गायत्रीस्तोत्र
जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर इस
गायत्रीस्तोत्र का पाठ करता है, वह यदि
पुत्रहीन है तो पुत्र और यदि धन का अभिलाषी है तो धन प्राप्त कर लेता है। ऐसा
करनेवाले को समस्त तीर्थ, तप, दान,
यज्ञ तथा योग का फल प्राप्त हो जाता है और दीर्घ काल तक सुखों का
उपभोग करके अन्त में वह मोक्ष को प्राप्त होता है । यह स्तोत्र अत्यधिक पुण्य
प्रदान करनेवाला, महान् पापों का नाश करनेवाला तथा महान्
सिद्धियों की प्राप्ति करानेवाला है।
श्रीगायत्रीस्तोत्रवर्णनम्
नारद उवाच
भक्तानुकम्पिन् सर्वज्ञ हृदयं पापनाशनम् ।
गायत्र्याः कथितं तस्माद्गायत्र्याः
स्तोत्रमीरय ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे भक्तों पर अनुकम्पा
करनेवाले! हे सर्वज्ञ! आपने पापों का नाश करनेवाले गायत्रीहृदय का तो वर्णन कर
दिया;
अब गायत्री स्तोत्र का कथन कीजिये॥१॥
गायत्रीस्तोत्रम्
श्रीनारायण उवाच
आदिशक्ते जगन्मातर्भक्तानुग्रहकारिणि ।
सर्वत्र व्यापिकेऽनन्ते श्रीसन्ध्ये ते नमोऽस्तु
ते ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे आदिशक्ते! हे
जगन्मातः ! हे भक्तों पर कृपा करनेवाली! हे सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली! हे अनन्ते!
हे श्रीसन्ध्ये! आपको नमस्कार है॥२॥
त्वमेव सन्ध्या गायत्री सावित्री च
सरस्वती ।
बाह्मी च वैष्णवी रौद्री रक्ता श्वेता सितेतरा ॥
३ ॥
आप ही सन्ध्या,
गायत्री, सावित्री, सरस्वती,
ब्राह्मी, वैष्णवी तथा रौद्री हैं। आप रक्त,
श्वेत तथा कृष्ण वर्णोंवाली हैं॥३॥
प्रातर्बाला च मध्याह्ने यौवनस्था
भवेत्पुनः ।
वृद्धा सायं भगवती चिन्त्यते मुनिभिः सदा ॥ ४ ॥
आप प्रात:काल में बाल्यावस्थावाली,
मध्याह्नकाल में युवावस्था से युक्त तथा सायंकाल में वृद्धावस्था से
सम्पन्न हो जाती हैं। मुनिगण इन रूपों में आप भगवती का सदा चिन्तन करते रहते
हैं॥४॥
हंसस्था गरुडारूढा तथा वृषभवाहिनी ।
ऋग्वेदाध्यायिनी भूमौ दृश्यते या तपस्विभिः ॥ ५
॥
यजुर्वेदं पठन्ती च अन्तरिक्षे विराजते ।
सा सामगापि सर्वेषु भ्राम्यमाणा तथा भुवि ॥ ६ ॥
आप प्रात:काल हंस पर,
मध्याह्नकाल में गरुड पर तथा सायंकाल में वृषभ पर विराजमान रहती
हैं। आप ऋग्वेद का पाठ करती हुई भूमण्डल पर तपस्वियों को दृष्टिगोचर होती हैं। आप
यजुर्वेद का पाठ करती हुई अन्तरिक्ष में विराजमान रहती हैं। वही आप सामगान करती
हुई भूमण्डल पर सर्वत्र भ्रमण करती रहती हैं ॥५-६॥
रुद्रलोकं गता त्वं हि
विष्णुलोकनिवासिनी ।
त्वमेव ब्रह्मणो लोकेऽमर्त्यानुग्रहकारिणी ॥ ७ ॥
॥
विष्णुलोक में निवास करनेवाली आप
रुद्रलोक में भी गमन करती हैं। देवताओं पर अनुग्रह करनेवाली आप ब्रह्मलोक में भी
विराजमान रहती हैं॥७॥
सप्तर्षिप्रीतिजननी माया बहुवरप्रदा
।
शिवयोः करनेत्रोत्था ह्यश्रुस्वेदसमुद्भवा ॥ ८
॥
आनन्दजननी दुर्गा दशधा परिपढ्यते ।
वरेण्या वरदा चैव वरिष्ठा वरवर्णिनी ॥ ९ ॥
गरिष्ठा च वरार्हा च वरारोहा च सप्तमी ।
नीलगङ्गा तथा सन्ध्या सर्वदा भोगमोक्षदा ॥ १० ॥
मायास्वरूपिणी आप सप्तर्षियों को
