नारदसंहिता अध्याय ३३
नारदसंहिता अध्याय ३३ में चित्रपद छंद से योग का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ३३
अथान्ययोगं चित्रपदमाह ।
वित्तगतः शशिपुत्रो भ्रातरि
वासरनाथः ।
लग्नगते भृगुपुत्रे स्युः शलभा इव
सर्वे ॥ ३९ ॥
अब चित्रपदा छंद से अन्य योग को
कहते हैं । बुध धन घर में हो, सूर्य तीसरे
घर हो, लग्न में शुक्र हो तब गमन करनेवाले राजा के आगे सब
टीडी की तरह नष्ट हो जावें ॥ ३९ ।।
लग्नस्थे त्रिदशाचार्ये धनायस्थे
परे ग्रहे ।
गतस्य राज्ञोऽरिसेना नियते यममंदिरे
॥ ४० ॥
बृहस्पति लग्न में स्थित हो और अन्य
ग्रह धनस्थान तथा ग्यारहवें स्थान में होवें तो गमन करनेवाले राजा के शत्रु की
सेना धर्मराज के स्थान में पहुँचती है । ४० ।।
लग्ने शुक्रे रवौ लाभे चंद्रे
बंधुस्थिते तदा ॥
निहंति यातुः पृतनां केशवः पूतनामिव
॥ ४१ ॥
लग्न में शुक्र हो,
सूर्य ११ घर हो, चौथे घर चंद्रमा हो, ऐसे योग में गमन करनेवाला राजा शत्रु की सेना को इस प्रकार नष्ट कर देता
है कि जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने पूतना नष्ट कर दी थी ।। ४१ ।। ।
त्रिकोणकेंद्रगाः सौम्याः
क्रूराख्यायगता यदि ।
यस्य यातुश्च
लक्ष्मीच्छास्तमुपैत्यभिसारिका ।४२ ॥
शुभग्रह नवमें पांचवें घर में हों
और क्रूरग्रह तीसरे तथा ग्यारहवें घर होवें तब गमन करनेवाले राजा के शत्रु की
लक्ष्मी व्यभिचारिणी होकर अस्त हो जाती है ॥ ४२ ॥
जीवार्कचंद्रलग्नारिरंध्रगा यदि
गच्छतः ।
तस्याग्रे स्वल्पमैत्री च न स्थिरा
रिपुवाहिनी ॥ ४३ ॥
बृहस्पति,
सूर्य, चंद्रमा, ये लग्न
में छठा घर व सातवां घर में यथाक्रम से स्थित होवें तब गमन करनेवाले राजा की सेना
इस प्रकार नष्ट हो जाती है कि जैसे स्वल्प मित्रता शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ॥ ४३
॥
स्वोच्चस्थे लग्नगे जीवे चंद्रे
लाभगते यदि ।
त्रिषडायेषु सौरारौ बलवांश्च शुभो
यदि ।
यात्रायां नृपतेस्तस्य हस्ते
स्याच्छत्रुमेदिनी ॥ ४४ ॥
बृहस्पति उच्च का होकर उनमें स्थित हो
और चंद्रमा ११ घर में हो और ३।६ । ११ घर में शनि मंगल होवें,
शुभग्रह बलवान् होवें तब गमन करनेवाला राजा शत्रु की भूमि को ग्रहण
कर लेता है । ४४ ।।
स्वोच्चस्थे लग्नगे जीवे चंद्रे
लाभगते यदि ।
गतो राजा रिपून्हंति पिनाकी
त्रिपुरं यथा ॥ ४५ ॥
उच्च का बृहस्पति लग्न में और
