नवचण्डीविधान

नवचण्डीविधान

श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है, इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस भाग ११ में नवचण्डीविधान अथवा नवदुर्गाविधान का वर्णन है।

नवचण्डीविधान

नवचण्डी विधान अथवा नवदुर्गाविधान

नवदुर्गालक्षणं यथा ।

प्रत्येकं तैस्त्रिभिर्बीजैर्जयादिनवनामभि: ।

जयां च विजयां भद्रां ।  

भद्रकालीमनन्तरम्‌ ॥ १॥   

सुमुखीं दुर्मुखीं प्रज्ञां पश्चाद्‌ व्याघ्रमुखीं तथा ।  

अथ सिंहमुखीं दुर्गा नवदुर्गा विदुर्बुधा: ॥ २॥

नवदुर्गा के लक्षण इस प्रकार हैं :

जया आदि नव नामों में से प्रत्येक के तीन-तीन बीज हैं ।  

१. जया  २. विजया  ३. भद्रा  ४. भद्रकाली  ५. सुमुखी  ६. दुर्मुखी  ७. प्रज्ञा  ८. व्याघ्रमुखी  ९. सिंहमुखी ये नवदुर्गा हैं।  

इस प्रकार विद्वानों ने नवदुर्गा का अभिधान कहा है ।       

एवं ज्ञात्वा सप्तशती यो जपेत्सुसमाहितः ।

तस्य देवी सुप्रसना सर्वाभीष्टप्रदा भवेत्‌ ॥ ३ ॥

इस प्रकार सप्तशती को जानकर सुसमाहित होकर जो जप करता है उस पर देवी अत्यन्त प्रसन्न होती हैं और उसे समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करती हैं ।

अस्य विधानम्‌ ।

कृतनित्यक्रियः स्वयं चन्दनागुरुकुंकुमादिलिप्ताङ्ग: सुवस्त्रमाल्याद्यलंकृतः पूजास्थानं गत्वा प्राङ्गमुखः स्वासने उपविश्य आचम्य प्राणानायम्य स्वेष्टदेवीं ध्यात्वा हस्ते कुशजलमादाय देशकाली संकीर्त्य शुक्लपक्षे प्रतिपदमारभ्य नवमीपर्यन्तं नवदुर्गाविधानमहं करिष्ये ।

इति संकल्प देवीं सम्पूज्य देव्यग्रे शालिपुञ्जोपरि स्वर्णादिरचितं कुम्भं नवतन्तुनावेष्टितं चन्दनादिचर्चितं सुधूपितं सहिरण्यं वज्रमुक्ता फलपद्मरागनील मरकतैः पञ्चरत्नैः समायुक्तं मही द्यौरिति भूमि स्पृष्ट्वा ओषधयः समिति मन्त्रेण धान्यराशि स्पृष्ट्वा आजिघ्र कलशम्‌ इति कलशं संस्थाप्य इमं मे गङ्गे इति जलेनापूर्य तत्र कुंकुमागुरुकर्पूर चन्दनपंकं कुसुमानि च निःक्षिप्य तस्य मुखे आम्रदलानि निधाय तदुपरि नारिकेलफलाढ्यं सतण्डुलं कलशजातीयं पात्र निधाय पूर्णा दर्वीति मन्त्रेण मन्त्रयेत्‌ ।

युवा सुवासा इति रक्तवस्त्रेण वेष्ट्य कुम्भस्य दशदिक्षु पूर्वादिक्रमेणेन्द्रादिदशदिक्पालान्‌ सम्पूज्य ततः स्वर्णादिनिर्मितां देवीप्रतिमां ताम्रपात्रे निधाय घृतेनाभ्यज्य तदुपरि दुग्धधारां जलधारां च दत्त्वा स्वच्छवस्त्रेण सम्प्रोक्षय आसनमन्त्रेण पुष्पाद्यासनं दत्त्वा कलशोपरि संस्थाय प्रतिष्ठां च कृत्वा पद्धतिमार्गेण षोडशोपचारैः सम्पूज्य न्यासादिकं कृत्वा सप्तशतीपाठं नवार्णमन्त्रजपं च कुर्यात्‌ ।

प्रत्यहमेकैकामावृत्तिं पठित्वा दशमे दिवसे वक्ष्यमाणविधिना कुण्डादावाग्नि संस्थाप्य प्राग्वद्धोमं कृत्वा ब्राह्मणान् कुमारिकाः सुवासिनीश्च पूजाभोजनताम्बूलदक्षिणादिभि: परितोष्य प्रणम्य विसृजेत्‌।

इसका विधान :