प्रसन्न करनेवाली तथा अनेक प्रकार के वर प्रदान करनेवाली हैं। आप शिवशक्ति के हाथ,
नेत्र, अश्रु तथा स्वेद से दस प्रकार की
दुर्गा के रूप में प्रादुर्भूत हुई हैं। आप आनन्द की जननी हैं। वरेण्या, वरदा, वरिष्ठा, वरवर्णिनी,
गरिष्ठा, वराहा, सातवीं
वरारोहा, नीलगंगा, सन्ध्या और
भोगमोक्षदा-आपके ये दस नाम हैं॥८-१०॥
भागीरथी मर्त्यलोके पाताले
भोगवत्यपि ।
त्रिलोकवाहिनी देवी स्थानत्रयनिवासिनी ॥ ११ ॥
आप मृत्युलोक में भागीरथी,
पाताल में भोगवती और स्वर्ग में त्रिलोकवाहिनी (मन्दाकिनी)-देवी के
रूप में तीनों लोकों में निवास करती हैं ॥ ११॥
भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री
लोकधारिणी ।
भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः ॥
१२ ॥
महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि ।
तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक् ॥ १३ ॥
कमला विष्णुलोके च गायत्री ब्रह्मलोकदा ।
रुद्रलोके स्थिता गौरी हरार्धाङ्गनिवासिनी । १४
॥
लोक को धारण करनेवाली आप ही
धरित्रीरूप से भूलोक में निवास करती हैं। आप भुवर्लोक में वायुशक्ति,
स्वर्लोक में तेजोनिधि, महर्लोक में महासिद्धि,
जनलोक में जना, तपोलोक में तपस्विनी, सत्यलोक में सत्यवाक्, विष्णुलोक में कमला, ब्रह्मलोक में गायत्री और रुद्रलोक में शंकर के अर्धांग में निवास
करनेवाली गौरी के रूप में स्थित हैं ॥ १२-१४॥
अहमो महतश्चैव प्रकृतिस्त्वं हि
गीयसे ।
साम्यावस्थात्मिका त्वं हि शबलब्रह्मरूपिणी ॥ १५
॥
अहंकार और महत् तत्त्वों की प्रकृति
के रूप में आप ही कही जाती हैं। नित्य साम्य अवस्था में विराजमान आप शबल
ब्रह्मस्वरूपिणी हैं ॥ १५ ॥
ततः परा परा शक्तिः परमा त्वं हि
गीयसे ।
इच्छाशक्तिः
क्रियाशक्तिर्ज्ञानशक्तिस्त्रिशक्तिदा ॥ १६ ॥
आप उससे भी बड़ी 'पराशक्ति' तथा ‘परमा' कही गयी हैं। आप इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और
ज्ञानशक्ति के रूप में विद्यमान हैं और इन तीनों शक्तियों को प्रदान करनेवाली हैं
॥ १६॥
गङ्गा च यमुना चैव विपाशा च
सरस्वती ।
सरयूर्देविका सिन्धुर्नर्मदैरावती तथा ॥ १७ ॥
गोदावरी शतद्रूश्च कावेरी देवलोकगा ।
कौशिकी चन्द्रभागा च वितस्ता च सरस्वती ॥ १८ ॥
गण्डकी तापिनी तोया गोमती वेत्रवत्यपि ।
इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा च तृतीयका ॥ १९ ॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषापूषा तथैव च ।
अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी प्राणवाहिनी ॥ २० ॥
नाडी च त्वं शरीरस्था गीयसे प्राक्तनैर्बुधैः ।
हृत्पद्मस्था प्राणशक्तिः कण्ठस्था स्वप्ननायिका
॥ २१ ॥
तालुस्था त्वं सदाधारा बिन्दुस्था बिन्दुमालिनी
।
मूले तु कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा ॥ २२ ॥
शिखामध्यासना त्वं हि शिखाग्रे तु मनोन्मनी ।
किमन्यद्बहुनोक्तेन यत्किञ्चिज्जगतीत्रये ॥ २३
॥
तत्सर्वं त्वं महादेवि श्रिये सन्ध्ये नमोऽस्तु
ते ।
आप गंगा,
यमुना, विपाशा, सरस्वती,
सरयू, देविका, सिन्धु,