चंद्रमा ११ हो ऐसे इस योग में गमन करनेवाला राजा, जैसे शिवजी ने त्रिपुर नष्ट किया ऐसे शत्रुओं को नष्ट करता है ।। ४५ ।।
मस्तकोदयगे शुक्रे लग्नस्थे लाभगे
गुरौ ॥
गतो राजा रिपून् हंति कुमारस्तारकं
यथा ॥ ४६ ॥
शुक्र शीर्षोदय कहिये ५।६।७। ८। ११
इन लग्नों पर स्थित हो और ११ स्थान गुरु होवे तब गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को ऐसे
नष्ट करता है कि जैसे स्वामि कार्तिकजी ने तारकासुर नष्ट किया था । ४६ ॥
जीवे लग्नगते शुक्रे केंद्रे वापि
त्रिकोणगे ।
गतो जयत्यरीन् राजा कृष्णवत्यां यथा
व्रणम् ॥४७ ।।
बृहस्पति लग्न में हो और शुक्र
केंद्र में अथवा त्रिकोण (९।५ पर हो तब गमन करनेवाला राजा शत्रु को ऐसे नष्ट कर देवे
कि जैसे कृष्ण्वती नदी में व्रण (घाव ) नष्ट हो जाता है । ४७ ।।
लग्नगे ज्ञे शुभे केंद्रे धिष्ण्ये
चोपकुले गते ।
नृपा मुष्णंत्यरीन्ग्रीष्मे
ह्नदानीवार्करश्मयः ॥ ४८ ॥
बुध लग्न में हो,
अन्य शुभग्रह केन्द्र में होवें, बृहस्पति
चैौथे घर में होये तब गमन करनेवाले राजे शत्रुओं को ऐसे नष्ट करते हैं कि जैसे
सूर्य की किरण सरोवरों को ( जोहडों को ) नष्ट करती है । ४८ ।। ।
शुभे त्रिकोणकेंद्रस्थे लाभे
चंद्रेऽथवा रवौ ।
शहून्हंति गतो राजा त्वंधकरं यथा
रविः ॥ ४९ ॥
नवम पाँचवें घर अथवा केंद्र में
शुभग्रह हों, ग्यारहवें घर चंद्रमा अथवा
सूर्य हो तब गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे सूर्य अंधकार को
नष्ट करता है ।। ४९ ।।
स्वक्षेत्रज्ञे शुभे चंद्रे
त्रिकोणायगते गतः ॥
विनाशयत्यरीन् राजा तूलराशिमिवानलः
॥ ५० ॥
शुभग्रह अपने क्षेत्र में हों और चंद्रमा
त्रिकोण में अथवा ग्यारहवें घर हों तब गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को ऐसे नष्ट करता
है कि जैसे रुई के समूह को अग्नि भस्म कर देता है । ५० ॥
इन्दौ खस्थे गुरौ केन्द्रे मंत्री
सप्तमगे गतः ।
नृपो हंति रिपून्सर्वान्पापं
पंचाक्षरी यथा ॥ ५१ ॥
चंद्रमा दशवें घर हो,
बृहस्पति केंद्र में हो, शुक्र सातवें हो तब
गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे पंचाक्षरी मंत्र सब पापों को
नष्ट कर देवे ।। ५१ ।।
वर्गोत्तमगते शुक्रेष्येकस्मिन्नेव
लग्नगे ॥
हरिस्मृतिर्यथा पापान्हंति शत्रुन्
गतो नृपः ॥ ५२ ॥
उच्च का अकेली शुक्र लग्न में हो तो
गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को ऐसे नष्ट करें कि जैसे हरि स्मरण से पाप नष्ट हो जावें
