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- दुर्गा स्तोत्र
- शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान
- नारद संहिता
- षोडशी हृदय स्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ५१
- श्रीविद्याकवच
- नारदसंहिता अध्याय ५०
- त्रिपुट (त्रिशक्तिरूपा) लक्ष्मीकवच
- नारदसंहिता अध्याय ४९
- गायत्री पञ्जर स्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ४८
- भवनभास्कर
- नारदसंहिता अध्याय ४७
- भवनभास्कर अध्याय २१
- नारदसंहिता अध्याय ४६
- भवनभास्कर अध्याय २०
- नारदसंहिता अध्याय ४५
- भवनभास्कर अध्याय १९
- नारदसंहिता अध्याय ४४
- भवनभास्कर अध्याय १८
- नारदसंहिता अध्याय ४३
- भवनभास्कर अध्याय १७
- नारदसंहिता अध्याय ४२
- भवनभास्कर अध्याय १६
- नारदसंहिता अध्याय ४१
- भवनभास्कर अध्याय १५
- नारदसंहिता अध्याय ४०
- भवनभास्कर अध्याय १४
- नारदसंहिता अध्याय ३९
- भवनभास्कर अध्याय १३
- नारदसंहिता अध्याय ३८
- भवनभास्कर अध्याय १२
- नारदसंहिता अध्याय ३७
- भवनभास्कर अध्याय ११
- नारदसंहिता अध्याय ३६
- भवनभास्कर अध्याय १०
- वार्षिक नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ९
- दैनिक व मास नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ८
- नवचण्डीविधान
- भवनभास्कर अध्याय ७
- देवी के नवनाम और लक्षण
- भवनभास्कर अध्याय ६
- सप्तशती प्रति श्लोक पाठ फल प्रयोग
- भवनभास्कर अध्याय ५
- दत्तात्रेयतन्त्र
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २२
- भवनभास्कर अध्याय ४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१
- भवनभास्कर अध्याय ३
- वराह स्तोत्र
- दुर्गा सप्तशती शापोद्धारोत्कीलन
- भवनभास्कर अध्याय २
- भवनभास्कर अध्याय १
- नारदसंहिता अध्याय ३५
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २०
- नारदसंहिता अध्याय ३४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १९
- नारदसंहिता अध्याय ३३
- दुर्गा सप्तशती प्रयोग
- कुमारी तर्पणात्मक स्तोत्र
- दुर्गे स्मृता मन्त्र प्रयोग
- बगलामुखी सहस्त्रनामस्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ३२
- बगलामुखी शतनाम स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १०
- बगलामुखी कवच
- नारदसंहिता अध्याय ३१
- विद्वेषण प्रयोग
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १८
- गायत्रीस्तोत्र
- स्तम्भन प्रयोग
- गायत्री हृदय
- वशीकरण प्रयोग
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
वार्षिक नवचण्डी विधान
श्रीदुर्गा तंत्र के इस भाग १३ में नवचण्डीविधान
अंतर्गत् वार्षिक नवचण्डी विधान का वर्णन है।
वार्षिकनवचण्डीविधान
नवरात्रे वार्षिकनवचण्डीविधानम् ।
नवरात्र में वार्षिक नवचण्डी का
विधान :
आश्विने शुक्लपक्षे तु कर्तव्यं
नवरात्रकम् ।
प्रतिपदादिक्रमेणैव यावच्च नवमी
भवेत् ॥ १ ॥
आश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष
में नवरात्र व्रत करना चाहिये । शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त यह विधान
करना चाहिए ।
अमावस्याद्वितीयावेधे नवरात्र
शुभाशुभम् :
यो मां पूजयते नित्यं
द्वितीयादिगुणान्विताम् ।
