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- नारदसंहिता अध्याय ५०
- त्रिपुट (त्रिशक्तिरूपा) लक्ष्मीकवच
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- भवनभास्कर
- नारदसंहिता अध्याय ४७
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- नारदसंहिता अध्याय ४४
- भवनभास्कर अध्याय १८
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- नारदसंहिता अध्याय ४२
- भवनभास्कर अध्याय १६
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श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड पावन कवच
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
बगलामुखी कवच
जो मनुष्य बगलामुखी का ध्यान और इस
मन्त्रराज का जप करके नियम से इस कवच का पाठ करता है,
वह साध्य या असाध्य जो भी इच्छा करता है उसे वह प्राप्त कर लेता है
।
श्रीबगलामुखीकवचम्
कैलासाचलम्ध्यगम्पुरवहं
शान्तन्त्रिनेत्रं शिवं
वामस्था कवचम्प्रणम्य गिरिजा
भूतिप्रदम्पृच्छति ।
देवी श्रीबगलामुखी
रिपुकुलारण्याग्निरूपा च या
तस्याश्चापविमुक्तमन्त्रसहितम्प्रीत्याऽधुना
ब्रूहि माम् ॥ १॥
कैलाश पर्वत के मध्य शिखर पर पुरहर
शांत,
त्रिनेत्र शिवजी के बाये ओर बैठी पार्वती जी प्रणाम करके उनसे
कल्याण देनेवाले कवच को पूछ रही हैं: "हे शिवजी, जो
अरण्यरूप शत्रुकुल के लिए अग्नि के समान बगलामुखी है उसका मन्त्रसहित शापविमुक्त
कवच आप मुझे बताये।
श्रीशङ्कर उवाच-
देवी श्रीभववल्लभे श्रृणु
महामन्त्रँ विभूतिप्रदन्देव्या
वर्मयुतं समस्तसुखदं साम्राज्यदमुक्तिदम् ।
श्रीशंकरजी बोले : हे देवि
श्रीवल्लभे ! तुम देवी के कवचयुक्त समस्त सुखदायक साम्राज्यप्रद तथा मुक्तिप्रद
महामन्त्र को सुनो ।
तारं रुद्रवधूँ
विरञ्चिमहिलाविष्णुप्रियाकामयुक्कान्ते
श्रीबगलानने मम रिपुन्नाशाय युग्मन्त्विति ॥
२॥
ऐश्वर्याणि पदञ्च देहि युगलं
शीघ्रमनोवाञ्छितङ्कार्यं
साधय युग्मयुक्छिववधूवह्निप्रियान्तो मनुः ।
तार (ॐ)
रुद्रवध्धू (ह्रीं) विरञ्चिमहिले (ऐं) विष्णुप्रिये (श्रीं)
कामयुक्कान्ते (क्लीं), फिर 'श्रीबगलानने
मम रिपून्नाशय नाशय ममैश्वर्याणि' यह पद देकर देहि युगलं
(देहि, देहि), फिर 'शीघ्रमनोवांछितं कार्य साधय युग्मयुक् (साधय साधय), शिववधू
(ह्रीं), और अन्त में वह्निप्रिया (स्वाहा) लगाकर मन्त्र
बनता है ।
पूरा मन्त्र इस प्रकार हुआ : ॐ ह्रीं
ऐं श्रीं क्लीं श्रीबगलानने मम रिपून्नाशय नाशय ममैश्वर्याणि देहि देहि
शीघ्रम्मनोवांछितं कार्य साधय साधय ह्रीं स्वाहा” ।
कंसारेस्तनयञ्च बीजमपरा शक्तिश्च
वाणी तथा कीलं श्रीमति
भैरवर्ष्षिसहितञ्छन्दो विराट्संयुतम् ॥ ३॥
स्वेष्टार्थस्य परस्य वेत्ति
नितराङ्कार्यस्य सम्प्राप्तये
नानासाध्यमहागदस्य नियतन्नाशाय वीर्याप्तये
।
ध्यात्वा श्रीबगलाननामनुवरञ्जप्त्वा
सहस्राख्यकन्दीग्र्धैः
षट्कयुतैश्च रुद्रमहिताबीजैर्विनश्याङ्गके ॥
४॥
इन श्लोकों में विनियोग और विभिन्न
न्यासविधियों का संकेत है जिनके विस्तृत स्वरूप के लिये नीचे देखिये !