नर्मदा, इरावती, गोदावरी,
शतद्रु, देवलोक में गमन करनेवाली कावेरी,
कौशिकी, चन्द्रभागा, वितस्ता,
सरस्वती, गण्डकी, तापिनी,
तोया, गोमती तथा वेत्रवती नदियों के रूप में
विराजमान हैं और इडा, पिंगला, तीसरी
सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा,
पूषा, अपूषा, अलम्बुषा,
कुहू और शंखिनी-इन प्राणवाहिनी नाड़ियों के रूप में आपको ही प्राचीन
विद्वानों ने शरीर में स्थित बताया है। आप हृदयकमल में प्राणशक्ति के रूप में,
कण्ठदेश में स्वप्ननायिका के रूप में, तालुओं में
सर्वाधारस्वरूपिणी के रूप में और भ्रूमध्य में बिन्दुमालिनी के रूप में विराजमान
रहती हैं। आप मूलाधार में कुण्डलीशक्ति के रूप में तथा चूडामूलपर्यन्त
व्यापिनीशक्ति के रूप में स्थित हैं। शिखा के मध्यभाग में परमात्मशक्ति के रूप में
तथा शिखा के अग्रभाग में मनोन्मनीशक्ति के रूप में आप ही विराजमान रहती हैं। हे
महादेवि! अधिक कहने से क्या लाभ? तीनों लोकों में जो कुछ भी
है, वह सब आप ही हैं। हे सन्ध्ये! मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति के
लिये आपको नमस्कार है॥१७-२३ १/२ ॥
गायत्री स्तोत्र फलश्रुति
इतीदं कीर्तितं स्तोत्रं सन्ध्यायां
बहुपुण्यदम् ॥ २४ ॥
महापापप्रशमनं महासिद्धिविधायकम् ।
य इदं कीर्तयेत्स्तोत्रं सन्ध्याकाले समाहितः ॥
२५ ॥
अपुत्रः प्राप्नुयात्युत्रं धनार्थी
धनमाप्नुयात् ।
सर्वतीर्थतपोदानयज्ञयोगफलं लभेत् ॥ २६ ॥
भोगान्भुक्त्वा चिरं कालमन्ते मोक्षमवाप्नुयात्
।
[हे नारद!] सन्ध्या के समय पढ़ा गया यह स्तोत्र अत्यधिक पुण्य प्रदान
करनेवाला, महान् पापों का नाश करनेवाला तथा महान् सिद्धियों की
प्राप्ति करानेवाला है। जो व्यक्ति एकाग्रचित्त होकर सन्ध्याकाल में इस
गायत्रीस्तोत्र का पाठ करता है, वह यदि पुत्रहीन है तो पुत्र
और यदि धन का अभिलाषी है तो धन प्राप्त कर लेता है। ऐसा करनेवाले को समस्त तीर्थ,
तप, दान, यज्ञ तथा योग का
फल प्राप्त हो जाता है और दीर्घ काल तक सुखों का उपभोग करके अन्त में वह मोक्ष को
प्राप्त होता है ॥ २४-२६ १/२ ॥
तपस्विभिः कृतं स्तोत्रं स्नानकाले
तु यः पठेत् ॥ २७ ॥
यत्र कुत्र जले मग्नः सन्ध्यामज्जनजं फलम् ।
लभते नात्र सन्देहः सत्यं सत्यं च नारद ॥ २८ ॥
हे नारद! जो पुरुष स्नानकाल में
तपस्वियों द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है,
वह जहाँ कहीं भी जल में स्नान करे, उसे
सन्ध्यारूपी मज्जन से होनेवाला फल प्राप्त हो जाता है, इसमें
सन्देह नहीं है; मेरा यह कथन सत्य है, सत्य
है॥ २७-२८॥
शृणुयाद्योऽपि तद्भक्त्या स तु
पापात्प्रमुच्यते ।
पीयूषसदृशं वाक्यं सन्ध्योक्तं नारदेरितम् ॥ २९
॥
हे नारद! सन्ध्या को उद्देश्य करके
कहे गये इस अमृततुल्य स्तोत्र को जो भी व्यक्ति भक्तिपूर्वक सुनता है,
वह पाप से मुक्त हो जाता है॥२९॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां द्वादशस्कन्धे श्रीगायत्रीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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