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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय ३७

नारदसंहिता अध्याय ३७                   

नारदसंहिता अध्याय ३७ में उत्पत्ति प्रकरण और उत्पात के अर्थ का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय ३७

नारदसंहिता अध्याय ३७                         

अथ उत्पाताध्यायः ।

देवता यत्र नृत्यंति पतंति प्रज्वलति च ।

मुहू रुदंति गायंति प्रस्विद्यंति हसंति च ॥ १ ॥

जहां देवता नृत्य करते हैं, पड़ते हैं अथवा देवताओं की मूर्ति जल उठती हैं, रोती हैं, कभी गाती हैं, मूर्त्तियों के पसीना आता है । कभी हसती हैं ।। १ ॥

वमंत्यग्निं तथा धूमं स्नेहं रक्तं पयो जलम् ॥

अधोमुखाश्च तिष्ठंति स्थानात्स्थानं व्रजंति च ॥ । २ ॥ ।

मूर्तियों के मुख से अग्नि, धूप, स्नेह ( तैलादिक ) रक्त, दूध जल ये निकलते हैं अथवा मुख नीचे को जाता है, एक जगह से दूसरी जगह से मूर्त्ति प्राप्त होती है । २ ।।

एवमाद्या हि दृश्यंते विकाराः प्रतिमासु च ।

गंधर्वनगरं चैव दिवा नक्षत्रदर्शनम् ॥ ३ ॥

इत्यादिक विकार देवताओं की मूर्त्तियों में दीखता हैं और आकाश में गंधर्वनगर ( मकानात ) दीखना, दिन में तारे दीखने ॥ ३ ॥

महोल्कापतनं काष्ठतृणरक्तप्रवर्षणम् ।

गंधर्वगेहे दिग्धूमं भूमिकंपं दिव निशि ॥ ४ ॥

तारे टूटने, काष्ठ तृण रक्त इनकी वर्षा, होनी, अकाश में व दिशाओ में धूआ दीखना इत्यादि उत्पात दिनों तथा रात्रि में भूकंप ( भौंचाल ) होना ४ ॥

अनग्नौ च स्फुलिंगाश्च ज्वलनं च विनेंधनम् ॥

निशीन्द्रचापमंडूकशिखरं श्वेतवायसः ॥ ४ ॥

ईंधन विना अग्नि जल उठे, अग्नि में से किणके उडने लगे, रात्रि में इंद्रधनुष दीखे, मीडक दीखें शिखर दीखे सफेद काग दीखे ॥५॥

दृश्यंते विस्फुलिंगाश्च गोगजाश्वोष्ट्रगात्रतः ।

जंतवो द्वित्रिशिरसो जायंते वा वियोनिषु ॥ ६ ॥

गौ, हस्ती, अश्व, ऊँट इनके शरीर से अग्नि के किरणे निकलते दीखें अथवा दो तीन शिरवाले बालक का जन्म होना, दूसरी योनि में दूसरा बालक जन्मना ॥ ६ ॥

प्रतिसूर्याश्वतसृषुस्युर्दिक्षु युगपद्रवैः ॥

जंबुकग्रामसंवासः केतूनां च प्रदर्शनम् ॥ ७॥

सूर्य के सम्मुख दूसरा सूर्य दखिना एक ही बार चारों दिशाओं में इंद्रधनुष दीखने, ग्राम के समीप बहुत से गीदड़ इकठ्ठे होना, पूंछवाले तारे दीखें ऐसे उत्पात दीखें ।। ७ ।।

काकानामाकुलं रात्रौ कपोतानां दिवा यदि ।

अकाले पुष्पिता वृक्षा दृश्यंते फलिता यदि ॥ ८ ॥

कार्यं तच्छेदनं तत्र ततः शांतिर्मनीषिभिः ।

एवमाद्या महोत्पाता बहवःस्थाननाशदाः ॥ ९ ॥

और रात्रि में कौओं का शब्द सुनें, दिन में कपोतों का शब्द सुनें, अकाल में वृक्षों के फूल तथा फल दीखें तब ऐसे वृक्षों का छेद न करना और पंडित जनों ने इन उत्पातों को दूर करने के वास्ते इनकी शांति करनी चाहिये इत्यादि बहुत से महान् उत्पात स्थान को नष्ट करने वाले कहे हैं ॥ ८ ॥ ९॥

