त्रक ॥६ ॥
शुक्लवर्ण ढाल तलवार धारण किये हुए
दो भुजाओं वाले ऐसे रैवत देव का स्मरण करे हे सूर्यपुत्र ! हे पंचमुखवाले देव
तुमको नमस्कार है ।। ६ ।।
नमो गंधर्वदेवाय रैवंताय नमोनमः ॥
मंत्रेणानेन रैवंतं
वस्रगंधाक्षतादिभिः ।
विधिवद्वेदिकामध्ये तंडुलोपरि
पूजयेत् ॥ ७ ॥
गंधर्वदेव रैवंत को नमस्कार है ऐसे
इस मंत्र से वस्त्र, गंध, अक्षत आदिकों से रैवंत को विधिपूर्वक तिस वेदी पर चावलों पर स्थापित कर
पूजन करे ॥ ७ ॥
कार्यास्तत्र गणाः पंच
रौद्रशाक्राश्च वैष्णवाः ॥
सगाणपतिसौरश्व रैवंतस्य समंततः ॥ ८
॥
तहां पांच प्रकार के गण स्थापित
करने रौद्रगण, इंद्र के गण, वैष्णवगण, गणेशजी के गण और सूर्य के गण ऐसे रैवत के
चारों तर्फ स्थापित करने ॥ ८॥
ऋग्वेदादिचतुर्वेदान्यजेद्वारेषु
पूर्वतः ॥ ९ ॥
और ऋग्वेद आदि चारों वेद को पूर्व
आदि द्वारों विषे पूजे ॥९॥
रक्तवर्णान्पूर्णकुंभान्वस्त्रगंधाद्यलंकृतान्
॥
पंचत्वक्पल्लवोपेतान्पंचामृतसमन्वितान्
॥ १० ॥
और लालवर्णवाले पूर्ण कलशों को वस्र
गंध आदिकों से विभूषित कर पंचवल्कल, पंचपल्लव,
पंचामृत इन्होंसे पूरितकर ॥ ३० ॥
द्वारेषु स्थाप्य
तल्लिंगैर्मन्त्रैर्विप्रान्प्रपूजयेत् ॥
एवं तु पूजामाचार्यः कृत्वा
गृह्यविधानतः ॥ ११ ॥
तिन चार द्वारों में स्थापित कर
तिसी २ वेद के मंत्रों करके तहां चार ब्राह्मणों का पृथक् २ पूजन करे आचार्य इस प्रकार
कुल की मर्यादा के अनुसार पूजा कर ॥ ११ ॥
स्थापयेत्तु
व्याहृतिभिस्तस्मिन्कुंडे हुताशनम् ॥
ततस्तदाज्यभागांते
मुख्याहुतिमतंद्रितः ॥ १२ ॥
फिर व्याहृतियों करके तिस कुंड में
अग्नि स्थापन करे । फिर सावधान होकर आज्य भाग आहुति देकर मुख्य आहुति देना ।।१२।
अग्नये स्वाहेति हुत्वा घृतेनादौ
प्रयत्नतः ।
एवं तु पूजामंत्रेण ह्याद्यं तु
प्रणवेन च ॥ १३ ॥
पलाशसमिदाज्यन्नैः
शतमष्टोत्तरं हुनेत् ॥
प्रत्येकं जुहुयाद्भक्त्या
तिलान्व्याहृतिभिस्ततः ॥ १४॥
अग्नये स्वाहा'
इस मंत्र से पहले यत्न से घृत करके होम करे ऐसे पूजा के मंत्र से
आद्यंत में ऊँकार कहके पलाश की समिध, घृत, तिला अन्न इन्हों करके अष्टोत्तरशत १०८ आहुति होमना फिर प्रत्येक मंत्र में
भूर्भुवः इत्यादि व्याहृति लगाकर तिलों से होम करना ।। १ ३ । १४ ।।
एकरात्रं त्रिरात्रं वा
नवरात्रमथापि वा ।
अनेन विधिना कुर्याद्यथाशक्त्या
जितेंद्रियः ॥ १५ ॥
एक रात्रि तक वा तीन रात्रि तक वा
नव रात्रि तक इस विधि से शक्ति के अनुसार जितेंद्रिय होकर हवन करे ।। १५॥
