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कर्मकाण्ड

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दुर्गा सप्तशती प्रयोग

दुर्गा सप्तशती प्रयोग

श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है, इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस भाग ७ में दुर्गा सप्तशती प्रयोग का वर्णन है।

दुर्गा सप्तशती प्रयोग

अथ दुर्गासप्तशतीप्रयोग: ।

तत्रादौ चरित्रत्रयरहस्यत्रयनिर्णयो रुद्रयामले ।

उसमें आदि में तीनों चरित्रों तथा तीनों रहस्यों का निर्णय रुद्रयामल में इस प्रकार वर्णित है :

प्रथमं चरितं प्रोक्तं मधुकैटमघातनम्‌ ।

द्वितीयं विद्धि चरितं महिषासुरघातनम्‌ ॥१॥

उत्तरं चरितं ज्ञेयं शुम्भदैत्यवधान्वितम्‌ ।

चरितानि जपेत्त्रीणि सरहस्यान्यतन्द्रितः ॥ २ ॥

रहस्यं मन्त्रांत्याध्यायद्वयं त्रयं वा ।

चरितं मध्यमं वापि जपेद्वा चण्डिकामयम्‌ |

नमो देव्या इमं मन्त्र जपेद्वा कालिकाप्रियम्‌ ।

इति मार्कण्डेय खिलत्वेन प्रसिद्धे ग्रन्थे तुक्तम्‌ ।

पहला चरित्र मधु और कैटभ का संहार है । दूसरा चरित्र महिषासुर का विनाश है । तीसरा चरित्र है शुम्भदैत्य का वध करना । साधक को सचेत होकर रहस्यों सहित तीनों चरित्रों का जप करना चाहिये । रहस्य मन्त्राध्याय के लिये अन्तिम दो या तीन अध्याय, या चंडीकामय मध्यम अध्याय का जप करना चाहिए अथवा नमो देव्या' यह प्रतीक जिसमें है उसका जप करे जो कालिका को प्रिय है ।यह मार्कण्डेय खिल नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ में कहा गया है ।

दुर्गा सप्तशती प्रयोग

अथ दुर्गापाठक्रम : ॥

आधारे स्थापयित्वा तु पुस्तक वाचयेत्ततः ।

हस्ते संस्थापनाद्देवि हंत्यर्धं हि फलं यतः ॥ ३॥

हे देवि, आधार (रेठल ) पर पुस्तक को रख कर पाठ करना चाहिये क्योंकि पुस्तक को हाथ में रखने से आधा फल नष्ट हो जाता है ।

पुस्तके वाचनं हस्तं हसस्रादधिकं यदि।

ततो न्यूनस्य तु भवेद्वाचनं पुस्तकं विना ॥ ४ ॥

पुस्तक हाथ में लेकर हजार बार से भी अधिक पाठ करने से जितना फल होता है उतना फल बिना पुस्तक के उससे कम पाठ करने से ही प्राप्त हो जाता है ।

न स्वयं लिखिलं स्तोत्र न ब्राह्मणलिपिं पठेत्‌ ।

न च स्वयंकृतं स्तोत्र तथान्येन च यत्कृतम्‌ ॥ ५॥

यतः करभौ प्रशंसन्ति ऋषिभिर्भाषितं तु यत्‌ ।

अनुक्रमात्पठेदेवे॑ शिरःकम्पादिकं त्यजेत् ॥ ६॥

पठ्यमानाध्यायमध्ये विरामो यदि वा भवेत्‌ ।

पुनरध्यायमारभ्य पठेत्सर्वमुदारधीः ॥७॥

स्वयं लिखे या ब्राह्मण से भिन्न व्यक्ति द्वारा लिखे, स्वयं बनाये या अन्य द्वारा बनाये स्तोत्र का पाठ न करे क्योंकि विज्ञ लोग करभों (कर पृष्ठ भागों ) की प्रशंसा करते हैं । जो ऋषियों द्वारा निर्मित स्तोत्र या मन्त्र है उसे अनुक्रम से पढ़ना चाहिये । शिर आदि अङ्गों का कँपाना त्याग देवे । पढ़े जाने वाले अध्याय में यदि किसी कारण कहीं रुकावट हो जाय तो पाठक उदार होकर उस अध्याय को पुनः प्रारम्भ से पढ़े ।

