भवनभास्कर अध्याय १३

भवनभास्कर अध्याय १३            

भवनभास्कर के इस अध्याय १३ में गृह के मुख्य द्वार का वर्णन किया गया है।

भवनभास्कर अध्याय १३

भवनभास्कर तेरहवाँ अध्याय

भवनभास्कर

तेरहवाँ अध्याय

मुख्य द्वार

( १ ) वास्तुचक्र की चारों दिशाओं में कुल बत्तीस देवता स्थित हैं । किस देवता के स्थान में मुख्य द्वार बनाने से क्या शुभाशुभ फल होता है, इसे बताया जाता है -

पूर्व

१. शिखी - इस स्थान पर द्वार बनाने से दुःख, हानि और आग्नि से भय होता है ।

२. पर्जन्य - इस स्थान पर द्वार बनाने से परिवार में कन्याओं की वृद्धि, निर्धनता तथा शोक होता है ।

३. जयन्त - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन की प्राप्ति होती है ।

४. इन्द्र - इस स्थान पर द्वार बनाने से राज-सम्मान प्राप्त होता है ।

५. सूर्य - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन प्राप्त होता है ।

(मतान्तर से इस स्थान पर द्वार बनाने से क्रोध की अधिकता होती है । )

६. सत्य - इस स्थान पर द्वार बनाने से चोरी, कन्याओं का जन्म तथा असत्यभाषण की अधिकता होती है ।

७. भृश - इस स्थान पर द्वार बनाने से क्रूरता, अति क्रोध तथा अपुत्रता होती है ।

८. अन्तरिक्ष - इस स्थान पर द्वार बनाने से चोरी का भय तथा हानि होती है ।

दक्षिण

९. अनिल - इस स्थान पर द्वार बनाने से सन्तान की कमी तथा मृत्यु होती है ।

१०. पूषा - इस स्थान पर द्वार बनाने से दासत्व तथा बन्धन की प्राप्ति होती है ।

११. वितथ - इस स्थान पर द्वार बनाने से नीचता तथा भय की प्राप्ति होती है ।

१२. बृहत्क्षत - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन तथा पुत्र की प्राप्ति होती है ।

१३. यम - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन की वृद्धि होती है ।

( मतान्तर से इस स्थान पर द्वार बनाने से भयंकरता होती है । )

१४. गन्धर्व - इस स्थान पर द्वार बनाने से निर्भयता तथा यश की प्राप्ति होती है ।

( मतान्तर से इस स्थान पर द्वार बनाने से कृतघ्नता होती है । )

१५. भृंगराज - इस स्थान पर द्वार बनाने से निर्धनता, चोरभय तथा व्याधिभय प्राप्त होता है ।

१६. मृग - इस स्थान पर द्वार बनाने से पुत्र के बल का नाश, निर्बलता तथा रोगभय होता है ।

पश्चिम

१७. पिता - इस स्थान पर द्वार बनाने से पुत्रहानि, निर्धनता तथा शत्रुओं की वृद्धि होती है ।

१८. दौवारिक - इस स्थान पर द्वार बनाने से स्त्रीदुःख तथा शत्रुवृद्धि होती है ।

१९. सुग्रीव - इस स्थान पर द्वार बनाने से लक्ष्मीप्राप्ति होती है ।

२०. पुष्पदन्त - इस स्थान पर द्वार बनाने से पुत्र तथा धन की प्राप्ति होती है ।

२१. वरुण - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन तथा सौभाग्य की प्राप्ति होती है ।

२२. असुर - इस स्थान पर द्वार बनाने से राजभय तथा दुर्भाग्य प्राप्त होता है ।

( मतान्तर से इस स्थान पर द्वार बनाने से धनलाभ होता है । )

२३. शोष - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन का नाश एवं दुःखों की प्राप्ति होती है ।

२४. पापयक्ष्मा - इस स्थान पर द्वार बनाने से रोग तथा शोक की प्राप्ति होती है ।

उत्तर

२५. रोग - इस स्थान पर द्वार बनाने से मृत्यु, बन्धन, स्त्रीहानि, शत्रुवृद्धि तथा निर्धनता होती हैं ।

२६. नाग - इस स्थान पर द्वार बनाने से शत्रुवृद्धि, निर्बलता, दुःख तथा स्त्रीदोष होता है ।