जपादिपूर्वकं सम्यक्कर्ता
पूर्णाहुतिं हुनेत् ।।
ततो मंगलघोषैश्च नैवेधं च समर्पयेत्
॥ १६ ॥
यजमान जपादि पूर्वक अर्थात् सब जपों
की दशांश आहुति कराके फिर पूर्णहूति करे फिर मंगल शब्दों करके नैवेद्य समर्पण करे
॥ १६ ।।
ततस्ते हुतशेषेण
सम्यकुंभोदकैर्द्विजाः ॥
प्रादक्षिण्यव्रजंतोऽश्वाञ्जयंतबलिमुत्तमम्
॥ १७॥
फिर वे चार ब्राह्मण तिन चार कलशों की
धारा अश्वों के दहिनी तर्फ " गमन करते हुए छोडकर हुतशेष पदार्थ से उत्तम जयंत
बलि देवे ॥ १७ ॥
जीमूतस्येत्यनूवाकाञ्चतुर्दिक्षु
विनिःक्षिपेत् ॥
आचार्याय ततो दद्याद्दक्षिणां
निष्कपंचकम् ॥ १८ ॥
और ‘जीमूतस्य ' ऐसे अनुवाक मंत्र पद कर चारों दिशाओं में
बलि छोडना फिर पांच पल (२०)सुवर्ण आचार्य को देवे।
तदर्द्धं वा तदर्द्धं वा
यथाशक्त्यनुसारतः ॥
ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्याद्धेनुं
वस्त्रं धनादिकम् ॥ १९ ॥
तिससे आधी अथवा तिससे भी आधी
दक्षिणा अपनी शक्ति के अनुसार देनी चाहिये और गौ, वस्त्र धन इन्होंकी दक्षिणा ऋत्विजों के अर्थ देनी चाहिये ॥ १९ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्छांतिवाचनपूर्वकम्
।
एवं यः कुरुते
सम्यगश्वशांतिमनुत्तमाम् ॥ २० ॥
फिर स्वस्तिवाचनपूर्वक ब्राह्मणों को
भोजन करवावे ऐसे अच्छे प्रकार से जो पुरुष उत्तम अश्वशांति को करता है।
सोश्वाभिवृद्धिं लभते वीरलक्ष्मीं न
संशयः ।
यज्ञेनानेन संतुष्टा
धातृविष्णुमहेश्वराः ॥ २१ ॥
वह अश्वों की समृद्धि को प्राप्त हो
जाता है और शूरवीरें की लक्ष्मी को प्राप्त होता है इसमें संदेह नहीं और इस यज्ञ से
ब्रह्मा,
विष्णु, महादेव प्रसन्न होते हैं ।। २१ ॥
आदित्याद्या ग्रहाः सर्वे प्रीताः
स्युः पितरो गणाः ॥
लोकपालाश्च
संतुष्टाः पिशाचा डाकिनीगणाः ॥ २२॥
और सूर्य आदि सब ग्रह,
पितरगण, लोकपाल, पिशाच,
डाकिनी गण ये सब प्रसन्न हो जाते हैं ।। २२ ॥
भूतप्रेताश्च गंधर्वा
यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ २३ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
मिश्रकाध्याय पंचशत्तमः ।। ५० ॥
भूत, प्रेत, गंधर्वगण, राक्षस,
पन्नग ये भी * सब प्रसन्न हो जाते हैं ॥ । २३ ॥
इति अश्वशांतिः ।
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
मिश्रकाध्याय पंचशत्तमः ॥ ५० ॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ५१ ॥
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