प्रतिपच्छारदे ज्ञात्वा सोऽश्नुते
सुखमव्ययम् ॥ २॥
यदि कुर्यादमायुक्तप्रतिपत्स्थापनं
मम ।
तस्य शापायुतं दत्त्वा भस्मशेषं
करोम्यहम् ॥ २ ॥
तत्र सा पूर्वाह्नव्यापिनी ग्राह्या
। (अस्य विधानम् )
तत्राश्विनशुक्लप्रतिपदि पूर्वाह्ने
तिलतैलेन कृताभ्यङ्गो यजमानः साधक : कृतनित्यक्रियः सुसंस्कृते
शुभे स्थाने सुरम्ये गृहे
तोरणाद्यलंकृते कदलीस्तम्भमण्डिते सुधूपद्रव्यधूपिते सुदीपप्रकाशाढ्ये स्वासने
प्राङ्मुख: समुपविश्याचम्य
प्राणानायम्य 'देशकालौ संकीर्त्य
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थं
सकलमनोरथफलावाप्यर्थ
चतुर्विधपुरुषार्थसिध्यर्थ नवचण्डीविधानमहं करिष्ये'
इति संकल्प्य
गणेशपूजनादिक कृत्वा तस्मिन्गृहे
पूर्वस्यां दिशि
'ॐ गजारूढे कादम्बरि
देवि इहागच्छ इह तिष्ठ'
इत्यावाह्य क्वचित्पीठे संस्थाप्य
श्रीकादम्बरि एष ते गन्धः ।। १ ॥
कादम्बरि इमानि ते पुष्पाणि वौषट् ॥
२॥
ॐ कादम्बरि एष ते धूपो नमः ।। ३ ॥
ॐ कादम्बरि एष ते दीपो नमः ॥ ४॥
तदग्रे पात्रान्तरे घृतशर्करासहितं
पायसं नानाव्यञ्जनादिसहितं निधाय श्रीकादम्बरि एष ते बलिर्नमः ॥ ५॥
इति बलिमुत्सृज्य क्षमस्वेति
प्रणमेत् ।
अमावस्या तथा द्वितीया का वेध होने
पर नवरात्र का शुभाशुभ विचार :
यदि कोई शरद ऋतु में द्वितीया से
विद्ध प्रतिपदा को मेरा पूजन करता है तो उसे मैं दश हजार शाप देकर भस्म कर देती
हूँ ।
यहाँ पर द्वितीया विद्ध प्रतिपदा जो
कही गयी है, वह पूर्वाह्न व्यापिनी ली जानी
चाहिये । आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्न में तिल का तेल शरीर में लगाकर
यजमान साधक नित्यक्रिया करके सुसंस्कृत' शुभ स्थान में
तोरणादि से अलंकृत, केले के स्तम्भन से मण्डित उत्तम धूप से
धूपित उत्तम दीप से प्रकाशित सुन्दर घर में पूर्वाभिमुख बैठ कर आचमन और प्राणायाम
करके “देशकालौ संकीर्त्य श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वती
प्रीत्यर्थ॑ सकल मनोरथफलावाप्त्यर्थं चतुर्विधपुरुषार्थसिध्यर्थं नवचण्डीविधानमहं
करिष्ये” यह संकल्प करके गणेशजी की पूजा आदि करके उस घर
में पूर्वदिशा में “ॐ जगारुढे कादम्बरि देवि इहागच्छ इह
तिष्ठ” इस प्रकार आवाहन करके “श्रीकादम्बरि
एष ते गन्धः ॥१॥ कादम्बरि इमानि ते पुष्पाणि वौषट् ॥२॥ ॐ कादम्बरि एष ते धूपो नमः
॥ ३॥ ऊँ कादम्बरि एष ते दीपो नमः ॥४॥” यह कहे । फिर उसके
आगे घी, शकर सहित खीर, नाना प्रकार के
व्यञ्जनादि से युक्तपात्र रखकर “श्रीकादम्बरि एष ते बलिर्नमः”
इससे बलि देकर “क्षमस्व” यह कहकर प्रणाम करे ।
तत आग्नेय्याम्
ॐ अजवाहने उल्के देवि इहागच्छ इह
तिष्ठ इत्युल्कामावाह्य सम्पूज्य बलि दद्यात् ।
दक्षिणे
ॐ महिषारूढे करालि देवि इहागच्छ इह
तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलि च दद्यात् ।
नैर्ऋत्ये
ॐ प्रेतवाहने रक्ताक्षि देवि
इहागच्छ इह तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
पश्चिमे
ॐ श्वेतकौलीरवाहने श्वेताम्बरे देवि
इहागच्छ इह तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
वायव्ये
ॐ मृगवाहने हरितां देवि इहागच्छ इह
तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
उत्तरे
ॐ सिंहवाहने यक्षिणिं देवि इहागच्छ