प्रणवं पूर्वमुच्चार्य स्तोत्र वा संहितां पठेत ।

अन्ते च प्रणवं दद्यादित्युवाचादिपुरुषः ॥ ८ ॥

न मानसं पठेत्स्तोत्रं वाचिकं तु प्रशस्यते ।

पहले प्रणव (ॐ) का उच्चारण करके स्तोत्र या संहिता का पाठ करें । को मन में नहीं पढ़ाना चाहिये । उच्चारण करके पढ़ना उत्तम माना जाता है ।

नानेन सदृशं स्तोत्रं विद्यते भुवनत्रये ॥ ९॥

ततश्चवानेन देवेशि तोष्यते प्रत्यहं नरै: ।

धर्मार्थकाममोक्षाणामालयो जायते नरः ॥१०॥

इस स्तोत्र के समान तीनों भुवनों में कोई स्तोत्र नहीं है । हे देवेशि, इससे मनुष्यों द्वारा देवी की तुष्टि की जाती हैं। इसके पाठ से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का आगार बन जाता है ।

सप्तशतीपाठेङ्गषट्कस्य मुख्यतामपठने दोषं चाह ।

अङ्गहीनो यथा देही सर्वकर्मसु न क्षमः ।

अङ्गषट्कविहीना तु तथा सप्तशती स्तुतिः ॥११॥

तस्मादेतत्पठित्वैवं जपेत्सप्तशती पराम् ।

अन्यथा शापमाप्नोति हानिं चैव पदेपदे ॥१२॥

सप्तशती के पाठ में षडङ्ग की मुख्यता है अतः उसका पाठ न करने में दोष कहा है । जैसे शरीरधारी अङ्गहीन होने पर सब काम करने में असमर्थ होता है वैसे ही षडङ्गविहीन सप्तशती की स्तुति भी है । इसलिए षडङ्ग का पाठ करके ही परम सप्तशती का जप करना चाहिये।अन्यथा पाठक शाप को प्राप्त होता है और पगपग पर उसे हानि उठानी पड़ती है।

रावणाद्याः स्तोत्रमेतदङ्गहीनं निषेविरे ।

हता रामेण ते यस्मान्नाङ्गहीनं पठेत्ततः ॥१३॥

अङ्गषट्कं विजानीयात्कवचार्गलकीलकैः ।

रहस्यत्रितये नैव सहितैर्मनुजेश्वर ॥ १४॥

रावण आदि ने अङ्गविहीन देवीस्तोत्र का पाठ किया था, इस कारण राम से वे मारे गये । इसलिए अङ्गविहीन पाठ न करे। हे मनुजेश्वर, कवच, अर्गला, कीलक ये तीन तथा तीन रहस्य, ये मिलकर षडङ्ग कहलाते हैं, ऐसा जानना चाहिये।

सप्तशतीपाठे कवचार्गलाकीलकानामावश्यकतामाह उक्तं च देवीमाहात्म्ये :

सप्तशती पाठ में कवच, अर्गला और कीलक की आवश्यकता कही गयी है। देवीमाहात्म्य में कथा इस प्रकार है :

पुरा दशमुखो ब्रह्मन्दिव्यमानो विहायसि ।

गच्छन्नत्युर्ध्वमार्ग: सन्सर्वदिक्षु विचारयन्‌ ॥१५॥

भुविसप्तशतीमालापरायणपरं द्विजम्‌ ।

अवतीर्य समालोक्य किमिदं पठ्यते द्विज ॥ १६॥

इत्युक्तवा प्रददौ छत्रं सन्तुष्टस्तु द्विजोत्तमः ।

स्वपुस्तकं दशास्याय प्रददौ भक्तिदायकः ॥ १७॥

हे ब्राह्मन्, प्राचीनकाल में एक बार रावण आकाश में बहुत ऊपर उड़ता हुआ सब दिशाओं में देखता जा रहा था । तब उसने पृथिवी पर सप्तशती माला का जप करते हुए एक ब्राह्मण को देखा। नीचे उतर कर उसने पूछा : हे द्विज, तुम क्या पढ़ रहे हो ? यह कह कर उसने ब्राह्मण को एक छाता दिया । भक्तिदायक ब्राह्मण ने भी प्रसन्न होकर अपनी सप्तशती की पुस्तक रावण को दे दी ।

