नारदसंहिता अध्याय ३२
नारदसंहिता अध्याय ३२ में यात्राप्रकरण का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ३२
॥ अथ यात्राप्रकरणम् ॥
अथ यात्रा यथा नृणामभीष्टफलसिद्धये
।
स्यात्तथा ता प्रवक्ष्यामि
सम्यग्विज्ञातजन्मनाम् ॥१॥
जिस प्रकार मनुष्यों को अभीष्ट
फलदायी यात्रा होती है तिसको ज्ञानवान् द्विजातियों के वास्ते अच्छे प्रकार कहते
हैं ।। १ ।।
अज्ञातजन्मनांनृणां
फलाप्तिर्घुणवर्णवत् ॥
प्रश्नोदयनिमित्तायैस्तेषामपि
फलोदयः ।। २ ॥
और जो अज्ञातजन्मवाले मूर्ख जन हैं
तिनको घुणाक्षरन्याय से भी सुख की प्राप्ति होती है (घुणाक्षरन्याय यह है कि जैसे
घुण लकड़ी को खाता है वहां चिह्न होता है तो कभी दैवयोग से राम ऐसे अक्षर भी लिखे
जाते हैं यह घुणाक्षर न्याय है ) तिन मूर्खों को भी प्रश्नोदय निमित्त आदिकों से
ही फल को उदय होता है ॥ २ ॥
षष्टयष्टमी द्वादशी च रिक्तामा
पूर्णिमासु च ।
यात्रा शुक्लप्रतिपदि निधनायाधनाय च
॥ ३ ॥
षष्ठी,
अष्टमी, द्वादशी, रिक्तातिथि,
अमावस्या, पूर्णिमा, शुक्लपक्ष
की प्रतिपदा इन्होंने यात्रा करनी मृत्यु के बास्ते और निर्धनता के वास्ते की है ।
३ ।
पौष्णेर्कंद्वश्विमित्राग्निहरितिष्यव
सूडुषु ।
नव सप्त पंचायेषु
यात्राभीष्टफलप्रदा ॥ ९ ॥
रेवती,
हस्त, मृगशिर, अश्विनी,
अनुराधा, कृत्तिका, श्रवण
पुष्य, धनिष्ठा इन नक्षत्रों में यात्रा करना शुभ है नवमां,
पांचवाँ सातवां, ग्यारहवां चंद्रमा शुभ है । ।
४ ।।
न मंन्देऽन्दुदिने प्राचीं न
व्रजेद्दक्षिणां गुरौ ॥
सितार्कयोर्न प्रतीचीं नोदीचीं
ज्ञारयोर्दिने ॥९॥
सोम तथा शनिवार को पूर्वदिशा में
गमन नहीं करना, बृहस्पति वार को दक्षिण में गमन
नहीं करना, शुक्र तथा रविवार को पश्चिम को गमन नहीं करना,
बुध और मंगलवार को उत्तर दिशा में गमन नहीं करना ।। ५
इन्द्रोजपादचतुरास्यार्यमर्क्षाणि
पूर्वतः ।
शूलानि
सर्वद्वाराणि मैत्रार्केज्याश्विभानि च ॥ ६ ॥
ज्येष्ठा ३,
पूर्वाषाढ २, रोहिणी ३, उत्तराफाल्गुनी
४ ये नक्षत्र यथाक्रम से पूर्व आदि दिशा में शूलरूप हैं और अनुराधा, हस्त, पुष्य, अश्विनी ये
नक्षत्र सब दिशाओं में शुभ हैं ॥ । ६ ॥
क्रमाद्दिग्द्वारभानि स्युः
सप्तसप्ताग्निधिष्ण्यतः ।
वाय्वाग्निदिग्गतं
दंडं परिघं तु न लंघयेत् ॥ ७ ॥
और कृत्तिका आदि सात २ नक्षत्र
पूर्व आदि दिशाओं में यथाक्रम से दिग्द्वार नक्षत्र कहे हैं। और वायु तथा अग्निकोण
में रेखादंड है। अर्थात् पूर्वंदिग्द्वारि नक्षत्रों में उत्तर को गमन करना और
