भवनभास्कर
भवनभास्कर भवन(मकान)प्रसाद निर्माण
में प्रयुक्त होने वाला वास्तु सबंधित सक्षिप्त ग्रन्थ है । भारत की अनेक विलक्षण
विद्याऍं आज लुप्त हो चुकी हैं और उनको जाननेवालों का भी अभाव हो गया हैं । किसी
समय यह देह भौतिक और आध्यात्मिक - दोनों दृष्टियों से बहुत उन्नत था,
पर आज यह दयनीय स्थिति में हैं ।
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः
समुच्छ्रयाः ।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च
जीवितम् ॥ ( महा० आश्व० ४४।१९; वाल्मीकि० २।१०५।१६ )
' समस्त संग्रहों का अन्त विनाश
है, लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोगों
का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है ।'
लोगों की ऐसी धारणा है कि पहले कभी
पाषाणयुग था, आदमी जंगलों में रहता था और
धीरे-धीरे विकास होते - होते अब मनुष्य वैज्ञानिक उन्नति के इस युग में आ गया है ।
परन्तु वास्तव में वैज्ञानिक उन्नति पहले कई बार अपने शिखर पर पहुंचकर नष्ट हो
चुकी है । पाषाणयुग पहले कई बार आकर जा चुका है और आगे भी पुनः आयेगा । यह
सृष्टिचक्र है । इसमें चक्र की तरह सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि - ये चारों युग दिनरात्रिवत् बार - बार आते हैं और चले जाते
हैं । समय पाकर विद्याऍं लुप्त और प्रकट होती रहती हैं।गीता में भी भगवान्ने कहा
है-
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो
विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः
पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं
ह्येतदुत्तमम् ॥ (
४।२ - ३ )
'हे परन्तप ! इस तरह परम्परा से
प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना; परन्तु बहुत समय
बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्यालोक में लुप्तप्राय हो गया । तू मेरा भक्त और
प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मने तुझसे कहा है;
क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है ।'
कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि
वास्तुशास्त्र के अनुसार मकान बनाने मात्र से हम सब दुःखों से,
कष्टों से छूट जायगे, हमें शान्ति मिल जायगी ।
वास्तव में ऐसी बात है नहीं । जिनका मकान वास्तुशास्त्र के अनुसार बना हुआ है,
वे भी कष्ट पाते देखे जाते हैं । शान्ति तो कामना – ममता के त्याग से
ही मिलेगी -
' स शान्तिमाप्रोनि न
कामकामी ' ( गीता २।७० )
' निर्ममो निरहङ्कारः
स शान्तिमधिगच्छति ' ( गीता २।७१ )
' त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्
' ( गीता १२।१२ )
एक श्लोक आता है -
वैद्या वदन्ति
कफपित्तमरुद्विकाराञ्ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति ।
भूताभिषङ्र इति भूतविदो वदन्ति
प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयो वदन्ति ॥
'रोगों के उत्पन्न होने में वैद्य
लोग कफ, पित्त और वात को कारण मानते हैं, ज्योतिषी लोग ग्रहों की गति को कारण मानते हैं, प्रेतविद्यावाले
भूत – प्रेतों के प्रविष्ट होने को कारण मानते हैं; परन्तु
मुनि लोग प्रारब्धकर्म को ही बलवान् ( कारण ) मानते हैं ।'
तात्पर्य है कि अनुकूल अथवा
प्रतिकूल परिस्थिती के आने में मूल कारण प्रारब्ध है । प्रारब्ध अनुकूल हो तो कफ -
पित्त - वात, ग्रह आदि भी अनुकूल हो जाते है
और प्रारब्ध प्रतिकूल हो तो वे सब भी प्रतिकूल हो जाते हैं । यही बात वास्तु के
विषय में भी समझनी चाहिये । देखने में भी ऐसा आता है कि जिसे वास्तुशास्त्र का
ज्ञान ही नहीं है, उनका मकान भी स्वतः वास्तुशास्त्र के
अनुसार बन जाता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सब कुछ प्रारब्ध पर छोड़कर बैठ जाय ।
हमारा कर्तव्य शास्त्र की आज्ञा का पालन करना है और प्रारब्ध के अनुसार जो
परिस्थिति मिले, उसमें सन्तुष्ट रहना है । प्रारब्ध का उपयोग
केवल अपनी चिन्ता मिटाने में है । ' करने ' का क्षेत्र अलग है और ' होने ' का क्षेत्र अलग है । ' करना ' हमारे
हाथ में ( वश में ) है, ' होना ' हमारे
हाथ में नहीं हैं । इसलिये हमें ' करने ' में सावधान और ' होने ' में
प्रसन्न रहना है । गीता में भगवान्ने कहा है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
।
मा कर्मफलहेतुर्भूमां ते
सङ्रोऽसत्वकर्मणि ॥ (
२।४७ )
'कर्तव्य - कर्म करने में ही तेरा
अधिकार है, फलों में
कभी नहीं । अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न
हो ।'
तंस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते
कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म
कर्तुमिहार्हसि ॥ (
गीता १६।२४)
'अतः तेरे लिये कर्तव्य –
अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है - ऐसा जानकर तू इस लोक में
शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य - कर्म करने योग्य है, अर्थात्
तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य - कर्म करने चाहिये ।'
वास्तुविद्या के अनुसार मकान बनाने से
कुवास्तुजनित कष्ट तो दूर हो जाते है, पर
प्रारब्धजनित कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं । जैसे - औषध लेने से कुपथ्यजन्य रोग तो
मिट जाता है, पर प्रारब्धजन्य रोग नहीं मिटता । वह तो
प्रारब्ध का भोग पूरा होने पर ही मिटता है । परन्तु इस बात का ज्ञान होना कठिन है
कि कौन - सा रोग कुपथ्यजन्य है और कौन - सा प्रारब्धजन्य ? इसलिये
हमारा कर्तव्य यही है कि रोग होने पर हम उसकी चिकित्सा करें, उसको मिटाने का उपाय करें । इसी तरह कुवास्तुजनित दोष को दूर करना भी
हमारा कर्तव्य है ।
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