भवनभास्कर अध्याय १
भवनभास्कर भवन(मकान)प्रसाद
निर्माण में प्रयुक्त होने वाला वास्तु सबंधित सक्षिप्त ग्रन्थ है । भवनभास्कर के
इस अध्याय १ में वास्तुपुरुष का प्रादुर्भाव और वास्तुशास्त्र के उपदेष्टा का
वर्णन किया गया है।
हिन्दू-संस्कृति बहुत विलक्षण है । इसके
सभी सिद्धान्त पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य मनुष्यमात्र का
कल्याण करना है । मनुष्यमात्र का सुगमता से एवं शीघ्रता से कल्याण कैसे हो - इसका
जितना गम्भीर विचार हिन्दू-संस्कृति में किया गया हैं,
उतना अन्यत्र नहीं मिलता । जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य जिन -
जिन वस्तुओं एवं व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है और जो-जो क्रियाऍं करता है,
उन सबको हमारे क्रान्तदर्शी ॠषि-मुनियों ने बडे वैज्ञानिक ढंग से
सुनियोजित, मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है और उन सबका
पर्यवसान परम श्रेय की प्राप्ति में किया है । इतना ही नहीं , मनुष्य अपने निवास के लिये भवन-निर्माण करता है तो उसको भी वास्तुशास्त्र के
द्वारा मर्यादित किया है । वास्तुशास्त्र का उद्देश्य भी मनुष्य को कल्याण-मार्ग में
लगाना है -
'वास्तुशास्त्रं
प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया'( विश्वकर्मप्रकाश)
।
शास्त्र की मर्यादा के अनुसार चलने से
अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरण में ही कल्याण की इच्छा जाग्रत् होती है
।
भवनभास्कर पहला अध्याय
भवनभास्कर
पहला अध्याय
लम्बोदरं परमसुन्दमेकदन्तं
रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम्
उद्याद्दिवाकरनिभोज्ज्वलकान्तिकान्तं
विघ्रेश्वरं सकलविघ्रहरं नमामि ॥
स्त्रुक् तुण्ड सामस्वरधीरनाद
प्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे ।
पूर्तेष्टधर्मश्रवणोऽसि देव
सनातनात्मन्भगवन्प्रसीद ॥
भवनभास्कर अध्याय १
वास्तुपुरुष का प्रादुर्भाव और
वास्तुशास्त्र के उपदेष्टा
भगवान् शङ्कर ने जिस समय अन्धकासुर का
वध किया,
उस समय उनके ललाट से पृथ्वी पर पसीने की बुँदे गिरी । उनसे एक
विकराल मुखवाला प्राणी उत्पन्न हुआ । उस प्राणी ने पृथ्वी पर गिरे हुए अन्धकों के
रक्त का पान कर लिया । फिर भी जब वह तृप्त नहीं हुआ, तब वह
भगवान् शङकर के सम्मुख घोर तपस्या करने लगा । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान
शङ्कर ने उससे कहा कि तुम्हारी जो कामना हो, वह माँग लो ।
उसने वर माँगा कि मैं तीनों लोकों को ग्रसने में समर्थ होना चाहता हुँ । वर
प्राप्त करने के बाद वह अपने विशाल शरीर से तीनों लोकों को अवरुद्ध करता हुआ
पृथ्वी पर आ गिरा । तब भयभीत देवताओं ने उसको अधोमुख करके वहीं स्तम्भित कर दिया ।
जिस देवता ने उसको जहाँ दबा रखा था, वह देवता उसके उसी अंग पर
निवास करने लगा। सभी देवताओं के निवास करने के कारण वह ' वास्तु
' नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्र्च विश्वकर्मा
मयस्तथा ।
नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः
पुरन्दरः ॥
ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग
एव च ।
वासुदेवोऽनिरुद्धश्र्च तथा
शुक्रबृहस्पती ॥
अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः ।( मत्स्यपुराण २५२ । २-४ )
'भृगु, अत्रि,
वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय,
नारद, नग्नाजित्, भगवान्
शङ्कर, इन्द्र, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश्वर, शौनक,
गर्ग, भगवान् वासुदेव, अनिरुद्ध,
शुक्र तथा बृहस्पति - ये अठारह वास्तुशास्त्र के उपदेष्टा माने गये
हैं ।'
जब मनुष्य अपने निवास के लिये ईंट,
पत्थर आदि से गृह का निर्माण करता हैं, तब उस
गृह में वास्तुशास्त्र के नियम लागू हो जाते हैं । वास्तुशास्त्र के नियम ईंट,
पत्थर आदि की दीवार के भीतर ही लागू होते हैं । तारबंदी आदि के भीतर,
जिसमें से वायु "आर - पार होती हो, वास्तुशास्त्र
के नियम लागू नहीं होते ।
वास्तुशास्त्र में दिशाओं का बहुत
महत्त्व है । सूर्य के उत्तरायण या दक्षिणायन में जाने पर उत्तर और दक्षिण तो वही
रहते हैं , पर पूर्व और पश्चिम में अन्तर
पड़ जाता है । इसलिये ठीक दिशा का ज्ञान करने के लिये दिग्दर्शकयन्त्र (कम्पास) -
की सहायता लेनी चाहिये । इस यन्त्र में तीन सौ साठ डिग्री रहती है, जिसमें ( आठों दिशाओं में ) प्रत्येक दिशा की पैंतालीस डिग्री रहती है ।
अतः दिशा का ठीक ज्ञान करने के लिये डिग्री को देखना बहुत आवश्यक है । दिशाओं की
स्थिति इस प्रकार है-
ईशान |
पूर्व |
आग्नेय |
उत्तर |
केन्द्र |
दक्षिण |
वायव्य |
पश्चिम |
नैऋत्य |
भवनभास्कर अध्याय १ सम्पूर्ण ॥
आगे जारी.......................भवनभास्कर अध्याय २
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