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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
वशीकरण प्रयोग
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का
सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है,
इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस
भाग ४ (७) में नवार्ण मंत्र से षट्कर्म प्रयोग में वशीकरण प्रयोग बतलाया गया है।
वशीकरण प्रयोगः
षट्कर्म उच्चाटनप्रयोग से आगे
(षट्प्रयोगा वशीकरणप्रयोगो
यथा ।)
कर्त्तव्यदिवेसात्पू्वं स्नानार्थ॑
चिन्तयेदुबुधः ।
दिनानि विंशति वामे पूर्व कार्यो
विधिस्तनोः ॥१७०॥
शरीरधोधनं कार्य मदिराक्षि
विनिश्चितम् ।
मृगपादोद्धुतं तोयं कूपैकं प्राणरञ्जने
॥१७१॥
एकादशतडागस्य जल सरितसंज्रमात् ।
क्षिप्वा कान्ते घटे तोयं वश्यकर्मण
साधकः ॥१७२॥।
एतज्जरं च महिषीदुग्धेन
पेषयेत्सुधीः ।
स्रानं कृत्वा द्विजो वामे वश्ये
वश्येन्रियः प्रिये १७३॥
त्रिपुण्ड्धारणं कृत्वा ललाटे रक्तचन्दनैः ।
श्वेतासने समाविश्य श्वेताम्बरधर:
स्वयम् ।
चैकोर्ध्वपादयस्तिशैद्धक्षिस्यां
मुखे कृते ॥१७४॥
कर्तव्य दिन से पूर्व सुधी साधक स्नान
के लिए चिन्ता करे । हे वामे ! बीस दिन पूर्व शरीर की विधि करनी चाहिये। हे
मदिराक्षि ! निश्चित रूप से शरीर का शोधन करना चाहिये। हे प्राणरंजने ! हिरन के
पैर से उद्धृत जल, एक कूएँ का जल,
ग्यारह तालाबों का जल, नदियों के सङ्गम का जल,
हे कान्ते ! घड़े में छोड़कर वशीकरण कर्म से इस जल को भैंस के दूध
से सुधी पीसे । हे वामे, हे प्रिये ! इन्द्रियों को वश में
करके द्विज स्नान करके ललाट में लाल चन्दन से त्रिपुण्ड धारण करके सफेद आसन पर
सफेद परिधान पहन कर, स्वयं बैठकर दक्षिणाभिमुख एक पैर ऊपर
करके बैठे ।
श्रृणुष्व चापरं कर्म
भूमिशोधनमुत्तमम् ।
निम्बपत्रं च हिंगुं च जम्बीरस्य
रसं मधु ॥१७५॥
सप्तकूपोद्धृतं तोयं करेण दक्षिणेन
वै।
गोमयं नच्दिनो ग्राह्मं वश्येषु
भूमिलेपने ॥१७६॥
चतुःकोणयुता कार्या वश्यकर्मणि
निश्चितम् ।
स्वमूर्ध्नों रूधिरं देवि
गुह्लीयाद्वामपाणिना ॥१७७॥।
भृज्ञराजरसं सुप्रु गोदुग्धं प्रथमं
तथा ।
मधुसिन्दूरकर्पूरदेवदारुत्वचारसम्
॥१७८॥
एकस्मिन्सर्वमुन्नीय लेखनी दूर्वया
तथा ।
सप्तांगुलप्रमाणेन पृष्ठभागेन
संलिखेत् ॥१७९॥
दूसरा उत्तम कर्म भूमिशोधन सुनो ।
नीम के पत्ते, हींग, नीबू
का रस, मधु, दाहिने हाथ से निकाला हुआ
सात कूओं का जल, तथा नन्दी का गोबर वशीकरण कर्म में भूमि
लीपने के लिए लेना चाहिये । वशीकरण कर्म में चौकोर भूमि बनानी चाहिये । हे देवि !