२७. मुख्य - इस स्थान पर द्वार बनाने से हानि होती है ।

( मनान्तर से इस स्थान पर द्वार बनाने से पुत्र-धन-लाभ होता है । )

२८. भल्लाट - इस स्थान पर द्वार बनाने से धन-धान्य तथा सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।

२९. सोम - इस स्थान पर द्वार बनाने से पुत्र, धन तथा सुख की प्राप्ति होती है ।

३०. भुजग - इस स्थान पर द्वार बनाने से पुत्रों से शत्रुता तथा दुःखों की प्राप्ति होती है ।

( मतान्तर से इस स्थान पर द्वार बनाने से सुख – सम्पत्ति की वृद्धि होती है । )

३१. अदिति - इस स्थान पर द्वार बनाने से स्त्रियों में दोष, शत्रुओं से बाधा तथा भय एवं शोक की प्राप्ति होती है।

३२. दिति - इस स्थान पर द्वार बनाने से निर्धनता, रोग, दुःख तथा विघ्न-बाधा होती है ।

मुख्य द्वार का स्थान

मुख्य द्वार की ठीक स्थिति जानने की अन्य विधियाँ इस प्रकार हैं -

( क ) जिस दिशा में द्वार बनाना हो, उस ओर मकान की लम्बाई को बराबर नौ भागों में बाँटकर पाँच भाग दायें और तीन भाग बायें छोड़कर शेष ( बायीं ओर से चौथे ) भाग में द्वार बनाना चाहिये ।

दायाँ और बायाँ भाग उसको मानना चाहिये, जो घर से बाहर निकलते समय हो ।

( ख ) शुक्रनीति में आया है कि मकान की लम्बाई के आठ भाग करके बीच के दो भागों में द्वार बनाना चाहिये । ऐसा द्वार धन तथा पुत्र देनेवाला होता है ( शुक्रनीति १। २३१) ।

( ग ) घर की लम्बाई के नौ भाग करके पूर्व दिशा में घर की बायीं ओर से तीसरे भाग में, दक्षिण दिशा में छठे भाग में, पश्चिम दिशा में पाँचवें भाग में और उत्तर दिशा में पाँचवें भाग में द्वार बनाना चाहिये ( मुहूर्त्तमार्त्तण्ड ६।१७)।

( २ ) उत्संग द्वार - यदि बाहरी और भीतरी द्वार एक ही दिशा में हों अर्थात् घर का द्वार बाहरी प्रवेश द्वार के सम्मुख हो तो उसे ' उत्संग द्वार ' कहते है । उत्संग द्वार से सौभाग्य की वृद्धि, सन्तान की वृद्धि, विजय तथा धन– धान्य की प्राप्ति होती है ।

सव्य द्वार - यदि बाहरी द्वार से प्रवेश करने के बाद भीतरी ( दूसरा ) द्वार दायीं तरफ पड़े तो उसे ' सव्य द्वार ' कहते है । सव्य द्वार से सुख, धन - धान्य तथा पुत्र – पौत्र की वृद्धि होती है ।

अपसव्य द्वार - यदि बाहरी द्वार से प्रवेश करने के बाद भीतरी द्वार बायीं तरफ पड़े तो उसे ' अपसव्य द्वार ' कहते है । अपसव्य द्वार से धन की कमी, बन्धु – बान्धवों की कमी, स्त्री की दासता तथा अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है ।

वास्तुशास्त्र की दृष्टि से अपसव्य ( वामावर्त ) सदा विनाशकारक और सव्य ( दक्षिणावर्त या प्रदक्षिण - क्रम ) सदा कल्याणकारक होता है -

विनाशहेतुः कथितोऽपसव्यः सव्यः प्रशस्तो भवनेऽखिलेऽसौ ॥( वास्तुराज० १।३१ )

' सव्यावर्तः प्रशस्यते', ' अपसव्यो विनाशाय'( मत्स्यपुराण २५६। ३-४ )

पृष्ठभंग द्वार - यदि भीतरी द्वार बाहरी द्वार से विपरीत दिशा में हो अर्थात् घर के पीछे से प्रवेश हो तो उसे पृष्ठभंग द्वार कहते हैं । इसका वही अशुभ फल होता है, जो अपसव्य द्वार का होता है ।