दक्षिण पश्चिम की एकता करनी परंतु इस वायव्य अग्निकोण की रेखा को उल्लंघन नहीं
करना इस परिघ में गमन नहीं करना चाहिये॥७॥
आग्नेय्यां
पूर्वदिग्धिष्ण्यैर्विदिशश्चैवमेव हि॥
दिग्राशयस्तु
क्रमशो मेषाद्याश्च पुनःपुनः॥ ८ ॥
और कोणों में गमन करना हो तो यह
व्यवस्था है कि पूर्वदिग्द्वारि नक्षत्रों में अग्निकोण में गमन करना फिर इसी क्रम
से दक्षिण दिशा के नक्षत्रों में नैर्ऋत में गमन करना । वायव्य के नक्षत्रों में
पश्चिम के नक्षत्रों में गमन करना और मेषादिक राशि तीन वार आवृत्ति होकर पूर्वादि दिशाओं
में रहती हैं जैसे १।५।९ पूर्व में २। ६ १ ० दक्षिण ० ३ । ७ । ११ पश्चि ० ४ ।८ ।
१२ उनमें यही चंद्रमा का वास है ।। ८ ।।
नारदसंहिता अध्याय ३२
अथ दिकूस्वामिनः लालाटियोगश्च ।
दिगीशाः
सूर्यशुक्रारराह्वार्कीन्दुसूरयः ॥
दिगीश्वरे ललाटस्थे यातुर्न
पुनरागमः ॥ ९॥
सूर्य १८ शुक्र २,
मंगल ३ राहु ४, शनि ५, चंद्रमा
६, बुध ७, बृहस्पति ८ ये पूर्व आदि
दिशाओं के स्वामी हैं। दिगीश्वर यह लालट ( मस्तक ) पर होय तव गमन करनेवालों का फिर
उल्टा आगमन नहीं हो । ९ ।।
लग्नस्थ भास्करः प्राच्यां दिशि
यातुर्ललाटगः ।
द्वादशैकादशः शुक्र आग्नेय्यां तु
ललाटगः ॥ १० ॥
जैसे कि लग्न में सूर्य होवे तब
पूर्वदिशा में जानेवाले को ललाट योग है और १२ । ११ घर शुक्र हो तब अग्निकोण में
ललाटग योग है ॥ १० ॥
दशमस्थ कुजो लग्नाद्याम्यायां तु
ललाटगः ॥
नवमोऽष्टमगो राहुर्नेर्ऋत्यां तु
ललाटगः ॥ ११ ॥
लग्न से १० घर मंगल हो तब दक्षिण दिशा
में और लग्न से नवमें तथा आठवें राहु होवे तब नैर्ऋत कोण में ललाटग योग है ।। ११॥
लग्नात्सप्तमगः सौरिः प्रतीच्यां तु
ललाटगः ॥
षष्टपंचमगश्चंद्रो वाय्व्यां तु
ललाटगः ॥ १२ ॥
लग्न से ७ शनि हो तब पश्चिम दिशा में
ललाटग योग है छठे और पांचवें चंद्रमा हो तब वायव्य कोण में ललाटग है ।। १२ ॥ ।
चतुर्थस्थानगः सौम्य उत्तरस्यां
ललाटगः॥
द्वित्रिस्थानगतो जीव ईशान्यां तु
ललाटगः ॥ १३ ॥
चौथे स्थान बुध हो तब उत्तर दिशा में
ललाटयोग है, लग्न से २ । ३ घर बृहस्पति हो
तब ईशान कोण में जानेवाले के मस्तक पर दिगीश्वर है ।१३ ॥
ललाटगं तु संत्यज्य
जीवितेच्छुर्व्रजेन्नरः ।
विलोमगो ग्रहो यस्य यात्रालग्नोपगो
यदि ॥ १४ ॥
जीवने की इच्छावाला मनुष्य इस ललाटग
योग को त्यागकर गमन करै राजा को जो ग्रह जन्मलग्न में नेष्ट हो वह ग्रह यात्रा लग्न
में हो तो उस लग्न में ॥ १४ ॥
तस्य भंगप्रदो राज्ञस्तद्वर्गोपि
विलग्नगः ।
रवींद्वयनयोर्यानमनुकूलं शुभप्रदम्