इह तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
ईशाने
ॐ वृषवाहने कङ्कालि देवि इहागच्छ इह
तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
पुर्वेशानयोर्मध्ये
ॐ हंसवाहने सुरश्रेष्ठे देवि
इहागच्छ इह तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
नैर्ऋतिवरुणयोर्मध्ये
ॐ अहिवाहने सर्पराज्ञि देवि इहागच्छ
इह तिष्ठ इत्यावाह्य सम्पूज्य बलिं च दद्यात् ।
एवं दशदिक्षु यथाक्रमेणेन्द्रादानपि
सम्पूज्य गृहमण्डले स्वशाखोक्तविधिना नवग्रहान् यथास्थान सम्पूज्येत् ।
इसके पश्चात् आग्नेय दिशा में “ॐ अजवाहने उल्के देवि इहागच्छ इह तिष्ठ”
इससे आवाहन तथा पूजन करके बलि देवे । दक्षिण दिशा में “ऊँ
महिषारूठे करालि देवि इहागच्छ इह तिष्ठ' इससे आवाहन तथा
पूजन करके बलि देवे। नैर्ऋत्य में "ॐ प्रेतवाहने रक्ताक्षि देवि इहागच्छ
इह तिष्ठ” इससे आवाहन और पूजन करके बलि देवे ।
पश्चिम दिशा में ''ॐ श्वेतकौलीवाहने श्वेताम्बरे देवि
इहागच्छ इह तिष्ठ” इससे आवाहन और पूजन करके बलि देवे । वायव्य दिशा में “ऊँ
मृगवाहने हरितां देवि इहागच्छ इह तिष्ठ” इससे आवाहन तथा
पूजन करके बलि देवे। उत्तर दिशा में “ॐ सिंहवाहने यक्षिणि
देवि इहागच्छ इह तिष्ठ” इससे आवाहन तथा पूजन करके बलि
देवे । ईशान दिशा में 'ॐ वृषवाहने कङ्कालि देवि इहागच्छ
इह तिष्ठ” इससे आवाहन तथा पूजन करके बलि देवे । पूर्व और
ईशान दिशाओं के मध्य “ॐ हंसवाहने सुरश्रेष्ठे देवि
इहागच्छ इह तिष्ठ” इससे आवाहन तथा पूजन करके बलि देवे । नैर्ऋत्य
तथा वारुण दिशाओं के मध्य में 'ॐ अहिवाहने सर्पराज्ञि
देवि इहागच्छ इह तिष्ठ” इससे आवाहन और पूजन करके बलि
देवे । इस प्रकार दशों दिशाओं में यथाक्रम इन्द्र आदि की पूजा करके गृहमण्डल में शास्त्रोक्त
विधि से नवग्रहों की यथास्थान पूजा करे ।
ततश्चतुरस्त्रचतुर्हस्तवेदिकायां
सर्वतोभद्र वाष्टदलं विधाय शालिपुञ्जोपरि स्वर्णादिरचितं कुम्भ नवतन्तुनावेष्टितं
चन्दनादिचर्चितं सुधूपितं सहिरण्यं वज्रमुक्ताफलपद्मरागनीलमरकतैः पञ्चरत्नै:
समायुक्तं मही द्यौरिति भूमि स्पृष्ट्वा औषधय: समिति मन्त्रेण धान्यराशि स्पृष्ट्वा
आजिघ्र कलशम् इति कलशं संस्थाप्य ।
इमं मे गङ्गे इति जलेनापूर्य तत्र कुंकुमागरुकर्पूर
चन्दनपङ्ककुसुमानि च निक्षिप्य तस्य मुखे आम्रदलानि निधाय तदुपरि नारिकेलफलाढ्यं
सतण्डुलं कलशजातीयं पात्रं निधाय पूर्णा दर्वीति मन्त्रेण मन्त्रयेत् ।
युवा सुवासा इति
रक्तवस्त्रेणावेष्ट्य ततः स्वर्णादिनिर्मितं महिषघ्नीदेवीप्रतिमां* ताम्रपात्रे निधाय घृतेनाभ्यज्य तदुपरि दुग्धधारां
जलधारां च दत्त्वा स्वच्छवस्त्रेण सम्प्रोक्ष्य आसनमन्त्रेण पुष्पाद्यासनं दत्त्वा
कलशोपरि संस्थाप्य प्रतिष्ठां च कृत्वावाहयेत् ।
तत्र मन्त्र: ।
एहि दुर्गे महाभागे रक्षार्थं मम
सर्वदा ।
आवाहयाम्यहं देवि सर्वकामार्थसिद्धये
॥ १ ॥
अस्यां मूर्तौ समागच्छ स्थितिं
मत्कृपया कुरु ।
रक्षांकुरू सदा भद्रे विश्वेश्वरि
नमोस्तु ते ॥ २ ॥
इत्यावाह्य
ॐ
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गाक्षमाशिवा धात्री स्वाहा स्वधा
नमोस्तुते ॥
इति मन्त्रेण पुष्पान्तैरुपचारैः
सम्पूज्य नवार्णयन्त्रवरणपूजां कृत्वा धूपादिपूजनान्तरे प्रार्थयेत्
ॐ महिषघ्नि महामाये चामुण्डे