आदाय रावणो दृष्ट्वा शाकम्भर्या मनुस्तवम्‌ ।

भीमास्तदृष्टिः सन्‌ स्तोत्रमयाकृष्याविशेषितम्‌ ॥ १८ ॥

भीमादेवी द्वारा लुप्त दृष्टि वाला होकर वह रावण शाकम्भरी के मंत्र - स्तुति से युक्त उस स्तोत्र को लेकर चला गया । कवच, कीलक तथा अर्गला आदि भीमादेवी के द्वारा निकाल दिये जाने के कारण वह स्तोत्र अविशेषित हो गया था ।

देवब्रह्म स्तुतियुतं चरित्रत्रितयान्वितम्‌ ।

सम्पूज्य पुस्तकं पाठाद्देवास्तु निधनं गताः ॥ १९ ॥।

आरुण्याख्यस्ततो दैत्यस्त्रैलोक्यं चातिपीडयन्‌ ।

ततो देवा ऋषिस्तोत्रं विना सप्तशतीमनुम्‌ ॥ २०॥।

जपंतस्तु महाकालं महादेवीमुपासत ।

अप्रसन्ना महादेवी देवा ब्रह्माणमाययु: ॥ २१॥  

शनैर्विष्णुं शनैः शम्भुं दृष्ट्वा सर्व व्यवोधयन्‌ ।

देवब्रह्म स्तुतियुक्त तीन चरित्रों से अन्वित उस पुस्तक का पूजन कर पाठ करने से देवता मृत्यु को प्राप्त हो गये । उस समय अरुण नामक एक दैत्य तीनों लोकों को अत्यन्त पीड़ा देने लगा । तब देवता सप्तशती मन्त्र के बिना ही ऋषिस्तोत्र का जप करते हुए महाकाल तथा दुर्गा की उपासना करने लगे । तब महादेवी दुर्गा अप्रसन्न हो गयीं । तब देवता ब्रह्मा के पास आये । धीरे - धीरे विष्णु को तथा शिव को भी उन्होंने सब बताया ।

ईश्वरस्तान् समालोक्य कवचार्गलकीलकैः ॥ २२॥

सहसप्तशतीमालामहातन्त्रमुपादिशत्‌ ।

ततः प्रसन्ना श्रीदेवी भ्रामरं रूपमाश्रिता ॥ २३ ॥

अनेकभ्रामरै:  सार्धमरुणाख्यं महासुरम्‌ ।

हत्वा ब्रह्मादिदेवानां भीतानामभयं ददौ ॥२४॥

शिवजी ने उन लोगों को दु:खित देखकर प्रथम कवच, अर्गला तथा उसके बाद कीलक के साथ सप्तशतीमाला महातन्त्ररूप दुर्गापाठ के क्रम का उपदेश किया । इससे देवी ने प्रसन्न होकर भ्रमर रूप को धारण कर लिया और अनेक भ्रमरों के साथ अरुण नामक महासुर को मार कर ब्रह्मादि देवों को अभय प्रदान किया ।

ब्रह्मा मृकण्डपुत्रायः सुरधाय समाधये ।

मार्कण्डेयाय ताभ्यां च प्रसन्ना जगदम्बिका ॥ २५॥

ब्राह्मण मृकण्डुपुत्र मार्कण्डेय, क्षत्रियराज सुरथ तथा समाधि नामक वैश्य पर जगदम्बिका प्रसन्न हुई।

जय त्वं च जयन्ती च श्लोकद्वितयमर्गलम्‌ ।

मधुकैटभविद्रावि विधात्रीति नवार्णकम्‌ ॥२६॥

कीलकं शङ्करप्रोक्तं कवचं ब्रह्मणा कृतम्‌ ।

अर्गलं विष्णुना प्रोक्तमेतत्त्रितयमुत्तमम्‌ ॥ २७॥

'जय त्वं' तथा 'जयन्ती मङ्गला' इन प्रतीकों वाले दो श्लोक अर्गला के रूप में कहे जाते हैं।मधुकैटभ विद्रावि विधात्री' इस प्रतीक वाले श्लोक को नवार्ण कहते हैं । शङ्कर ने कीलक कहा है; ब्रह्मा ने कवच तथा विष्णु ने अर्गला बनाया है। यह तीनों उत्तम हैं ।