॥ १५ ॥
राजा गमन करे त मनोरथ भंग है और उस
ग्रह की राशि नवांशक भी अशुभ है । और सूर्य चंद्रमा की अयन के अनुकूल गमन करना शुभ
है जैसे सूर्य उत्तरायण हो चंद्रमा भी उत्तरायण हो तब उत्तर पूर्व में गमन करना और
सूर्य चंद्रमा दक्षिणायन होवे तब दक्षिण पश्चिम में गमन करना ॥ १५ ॥
तदभावे दिवा रात्रौ यात्रा
यातुर्वधोऽन्यथा॥
मूढे
शुक्रे कार्यहानिः प्रतिशुक्रे पराजयः ॥ १६ ॥
और जो सूर्य चंद्रमा भिन्न २ अयन में
होवें तो सूर्य की अयनों तो दिन में गमन करना और चंद्रमा के अयन में रात्रि में
गमन करना। इससे अन्यथा गमन करनेवाले का वध होता है । शुक्रास्त में गमन करे तो
कार्य की हानि हो शुक्र की सन्मुख गमन करे तो पराजय हार ) होवे ॥ १६ ॥
प्रतिशुक्रकृतं दोषं हंति शुक्रो
ग्रहा न हि ।
वसिष्ठः काश्यपेयोत्रिर्भरद्वाजः
सगौतमः।। १७ ।।
शुक्र के मन्मुख गमन के दोष को
शुक्र ही दूर कर सकता है अन्य ग्रह नहीं कर सकते । और वसिष्ठ,
कश्यप, अत्रि, भरद्वाज
गौतम॥ १७॥
एतेषां पंचगोत्राणां प्रतिशुक्रो न
विद्यते ।
एकग्रामे विवाहे च दुर्भिक्षे
राजविप्लवे ॥ १८ ॥
इन पांच गोत्रवालों को शुक्र के
सम्मुख जाने का दोष नहीं है । और एक ग्राम, विवाह,
दुर्भिक्ष, राजभंग ॥ १८ ॥
द्विजक्षोभे नृपक्षोभे प्रतिशुक्रो
न विद्यते ॥
नीचगोऽरिग्रहस्थो वा वक्रगो वा
पराजितः १९ ।।
ब्राह्मणशाप,
राजा का क्रोध इन कामों में शुक्र के सन्मुख जाने का दोष नहीं है।
नीचराशि पर स्थित, शत्रु के घर में स्थित, वक्री अथवा पापग्रहों से आक्रांत । १९ ॥
यातुर्भगप्रदः शुक्रः स्वांशस्थे च
जयप्रदः ।
स्वेष्टलग्नष्टराशौ वा
शत्रुभात्षष्ठगोपि वा ॥ २० ॥
ऐसा शुक्र गमन करनेवाले के मनोरथ को
नष्ट करता है और अपनी राशि के नवांशक में स्थित होय तो विजय करता है स्वेष्टलग्न में
अथवा लग्न से आठवीं राशि पर अथवा शत्रु की राशि से छठी राशि पर शुक्र हो ॥ २० ॥
तेषामीशस्य राशौ वा यातुर्मृत्युर्न
संशयः ।
जन्मेशाष्टमलग्नेशौ मिथो
मित्रव्यस्थितौ ॥ २१ ॥
अथवा शत्रुओं की राशि लग्न के
स्वामी के घर में हो तब गमन करनेवाले की मृत्यु होती है और जन्मलग्न तथा जन्मलग्न से
आठवें घर का पति इन दोनों की आपस में मित्रता होवे ।। २१ ॥
जन्मराश्यष्टमर्क्षेषु दोषा नश्यंति
भावतः ॥
क्रूरग्रहेक्षितो युक्तो
द्विस्वभावोपि भंगदः ॥ २२ ॥
फ़िर वे जन्मलग्न में तथा आठवें घर में
स्थित होवें तो स्वभाव से ही सब दोष नष्ट होते हैं और क्रूरग्रह से युक्त तथा दृष्ट
पापग्रह कार्य को भंग करता है । २२ ॥