मुण्डमालिनि ।
द्रव्यमारोग्य विजयौ देहि देवि नमः
सदा ॥ १ ॥
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो रक्षोभ्यश्च महेश्वरि
।
देवेभ्यो मानुषेभ्यश्च भयेभ्यो रक्ष
माँ सदा ॥ २ ॥
सर्वमङ्गल माङ्गल्ये शिवे
सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि
नमोस्तु ते ॥ ३ ॥
रूपं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि
मे ।
पुत्रान् देहि धनं देहि
सर्वान्कामान् प्रदेहि मे ॥४॥
इसके पश्चात् चार हाथ की चौकोर
वेदी पर सर्वतोभद्र या अष्टदल बनाकर शालिधान्य की राशि पर स्वर्णादि से रचित नव
तन्तुओं से वेष्टित चन्दनादि से चर्चित, सुधूपित,
स्वर्ण, हीरा, मोती,
पद्मराग नीलम, पन्ना आदि पाँच रत्नों से युक्त
घट को “महीद्यौ:” इससे भूमि का
स्पर्श करके ''औषधय: समिति
मन्त्र से धान्यराशि को छूकर “आजिघ्र कलशम्” इससे कलश की स्थापना करके “इमं मे गंगे'”
इससे उसे जल से भरकर कुंकुम, अगर, कपूर तथा चन्दन का पंक तथा फूल उसमें डालकर उसके मुखपर आम्र पल्लव रखकर
उसके ऊपर कलश जातीय ढकनी चावल से पूर्ण कर नारियल के साथ घट पर रख कर “पूर्णादर्वि'” इस मन्त्र से अभिमन्त्रित करे । “युवासुवासा”
इस मन्त्र से रक्त-वस्त्र से आवेष्टित करके स्वर्ण आदि से निर्मित
महिषघ्नी देवी की प्रतिमा को ताम्रपात्र में रखकर घी से उसका अभ्यंग करके उस पर
दुग्धधारा तथा जलधारा देकर स्वच्छ वस्त्र से अच्छी तरह पोंछकर आसनमन्त्र से
पुष्पाद्यासन देकर कलश के ऊपर स्थापित करके उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके आवाहन करे ।
इसमें मन्त्र यह है : “'एहि दुर्गे महाभागे रक्षार्थं मम
सर्वदा । आवाहयाम्यहं देवि सर्वकामार्थसिद्धये ॥ १ ॥ अस्यां मूर्तौ समागच्छ स्थितिं
मत्कृपया कुरु । रक्षांकुरू सदा भद्रे विश्वेश्वरि नमोस्तु ते ।” इससे आवाहन करके “ऊँ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली
कपालिनी । दुर्गाक्षमाशिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते”” इस मन्त्र से पुष्पांजलिदान
पर्यन्त उपचारों से पूजा करके
नवार्ण मन्त्र से आवरण पूजा करके धूपादि दान तथा पूजन के बाद प्रार्थना
करे । “ॐ महिषघ्नि
महामाये चामुण्डे मुण्डमालिनि । द्रव्यमारोग्य विजयौ देहि देवि नमः सदा ।
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो रक्षोभ्यश्च महेश्वरि
। देवेभ्यो मानुषेभ्यश्च भयेभ्यो रक्ष माँ सदा ॥ २ ॥ सर्वमङ्गल माङ्गल्ये
शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके
गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥ रूपं देहि
यशो देहि भगं भगवति
देहि मे । पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान्कामान् प्रदेहि
मे ॥४॥
(* मत्स्यपुराणे-
जटाजूटसमायुक्तामर्धेन्ददुकृतलक्षणाम् ।
लोचनत्रयसंयुक्तां
पद्मेन्दुसदृशाननाम् ।
अतसोपुष्पवर्णाभां सुप्रतिष्ठां
सूलोचनाम् ।
नवयौवनसम्पन्नां सर्वाभरणभूषिताम्
।
सुचारुदर्शनां
तद्वत्पीनोन्नतपयोधराम् ।
त्रिभङ्गस्थानसंस्थानां महिषासुरमर्द्दिनीम्
।
त्रिशूलं दक्षिणे दद्यात् खङ्गं
चक्रं तथैव च ।
तीक्ष्णबाणं तथा शक्ति वामतोपि
निवेशयेत् ।
खेटकं पूर्णचापं च पाशमकुंशमूर्धजम्
।
घण्टां वा परशुं वापि वामतः
