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भवनभास्कर अध्याय ११
भवनभास्कर के इस अध्याय ११ में गृह
निर्माण की सामग्री का वर्णन किया गया है।
भवनभास्कर ग्यारहवाँ अध्याय
भवनभास्कर
ग्यारहवाँ अध्याय
गृह – निर्माण की सामग्री
( १ ) ईंट, लोहा,
पत्थर, मिट्टी और लकड़ी - ये नये मकान में नये
ही लगाने चाहिये ।
( २ ) नये मकान में पुरानी लकड़ी
नहीं लगानी चाहिये । एक मकान में उपयोग की गयी लकड़ी दूसरे मकान में लगाने से
सम्पत्ति का नाश एवं अशान्ति की प्राप्ति होती है । ऐसे मकान में गृहस्वामी रह
नहीं पाता, यदि रहता है तो उसकी मृत्यु होती है ।
( ३ ) मकान में एक, दो या तीन जाति की लकड़ी लगानी चाहिये । एक जाति की लकड़ी उत्तम, दो जाति की मध्यम और तीन जाति की अधम होती है ।
( ४ ) एक, दो
या तीन प्रकार के काष्ठों से बनाया घर शुभ होता है । इससे अधिक प्रकार के काष्ठों से
बनाया घर अनेक भय देनेवाला होता है ।
( ५ ) नया द्वार पुराने द्वार से
संयुक्त होने पर दुसरे स्वामी की इच्छा करता है । नया द्रव्य पुराने द्रव्य से
संयुक्त होने पर कलिकारक ( कलह करानेवाला ) होता है । मिश्रजाति के द्रव्य से
निर्मित द्वार या घर अशुभ होता है । एक वास्तु से निकाला गया द्रव्य दूसरे वास्तु में
प्रयुक्त नहीं करना चाहिये । ऐसा करने पर देवमन्दिर में पूजा नहीं होती और गृह में
गृहस्वामी नहीं बस पाता ।
देव - दग्ध ( अग्नि से जले ) द्रव्य
से जो भवन बनाया जाता है, उसमें गृहस्वामी
निवास नहीं कर पाता और यदि निवास करता है तो नाश को प्राप्त होता है । ( समरांगणसूत्रधार
३८। ६०-६४ )
( ६ ) त्याज्य वृक्ष - दूधवाले,
काँटेवाले, पुष्पोंवाले, रस बहानेवाले, पक्षियों के घोंसलेवाले, उल्लुओं के वास, मांसाहारी पक्षियों से दूषित,
मधुमक्खियों के छत्ते से युक्त, सर्प के वास,
चींटियों से आच्छादित, मकड़ी के जालों से ढके,
भूत – प्रेतों के वास, दीमक लगे हुए, गाँठों से युक्त, कोटरवाले, गड्ढे
से ढके हुए, रोगों से युक्त, जिनका आधा
भाग सूख गया हो या टूट गया हो, एक - दो शाखावाले, बिजली और आँधी से गिरे हुए, जले हुए, हाथी आदि जानवरों से रौंदे हुए, समाधि – स्थल में
लगे हुए, देवमन्दिर में लगे हुए, आश्रम
में लगे हुए, नदियों के संगम पर स्थित, श्मशानभूमि में लगे हुए, जलाशय ( तालाब आदि ) - पर
लगे हुए, खेत में लगे हुए, चौराहे,
तिराहे या मार्ग पर लगे हुए - इन वृक्षों की लकड़ी गृहनिर्माण के काम
में नहीं लेनी चाहिये ।
( ७ ) पीपल, कदम्ब , नीम, बहेड़ा, आम, पाकर, गूलर, सेहुड, वट रीठा, लिसोड़ा,
कैथ, इमली, सहिजन,
ताल, शिरीष, कोविदार,
बबूल और सेमल - इन वृक्षों की लकड़ी अशुभ फल देनेवाली है ।
( ८ ) ग्राह्य वृक्ष - अशोक,
महुआ, साखू, असना,
चन्दन, देवदारु, शीशम,