( ३ ) मुख्य द्वार की चौखट पञ्चमी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी को लगानी चाहिये । प्रतिपदा को लगाने से दुःख की प्राप्ति, द्वितीया को लगाने से धन, पशु व पुत्र का विनाश, तृतीया को लगाने से रोग, चतुर्थी को लगाने से विघ्न एवं विनाश, पञ्चमी को लगाने से धनलाभ, षष्ठी को लगाने से कुलनाश, सप्तमी, अष्टमी और नवमी को लगाने से शुभ फल की प्राप्ति, दशमी को लगाने से धननाश और पूर्णिमा व अमावस्या को लगाने से वैर उत्पन्न होता है ।

( ४) कुम्भ राशि का सूर्य रहते फाल्गुनमास में घर बनाये, कर्क व सिंह राशि का सूर्य रहते श्रावणमास में घर बनाये और मकर राशि का सूर्य रहते पौषमास में घर बनाये - ऐसे समय ' पूर्व ' या ' पश्चिम ' में द्वार शुभ होता है ।

मेष व वृष राशि का सूर्य रहते वैशाखमास में घर बनाये, और तुला व वृश्चिक राशि का सूर्य रहते मार्गशीर्षमास में घर बनाये - ऐसे समय ' उत्तर ' या ' दक्षिण ' में द्वार शुभ होता है ।

उपर्युक्त विधि के अनुसार न करने से रोग, शोक और धननाश होता है ।

( ५ ) पूर्णिमा से कृष्णपक्ष की अष्टमीपर्यन्त ' पूर्व ' में द्वार नहीं बनाना चाहिये । कृष्णपक्ष की नवमी से चतुर्दशीपर्यन्त ' उत्तर ' में द्वार नहीं बनाना चाहिये । अमावस्या से शुक्लपक्ष की अष्टमीपर्यन्त ' पश्चिम ' में द्वार नहीं बनाना चाहिये । शुक्लपक्ष की नवमी से शुक्लपक्ष की चतुर्दशीपर्यन्त ' दक्षिण ' में द्वार नहीं बनाना चाहिये।

तात्पर्य है कि कृष्ण ९ से शुक्ल १४ पर्यन्त ' पूर्व ' में द्वार बनाये, अमावस्या से कृष्ण ८ पर्यन्त ' दक्षिण ' में द्वार बनाये, शुक्ल ९ से कृष्ण १४ पर्यन्त ' पश्चिम ' में द्वार बनाये, और पूर्णिमा से शुक्ल ८ पर्यन्त ' उत्तर ' में द्वार बनाये ।

( ६ ) भाद्रपद आदि तीन - तीन मासों में क्रमशः पूर्व आदि दिशाओं की ओर मस्तक करके बायीं करवट से सोया हुआ महासर्पस्वरुप ' चर ' नामक पुरुष प्रदक्षिण – क्रम से विचरण करता रहता है * । जिस समय जिस दिशा में उस पुरुष का मस्तक हो, उस समय उसी दिशा में घर का दरवाजा बनाना चाहिये । मुख से विपरीत दिशा में दरवाजा बनाने से दुःख, रोग, शोक तथा भय होते हैं । यदि घर की चारों दिशाओं में दरवाजा हो तो यह दोष नहीं लगाता ।

(*भाद्रपद, आश्विन,कार्तिक-पूर्व

मार्गशीर्ष,पौष,माघ-दक्षिण

फाल्गुन,चैत्र,बैशाख-पश्चिम

ज्येष्ठ,आषाढ़,श्रावण-उत्तर )

( ७ ) ब्राह्मण राशि ( कर्क, वृश्चिक, मीन ) – वालों के लिये ' पूर्व ' में द्वार बनाना उत्तम है । क्षत्रिय राशि ( मेष, सिंह, धनु ) – वालों के लिये ' उत्तर ' में द्वार बनाना उत्तम है । वैश्य राशि ( वृष, कन्या, मकर ) – वालों के लिये ' दक्षिण ' में द्वार बनाना उत्तम है । शूद्र राशि ( मिथुन, तुला, कुम्भ ) – वालों के लिये ' पश्चिम ' में द्वार बनाना उत्तम है ।

( ८ ) सामान्यरुप से पूर्वादि दिशाओं मे स्थापित मुख्य द्वार का फल इस प्रकार है* -

पूर्व में स्थित द्वार ' विजयद्वार ' कहलाता है, जो सर्वत्र विजय करनेवाला, सुखदायक एवं शुभ फल देनेवाला है ।