॥ ५२ ॥
शुभे केंद्रत्रिकोणस्थे चंद्रे
वर्गोत्तमे गते ।
सगोत्रान्हि रिपून् हंति यथा
गोत्रांश्च गोत्रभित् ।।५३ ॥
शुभग्रह केंद्र में हो अथवा त्रिकोण
में हो चंद्रमा उच्च का हो तब गमन करनेवाला राजा कुटुंबसहित शत्रुओं को ऐसे नष्ट
करता है कि जैसे इंद्र पर्वतों को नष्ट करता भया ॥ ५३ ॥
मित्रभस्थे गुरौ केंद्रे
त्रिकोणस्थेऽथवासिते।
शत्रून् हंति गतो राजा भुजंगं गरुडो
यथा ॥ ५४ ॥
मित्रग्रह के घर में प्राप्त हुआ
बृहस्पति केंद्र में हो अथवा शुक्र त्रिकोण में हो तब गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को
ऐसे नष्ट कर देवे जैसे सर्प को गरुड नष्ट कर देता है । । ५४ ॥
शुभे केंद्रत्रिकोणस्थे
वर्गोत्तमगते गतः ।
विनाशयत्यरीन्राजा पापान् भागीरथी
यथा ॥ ५५ ॥
शुभ्रग्रह केंद्र में अथवा त्रिकोण में
हो अथवा उच्चराशि पर हो तब गमन करनेवाला राजा शत्रुओं को ऐसे नष्ट कर देवे कि जैसे
गंगाजी पापों को नष्ट करती है ॥ ५५ ॥
ये नृपा यान्त्यरीञ्जेतुं तत्र योगौ
नृपाह्ययौ ॥
उपैति शांतिं कोपाग्निः
शत्रुयोषाश्रुबिंदुभिः ॥ ५६ ॥
ऐसे ये दो योग नृपनामक हैं इनमें
गमन करने वाले राजा की क्रोधाग्नि, शत्रुओं
के स्त्रियों की आंसुओं के पड़ने से शांत होती है ॥ ५६ ॥
बलक्षयप्रदर्श्चंद्रः पूर्णः
क्षीणप्रभावतः ।
विजयस्तत्र यातृणां संधिः सर्वान्
पराक्रमः ॥ ५७ ॥
पूर्ण चंद्रमा बलदायी है और क्षीण चंद्रमा
क्षयकारक है तहां बली चंद्रमा हो तिन तिथियों में गमन करनेवाले राजा की विजय,
मिलाप और सर्व प्रकार पराक्रम से वृद्धि होती है । ५७ ।।
निमित्तशकुनादिभ्यः प्रधानेनोदयः
स्मृतः ॥
तस्मात्प्रसवनायुः
स्यात्फलहेतुर्मनोदयः ॥ ५८ ॥
निमित ( मुहूर्त्त ) और
शकुनआदिकोंसे भाग्योदय होना यह मुख्य बात नहीं है किंतु यात्राआदि संपूर्ण
मंगलोंमें मनकी प्रसन्नता रहनी यह फलका हेतु है ।। ५८ ।।
उत्सवोपनयोद्वाहशवस्य मृतकेषु च ॥
ग्रहणे च न कुर्वीत यात्रां मर्त्यः
सदा बुधः ॥ ५९ ॥
उत्सव,
उपनयन, विवाह, मुरदा का
सूतक, ग्रहण इन विषे बुद्धिमान जन यात्रा नहीं करे ।। ५९ ।।
महिषीमेषयोर्युद्धे कलत्रकलहांतरे
।।
वस्रादेस्खलिते क्रोधे दुरुक्ते न
व्रजेत्क्षुतौ ॥ ६० ॥
भैसों का और मीढों का युद्ध होने में,
स्त्रियों का युद्ध होने समय, वस्त्रादिक उतर पडना,
क्रोध होना, खराब बचन कहना, छींकना ऐसे वक्त पर गमन नहीं करना ॥ । ६० ॥