अपने सिर का रक्त बाएँ हाथ से निकाले । हे सुभ्रू ! भाँगरे का रस, गाय का दूध, मधु, सिन्दूर,
कपूर, देवदारु के छाल का रस, एक में सब मिलाकर, सात अंगुल प्रमाण की दूब की लेखनी
बनाकर उसके पृष्ठभाग से लिखे ।
पूजनं यन्त्रराजस्य जगन्मातुश्शुभे
श्रृणु ।
गोदुग्धं महिषीदुग्धमजामेष्योः
पयस्तथा ॥१८०॥
एलाफलोदूगतं तीयं कर्पूरं
श्वेतचन्दनः ।
चन्दनेनोद्घृतं तैलं सूत्र
पश्चकुशास्तथा ॥१८१॥
कुशा एकादश प्रोक्तास्तेः सञ्नानं
कारयेसिये ।
श्वेतपुष्पं श्वेतगंधं श्वेतौ
तण्डुलसूत्रकौ ॥१८२॥
सिन्दूरं महिषीदुग्धं तिलतैलं गुडं
प्रिये ।
पूजयेध्यंन्त्राजं च महामायाप्रियं
शुभे ॥१८३॥
विस्तृतं न मयोक्त वै सामान्य कथित
शुभे ।
अतः पर श्रृणुष्वाद्य विधिं धपूस्य
निर्मलम् ।१८४॥
साधकानां ध्रुवं सिद्धिर्धूपनिव
प्रजायते ।
वश्यकर्माणि वै देवि धूप एवं
निगद्यते ॥१८५॥
हे शुभे ! तुम जगन्माता के
यन्त्रराज का पूजन सुनो । गाय का दूध, भैंस
का दूध, बकरी का दूध, भेंड का दूध,
इलायची के फल से निकाला जल, कपूर, सफेद चन्दन, चन्दन का तेल, सूत,
तथा पाँच कुशा (हे प्रिये ! कुशा ग्यारह कहे गये हैं) इनसे स्नान
करना चाहिये । हे प्रिये ! सफेद फूल, सफेद गंध, सफेद चावल, सफेद सूत, सिन्दूर,
भैंस का दूध, तिल का तेल, गुड़ से हे शुभे ! महामाया को प्रिय यन्त्रराज की पूजा करनी चाहिये। (उपसर्गानिशेषांस्तु
महामारीसमुद्भवान् तथा विविधमुत्पातं महात्पातं शमयेन्मम् इति मन्त्रेण सर्व॑
दद्यात्) । हे शुभे ! मैंने विस्तृत नहीं कहा है । मैंने सामान्य ही कहा है ।
इसके बाद प्रारम्भ की निर्मल धूप-विधि सुनो । साधकों की सिद्धि निश्चित रूप से धूप
से ही होती है। देवि ! वशीकरण में धूप ही कहा जाता है।
घूपमाहाल्यमतुलं डामरे कथितं मया ।
धूपवार्ता न जानन्ति डामरे विमुखा नराः
॥१८६॥
अर्थसिद्धिर्भवेत्तेषां
विपरीते शुभानने ।
मैंने धूप का अतुल महात्म्य डामर
तंत्र में कहा है । जो लोग डामर से विमुख हैं, वे
धूप के सम्बंध में कुछ नहीं जानते । हे शुभानने ! ऐसे विपरीत लोगों को अर्थसिद्धि
कैसे हो सकती है ?