ध्यानम् ।
सौवर्णासनसंस्थितां त्रिनयनां
पीतांशुकोलासिनीं
हेमाभाङ्गरुचिं शशाङ्कमुकुटां
स्रक्चम्पकस्रग्युताम् ।
हस्तैर्मद्गरपाशबद्धरसनां
सम्बिभ्रतीं भूषण-
व्याप्ताङ्गीं बगलामुखीं त्रिजगतां
संस्तम्भिनीञ्चिन्तये ॥
बगलामुखी कवच
विनियोग:
ॐ अस्य श्रीबगलामुखीब्रह्मास्त्रमन्त्रकवचस्य
भैरव ऋषिः विराट्छन्दः श्रीबगलामुखी देवता क्लीम्बीजं ऐंशक्तिः
श्रीङ्कीलकं मम परस्य च
मनोभिलषितेष्टकार्यसिद्धये विनियोगः ॥
ऋष्यादिन्यास
:
भैरवऋषये नमः शिरसि ।
विराट्छन्दसे नमः मुखे ।
बगलामुखीदेवतायै नमः हृदि ।
क्लीं बीजाय नमः गुह्ये ।
ऐं शक्तये नमः पादयोः ।
श्रीं कीलकाय नमः सर्वाङ्गे ।
इति ऋष्यादिन्यासः ।।
करन्यास :
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
इति करन्यासः ।।
हृदयादिषडङ्गन्यास
:
ॐ ह्राँ हृदयाय नमः ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ ह्रूं शिखायैवषट् ।
ॐ ह्रैं कवचायहुम् ।
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयायवौषट् ।
ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ॥
इति हृदयादिषडङ्गन्यास: ।।
बगलामुखी कवच
शिरो मे पातु ॐ ह्रीं ऐं श्रीं
क्लीं पातु ललाटकम् ।
सम्बोधनपदम्पातु नेत्रे श्रीबगलानने
॥ १॥
श्रुतौ मम रिपुम्पातु नासिकान्नाशय
द्वयम् ।
पातु गण्डौ सदा
मामैश्वर्याण्यन्तन्तु मस्तकम् ॥ २॥
देहि द्वन्द्वं सदा जिह्वाम्पातु
शीघ्रँ वचो मम ।
कण्ठदेशं स नः पातु
वाञ्छितम्बाहुमूलकम् ॥ ३॥
कार्यं साधय द्वन्द्वन्तु करौ पातु
सदा मम ।
मायायुक्ता तथा स्वाहा हृदयम्पातु
सर्वदा ॥ ४॥
अष्टाधिकचत्वारिंशदण्डाढ्या
बगलामुखी ।
रक्षाङ्करोतु सर्वत्र गृहेऽरण्ये
सदा मम ॥ ५॥
ब्रह्मास्त्राख्यो मनुः पातु
सर्वाङ्गे सर्वसन्धिषु ।
मन्त्रराजः सदा रक्षाङ्करोतु मम सर्वदा
॥ ६॥
ॐ ह्रीं पातु नाभिदेशमे कटिमे
बगलावतु ।
मुखी वर्णद्वयम्पातु लिङ्गमे
मुष्कयुग्मकम् ॥ ७॥
जानुनी सर्वदुष्टानाम्पातु मे
वर्णपञ्चकम् ।
वाचमुखन्तथा पादं षड्वर्णा
परमेश्वरी ॥ ८॥
जङ्घायुग्मे सदा पातु बगला
रिपुमोहिनी ।
स्तम्भयेति
पदम्पृष्ठम्पातुवर्णत्रयमम ॥ ९॥
जिह्वाँ वर्णद्वयम्पातु गुल्फौ मे
कीलयेति च ।
पादोद्र्ध्वं सर्वदा पातु बुद्धिं पादतले मम ॥ १०॥
विनाशयपदं पातु
पादाङ्गुल्योर्न्नखानि मे ।
ह्रीं बीजं सर्वदा पातु
बुद्धीन्द्रियवचांसि मे ॥ ११॥
सर्वाङ्गम्प्रणवः पातु स्वाहा
रोमाणि मेऽवतु ।
ब्राह्मी पूर्वदले पातु चाग्नेयां
विष्णुवल्लभा ॥ १२॥
माहेशी दक्षिणे पातु चामुण्डा
राक्षसेऽवतु ।
कौमारी पश्चिमे पातु वायव्ये
चापराजिता ॥ १३॥
वाराही चोत्तरे पातु नारसिंही
शिवेऽवतु ।
ऊर्द्ध्वम्पातु महालक्ष्मीः पाताले
शारदाऽवतु ॥ १४॥
इत्यष्टौ शक्तयः पान्तु सायुधाश्च
सवाहनाः ।
राजद्वारे महादुर्गे पातु
माङ्गणनायकः ॥ १५॥
श्मशाने जलमध्ये च भैरवश्च सदाऽवतु
।
द्विभुजा रक्तवसनाः सर्वाभरणभूषिताः
॥ १६॥
योगिन्यः सर्वदा पातु महारण्ये सदा
मम ।
बगलामुखी कवच फलश्रुति