घृतान्नं तिलपिष्टान्नं मत्स्यान्नं
घृतपायसम् ॥
प्रागादिक्रमशो भुका याति राजा
जयपुरीन् ॥ ६१ ॥
घी अन्न,
तिल पीठी, मत्स्य अन्न, घी
खीर इन चार पदार्थों को खाकर यथाक्रम से पूर्व आदि दिशाओं में राजा गमन करे तो
शत्रुओं को नष्ट करे ॥ । ६१ ॥
मार्ज्जितापरमान्नं च कांजिकं च पयो
दधि ।
क्षौरं तिलोदनं भुक्त्वा
भानुवारादिषु क्रमात् ।। ६२ ।।
शिखरणि १ खीर २ कांजी ३ पकाया दूध ४
दही ५ कच्चादूध ६ तिलओदन ७ इन पदार्थों को रवि आदि वारों में यथाक्रम से भोजन करके
गमन करना शुभ है ।। ६२ ।।
कुल्माषांश्च तिलान्नं च दधि
क्षौद्रं घृतं पयः ।
मृगमांसं च तत्सारं पायसं चाषकं
मृगम् ॥ ६३ ॥
शशमांसं च षष्टिक्यं
प्रियंगुकमपूपकम् ।
चित्रांडजं फलं कूर्म सारीं गोधां च
शल्लकम् ॥ ६४ ॥
हविष्यं कृसरान्नं च मुद्रान्नं
यवपिष्टकम् ।
मत्स्यान्नं चित्रितान्नं च
दर्ध्यन्नं दस्रभात्क्रमात् ॥ ६५ ॥
और बाकली १ तिलपीठी २ दही ३ शहद ४
घी ५ दूध६ मृगमांस७ मृगक रक्त८ खीर ९ पपैया का मांस १० मृग ११ सूकर का मांस ३२
सांठी चावल १३ मालकांगनी१४ पूडे १५ बिचित्र अन्नों से उत्पन्न हुए पक्षियों के
मांस १६ फल १७ कछुवा का मांस १८ सारिकपक्षी का मांस १९ गोह का मांस २० सेह का मांस
२१ हविष्यान्न २२ खिचडी २३ मूँग २४ जवों की पीठी २५ मत्स्यान्न २६ विचित्रितअन्न
२७ दहीभात २८ इन पदार्थों को खाकर अश्विनी आदि २८ नक्षत्रों में यथाक्रम से यात्रा
करनी शुभ है ॥ ६३ - ६५ ॥
भुक्त्वा यावज्जयेच्छुर्यो भूमिनाथो
जयत्यरीन् ॥
हुताशनं तिलैर्हुयुवा पूजयेत्तु
दिगीश्वरम् ॥ ६६॥
इस प्रकार इन अश्विनी आदि नक्षत्रों
में इन वस्तुओं को खाकर जो विजय की इच्छा करनेवाला राजा गमन करता है वह शत्रुओं को
जीतता है गमन समय तिलों से अग्नि में हवन कर जिस दिशा में गमन करना उस दिगीश्वर का
पूजन करै ।। ६६ ।।
प्रणम्य देवभूदेवानाशीर्वादैर्नृपो
वदेत् ॥
कृत्वा होमं दारुणं च तन्मंत्रेण
कृतं व्रजेत् ॥ ६७ ॥
देवता तथा ब्राह्मणों को प्रणाम कर
आशीर्वाद पाकर दिगीश्वर के मंत्र से अच्छे प्रकार से होम करके गमन करना।
वस्त्रं तद्वर्णगंधाद्यैरेवं
भक्त्या दिगीश्वरम् ।
इंद्रमैरावतारूढं शच्या सह
विराजितम् ॥ ६८ ॥
दिगीश्वर के वर्ण का वस्त्र चढावे
भक्ति से गंध आदि को करके पूजन करना ऐरावत हस्ती पर सवा हुए इंद्राणी से युक्त हुए
इंद्र को पूजै ॥ ६८ ॥
वज्रपाणिं स्वर्णवर्णं
