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भवनभास्कर अध्याय ५

भवनभास्कर अध्याय ५   

भवनभास्कर के इस अध्याय ५ में भूमि की सतह का वर्णन किया गया है।

भवनभास्कर अध्याय ५

भवनभास्कर पाँचवाँ अध्याय

भवनभास्कर               

पाँचवाँ अध्याय

भूमि की सतह

( १ ) नारदपुराण ( पूर्व० ५६।५४२ ) - में आया है कि पूर्व, उत्तर और ईशान दिशा में नीची भूमि सब मनुष्यों के लिये अत्यन्त वृद्धिकारक होती है । अन्य दिशाओं में नीची भूमि सबके लिये हानिकारक होती है ।

सुग्रीव के राज्याभिषेक के बाद भगवान् श्रीराम ने प्रस्न्नवणगिरि के शिखर पर अपने रहने के लिये एक गुफा चुनी । उस गुफा के विषय में वे लक्ष्मण से कहते हैं -

प्रागुदक्प्रवणे देशे गुहा साधु भविष्यति ।

पश्चाच्चैवोन्नता सौम्य निवातेयं भविषति ॥ ( वाल्मीकि०, किष्किंधा० २६।१२ )

' सौम्य ! यहाँ का स्थान ईशान्यकोण की ओर से नीचा है; अतः यह गुफा हमारे निवास के लिये बहुत अच्छी रहेगी । नैर्ऋत्य ओर से ऊँची यह गुफा हवा और वर्षा से बचाने के लिये अच्छी होगी ।'

( २ ) पूर्व में ऊँची भूमि पुत्र और धन का नाश करनेवाली है ।

आग्नेय में ऊँची भुमि धन देनेवाली है ।

दक्षिण में ऊँची भूमि सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली तथा नीरोग करनेवाली है ।

नैर्ऋत्य में ऊँची भूमि धनदायक है ।

पश्चिम में ऊँची भुमि पुत्रप्रद तथा धन-धान्य की वृद्धि करनेवाली है ।

वायव्य में ऊँची भूमि धनदायक है ।

उत्तर में ऊँची भूमि पुत्र और धन का नाश करनेवाली है ।

ईशान में ऊँची भूमि महाक्लेशकारक है ।

( ३ ) पूर्व में नीची भूमि पुत्रदायक तथा धन की वृद्धि करनेवाली है ।

आग्नेय में नीची भूमि धन का नाश करनेवाली, मृत्यु तथा शोक देनेवाली और अग्निभय करनेवाली है ।

दक्षिण में नीची भूमि मृत्युदायक, रोगदायक, पुत्र – पौत्र विनाशक, क्षयकारक और अनेक दोष करनेवाली है ।

नैर्ऋत्य में नीची भूमि धन की हानि करनेवाली महान् भयदायक, रोगदायक और चोर भय करनेवाली है ।

पश्चिम में नीची भूमि धननाशक, धान्यनाशक, कीर्तिनाशक, शोकदायक, पुत्रक्षयकारक तथा कलहकारक है ।

वायव्य में नीची भूमि परदेशवास करानेवाली, उद्वेगकारक, मृत्युदायक, कलहकारक, रोगदायक तथा धान्यनाशक है ।

उत्तर में नीची भूमि धन-धान्यप्रद और वंशवृद्धि करनेवाली अर्थात् पुत्रदायक है ।

ईशान्य में नीची भूमि विद्या देनेवाली, धनदायक, रत्नसंचय करनेवाली और सुखदायक है ।

मध्य में नीची भूमि रोगप्रद तथा सर्वनाश करनेवाली है ।

( ४ ) पूर्व व आग्नेय के मध्य ऊँची और पश्चिम व वायव्य के मध्य नीची भूमि ' पितामह वास्तु ' कहलाती है । यह सुख देनेवाली है ।