श्रीपर्णी, तिन्दुकी, कटहल,
खदिर, अर्जुन, शाल और शमी
- इन वृक्षों की लकड़ी शुभ फल देनेवाली है ।
( ९ ) धनदायक शीशम, श्रीपर्णी तथा तिन्दुकी के काष्ठ को अकेले ही लगायें । अन्य किसी काष्ठ के
साथ सम्मिलित करने पर ये मंगलकारी नहीं होते । इसी तरह धव, कटहल,
चीड़, अर्जुन, पद्म वृक्ष
भी अन्य काष्ठों के साथ सम्मिलित होने पर गृहकार्य के लिये शुभदायक नहीं होते ।
( १० ) शहतीर, चौखट, दरवाजे - खिड़कियाँ, खूँटी,
फर्नीचर आदि के निर्माण में निषिद्ध (त्याज्य) वृक्षों की लकड़ी काम में
नहीं लेनी चाहिये ।
( ११ ) शय्या (पलंग) - के निर्माण
में श्रीपर्णी धनदायक, आसन रोगनाशक, शीशम
वृद्धिकारक, सागवान कल्याणकारक, पद्मक
आयुप्रद, चन्दन शत्रुनाशक एवं सुखदायक और शिरीष श्रेष्ठ है ।
( १२ ) काष्ठ को कृष्णपक्ष में
काटना चाहिये । शुक्लपक्ष में नहीं काटना चाहिये ।
( १३ ) जिस वृक्ष को काटना हो,
उसके निमित्त रात में पूजा और बलि (नैवेद्य) देकर प्रातः ईशानकोण से
प्रदक्षिण – क्रम से उसको काटे । यदि वृक्ष कटकर पूर्व, उत्तर
या ईशान में गिरे तो शुभ है, अन्य दिशा में गिरे तो अशुभ है
।
( १४ ) वृक्ष कटने पर यदि पूर्व
दिशा में गिरे तो धन – धान्य की वृद्धि होती है । आग्नेय में गिरे तो अग्निभय,
दक्षिण में गिरे तो मृत्यु, नैर्ऋत्य गिरे तो
कलह, पश्चिम में गिरे तो पशुवृद्धि, वायव्य
में गिरे तो चोर - भय, उत्तर में गिरे तो धन की प्राप्ति और
ईशान में गिरे तो अतिश्रेष्ठ फल प्राप्त होता है ।
( १५ ) पत्थर का प्रयोग – वर्तमान
में घरों मे पत्थर का प्रयोग आधिक किया जाने लगा हैं; परन्तु
वास्तुशास्त्र में इसका प्रयोग निषिद्ध है । उदाहरणार्थ -
पाषाणतः सौख्यकरा नृपाणां धनक्षयं
सोऽपि करोति गेहे ॥ ( वास्तुराज० ९। १३ )
'पाषाण - पट्ट ( पत्थर के पटरे )
राजाओं के महल में सुखदायी होते हैं, पर दूसरे के घर में धन का
नाश करते हैं ।'
प्रासादे च मठे नरेन्द्रभवने शैलः
शुभो नो गृहे ।
तस्मिन् भित्तिषू बाह्यकासु शुभदः
प्राग्भूमिकुम्भ्यां तथा ॥( वास्तुराज०
५।३६)
'मन्दिर, राजमहल
और मठ में पत्थर शुभदायक है, पर साधारण घर मे पत्थर शुभ नहीं
है । परन्तु दीवार से बाहर लगाने में हानि नहीं ।'
ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान्
श्रीकृष्ण के वचन हैं -
वृक्षञ्च भूधरो वर्जयेद् बुधः ॥
पुत्रदारधनं हन्यादित्याह कमलोद्भवः
।(
श्रीकृष्णजन्म० १०३ । ७२-७३ )
'बुद्धिमान् पुरुष को लकड़ी,
वज्रहस्त तथा शिला का उपयोग न करना ही उचित है; क्योंकि ये स्त्री, पुत्र और धन का नाश करनेवाले
होते हैं - ऐसा कमलजन्मा ब्रह्मा का कथन है ।'
भवनभास्कर अध्याय ११ सम्पूर्ण ॥
आगे जारी.......................भवनभास्कर अध्याय १२
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