दिव्याभरणभूषितम् ॥
सप्तहस्तं सप्तजिह्वं षडक्षं
मेषवाहनम् ॥ ६९ ॥
हाथ में वज्र धारण किये हुए सुवर्ण सरीखे
वर्णवाले दिव्य आभूषणों से विभूषित ऐसे इंद्र का ध्यान करना और सात हाथोंवाला,
सात जिह्वावाला, छह आखोंवाला, मीढा की सवारी ॥ ६९ ॥
स्वाहाप्रियं रक्तवर्णं
स्रुक्स्रुवायुधधारिणम् ॥ ७० ॥
स्वाहा को प्रिय माननेवाला,
लालवर्णी, स्रुक् और स्रुवा आयुध को धारण
करनेवाला ऐसे अग्नि को पूजै ७० ।।
दंडायुधं लोहिताक्षं यमं महिषवाहनम्
।
श्यामलासहितं रक्तवर्णनूर्द्ध्वमुखं
शुभम् ।
खङ्गचर्मधरं नीलं निर्ऋतिं नरवाहनम्
॥ ७१ ॥
दंड आयुधवाला,
रक्त नेत्र, भैंसा की सवारी करनेवाला, श्यामल दूत सहित ऊपर को मुख किये हुए शुभ, ऐसे
धर्मराज का दक्षिण दिशा में ध्यान करना, खड्ग और ढाल को धारण
किये हुए नीलवर्ण मनुष्य की सवारी किये हुए ॥ ७१ ॥
उर्द्ध्वकेशं विरूपाक्षं दीर्घग्रीवायुतं
विभुम् ॥
नागपाशधरं पीतवर्णं मकरवाहनम् ॥ ७२
॥
ऊपर को बाल उठाये हुए विकराल नेत्र,
दीर्घग्रीवा, ऐसे समर्थ नैर्ऋत ( राक्षस ) को
पूजै । नागफ़ांशधारी, पीलावर्ण, मगरमच्छ
की सवारी ॥ ७२ ।। ।
वरुणं कालिनाथं च रत्नाभरणभूषितम् ।
प्राणीनां प्राणरूपं च द्विबाहुं
दंडपाणिनम् ॥ ७३ ॥
कालिनाथ,
रत्नों के आभूषणों से विभूषित ऐसे वरुणदेव का ध्यान करना ।
प्राणधारियों का प्राण, दो भुजावाला हाथ में दंड लिये हुए ।
७३ ॥
वायुं कृष्णमृगासीनं
पूजयेदंजनापतिम् ।।
अश्वासीनं कुंतपाणिं द्विबाहुं
स्वर्णसंनिभम् ॥ ७४ ॥
काले मृग पर सवार हुआ अंजना के
स्वामी,
ऐसे वायुदेव का पूजन करना । घोडा पर सवार हुआ, हाथ में माला शस्त्र और दो भुजाओंवाला सुवर्ण समान कांतिवाळा ॥ ७४ ॥
कुबेरं चित्रलेखेशं
यक्षगंधर्वनायकम् ॥
पिनाकिनं वृषारूढं गौरीपतिमनुत्तमम्
॥ ७५ ॥
चित्रलेख का स्वामी,
यक्ष गंधर्वों का स्वामी ऐसे कुबेर का पूजन करना और पिनाक धनुषवाले
बैल पर सवार हुए, पार्वती के पति, परमोत्तम
॥ ७५ ॥
श्वेतवर्णं चंद्रमौलिं
नागयज्ञोपवीतिनम् ।
अप्रयाणे स्वयं कार्याऽपेक्षया
पूजनं तथा ॥ ७६ ॥
श्वेतवर्ण,
चंद्रमा को मस्तक में धारण करनेवाले सर्प का यज्ञोपवीत धारण किये
हुए ऐसे महादेव का ध्यान करना यह ईशान कोण के स्वामी का पूजन है । गमन समय में तो
पूजन करना योग्य ही है और कहीं गमन नहीं करना हो तो भी कार्य की अपेक्षा से इन
दिक्पालों का इसी प्रकार पूजा करना ॥ ७६ ॥