दक्षिण व आग्नेय के मध्य ऊँची और उत्तर व वायव्य के मध्य नीची भूमि ' सुपथ वास्तु ' कहलाती है । यह सब कार्यों में शुभ है ।

उत्तर व ईशान के मध्य नीची और नैर्ऋत्य व दक्षिण के मध्य ऊँची भूमि ' दीर्घायु वास्तु ' कहलाती है । यह कुल की वृद्धि करनेवाली है ।

पूर्व व ईशान में नीची और पश्चिम व नैर्ऋत्य ऊँची भूमि ' पुण्यक वास्तु ' कहलाती है । यह द्विजों के लिये शुभ है।

पूर्व व आग्नेय के मध्य नीची और वायव्य व पश्चिम के मध्य ऊँची भूमि ' अपथ वास्तु ' कहलाती है । यह वैर तथा कलह करानेवाली है ।

दक्षिण व आग्नेय के मध्य नीची और उत्तर व वायव्य के मध्य ऊँची भूमि ' रोगकर वास्तु ' कहलाती है । यह रोग पैदा करनेवाली है ।

दक्षिण व नैर्ऋत्य मध्य नीची और उत्तर व ईशान के मध्य ऊँची भूमि " अर्गल वास्तु ' कहलाती है । यह पापों का नाश करनेवाली है ।

पूर्व व ईशान के मध्य ऊँची और पश्चिम व नैऋत्य मध्य नीची भूमि ' श्मशान वास्तु ' कहलाती है । यह कुल का नाश करनेवाली है ।

आग्नेय में नीची और नैर्ऋत्य ईशान तथा वायव्य में ऊँची भूमि ' शोक वास्तु ' कहलाती है । यह मृत्युकारक है ।

ईशान, आग्नेय व पश्चिम में ऊँची और नैर्ऋत्य नीची भूमि ' श्वमुख वास्तु ' कहलाती है । यह दरिद्र करनेवाली है।

नैर्ऋत्य आग्नेय व ईशान में ऊँची तथा पूर्व व वायव्य में नीची भूमि ' ब्रह्मघ्न वास्तु ' कहलाती है । यह निवास करनेयोग्य नहीं है ।

आग्नेय में ऊँची और नैर्ऋत्य ईशान तथा वायव्य में नीची भूमि ' स्थावर वास्तु ' कहलाती है । यह शुभ है ।

नैर्ऋत्य ऊँची और आग्नेय, वायव्य व ईशान में नीची भूमि ' स्थण्डिल वास्तु ' कहलाती है । यह शुभ है ।

ईशान में ऊँची और वायव्य, आग्नेय व नैर्ऋत्य नीची भूमि ' शाण्डुल वास्तु ' कहलाती है । यह अशुभ है ।

( ५ ) दक्षिण, पश्चिम, नैर्ऋत्य और वायव्य की ओर ऊँची भूमि ' गजपृष्ठ भूमि ' कहलाती है । यह धन, आयु और वंश की वृद्धि करनेवाली है ।

मध्य में ऊँची तथा चारों ओर नीची भूमि ' कूर्मपृष्ठ भूमि ' कहलाती है । यह उत्साह, धन - धान्य तथा सुख देनेवाली है ।

पूर्व, आग्नेय तथा ईशान में ऊँची और पश्चिम में नीची भूमि ' दैत्यपृष्ठ भूमि ' कहलाती है, यह धन, पुत्र, पशु आदि की हानि करनेवाली तथा प्रेत - उपद्रव करनेवाली है ।

पूर्व – पश्चिम की ओर लम्बी तथा उत्तर – दक्षिण में ऊँची भूमि ' नागपृष्ठ भूमि ' कहलाती है । यह उच्चाटन, मृत्युभय, स्त्री – पुत्रादि की हानि, शत्रुवृद्धि, मानहानि तथा धनहानि करनेवाली है ।

भवनभास्कर अध्याय ५ सम्पूर्ण

आगे जारी.......................भवनभास्कर अध्याय ६         

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