सन्निवेशयेत् ।
अधस्तान्महिषं तद्वद्विशिरस्कं
प्रदर्शयेत् ।
शिरश्छेदोद्भवं तद्वद्दानवं खङ्गपाणिनम्
।
हृदि शूलेन निर्मित्नं
निर्यदन्त्रविभूषितम् ।
रक्तरक्तीकृताङ्गं च
रक्तविस्फुरितेक्षणम् ।
वेष्टितं नागपाशेन भृकुटीभीषणाननम्
।
सपाशं वामहस्तेन घृतकेशं च दुर्गयां
।
र्वमद्रुधिरवक्त्रं च देव्या सिंह
प्रदर्शयेत् ।
देव्यास्तु दक्षिणं पादं सिंहोपरि
स्थितम् ।
किश्चिदुर्ध्व॑ तथा वाममंगुष्ठं
महिषोपरि ।
स्तूयमानं च तद्रूपममरै:
सन्निवेशयेत् ।
इतिलक्षणं प्रतिमां कुर्यात् ।
मत्स्य पुराण में कहा है : जटाजूट
से युक्त,
अर्धेन्दु से शोभित, तीन आँखों वाली, कमल और चन्द्रमा के समान मुख वाली, तीसी के फूल की
आभा वाली उत्तम नेत्रों वाली, उत्तम प्रतिष्ठा वाली, नवयौवन से सम्पन्न, समस्त आभूषणों से सुभूषित उत्तम
दर्शन वाली, वैसे ही उन्नत पयोधरों वाली, शरीर में तीन स्थानों पर बलि वाली, महिषासुर का
विनाश करने वाली देवी की प्रतिमा बनानी चाहिये । उसके दाहिने हाथ में त्रिशूल,
खङ्ग तथा चक्र देवे । तीक्ष्ण
बाण तया शक्ति बाएँ हाथ में देवे । खेटक,
धनुष, पाश, ऊपर उठा
अंकुश, घंटा तथा परशु बाएँ हाथों में देवे । नीचे सिर कटा भैंसा
प्रदर्शित करे। उसी पर सिर कटे हाथ में तलवार लिये हुए दानव, हृदय में शूल से विधा, पेट से निकले अन्त्र की शोभा
वाला, खून से लाल अङ्गों वाला, खून से
फड़कतीं आँखों वाला, नागपाश में लिपटा हुआ, भृकुटी से भीषण मुख वाला, दुर्गाजी द्वारा पाश सहित
बालों से पकड़ा गया, मुख से रक्त का वमन करता हुआ राक्षस तथा
देवी का सिंह दिखाना चाहिये । देवी का दाहिना पैर सिंह पर समस्थित कुछ ऊपर उठा तथा
बायां अंगूठा भैंसे के ऊपर स्थित दिखाना चाहिये । देवताओं द्वारा देवी के इस रूप की स्तुति की
जाती हुई स्थिति को प्रतिमा में दर्शाना चाहिये । इन लक्षणों से युक्त प्रतिमा
बनानी चाहिये । )
इति सम्प्रार्थ्यमूलमन्त्रजपं
कृत्वा आदौ नारायणादीन् नमस्कृत्य कवचार्गलाकीलपूर्वकं चरितत्रन्यं रहस्यत्रययुतं
पठेत् ।
स्वयमशक्तश्चेद्ब्राह्मणं सम्पूज्य
चण्डीपाठार्थं त्वामहं वृणे इति यज्ञसूत्रं बध्वा पूणीफलं सदक्षिणं ब्राह्मणकरे
दत्त्वा जापयित्वा पुष्पाञ्जलिं च दत्त्वा नमस्कारं च कृत्वा पद्धतिमार्गेण
कुमारीपूजनं कुर्यात् ।
ततो गुरुपूजनं यथावत्कृत्वा
ब्राह्मणपूजनं विधाय ब्राह्मणान् भोजयित्वा ताम्बूलदक्षिणादिभिस्तोषेयेत् ।
इससे प्रार्थना करके मूलमन्त्र का
जप करके आदि में नारायणादि को नमस्कार करके कवच, अर्गला तथा कीलकपूर्वक त्रिरहस्य सहित तीनों चरितों को पढ़े । अगर स्वयं
अशक्त हों तो ब्राह्मण की पूजा करके “चण्डी पाठार्थ
त्वामहं वृणे” इससे यज्ञसूत्र को बाँधकर दक्षिणा सहित
सुपारी ब्रह्मण के हाथ में देकर जप करके पुष्पांजलि देकर नमस्कार करके पद्धति
मार्ग से कुमारीपूजन करे । इसके बाद यथावत्
गुरुपूजन तथा ब्राह्मणपूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर ताम्बूल तथा दक्षिणा आदि
के द्वारा उन्हें सन्तुष्ट करे ।
एवं प्रतिपत्कृत्यं विधायैवमेव
द्वितीयायां द्विगुणं त्रिगुणं तृतीयायां चतुर्गुणं चतुर्थ्यामेवमेकोत्तरवृद्धया
कुमारीपूजनं ब्राह्मणसमाराधनं नवम्यन्तं नवम्यां नवगुणं यथा भवति तथा कुर्यात् ।
