नारदसंहिता अध्याय ३९
नारदसंहिता अध्याय ३९ में छिपकली और
किरकाट के शुभाशुभ फलकथन का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ३९
पल्लयाः प्रपतने पूर्वे फलमुक्तं
शुभाशुभम् ।
शीर्षे राज्यं श्रियं
प्राप्तिर्मौलौ त्वैश्वर्यवर्धनम् ॥ १ ॥
छिपकली शरीर पर पडने का फल पूर्वाचार्यों
ने कहा है। शिर पर पड़े तो राज्य तथा लक्ष्मी की प्राप्ति हो मस्तक पर पड़े तो
ऐश्वर्य की वृद्धि हो ।। १ ।।
पल्ल्याः प्रपतने चैव सरटस्य
प्ररोहणे ॥
शुभाशुभं विजानीयात्तत्तत्स्थाने
विशेषतः ॥ २ ॥
शरीर पर छिपकली पडने का और किरकाट के
चढने का तिस २ स्थान का शुभाशुभ फल विशेषता से जानना ।।
सव्ये भुजे जयः प्रोक्तो ह्यपसव्ये
महद्भयम् ।
कुक्षौ दक्षिणभागस्य धनलाभस्तथैव च
॥ ३ ॥
दहिनी भुजा पर पड़े तो जय प्राप्ति
और बांयीं भुजा पर महान भय हो दहिनी कुक्षि पर धन का लाभ हो ।। ३ ।।
वामकुक्षौ तु निधनं गदितं
पूर्वसूरिभिः ।
सव्यहस्ते मित्रलाभो वामहस्ते तु
निस्वता ॥ ४ ॥
बांया कुक्षि पर मृत्यु,
दहिने हाथ पर मित्र का लाभ और बांयें हाथ पर दरिद्रता हो ऐसे पुरातन
पंडितों ने कहा है ।।
उदरे सव्यभागे तु
सुपुत्रावाप्तिरुच्यते ॥
वामभागे महारोगः कक्ष्यां सव्ये
महद्यशः ॥ ५॥
उदर के दहिने भाग पर पड़े तो पुत्र की
प्राप्ति और उदर पर बांयी तर्फ पडे तो महान् रोग हो दहिनी कटि पर पड़े तो महान् यश
मिलै ॥ ५ ॥
वामकट्यां तु निधनं
मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
जान्वोरेवं विजानीयात्सव्यपादे
शुभावहम् ॥ ६ ॥
बांयीं कटि पर तत्वदर्शीं मुनियों ने
मृत्यु कही है और दोनों पैरों पर भी मृत्यु जानना, दहिने पांव पर शुभ फल जानना ।
वांमपादे तु गमनमिति
प्राहुर्महर्षयः ।
स्त्रीणां तु सरटश्चैव
व्यस्तमेतत्फलं वदेत् ॥ ७ ॥
बायें पैर पर पड़े तो गमन हो ऐसे
महर्षि जनों ने कहा है इसी प्रकार किरलकाँट का फल जानना और स्त्रियों को यह फल
विपरीत होता है अर्थात् पुरुष के जिस अंग पर शुभफल कहा है वहां अशुभ फल होता है ॥
७ ॥
फलं प्ररोहणे चैव सरटस्य प्रचारतः ॥
सर्वांगेषु शुभं विद्यच्छांतिं
कुर्यात्स्वशक्तितः ॥८॥
किरडकाँट सब अंगों में जहां चढ जाय
उसी जगह के शुभफल के विचारे जो अशुभफल होय तो शक्ति के अनुसार शांति करवानी चाहिये
॥ ८ ॥
शुभस्थाने शुभावाप्तिरशुभे
दोषशांतये ॥
तत्स्वरूपं सुवर्णेन रुद्ररूपं तथैव
च ॥ ९ ॥
शुभ स्थान में चढे तो शुभफल की
प्राप्ति हो और अशुभस्थान पर चढे तो शांति करनी चाहिये उस किरलकाँट को सुवर्ण का बनवा
के रुद्र रूप जानकर पूजन करे ।। ९ ॥
मृर्त्युंजयेन मंत्रेण
वस्त्रादिभिरथार्चयेत् ॥
अग्निं तत्र प्रतिष्ठाप्य
जुहुयात्तिलपायसैः ॥ १० ॥
मृत्युंजय मंत्र वस्त्र आदि समर्पण करके
पूजन करै अग्निस्थापन करके तिल और खीर से होम करै ॥ १० ॥
आचार्यो वरुणैः सूक्तैः
कुर्यात्तत्राभिषेचनम् ॥
आज्यावलोकनं कृत्वा शक्त्या
ब्राह्मणभोजनम् ॥११॥
वरुणदेवता के मंत्रों से आचार्य
तहां अभिषेक, करै यजमान घृत में मुख देखके
(छायादान कर ) शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करवावे ॥ ११ ॥
गणेशक्षेत्रपालार्कदुर्गाक्षोण्यंगदेवताः
।
तासां प्रीत्यै जप कार्यः शेषं
पूर्ववदाचरेत् ॥ १२ ॥
गणेश, क्षेत्रपाल, सूर्य, दुर्गा,
चौसठयोगिनी, अंगदेवता इनकी प्रीति के वास्ते
इनके मंत्रों का जप करै अन्य सब विधि पहिले की तरह करनी ॥ १२ ॥
ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां
दद्यात्षोडशभ्यः स्वशक्तितः॥१३॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
पल्लीसरष्टाशुभस्थानशांति प्रकरणाध्याय एकोनचत्वारिंशत्तमः॥३९॥
अपनी शक्ति के अनुसार सोलह ऋत्विजों को अर्थ दक्षिणा देनी ॥
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
पल्लीसरटाशुभस्थानशांति प्रकरणाध्याय एकोनचत्वारिंशत्तमः ।। ३९॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ४० ॥
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