कार्यं निर्गमनं छत्रध्वजाश्वाक्षतवाहनैः
॥
स्वस्थानान्निर्गमस्थानं धनुषां च
शतद्वयम् ॥ ७७ ॥
ध्वजा,
छत्र, अश्व, निर्विकार
वाहन, इनसे युक्त होकर गमन करना चाहिये और अपने घर दो सौ २००
धनुष प्रमाण अर्थात् ८०० हाथ प्रमाण के अंतर में प्रस्थान करना योग्य है ७७॥
चत्वारिंशद्वादशैव प्रस्थितो हि
स्वगेहतः ।
दिनान्येकत्र न वसेत्सप्त भूपः परो
जनः ॥ ७८ ॥
अथवा चालीस धनुष प्रमाण वा बारह धनुष
प्रमाण अंतर प्रमाण में प्रस्थान करना अथवा अपने घर से दूसरे घर में प्रस्थान करना
यही गमन है गमन करके दूसरे घर में राजा ने एक जगह सात दिन से अधिक नहीं ठहरना और
अन्य जन ॥ ७८ ॥
पंचरात्रं च परतः पुनर्लग्नांतरं
व्रजेत् ॥
अकालजेषु
नृपतिर्विद्युद्गर्जितवृष्टिषु ॥ ७९ ॥
प्रस्थान की जगह पाँच दिन से अधिक
नहीं ठहरे जो अधिक स्थिति हो जाय तो दूसरे लग्न में गमन करना और बिना काल में
बिजली कड़कना, तथा वर्षा होना ॥ ७९ ॥
उत्पातेषु त्रिविधेषु सप्तरात्रं तु
न व्रजेत् ।
गमने तु शिवकाककपोतानां गिरः शुभाः
॥ ८० ॥
इत्यादि उत्पात होना तथा भूकंप आदि
तीन प्रकार के उत्पात होने में राजा तीन दिन तक गमन नहीं करे। और गमन समय गीदडी,
काग, कपोती इनकी वाणी शुभ है । ८० ।।
वामांगे कोकिला पल्ली पोतकी सूकरी
रला ॥
वानरः काकऋक्षः श्वा भासः
स्युर्दक्षिणोः शुभाः। ८१॥
और कोयल,
छिपकली, पोतकी ( दुर्गापक्षी ) सूकरी, खाती चिड़ा, ये बायीं तर्फ आवें तो शुभ हैं। और वानर,
काग, रीछ, कुत्ता,
भासपक्षी (पटबीजना ) ये दहिनी तर्फ शुभ हैं ॥ ८१ ॥
चापं त्यक्वा चतुष्पात्तु शुभदो
वामतो गमः ॥
कृष्णं त्यक्ता प्रयाते तु कृकलाशो
न वीक्षितः ॥ ८२ ॥
पपैया बिना चतुष्पाद पक्षी बायीं तर्फ
गमन करे तो शुभ है काला पूपैया विना चतुष्पाद पक्षी बायीं तर्फ गमन करे तो शुभ है काला
बिना अन्य तरह का किरल कांट दीखना शुभ नहीं हैं । ८२ ॥
वराहशशगोधानां सर्पाणां कीर्तनं
शुभम् ।
दृष्टमात्रेण यात्रायां व्यस्तं
सर्वे प्रवेशने ॥ ८३ ॥
सूकर, शशा, गोह, सांप इनका उच्चारण
करना शुभ है यह यात्रा का शकुन है और प्रवेश समय में शकुन विपरीत जानने अर्थात इन
सर्पादिकों का दीखना अच्छा है और उच्चारण अच्छा नहीं ॥ ८३ ॥
यात्रासिद्धिर्भवेद्दष्टे शवे
रोदनवर्जिते ।
प्रवेशो
रोदनयुते शवे स्याच्च शिवप्रदः ॥ ८४ ॥
रोना से रहित मुरदा का दर्शन हो तो
गमन की सिद्धि होती है । और रोना सहित मुरदा का दीखना प्रवेश समय सुखदायी है ।। ८४