अर्गलाकीलके चादौ पठित्वा कवचं पठेत्‌ ।

जपेत्सप्तशती चण्डीं क्रम एष शिवोदितः ॥ २८ ॥

पहले अर्गला और कीलक पढ़ना चाहिये उसके बाद कवच पढ़े । उसके बाद सप्तशती चण्डी का जप करना चाहिये। ऐसा शिवजी ने कहा है ।

अर्गला दुरितं हन्ति कीलकं फलदं भवेत्‌ ।

कवचं रक्षयेन्नित्यं तस्मादेत्त्रयं पठेत्‌ ॥२९॥

अर्गला हृदये यस्य तस्मादर्गलवानसौ ।

भविष्यति न सन्देहों नान्यथा शिवभाषितम्‌ ॥ ३०॥

अर्गला दुःखों को नष्ट करता है । कीलक फलदायक है । कवच नित्य रक्षा करता है। इसलिए इन तीनों का पाठ करना चाहिये । जिसके हृदय में अर्गला है, वह अर्गलवान् होगा, इसमें सन्देह नहीं है । ऐसा शिवजी ने कहा है ।

कीलक हृदये यस्य स कीलितमनोरथः ।

कवचं हृदये यस्य स वज्रकवचः प्रभुः ॥ ३१॥

जिसके हृदय में कीलक है, उसका मनोरथ कीलित है । जिसके हृदय में कवच है वह वज्रकवच वाला स्वामी है ।

कामनापरत्वेन चण्डीपाठसंख्या वाराहीतन्त्रे ।

कामनापरत्व से चण्डीपाठ की संख्या वाराहीतन्त्र में इस प्रकार है :

शिव उवाच :

चण्डीपाठफलं देवि श्रृणु त्वं गदतो मम ।

एकावृत्त्यादिपाठानां यथावत्कथयाम्यहम्‌ ॥ ३२॥

सङ्कल्पपूर्वं सम्पूज्य न्यस्याङ्गेषु मनून्सकृत्‌ ।

पश्चाद्बलिप्रदानेन फलमाप्नोति मानवः ॥ ३३॥

शिवजी बोले : हे देवि, चण्डीपाठ का फल मैं बतलाता हूं, तुम सुनो । एक पाठ तथा आवृत्ति पाठों का यथावत्‌ वर्णन मैं कर रहा हूँ । संकल्पपूर्वक न्यासांङ्गों में मन्त्रों का एक बार पूजन करने के बाद बलिप्रदान से मनुष्य फल पाता है ।

उपसर्गोपशांत्यर्थ त्रिरावृत्तिः पठेन्नरः ।

ग्रहोपशान्तौ कर्तव्या पञ्चावृत्तिवरानने ॥ ३४॥।

महाभये समुत्पन्ने सप्तावृत्तिमुदीरयेत् ।

नवावृत्तौ भवेच्छान्तिर्वाजपेय फलं ब्रजेत् ॥ ३५॥

राजवश्याय भूत्यै च रुद्रावृत्तिमुदीरयेत्‌ ।

उपसर्गों की शान्ति लिए मनुष्य तीन बार दुर्गसप्तशती का पाठ करे। हे वरानने, ग्रहों की शान्ति के लिए पाँच बार पाठ करना चाहिये । महाभय उपस्थित होने पर सात बार पाठ करना चाहिये । नव बार पाठ करने से शान्ति होती है, साधक वाजपेय यज्ञ का फल पाता है । राजा को वश में करने तथा कल्याण के लिए ग्यारह बार पाठ करना चाहिये ।

अर्कावृत्त्या काम्यसिद्धिर्वैरिहानिश्च जायते ॥ ३६॥

मन्वावृत्त्या रिपुर्वश्यस्तथा स्त्री वशतामियात्‌ ।

सौख्यं पञ्चादशावृत्त्या श्रियमोप्नोति मानवः ॥ ३७॥

बारह बार जप करने से अभीष्टसिद्धि तथा शत्रु का नाश होता है। चौदह बार जप करने से शत्रु और स्त्री वश में होते हैं । पन्द्रह बार जप करने से मनुष्य सुख और लक्ष्मी को प्राप्त करता है।