चन्दनद्वयशुण्ठ्यश्र आम्रबीजं च
दाडिमम् ॥१८७॥
निम्बबीजत्वचा सुभ्रु देवदारु च
गैरिकम् ।
हरिद्रा गुग्गुलुः श्वेतं सर्षपं
जीरकद्दयम् ॥१८८॥
लवङ्गं मृगनामिश्च
जम्बीरस्समुत्तमम् ।
पिप्पली शर्करा पित्ताघृतं मेष्या:
पयश्च गोः ॥१८९॥।
एतान्सम्पेष्य कुशलो धूपं दद्यात्
विचक्षण: ।
धूपयेद् धूपमन्त्रण साधकों
गद्गदाकृतिः ॥१९०॥
एकचित्तं समाधाय धूपं कुर्याद्वि
चक्षण: ।
सफेद तथा लाल चन्दन,
आम का बीज, अनार हे सुभ्र! नीम के बीज का
छिलका, देवदारु, गेरू, हल्दी, गुग्गुल, सफेद सरसों,
सफेद जीरा, काला जीरा, लौंग,
कस्तूरी, नीबू का उत्तम रस, पीपर, शकर, गोरोचन, भेंड का घी, गाय का दूध, इनको
खूब पीसकर कुशल साधक गद्गदाकृति होकर धूपमन्त्र से धूप देवे । एकचित्त तथा शान्त
होकर बुद्धिमान व्यक्ति धूप देवे । धूप देने का मन्त्र :
“शूलेन पाहि नो देवि
पाहि खङ्गेन चाम्बिके ।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानि :
स्वनेन च ।
पञ्चोद्धारण स्वाहा । इति मन्त्रेण
धूपयेत् ।
वश्यकामनया देवि दीप एवं निगद्यते
॥१९१॥
दीप: पैत्तलिकः कार्यस्तैलं
निम्बस्य सार्षपम् ।
अर्कतूलिकया देवि कार्या
वर्तिस्त्रयांगुला ॥१९२॥
लेपयेत्पृथिवीं सुभ्रुपश्चांगुलमितां
शुभाम् ।
तस्यां लिखेद्यन्त्रराजं दक्षिणे
पार्श्के प्रिये ॥१९३॥।
हे देवि ! वशीकरण की कामना में दीप
ही कहा जाता है । दीप पीतल का बनाना चाहिये । तेल नीम या सरसों का होना चाहिये ।
हे देवि ! मदार की रूई से तीन अंगुल की बत्ती बनानी चाहिये । हे सुभ्रु! पाँच
अंगुल परिमाण की शुभ भूमि को लीपे । हे प्रिये ! उसमें दक्षिणपार्श्व में
यन्त्रराज को लिखे।
लेखनी विष्णु वृक्षस्य
पश्चांगुलसमन्विता ।
पूजयेधन्त्राजं च सिन्दूरे:
पीतसर्षपरः ॥१९४॥
अर्कदुग्धं च गोदुग्धमजादुग्धं
हरिद्रिका ।
एभिर्यन्त्रे लिखेद्देवि
साधकर्श्वण्डिकाप्रियः ॥१९५॥।
अस्मिन्दीपे सदा ध्यायेत्कालिकां
कमछासनाम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदां देवि चारुहाससमन्विताम्
॥१९६॥
इति ध्यात्वा महामायां
पूजयेद्गन्धचन्दनेः ।
शक्रादयः सुरगणा एष मन्त्र
निवेदयेत् ॥१९७॥
एवं दीपो मया प्रोक्तो मालायाश्व
विधि श्रृणु ।
पाँच अंगुल परिमाण की विष्णु वृक्ष
(पीपल)
की लेखनी बनानी चाहिये । सिन्दूर और पीली सरसों से यन्त्रराज की
पूजा करनी चाहिये । मदार का दूध, गाय का दूध, बकरी का दूध, हल्दी, हे देवि !