।
पतितक्लीवजटिलोन्मत्तवांतौषधादिभिः
।
अभ्यक्तकाष्ठान्यस्थीनि
चमगारतुषाग्निभिः ।। ८५ ॥
और जातिपतित,
हीजडा, जटाधारी, बावला,
गमन करता हुआ, औषधि, मांलिश
तेल आदि लगाना, काष्ठ, हड्डी, चांम, अंगार, तुष, धूमाकी अग्नि ।। ८५ ।।
गुडकार्पासलवणसातैलतृणोरगैः ।।
वंध्या व्यथितकाणौ च मुक्तकेशो
बुभुक्षितः ॥ ८६ ॥
गुड, कपास, लवण,चरबी, तेल, तृण, सर्प, वंध्यास्त्री, रोगी पुरुष, काण,
खुले केशोंवाला, भूखा ॥ ८६ ॥
प्रयाणसमये लग्ने दृष्टे सिद्धिर्न
जायते ॥
प्रज्वलाग्निः शुभं वाक्यं
कुसुमेक्षुसुरागणाः ॥ ८७ ॥
ये सब गमन समय के लग्नविषे दीख जावें
तो कार्यसिद्धि नहीं हो । और जलती हुई अग्नि शुभदायक वचन,
पुष्प, ईख, मदिरा ॥ ८७॥
गंधपुष्पाक्षतच्छत्रचामारांदोलूका
नृपाः ।
भक्ष्यं शुभफलं चैवेभोऽश्वाजौ
दक्षिणे वृषः ॥ ८८ ॥
गंधू, पुष्प, अक्षत, छत्र, चाँमरडोली, पिन्नस, राज,
भक्ष्यपदार्थ, शुभफल, हस्ती
अश्व, दहिनी तर्फ, आया हुआ वृष ॥ ८८ ॥
मत्स्यमांसं सुधौतं च वस्त्रं
श्वेतवृषध्वजः । ।
पुण्यस्त्री
पूर्णकलशरत्नश्रृंगारगोद्विजाः॥ ८९॥
मत्स्यमांस, धोयाहुआ वस्त्र, सफेद बैल, ध्वजा,
सौभाग्यवती स्त्री, जल का कलश, रत्न, श्रृंगार, गौ, ब्राह्मण ॥
भेरीमृदंगपट्टहशंखरागादिनिस्वनाः ॥
वेदमंगलघोषः स्युर्यायिनां
कार्यसिद्धिदाः ॥ ९० ॥
भेरी, मृदंग, ढोल, शंख, राग, गीत, गाना, वेदमंगल की ध्वनि ये सब शकुन गमन करनेवालो को सिद्धिदायक हैं ॥ ९० ॥
आदौ विरुद्धशकुनं दृष्ट्वा
यायीष्टदेवताम् ॥
स्मृत्वा द्वितीये विप्राणां कृत्वा
पूजां निवर्तयेत् ॥ ९१ ॥
गमन करनेवाला जन प्रथम अपशकुन देखे
तो इष्टदेव का ध्यान करके गमन करे फिर दूसरा भी अपशकुन दीखे तो ब्राह्मणों का पूजन
कर उल्टा चला आये फिर गमनकरना ।। ९१ ॥
सर्वदिक्षु क्षुतं नेष्टं गोक्षुतं
निधनप्रदम् ।
अफलं यद्बालवृद्धरोगिपीनसवत्कृतम् ॥
९२ ॥
सब दिशाओं में छींक होना अशुभ है और
गौ की छींक मृत्युदायक है बालक, वृद्ध,
रोगी, शरदीरोग की छींक कपट से ली हुई छींक
इनका दोष नहीं है ॥ ९२ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
यात्राध्यायस्त्रयस्त्रिंशत्तमः॥३३॥
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां यात्राध्याय
त्रयस्त्रिंशत्तमः ॥ ३३ ।।
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ३४ ॥
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