कल्पावृत्त्या पुत्रपौत्रधनधान्यागमं विदुः ।

राजभीतिविनाशाय विपक्षोच्चाटनाय च ॥ ३८॥

कुर्यात्सप्तदशाबृत्तिं तथाष्टद्शकं प्रिये ।

महाऋणविमोक्षाय विंशावृत्ति पठेन्नरः ॥ ३९॥

पञ्चविशावर्तनाद्धि भवेद्वन्धंविमोक्षणम्‌ ।

सोलह बार पाठ करने से पुत्र-पौत्र तथा धन-धान्य का आगम होता है । राज के भय से बचने के लिए सत्रह बार पाठ करना चाहिये । शत्रु के उच्चाटन के लिए अट्ठारह बार पाठ करना चाहिये । भारी ऋण से मुक्ति के लिए बीस बार पाठ करना चाहिये । पचीस बार पाठ करने से मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

सङ्कटे समनुप्राप्ते दुश्चिकित्स्यामये सदा ॥४०॥  

जातिध्वंसे कुलोच्छेदे ह्यायुषो नाशमागते ।

वैरिवृद्धौ व्याधिवृद्धौ धननाशे तथा क्षये ॥४१॥

तथैव त्रिविधोत्पाते तथा चैवातिपातके ।

कुर्याद्यत्नाच्छतावृत्तिं ततः सम्पद्यते शुभम्‌ ॥४२॥

विपदस्तस्य नश्यन्ति अन्ते याति परां गतिम्‌ ।

भारी सङ्कट के प्राप्त होने पर, असाध्य रोग होने पर, जाति के नाश होने पर, कुल का उच्छेद होने पर, आयु का नाश होने पर, शत्रुओं की वृद्धि में, रोग वृद्धि में, धननाश में तथा क्षय में, तीनों प्रकार के उत्पातों में तथा अतिपातक में मनुष्य को यत्न से सौ बार पाठ करना चाहिये तब शुभ होता है । ऐसा करने पर उसकी विपत्तियाँ नष्ट होती हैं तथा वह अंत में परमगति को प्राप्त होता है ।

जयवृद्धौ शतावृत्त्या राजवृद्धौ सदा पठेत् ॥४३॥

मनसा चिन्तिता देवि सिद्धिरष्टोत्तराच्छतात्‌ ।

शताश्वमेधयज्ञानां फलमाप्नोति सुव्रते ॥४४॥

सहस्त्रावर्तनाल्लाक्ष्मीरावृणोति स्वयं स्थिरा ।

भुक्त्वा कामान्यथाकामं नरो मोक्षमवाप्नुयात्‌ ॥ ४५॥

जयवृद्धि तथा राजवृद्धि में सदा पाठ करना चाहिये । मन से देवी का ध्यान कर एक सौ आठ बार जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है । हे सुब्रते, ऐसा मनुष्य सौ अश्वमेध यज्ञों के फलों को प्राप्त करता है । हजार बार पाठ करने पर लक्ष्मी स्वयं स्थिर होकर उसे घेर लेती है । समस्त भोगों को भोगकर मनुष्य अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है।

यथाश्वमेधः क्रतुषु देवानां च यथा हरिः ।

स्तवानामपि सर्वेषां तथा सप्तशतीस्तवः॥ ४६॥

नातः परतरं स्तोत्रं किञ्चिदस्ति वरानने ।

भुक्तिमुक्तिप्रदं पुण्यं पावनानां च पावनम्‌ ॥ ४७॥

अथवा बहुनोक्तेन किमन्येन वरानने ।

पञ्चाशदावृत्तिपाठात्सर्वाः सिध्यन्ति सिद्धयः ॥ ४८ ॥

जैसे यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ तथा देवों में विष्णु हैं; वैसे ही सभी स्तोत्रों में सप्तशती स्तोत्र हैं । हे वरानने, इससे बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है । यह स्तोत्र भुक्ति तथा मुक्ति को देने वाला पुण्य तथा पावन है । हे वरानने, अधिक इधर-उधर की बातें करने से क्या लाभ? पन्द्रह बार के पाठ से सभी सिद्धियाँ सिद्ध हो जाती हैं ।

श्रीदुर्गा तंत्र आगे जारी...............

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