केचिन्मृत्युप्रदाः केचिच्छत्रुभ्यश्व भयप्रदः ॥

मध्याद्भयं पशोर्मृत्युः क्षयेऽकीर्तिः सुखासुखम् ॥ १० ॥

कितने उत्पात मृत्युदायक हैं, कितने उत्पात शत्रुओं से भय करते-हैं तथा उदासीन पुरुष से भय करते हैं, पशु की मृत्यु, क्षय, कीर्तिनाश, सुख में दुःख ।। १० ।।

अथ होमः ।

अनैश्वर्यं चान्नहानिरुत्पातभयमादिशेत् ।

देवालये स्वगेहे वा ईशान्यां पूर्वतोऽपि वा ॥ ११॥

ऐश्वर्य का नाश, अन्न को हानि, इत्यादिक ये सब उत्पातों के भय जानने । देवता के मंदिर में अथवा अपने घर में ईशानकोण में अथवा पूर्वे में ।। ११ ॥

कुंडं लक्षणसंयुक्तं कल्पयेन्मेखलायुतम् ॥

गृह्योक्तविधिना तत्र स्थापयित्वा हुताशनम् ॥ १२ ॥

बहुत उत्तम अग्निकुंड बनावे कुंड पर मेखला बनावे फिर अपने कुल के अनुसार विवाहादि मंगलोक्तविधि से अग्नि स्थापन करना 

जुहुयादाज्यभागांते पृथगष्टोत्तरं शतम् ॥

यत इंद्रभयामहे स्वस्तिदाघोरमंत्रकैः ॥ १३ ॥

समिदाज्यं चरूव्रीहितिलैर्याहृतिभिस्तथा॥

कोटीहोमं तदर्थं च लक्षहोममथापि वा ॥ १४ ॥

घृत से आज्यभाग संज्ञक मंत्रों से १०८ आहुति देना फिर "यत- इंद्रभयामहे स्वस्तिदा "और अघोर, इन मंत्रों से आहुति देवे समिध, घृत, चरु, चावल, तिल इनसे व्याहृतियों के मंत्र से आहुति देना कोटि होम कराना अथवा तिससे आधा अथवा लक्ष होम कराना ।। १३ ॥ १४ ॥

यथा वित्तानुसारेण तन्न्यूनाधिककल्पना ॥

एकविंशतिरात्रं वा पक्षी पक्षार्द्धमेव वा ॥ १४॥

जैसा अपना वित्त हो उसके अनुसार होम कराना इक्कीस दिनों तक अथवा १५दिनों तक अथवा आधे पक्ष तक होम कराना ॥१५

पंचरात्रं त्रिरात्रं वा होमकर्म समाचरेत् ॥

दक्षिणां च ततो दद्यदाचार्याय कुटुंबिने ॥ १६ ॥

पांच रात्रि तक वा तीन रात्रि तक होम कर्म कराना योग्य है फिर कुटुंबवाले आचार्य के वास्ते दक्षिणा देवे ॥ १६ 

गणेशक्षेत्रपालार्कदुर्गाक्षोण्यंगदेवताः ।

तासां प्रीत्यै जपः कार्यः शेषं पूर्ववदाचरेत् ॥ १७॥

गणेश, क्षेत्रपाल, सूर्य, दुर्गा, चौंसठ योगिनी, अंग देवता इनकी प्रीति के वास्ते इन मंत्रों से जप करावे अन्य होमादिकर्म पूर्वोक्त विधि से करना ॥ १७ ॥

ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यात्षोडशभ्यः स्वशक्तितः॥१८॥

इति श्रीनारदीयसंहितायामुत्पाताध्यायः सप्तत्रिंशत्तमः ॥ ३७॥

सोलह ऋत्विजों के वास्ते अपनी शक्ति के अनुसार दक्षिणा देवे ॥ १८ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिता भाषाटीकायामुत्पाताध्यायः सप्तत्रिंशत्तमः ॥ ३७ ॥

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ३८ ॥ 

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