इससे चण्डिकाप्रिय साधक यन्त्र को लिखे। इस दीप में कमल पर बैठी कालिका का
सदा ध्यान करना चाहिये । हे देवि ! वह देवी भुक्ति और मुक्ति का देने वाली तथा
सुन्दर हास से युक्त है। इस प्रकार महामाया का ध्यान करके गंध तथा चन्दन से पूजा
करे तथा इन्द्रादि देवगण को इस मन्त्र में निवेदित करे । इस प्रकार मैंने दीप को
बतला दिया अब माला की विधि को सुनो ।
ग्रंथिता वाजिकेशेन कथिता
निम्बबीजिका ॥१९८॥
वश्यार्थेषु विधिश्रायं मालाया:
प्राणवल्लभे ।
चण्डिकाया यंत्रराजे अर्चयित्या च
वीटकम् ॥१९९॥
पश्चादेकैकमुद्घृय चर्वयेच्छनकैः
सुधीः ।
यावज्जपसमाप्तिः स्यात्ताकत्ताम्बूलचर्वणम्
॥२००॥
कोटिमन्त्र जपित्वा तु वैश्येष्वर्ध
निगद्यते ।
ब्राह्मणे द्विगुणं देवि
शूद्राणामर्द्धार्डकम् ॥२०१॥
सत्रीणां च द्विगुणं प्रोक्त यतः
शक्तिरूपिणी ।
जपसंख्यादशांशेन नित्यहोम॑ च
कारयेत् ॥२०१॥
घृतत्रयं समानीय गोदुग्धं तण्डुलं
तिलम् ।
शाकुलीं यवचूर्णस्य कर्पूरं च
हरिद्रिकामू ॥२०३॥
निम्बकाष्ठ समानीय कृत्वा च
चतुरंगुलाम् ।
शर्करामिश्रितं कृत्वा
जहुयाद्धावभक्तितः ॥२०४॥
हे प्राणवल्लभे ! नीमे के बीजों को
घोड़े के बाल से गूंथकर माला बनानी चाहिये । वशीकरण कर्म में माला की यह विधि है ।
चण्डिका के यन्त्रराज में पान के बीड़े की पूजा करने के बाद एक-एक बीड़ा उठाकर
धीरे-धीरे सुधी साधक जप की समाप्ति पर्यन्त चबता रहे। एक करोड़ मन्त्र का जप करना
चाहिये । वैश्य में आधा कहा जाता है। हे देवि ! ब्राह्मण में दूना,
शुद्र में चौथाई तथा स्त्री में दूना कहा गया है क्योंकि वह
शक्तिरूपिणी है । चार अंगुल लम्बी नीम की समिधाएँ लाकर शकर लपेट कर भक्तिभाव से
हवन करे ।
पंश्रकोणयुतं कुण्ड सम्पूज्य विधिना
ततः ।
मन्त्रो नवाक्षरः प्रोक्तो वश्ये स
कथधितो मया ॥२०५॥
मारणे मोहने वश्मे भोजनं
त्वेकमुच्यते ।
तृतीयप्रहहे देवि भोजनं लवणं विना
॥२०६॥
माषस्य द्विदरूं सुभ्रु तण्डुलं
मिलितद्वयम् ।
गोघृतं मधुसंयुक्तमिश्रितं पयसा
प्रिये ॥२०७॥।
अभावे भोजन देव्या यद्यत्राप्तं
तदेव हि ।
भोजने क्लेशसङ्कर्तु: प्रयोगोषफलदो
भवेत् ॥२०८॥
इसके बाद विधि से पाँच कोणों वाले
कुंड की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । मैंने वशीकरण कर्म में नवाक्षर मन्त्र को
कहा है । मारण, मोहन तथा वशीकरण में एक समय
भोजन करना कहा गया है। हे देवि ! तीसरे पहर बिना नमक के भोजन करे। हे सुभ्रू,
हे प्रिये ! उड़द की दाल, भात, गाय के घी, तथा मधु से मिश्रित दूध के साथ खाना
चाहिये । देवी के भोजन के अभाव में जो प्राप्त हो उसे ही भोजन करना चाहिये । भोजन
में क्लेश करने वाले साधक का प्रयोग असफल होता है।
विधिर्व॑ मन्त्रराजस्य कथितः
प्राणवल्लभे ।
शैवेन शाक्तविप्रेण कर्त्तव्यो
निश्चितं प्रिये ॥२०९॥
इति वश्यम् ॥४ ॥
हे प्राणवल्लभे ! मन्त्रराज की विधि
कही गई । हे प्रिये ! शैव तथा शाक्त विप्रों को यह विधि अवश्य करनी चाहिये ।
इति वशीकरण समाप्त ।
आगे जारी.....
शेष आगे जारी.....श्रीदुर्गा तंत्र नवार्णमंत्र षट्कर्म में स्तम्भनप्रयोग भाग ४ (८) ।
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