इति ते कथितन्देवि कवचम्परमाद्भुतम्
॥ १७॥
श्रीविश्वविजयन्नाम कीर्तिश्रीविजयप्रदम्
।
हे देवि,
कीर्ति और विजय प्रदान करने वाला अद्भुत यह विश्वविजय नामक कवच
मैंने तुम्हें बता दिया।
अपुत्रो लभते पुत्रन्धीरं शूरं
शतायुषम् ॥ १८॥
निर्द्धनो धनमाप्नोति कवचस्यास्य
पाठतः ।
जपित्वा मन्त्रराजन्तु ध्यात्वा
श्रीबगलामुखीम् ॥ १९॥
पठेदिदं हि कवचन्निशायान्नियमात्तु
यः ।
यद्यत्कामयते कामं साध्यासाध्ये
महीतले ॥ २०॥
तत्तत्काममवाप्नोति सप्तरात्रेण
शङ्करी ।
गुरुन्ध्यात्वा सुराम्पीत्वा रात्रौ
शक्तिसमन्वितः ॥ २१॥
कवचण् यः पठेद्देवि तस्याऽसाध्यन्न
किञ्चन ।
यन्ध्यात्वा
प्रजपेन्मन्त्रसहस्रङ्कवचम्पठेत् ॥ २२॥
त्रिरात्रेण वशयाति
मृत्युन्तन्नात्र संशयः ।
लिखित्वा प्रतिमां शत्रोस्सतालेन
हरिद्रया ॥ २३॥
लिखित्वा हृदि तन्नाम तन्ध्यात्वा
प्रजपेन्मनुम् ।
एकविंशदिनं यावत्प्रत्यहञ्च
सहस्रकम् ॥ २४॥
जप्त्वा पठेत्तु
कवचञ्चतुर्विंशतिवारकम् ।
संस्तम्भञ्जायते शत्रोर्न्नात्र
कार्या विचारणा ॥ २५॥
जिसे पुत्र न हो वह धीर शूरवीर तथा
सौ वर्ष की आयुवाला पुत्र पाता है। निर्धन व्यक्ति इस कवच के पाठ से धन पाता है।
हे शाङ्करि ! जो मनुष्य बगलामुखी का ध्यान और इस मन्त्रराज का जप करके नियम से इस
कवच का पाठ करता है, वह इस पृथिवी पर
साध्य या असाध्य जिस-जिस की इच्छा करता है उसे वह सात रात्रि के बाद प्राप्त कर
लेता है । हे देवि, जो व्यक्ति रात्रि में गुरु का ध्यान
करके यथाशक्ति सुरा पीकर इस कवच का पाठ करे उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। जो
व्यक्ति किसी का ध्यान करके १ हजार मन्त्र का जप करके कवच का पाठ करे तो वह तीन
रात्रि के बाद वश में हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
हरिताल तथा हल्दी से शत्रु की प्रतिमा अंकित करके हृदय से शत्रु के नाम का ध्यान
करके इक्कीस दिन तक प्रतिदिन एक हजार मन्त्र का जप करे। इसके बाद चौबीस बार कवच का
पाठ करे तो शत्रु का स्तम्भन हो जाता है। इसमें कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं
है।
विवादे विजयन्तस्य सङ्ग्रामे
जयमाप्नुयात् ।
श्मशाने
च भयन्नास्ति कवचस्य प्रभावतः ॥ २६॥
इस कवच का पाठ करने वाले व्यक्ति का
इसके प्रभाव से विवाद में विजय तथा संग्राम में जय होता है,
और उसे श्मशान में भय नहीं लगता।
नवनीतञ्चाभिमन्त्र्य
स्त्रीणान्दद्यान्महेश्वरि ।
वन्ध्यायाञ्जायते पुत्रो
विद्याबलसमन्वितः ॥ २७॥
हे पार्वती ! नवनीत को इस मन्त्र से
अभिमन्त्रित करके यदि वन्ध्या स्त्री को दिया जाय तो उसे विद्या और बल से युक्त
पुत्र उत्पन्न होता है।
श्मशानाङ्गारमादाय भौमे रात्रौ
शनावथ ।
पादोदकेन स्पृष्ट्वा च
लिखेलौहशलाकया ॥ २८॥
भूमौ शत्रोः स्वरूपञ्च हृदि नाम
समालिखेत् ।
हस्तन्तद्धृदये दत्वा
कवचन्तिथिवारकम् ॥ २९॥
ध्यात्वा
जपेन्मन्त्रराजन्नवरात्रम्प्रयत्नतः ।
म्रियते ज्वरदाहेन दशमेऽह्नि न
संशयः ॥ ३०॥
सोमवार या शनिवार की रात्रि में