साधक स्वयं नित्य क्रिया करके चन्दन,अगर, कुंकुम आदि को अपने शरीर पर लगाकर उत्तम वस्त्र तथा माला से अलंकृत होकर पूजा-स्थान पर जाकर पूर्वाभिमुख अपने आसन पर बैठकर आचमन तथा प्राणायाम करके अपनी इष्ट देवी का ध्यान करके हाथ में कुशा तथा जल लेकर 'देशकाल का संकीर्तन करके शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से आरम्भ करके नवमी पर्यन्त नवदुर्गा के विधान को मैं करूँगा' इस प्रकार का संकल्प करके देवी की पूजा करके देवी के आगे शालि चवल की राशि पर स्वर्ण आदि से रचित नव धागे से वेष्टित करके चन्दन आदि से पुजित, धूप से धूपित, हीरा, मोती, पद्मराग, नीलम, मरकत (पन्ना) इन पाँच रत्नों से युक्त घट को 'मही द्यौरितिमन्त्र से भूमि को छूकर 'आषधयः समिति' मन्त्र से धान्यराशि को छूकर आजिघ्र कलशम्‌' इस मन्त्र से कलश की स्थापना करके इमं मे गङ्गे इस मन्त्र से जल से घड़े को भर कर उसमें कुंकुम, अगर, कपूर, चन्दन का लेप तथा फूल डालकर उसके मुख पर आम के पल्‍लव रख कर उसके ऊपर कलश के समान ही धातु से बनी ढकनी रखकर उसमें चाँवल, चाँवल पर नारियल रख कर उसे 'पूर्णा दविमन्त्र से अभिमन्त्रित कर कुम्भ को रक्तवस्त्र से वेष्टित करे तथा दश दिशाओं में पूर्वादि क्रम से इन्द्रादि दश दिक्पालों का पूजन करे । फिर स्वर्णादि से निर्मित देवी की मूर्ति को ताँबे के बर्तन में रखकर उसका घी से अभ्यङ्ग करके उस पर दुग्धधारा तथा जलधारा देकर स्वच्छ वस्त्र से सुखाकर आसन-मन्त्र से पुष्पाद्यासन देकर कलश के ऊपर रखकर उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके पद्धति मार्ग से षोडशोपचारों से पूजा करके न्‍्यासादिक करके सप्तशती का पाठ तथा नवार्ण मन्त्र का जप करे । प्रतिदिन एक-एक पाठ करके दसवें दिन आगे कही गयी विधि से कुण्ड आदि में अग्नि स्थापित करके पूर्ववत्‌ होम करके ब्राह्मणों तथा उत्तम वस्त्र धारण किये हुए कुमारियों को भोजन कराये तथा भोजन के बाद ताम्बूल और दक्षिणा आदि से उन्हें सन्तुष्ट करके प्रणाम करके उनका विसर्जन करे।

अत्रापि स्वयमशक्तिश्चेद्ब्राह्मणद्वारा यथोक्तविधिना जपादि कारयित्वा दक्षिणादिभि: परितोषयेदिति ।

यहाँ भी यदि स्वयम्‌ अशक्त हो तो ब्राह्मण द्वारा यथोक्तविधि से जपादि कराकर उन्हें दक्षिणादि से सन्तुष्ट करे ।  

अस्यैव विधानस्य कृष्णपक्षे षष्ठ्यादिचतुर्दश्यन्तं क्रियमाणस्य कालरात्रिरिति नाम उक्तम्‌ ।

कृष्णपक्ष में षष्ठी से चतुर्दशी पर्यन्त किये जाने वाले इसी विधान को कालरात्रिनाम से कहा गया है ।

तथा च :

कृष्णषष्ठीं समारभ्य नवदुर्गाविधानवत्‌ ।

यो यथा कुरुते जाप्यं कालरात्रिरुदाहृता ॥ १ ॥

महाकालोद्भवं दुःखं कालरात्रिर्व्यपोहति ।

नवदुर्गाविधानेपि यत्फलं परिकीर्तितम्‌ ।  

कालरात्रिविधानेपि तत्फलं लभते ध्रुवम्‌ ॥ २॥

इति नवदुर्गाकालरात्रिसंज्ञकनवचण्डीविधानं समाप्तम्‌ ।  

कृष्णषष्ठी से प्रारम्भ करके नवदुर्गा विधान के सामन जो जैसा जप करता है उसे कालरात्रि कहा जाता है । महाकाल के द्वारा उत्पन्न दु:ख को कालरात्रि दूर कर देती है । जो फल नवदुर्गा के विधान में कहा गया है वही फल कालतात्रि के विधान में भी निश्चित रूप से मिलता है ।

इति नवदुर्गा कालरात्रिसंज्ञक नवचण्डीविधान समाप्त ।  

श्रीदुर्गा तंत्र आगे पढेंगे – नित्य व मास चण्डी विधान 

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