इस प्रकार प्रतिपदा का कृत्य करके
इसी प्रकार द्वितीया में दूना, तृतीया में
तिगुना तथा चतुर्थी में चौगुना इसी प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए कुमारीपूजन तथा
ब्राह्मण का पूजन नवमी तक नवगुना जिस प्रकार हो उस प्रकार करे ।
ततो नवम्यां कृत जपदशांशहोम: कार्य:
।
तत्र प्रयोगः ।
इसके बाद नवमी को किये गये जप का
दशांश होम करना चाहिये । उसमें प्रयोग इस प्रकार है:
नवचण्ड्यां हस्त मात्रं
समन्ताच्चतुर्विशत्यंगुलं कुण्ड स्थण्डिलं वा विधाय तत्र पायसतिलाज्यद्रव्याणि
फलपुष्पादिसम्भारान् सम्पाद्य हस्ते कुशजलमादाय
देशकालौ संकीर्त्य मयाकृत्यस्य
कारितस्य वा जपस्य साङ्गतासिध्यर्थं दशांशेन तिलाज्य पायसादि द्रव्यैर्होमं करिष्ये
।
इति संकल्प्य आगमोक्तविधिनां
पद्धतिमार्गेणाग्निसंस्कारं कृत्वा प्रधानहोमं कुर्यात् ।
नव चण्डी में एक हाथ मात्र चारों ओर
चौबीस अंगुल परिमाण का कुण्ड या स्थण्डिल बनाकर खीर, तिल, घी द्रव्यों को, फल-पुष्प
आदि सभी सम्भारों को तैयार करके हाथ में कुश तथा जल लेकर, “देशकालौ संकीर्त्य मयाकृत्यस्य कारितस्य वा जपस्य साङ्गतासिध्यर्थं
दशांशेन तिलाज्य पायसादि द्रव्यैर्होमं करिष्ये” यह
संकल्प करके आगमोक्त विधि से पद्धति मार्ग से अग्नि संस्कार करके होम करे ।
ततः पूर्वोक्तसर्वन्यासान् कृत्वा
वह्नौ पीठपूजां कृत्वा देवीमावाह्य वाहनादिमुद्रा: प्रदर्श्य षडङ्गं कृत्वा
षोडशोपचारैः सम्पूज्य मूलेन शतमेकादशाधिकमाज्याहुतीर्हुत्वा पायसतिलपलाशपुष्पसर्षप
पूगीफलाजादूर्वांकुरयवबिल्वफलरक्तगुग्गुलद्रव्याणि तिलमिश्रपायसमेव वा
कवचार्गलाकीलकरहस्यै: प्रतिश्लोक हुत्वा जपस्य दशांशेन प्रतिश्लोकं
सप्तशतीमन्त्रोक्तद्रव्याणि तिलपायसं वा जुहुयात् ।
अध्यायसमाप्तौ उवाचस्थले च
पत्रपुष्पफलैः पद्धतिमार्गेण होम: इत्यनेन नवार्णेनच जपदशांशतो होमः ।
इति होमं कृत्वा नामभिः स्रुवेणाज्यं
पायसं पद्धतिमार्गेण जुहुयात् ।
ततः पुनः प्रधान होमं कृत्वा
पद्धतिमार्गेण पूर्णाहुतिं च दद्यात् ।
इसके बाद पूर्वोक्त न्यासों को करके
अग्नि में पीठ पूजा करके देवी का आवाहन करके वाहनादि मुद्रा प्रदर्शित करके षडङ्ग करके
षोडशोपचारों से पूजा करके मूलमन्त्र से एक सौ ग्यारह आहुति देकर खीर,
तिल, पलाश के फूल, सरसों,
सुपारी, धान का लावा, दूब
के अंकुर, जव, बेल का फल, लाल गुग्गुल इन द्रव्यों को या तिल मिश्रित खीर को ही रहस्यों सहित कवच,
अर्गला, कीलक के साथ प्रतिश्लोक से हवन करके
जप के दशांश से प्रतिश्लोक सप्तशती मन्त्रोक्त द्रव्यों या तिल तथा खीर का होम करे
। अध्याय की समाप्ति पर जहाँ “उवाच” लिखा
है वहाँ पत्रपुष्प तथा फलों से पद्धति मार्ग से होम करे। इस नर्वाण मन्त्र से जप
का दशांश होम करना चाहिये । इस प्रकार होम करके नामों से स्रुवा से घी और खीर का
पद्धति मार्ग से होम करे । इसके बाद पुनः प्रधान होम करके पद्धति से पूर्णाहुति
देवे ।
ततः ।
कर्मशेषं समाप्य मूलमन्त्रेण
होमदशांशेन दुग्धमिश्रितजलेन दुग्धेन वा तर्पणं कृत्वा तद्दशांशेन मार्जयेत् ।
इसके बाद शेष कर्म समाप्त करके
मूलमन्त्र से होम के दशांश से मार्जन करे ।
ततः श्रेयःसम्पादनं ततः आचार्यादीन्
