नारदसंहिता अध्याय ४५

नारदसंहिता अध्याय ४५                           

नारदसंहिता अध्याय ४५ में निर्घातलक्षण व फल और दिग्दाह का वर्णन किया गया है। 

नारदसंहिता अध्याय ४५

नारदसंहिता अध्याय ४५ 

अथ निर्घातलक्षणम् ।

वायुनाभिहितो वायुर्गगनात्पतति क्षितौ ॥     

यदा दीप्तिः खगुरुतः स निर्घातोतिदोषकृत् ॥ १ ॥

वायु से प्रतिहत हुआ वायु आकाश से पृथ्वी पर पडता है । और अपने भारापनसे प्रदीप्त होता है वह निर्घात अत्यंत दोषदायक है । यह बिजली पडने का लक्षण जानना ।। १ ॥

निर्घातोऽर्कोदये नेष्टः क्षितीशानां विनाशदः ॥

आयामात्प्राक्पौरजनशूद्राणां चैव हानिदः ॥ २ ॥

सूर्य उदय समय निर्धात होय तो राजाओं को अशुभ है नष्ट करने वाला है, पहर दिन चढे पहिले हो तो शहर में रहनेवाले शूद्रों को हानिदायक है ।। २ ।।

आमध्याह्ने तु विप्राणां नेष्टो राजोपजीविनाम् ॥

तृतीययामे वैश्यानां जलजानामनिष्टदः ॥ ३ ॥

चतुर्थे चार्थनाशाय संध्यायां इति संकरान् ॥

आद्ये यामे सस्यहानिर्द्वितीये तु पिशाचकान् ॥ ४ ॥

मध्याह्न तक निरघात होय तो ब्राह्मणों को तथा राजद्वार में नौकर रहनेवाले जनों को अशुभ है, तीसरे प्रहर में होय तो वैश्यों को तथा जलचरजीवों को अशुभ है दिन के चौथे प्रहर में धन का नाश करे सायंकाल में नीचजातियों को अशुभ है रात्रि के प्रथम प्रहर में खेती की हानि हो दूसरे प्रहर में पिशाचों को नष्ट करें ॥३ - ४॥

हंत्यर्द्धरात्रे तुरगांस्तृतीये शिल्पिलेखकान् ॥

चतुर्थयामे निर्घातः पतन् हंति तदा जनान् ॥५॥

आधीरात समय घोडों को नष्ट करै, रात्रि के तीसरे प्रहर में शिल्पी तथा लेखक जन को नष्ट करै, रात्रि के चौथे प्रहर में पडा हुआ निर्घात ( बिजली ) सब जनों को नष्ट करता है । ५॥

भीषज़र्जरशब्दः स तत्रतत्र दिगीश्वरम् ॥ ६ ॥

वह निर्धात अर्थात् बिजली का पड़ना जो भयंकर जर्जर शब्द करे तो जिस दिशा में पडे उसी दिशा के राजा को नष्ट करे ।। ६ ।।

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां निर्घातलक्षणा पंचचत्वारिंशत्तमः ॥ ४५ ॥

नारदसंहिता अध्याय ४५                         

अथ दिग्दाह

दिग्दाहः पीतवर्णश्चेक्षितीशानां भयप्रदः ॥

देशनाशायाग्निवर्णाऽरुणवर्णाऽनिलप्रदः ॥ १ ॥

पीतवर्णा दिग्दाह होवे तो राजाओं को भय करे, अग्नि समान वर्ण हो तो देश का नाश करे, लालवर्ण हो तो वायु चलावे ऐसे यह दिग्दाह अर्थात् सूर्य के उदय वा अस्त होने के समय दिशाओं पर लाल आदि रंग दीख जाते हैं ॥

धूमः सस्यविनाशाय कृष्णः शस्त्रभयप्रदः ॥

प्राग्दाहः क्षत्रियाणां च नरेशानामनिष्टदः ॥ २ ॥

धूम्रवर्ण हो तो खेती को नष्ट करे, काला वर्ण हो तो शस्र का क्षय हो, पूर्वदिशा में दिग्दाह दीखे तो क्षत्रियों को और राजाओं को अशुभ फळ करे ।। २ ।।

आग्नेय्यां युवराजस्य शिल्पिनामशुभप्रदः॥

पीडां व्रजंति याम्यायां मूकवैश्यनराधमाः ॥ ३ ॥

अग्निकोण में हो तो युवराज तथा शिल्पीजनों को अशुभ फल करे, दक्षिण दिशा में हो तो मूढजन, वैश्य अधमजन इनको पीडा हो ।। ३ ।।

नैर्ऋत्यां दिशि चौराश्च पुनर्भूपप्रमदा नृणाम् ॥

प्रतीच्यां कृषिकर्तारो वायव्यां पशुजातयः ॥ ४ ॥

नैर्ऋतकोण में हो तो चोर, दूसरे विवाह करानेवाले जन, स्त्री इन्होंके पीडा हो, पश्चिम दिशा में हो तो किसान लोग और वायुकोण में हो तो पशुजाति नष्ट होवें ॥ ४ ॥

सौम्ये विप्रादि चैशान्यां वैश्यानां खंडिनोखिलाः ॥

दिग्दाहः स्वर्णवर्णाभो लोकानां मंगलप्रदः ।।

उत्तर में हो तो ब्राह्मण आदि और ईशानकोण में हो तो वैश्यों को तथा संपूर्ण लोगों को पीडा हो और सुवर्णसमान प्रदीप्त कांतिवाला दिग्दाह हो तो संपूर्ण लोगों को शुभदायक है ॥ ५॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां दिग्दाहलक्षणाध्याय पंचचत्वारिंशत्तमः ॥ ४५ ॥

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ४६ ॥   

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