याने शुभैर्दृष्टश्च
शुभयुक्तेक्षितः शुभः ।
वस्वंत्यार्द्धादिपंचर्क्षे संग्रहे
तृणकाष्टयोः ॥
याम्यदिग्गमनं शय्या कुर्यान्नो
गृहगोपनम् ॥ २३ ॥
गमन समय वह पापग्रह शुभग्रहों से
दृष्ट नहीं है तो अशुभ है और शुभग्रहों से युक्त तथा दृष्ट हो तो शुभ जानना। और
धनिष्ठा का अर्धउत्तरभाग आदि, रेवती पर्यंत
पांच नक्षत्र पंचक कहलाते हैं। इसमें तृण काष्ठ आदि का संग्रह नहीं करना और
दक्षिण- दिशा में गमन नहीं करना, शय्या नहीं बनानी, घर नहीं छावना ॥ २३ ॥
जन्मोदये लग्नगते दिग्लग्ने
लग्नगोपि वा ॥
शुभे चतुर्षु केंद्रेषु
यातेशत्रुक्षयो भवेत् ॥ २४ ॥
जन्मलग्न शुभग्रहों से युक्त हो उस
लग्न में अथवा दिग्द्वारि लग्न में तथा शुभग्रह चारों केंद्रों में प्राप्त होने के
समय गमन करे में शत्रु नष्ट होवें ।। २४ ।।
शीर्षोदये लग्नगते दिग्लग्ने
लग्नतोपि वा ।
शुभवर्गे वा लग्ने यातुः शत्रुक्षयो
भवेत् ॥ २५॥
शीर्षोदय कहिये ५। ६ । ७ । ८ । ११
ये लग्न होवें अथवा दिग्द्वारि लग्न हो अथवा शुभग्रह की राशि का लग्न हो तब गमन
करनेवाले को शुभफल होता है । २५ ।।
शीर्षोदये जन्मराशौ लग्नं शुभयुतं
तथा ॥
तयो राशिस्थिते राशौ यातुः
शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २६ ॥
शीर्षोदय लग्न विषे जन्म की राशि हो
अथवा शुभ ग्रह से युक्त जन्मलग्न हो तब उसी राशि के लग्नविषे गमन करे तो शत्रु
नष्ट हो ।। २६ ।
शत्रुजन्मोदये जन्म राशिश्च निधनं
तयोः ।
यो राशिस्तत्र वै राशौ यातुः
शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २७ ॥
शत्रु का जन्मलग्न और जन्मराशी से
आठवीं राशि के लग्न में गमन करे तो गमन करनेवाले का शत्रु नष्ट हो ।
वक्रे तथा मीनलग्ने
यातुर्मीनांशकेऽपि वा ।
निंद्यं निखिलयात्रासु घटलग्नं
घटांशकः ॥ २८॥
मीन लग्न में तथा मीन के नवांशक में
गमन करना अशुभ है। और कुंभलग्न तथा कुंभ के नवांशक में सब तर्फ की यात्रा करनी
अशुभ है । २८ ॥
जलोदये जलांशे वा जलजातेः शुभावहाः
॥
मूर्तिकोशोथ धानुष्कं वाहनं
मंत्रसंज्ञकम् ॥ २९ ॥
शत्रुमार्गस्तथायुश्च भाग्यं
व्यापारसंज्ञितः ।
प्राप्तिरप्राप्तिरुदयाद्भावाः
स्युर्द्वादशैव तु ॥ ३० ॥
जलचर राशि के लग्न में तथा नवांशक में
जलजाति के कार्य करने शुभदायक हैं । अब स्थानसंज्ञा कहते हैं मूर्ति १,
कोश २, धानुष्क ३, वाहन
४, मंत्र ५, शत्रु ६ , मार्ग ७१ आयु ८, भाग्य ९, व्यापार१०,
प्राप्ति १३ , व्यय १२ ये प्रथम आदि बारह
भावों के नाम हैं ।। २९ - ३० ॥
हंति पापस्त्वायवर्जं