वस्त्रायैः सम्पूज्याचार्याय शत तदर्ध तदर्धमष्ठौ वा गोमिथुनानि सुवर्णचतुष्टयं दद्यात्
।
ब्राह्मणाय निष्कद्वयं गोद्वयं च
दद्यात् ।
इनके पश्चात् श्रेय सम्पादन करके
आचार्य आदि की वस्त्र आदि से पूजा करके आचार्य को सौ, पचास या आठ जोड़े गायें, चार सोने की मुद्रा देवे ।
ब्राह्मण को दो निष्क (स्वर्णमुख) तथा नौ गायें देवे ।
ततः द्वारपालकेभ्योऽन्येभ्यश्च दक्षिणां
च दत्त्वा कलशोदकेन यजमान सपरिवारं वेदोक्तमन्त्र: पौराणिकश्चाभिषिञ्चेयु: ।
ततो यजमानो नवग्रहाणामुत्तरपूजां
कृत्वा विसृज्य आचार्यहस्ते दत्त्वा देवीं सम्पूज्य पद्धतिमार्गेण छागादेर्नारिकेल्स्य
वा पद्धतिमार्गेण बलिं दद्यात् ।
ततः स्नात्वा तिलकं घृत्वा खङ्गिनी
शूलिनीत्येकेन शूलेन पाहिनो देवीति चतुष्टयेन नमो देव्यै इति पञ्चकेन सर्वस्वरूपे इति
पञ्चभिश्च स्तुत्वा नमस्कृत्य पुष्पाञ्जलिं च दत्त्वा प्रार्थयेत् ।
तत्र मन्त्र: ।
इसके बाद द्वारपालों को तथा अन्य
सेवकों को दक्षिणा देकर कलशोदक से सपरिवार यजमान को वेदोक्त मन्त्रों से तथा
पौराणिक मन्त्रों से अभिषेक करावे । इसके बाद यजमान नवग्रहों की उत्तरपूजा करके
आचार्य के हाथ में देवी को देकर पूजा करके बकरे आदि की या नारियल की पद्धति मार्ग
से बलि देवे । इसके बाद स्नान करके तिलक देकर “खङ्गिनी शूलिनी” इस
एक श्लोक से “'शूलेन पाहि नो देवि”' इन चार श्लोकों से, “'नमोदेव्यै'' इन पाँच श्लोकों से “'सर्वस्वरूपे”” इन पाँच श्लोकों से नमस्कार करके पुष्पांजलि देकर प्रार्थना करे । उसमें
मन्त्र यह है-
रूपं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि
मे ।
पुत्रान्देहि धनं देहि
सर्वान्यामांश्व देहि मे ।
महिषघ्नि महामाये चामुण्डे
मुण्डमालिनी ।
आयुरारोग्यमैश्वर्य देहि देवि
नमोस्तु ते ।
इस मन्त्र से प्रार्थना करके “'ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे
देवि प्रसादात्तव सुन्दरि ।” इससे
देवी के बाएँ हाथ में जल समर्पण करके मूलमन्त्र से देवी को पुष्प से वासित करके नासिका
से हृदय में बैठाने की भावना करके षडङ्ग करे ।
इति नवरात्रं कृत्वा दशम्यां देवीं
विसर्जयेत् ।
तत्र मन्त्र: ।
उत्तिष्ठ देवि चण्डेशि शुभां पूजां प्रगृह्या
च ।
कुरुष्व मम कल्याणमष्टभि: शक्तिभि:
सहेति उत्थाप्य दुर्गे देवि जगन्मातः स्वस्थानं गच्छ पूजिते ।
संवत्सरे व्यतीते तु पुनरागमनाय वै ।
इमां पूजां मया देवि यथा
शक्त्युपपादिताम् ।
रक्षार्थं त्वं समादाय व्रज
स्वस्थानमुत्तम् ।
इति मन्त्रेण स्वर्णमयीं
प्रतिमामाचार्याय दत्त्वा श्लोकं पठेत् ।
“त्रैलोक्यमातर्देवि
त्वं सर्वभूतदयान्विते ।
दानेनानेन सन्तुष्टा सुप्रीता वरदा
भव,'”
इति पठित्वा मृन्मयमूर्त्यादि
सर्वम्
“'उत्तिष्ठ देवि
चण्डेशि” मन्त्रेण उत्थाप्य ।
“गच्छ गच्छ परं स्थानं
स्वस्थानं देवि चण्डिके ।
व्रज स्रोतोजलं वृद्धयै स्थीयतां च
जले त्विह”” ।
इति जले प्रवाहयेत् ।
ततोग्निं सम्पूज्य विभूतिं धृत्वा
“गच्छगच्छेति”
विसृज्य
“कृतस्य कर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थं
यथाशक्ति महालक्ष्मी प्रीत्यर्थं ब्राह्मणान् भोजयिष्ये”
इति सङ्कल्प्य
“यस्य स्मृत्या च
नामोक्तया प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् ।”
इति श्लोकौ पठित्वा पूर्णतां