दक्षिण में स्थित द्वार ' यमद्वार ' कहलाता है, जो संघर्ष करानेवाला तथा विशेषरुप से स्त्रियों के लिये दुःखदायी है ।

पश्चिम में स्थित द्वार ' मकरद्वार ' कहलाता है, जो आलस्यप्रद तथा विशेष प्रयत्न करने पर सिद्धि देनेवाला है ।

उत्तर में स्थित द्वार ' कुबेरद्वार ' कहलाता है, जो सुख - समृद्धि देनेवाला तथा शुभ फल देनेवाला है ।

(* घर से बाहर निकलते हुए सामने जो दिशा हो, वही दिशा द्वार की मानी जाती है ।)

( ९ ) मुख्य द्वार का अन्य द्वारों से निकृष्ट होना बहुत बडा़ दोष है । मुख्य द्वार की अपेक्षा अन्य द्वारों का बडा़ होना अशुभ है ।

( १० ) द्वार की चौडा़ई से दुगुनी द्वार की ऊँचाई होनी चाहिये ।

( ११ ) त्रिकोण द्वार होने से स्त्री को पीडा़ होती है । शकटाकार द्वार होने से गृहस्वामी को भय होता है । सूपाकार द्वार होने से धन का नाश होता है । धनुषाकार द्वार होने से कलह होती है । मृदङाकार द्वार होने से धन का नाश होता है । वृताकार ( गोल ) द्वार होने से कन्या - जन्म होता है ।

( १२ ) यदि द्वार घर के भीतर झुका हो तो गृहस्वामी की मृत्यु होती है । यदि द्वार घर के बाहर झुका हो तो गृहस्वामी का विदेशवास होता है । यदि द्वार ऊपर के भाग में आगे झुका हो तो वह सन्तानाशक होता है । द्वार (किवाड़ ) - में छिद्र होने से क्षय होता है ।

द्वार के टेढे़ होने पर कुल को पीड़ा, बाहर निकल जाने पर पराभव, आध्मात ( फूला हुआ ) होने पर अत्यन्त दरिद्रता और मध्यभाग में कृश होने पर रोग होता है ।

द्वार के फूले हुए होने पर क्षुधा का भय तथा टेढे़ होने पर कुलनाश होता है । टूटा हुआ द्वार पीडा़ करनेवाला, झुका हुआ द्वार क्षय करनेवाला, बाहर झुका हुआ द्वार प्रवासकारक और दिग्भ्रान्त द्वार डाकुओं से भय देनेवाला होता है ।

निम्न द्वार से गृहस्वामी स्त्रीजित् होता है । उन्नत द्वार से दुर्जन की स्थिति होती है । सम्मुख द्वार से सुतपीड़ा होती है । पृष्ठाभिमुख द्वार से स्त्रियों की चपलता होती है । वामावर्त द्वार से धननाश होता है । अग्रतर द्वार से प्रभुता का नाश होता है ।( समराङ्गण० ३८। ६७ - ६९ )

( १३ ) द्वार का अपने - आप खुलना या बन्द होना भयदायक है । द्वार के अपने - आप खुलने से उन्माद (पागलपन ) होता है और अपने - अप बन्द होने से कुल का विनाश होता है ।

अपने - आप खुलनेवाला द्वार उच्चाटनकारी होता है । वह धनक्षय, बन्धुओं से वैर या कलह करनेवाला होता है । अपने - आप बन्द होनेवाला द्वार बड़ा दुःखदायी होता है । आवाज के साथ बन्द होनेवाला द्वार भयकारक और गर्भपात करनेवाला होता है ।

( १४ ) दूसरे घर के पिछले भाग पर स्थित द्वारवाला घर दोनों गृहस्वामियों में परस्पर विरोध उत्पन्न करता है ।

( १५ ) मुख्य द्वार ईशान में होने से धन की प्राप्ति तो होती है, पर सन्तान के लिये यह शुभ नहीं है । पिता – पुत्र में तनाव, खटपट भी रहती है ।

( १६ ) अधिकतर दक्षिण दिशावाले मकान ही बेचे जाते हैं ।

( १७ ) वायव्य दिशावाले मकान में गृहस्वामी बहुत कम रह पाता है ।

भवनभास्कर अध्याय १३ सम्पूर्ण                  

आगे जारी.......................भवनभास्कर अध्याय १४   

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