भावात्सूर्यमहीसुतौ ।
न निहंतोऽगेहं च सौम्याः
पुष्यंत्यरिं विना॥ ३१ ॥
पापग्रह ग्यारहवें घर विना अन्य घर को
नष्ट करता है और सूर्य मंगल छठे घर में अशुभ नहीं हैं और शुभ ग्रह छठे घर बिना
अन्य घरों में शुभदायक हैं । । ३१ ॥
शुक्रोस्तं चापि पुष्टोपि
मूर्तिर्मृत्युश्च चंद्रमाः ।
याम्यदिग्गमनं रिक्ता सर्वकाष्ठासु
यायिनाम् ॥ ३२ ॥
शुक्र सातवें अशुभ है और बली भी
चंद्रमा लग्न में तथा आठवें घर अशुभ है विशेषकरके दक्षिण दिशा में अशुभ है और रिक्तातिथि
सब दिशा में वर्जित हैं ॥ ३२ ॥
अभिजित्क्षणयोगोयमभीष्टफलसिद्धिदः ॥
पंचांगशुद्धिरहिते दिवसेऽपि
फलप्रदः॥ ३३ ॥
ऐसे मुहूर्त में अभिजित् क्षण योग
होता है तिसमें गमन करने से मनोरथ सिद्ध होता है पचांग शुद्धि रहित दिन में भी यह
योग संपूर्ण शुभदायक है ।। ३३ ।।
यात्रा योगे विचित्रास्तान्येन
वक्ष्ये इतस्ततः॥
फलसिद्धिर्योगलग्नाद्राज्ञो
विप्रस्य धिष्ण्यतः ॥ ३४ ॥
अच्छे ग्रहयोग होने में यात्रा अनेक
प्रकार फल देनेवाली होती है इसलिये इन योगों को कहते हैं । राजाओं की योग लग्न में
सिद्धि होती है, बाह्मणों की शुभ नक्षत्र में
गमन करने से सिद्धि होती है ।। ३४ ।।
मूर्तितः शक्तितोन्येषां
शकुनैस्तस्करस्य च ।
केंद्रत्रिकोणेष्वेकेन योगः शुक्रेण
सूरिणा ॥ ३५ ॥
अतियोगो भवेद्दाभ्यां
त्रिभिर्योगोधियोगकः ॥
योगे यियासतां क्षेममतियोगे जयो
भवेत् ॥ ३६ ॥
अन्य वैश्य आदिकों की लग्न से तथा
अच्छे शुभ मुहूर्त से सिद्ध होती है, चोर
गमन करे तब अच्छा शुभ शकुन होने से ही सिद्धि होती है । केंद्र में अथवा त्रिकोण
में अकेला शुक्र अथवा अकेला बृहस्पति होय तो एक अच्छा योग होता है और दोनों होवें
तो अतियोग होता है, तीन ग्रहों का अच्छा योग हो तो अधियोग होता
है एक अच्छा योग में गमन करें तो क्षेम कुशल रहे। अतियोग में जय हो ॥ ३५ - ३६ ॥
योगातियोगे क्षेमं च विजयाय विभूतयः
॥ ३७ ॥
अधियोग में गमन करे तो क्षेम विजय
विभूति होती है ॥ ३७ ॥
व्यापारशत्रुमूर्तिस्थैश्चंद्रमंददिवाकरैः॥
रणे गतस्य भूपस्य जयलक्ष्मीप्रमाणता
॥ ३८ ॥
दशवां तथा छठा घर में वा लग्न में
चंद्रमा,
शनि, सूर्य होवे हों तो रण में प्राप्त हुए (
गमन करनेवाले ) राजा को विजयलक्ष्मी की प्राप्ति होती है । ३८ ॥
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां यात्राप्रकरणाध्याय
द्वात्रिंशत्तमः ।। ३२ ।।
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ३३ ॥
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