शमशान से कोयला लेकर पादोदक से उसका घोल बनाये । उससे लोहे की शलाका से भूमि पर
शत्रु का स्वरूप अङ्कित करे । फिर हृदय पर उसका नाम लिखे। उसके हृदय पर हाथ रखकर
तिथि तथा बार का ध्यान करके नवरात्रि तक प्रयत्न से इस मन्त्रराज कवच का जप करे।
इससे शत्रु दसवे दिन ज्वरदाह से मर जाता है। इसमें कोई संशय नहीं है।
भूर्जपत्रेष्विदं स्तोत्रमष्टगन्धेन
सँलिखेत् ।
धारयेद्दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे
तथा ॥ ३१॥
सङ्ग्रामे जयमाप्नोति नारी पुत्रवती
भवेत् ।
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव
कृन्तन्ति तञ्जनम् ॥ ३२॥
भोजपत्र पर इस स्तोत्र को अध्गन्ध
से लिखकर पुरुष दाहिने तथा स्त्री बायें हाथ में बाधे तो पुरुष संग्राम में विजयी और
नारी पुत्रवती होती है तथा ब्रह्मास्त्र आदि अस्त्र उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाते
।
सम्पूज्य कवचन्नित्यम्पूजायाः
फलमालभेत् ।
बृहस्पतिसमो वापि विभवे धनदोपमः ॥
३३॥
कामतुल्यश्च नारीणां शत्रूणाञ्च
यमोपमः ।
कवितालहरी तस्य भवेद्गङ्गाप्रवाहवत्
॥ ३४॥
गद्यपद्यमयी वाणी भवेद्देवीप्रसादतः
।
नित्य कवच की पूजा करके मनुष्य
वृहस्पति के समान बुद्धिमान, कुबेर के समान
घनी, स्त्रियों के लिए कामदेव के समान सुन्दर, या शत्रुओं के लिए यमराज के समान हो जाता है । देवी की प्रसन्नता से गड्गा
के प्रवाह के समान उसकी कविता लहरी उत्पन्न होती है और उसकी वाणी गद्य-पद्यमयी हो जाती
है।
एकादशशतं यावत्पुरश्चरणमुच्यते ॥
३५॥
पुरश्चर्याविहीनन्तु न
चेदम्फलदायकम् ।
न देयम्परशिष्येभ्यो दुष्टेभ्यश्च
विशेषतः ॥ ३६॥
देयं शिष्याय भक्ताय
पञ्चत्वञ्चाऽन्यथाप्नुयात् ।
इदङ्कवचमज्ञात्वा भजेद्यो
बगलामुखीम् ॥
शतकोटि जपित्वा तु तस्य सिद्धिर्न्न
जायते ॥ ३७॥
इसका पुरश्चरण ग्यारह सौ मन्त्र का
जप होता है। पुरश्चरण के बिना यह फलदायक नहीं होता । इस मन्त्र को दूसरे शिष्यों
को और विशेष रूप से दुष्टों को नहीं देना चाहिये । भक्त शिष्यों को इसे देना
चाहिये । अन्यथा साधक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जो साधक इस कवच को जाने बिना
बगलामुखी की साधना करता है, उसे शतकोटि जप करने
पर भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती।
दाराढ्यो मनुजोस्य लक्षजपतः
प्राप्नोति सिद्धिम्परां विद्यां
श्रीविजयन्तथा सुनियतन्धारञ्च वीरं
वरम् ॥
ब्रह्मास्त्राख्यमनुं विलिख्य
नितराम्भूर्जेष्टगन्धेन वै धृत्वा राजपुरं
व्रजन्ति खलु ये दासोऽस्ति
तेषान्नृपः ॥ ३८॥
बहुत स्त्रियों वाला मनुष्य इस
मन्त्र का एक लाख जप करने से परमसिद्धि तथा निश्चित विजय को प्राप्त करता है।
भोजपत्र पर अष्टगंध से इस ब्रह्मास्त्र मन्त्र को लिखकर उसे धारण करके जो राजदरबार
में जाता है उसका राजा दास बन जाता है।
इति विश्वसारोद्धारतन्त्रे
पार्वतीश्वरसंवादे बगलामुखीकवचं सम्पूर्णम् ॥
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