ब्राह्मणैर्वांचयित्वा सर्वं कर्मेंश्वरार्पणं कृत्वा सुब्राह्मणान् भोजयित्वा
हीनदीनान्धकृपणेभ्योन्नं दत्त्व ताम्बूलदक्षिणादिभिः सन्तोष्य सुहृद्युतो भुञ्जीत ।
इस प्रकार नवरात्र करके दशमी को
देवी का विसर्जन करे । उसमें मन्त्र यह है
''उत्तिष्ठ देवि चण्डेशि शुभां पूजां प्रगृह्य च । कुरुष्व मम कल्याणमष्टभिः शक्तिभिः सह”
इससे उठाकर “दुर्गे देवि जगन्मातः
स्वस्थानं गच्छ पूजिते । संवत्सरे व्यतीते तु पुनरागमनाय वै । इमां पूजां मया देवि
यथाशक्त्युपपादिताम् । रक्षार्थं त्वं समादाय व्रज स्वस्थानमुत्तमम् ।''
इस मन्त्र से सोने की प्रतिमा आचार्य को देकर इस श्लोक को पढ़े : “त्रैलोक्यमातर्देवि त्वं सर्वभूतदयान्विते । दानेनानेन सन्तुष्टा सुप्रीता
वरदा भव ।” यह पढ़कर मिट्टी की बनी मूर्ति आदि सब “उत्तिष्ठ देवि चण्डेशि” इस मन्त्र से उठाकर “गच्छ गच्छ परं स्थान स्वस्थानं देवि चण्डिके । व्रज स्रोतोजलं वृद्धयै
स्थीयतां च जले त्विह ।” इससे जल में प्रवाहित कर देवे ।
इसके बाद अग्नि की पूजा करके विभूति धारण करके “गच्छ गच्छ”
इस मन्त्र से विसर्जन करके “कृतस्य कर्मणः
सांगतासिद्धयर्थं यथाशक्ति महालक्ष्मी-प्रीत्यर्थ ब्राह्मणान् भोजयिष्ते” यह संकल्प करके “यस्य समृत्या च नामोक्त्या”
तथा “प्रमादात्कुर्वतां कर्म
प्रच्यवेताध्वरेषु यत्'' इन दो श्लोकों को पढ़ कर
ब्राह्मणों द्वारा पूर्णता-वाचन कराकर समस्त कर्मों को ईश्वर के अर्पण करके अच्छे
ब्राह्मणों को भोजन कराकर हीन, दीन, अन्धे
तथा गरीब लोगों को अन्न देकर ताम्बूल तथा दक्षिणा आदि से सन्तुष्ट करके मित्र,
बन्धु-बान्धवों के साथ यजमान भोजन करें ।
तत्फलम् ।
नवमीतिथिपर्यन्तं बृद्धपूजाजपादिकम्
।
एकाहारं व्रती कुर्यात्सत्यादिनियमैर्युत:
॥ १ ॥
क्रीडान्ति विविधैर्भोगैर्देवलोके
सुदुर्लभे ।
नाधयों व्याधयस्तेषां न च शत्रुभयं
भवेत् ॥२॥
इन्द्रब्रह्मादयो देवास्तामायान्ति
प्रसेवितुम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं निर्धनो धनवान
भवेत् ॥३॥
अविद्यो लभते विद्यां सकामश्च
मनोरथान् ।
व्याधयः संक्षयं यान्ति शत्रवः
क्षयमाप्नुयु: ।
न तस्यास्ति भयं किञ्चिद्राजचोराग्निवातजम्
।
इति नवरात्रे वार्षिकनवचण्डीविधानम्
।
इसका फल यह है :
नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धपूजा तथा जप
आदि को एक समय भोजन कर सत्य आदि नियमों से व्रती रहते हुए करने वाले यजमान देवलोक
में भी दुर्लभ विविध भोगों से इस लोक में क्रीडा करते हैं । उन्हें न मानसिक क्लेश
होते हैं,
न शारीरिक रोग ही सताते हैं और न उन्हें शत्रु आदि का ही भय होता है
। इन्द्र, ब्रह्मा आदि देव उनकी सेवा करने के लिए आते हैं । जिसे
पुत्र नहीं होता वह पुत्र प्राप्त करता है, निर्धन धनवान
होता है, विद्याहीन विद्या प्राप्त करता है, कामना करने वालों के अभीष्ट सिद्ध होते हैं, रोग
समाप्त हो जाते हैं, शत्रु नष्ट हो जाते हैं । उसे कोई भय
नहीं रह जाता । राजा, चोर तथा अग्नि से भी भय नहीं रहता ।
इति नवरात्र-वार्षिक चण्डीविधान
समाप्त ।
श्रीदुर्गा तंत्र में आगे – शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान
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