भवनभास्कर अध्याय ७
भवनभास्कर के इस अध्याय ७ में वास्तुचक्र
और वास्तुपुरुष तथा उसके मर्म – स्थान का वर्णन किया गया है।
भवनभास्कर सातवाँ अध्याय
भवनभास्कर
सातवां अध्याय
वास्तुचक्र
( १ ) वास्तुशास्त्र में विधान
आया है कि सूत्र- स्थापन करने में, भूमि-शोधन करने में,
द्वार बनाने में, शिलान्यास करने में और
गृहप्रवेश के समय- इन पाँच कर्मों में वास्तुपुजन करना चाहिये ।
( २ ) गाँव, नगर और राजगृह के निर्माण में ६४ ( चौंसठ ) पदवाले वास्तुपुरुष का पूजन
करना चाहिये ।
गृहनिर्माण ८१ ( इक्यासी ) पदवाले वास्तुपुरुष
का पूजन करना चाहिये ।
देवमन्दिर के निर्माण में १०० ( सौ ) पदवाले वास्तुपुरुष का पूजन करना चाहिये ।
जीणोंद्धार में ४९ ( उन्चास )
पदवाले और कूप, वापी, तड़ाग
तथा वन के निर्माण में १९६ ( एक सौ छियानबे ) पदवाले वास्तुपुरुष का पूजन करना
चाहिये ।
( ३ ) मत्स्यपुराण में आया है कि
सुवर्ण की सलाई द्वारा रेखा खींचकर इक्यासी कोष्ठ बनाये । पिष्टक से चुपड़े हुए सूत
से दस रेखाऍं पूर्व से पश्चिम तथा दस रेखाऍं उत्तर से दक्षिण की ओर खींचे । फिर उन
कोष्ठों में स्थित पैंतालीस देवताओं की पूजा करे । उनमें बत्तीस की बाहर से तथा
तेरह की भीतर से पूजा करे ।
भवनभास्कर अध्याय ७
वास्तुपुरुष तथा उसके मर्म - स्थान
( १ ) वास्तुपुरुष ईशानकोण में सिर करके अधोमुख होकर स्थित है । उसका सिर ' शिखी ' में है । बायाँ नेत्र ' दिति ' में तथा दायाँ नेत्र ' पर्जन्य ' में है । मुख ' आप ' में है । बायाँ कान ' अदिति' में तथा दायाँ कान 'जयन्त ' में है । बायाँ कन्धा ' भूजग ' में तथा दायाँ कन्धा ' इन्द्र ' में है । बायीं भुजा ' सोम ', ' भल्लाट ', ' मुख्य ', ' नाग ', और ' रोग ' में तथा दायीं भुजा ' सुर्य' , ' सत्य', ' भृश ', ' अन्तरिक्ष ', और ' अनिल ' में है । बायाँ मणिबंध ' पापयक्ष्मा ' में तथा दायाँ मणिबंध " पूषा ' में है । बायाँ हाथ ' रुद्र ' और ' राजयक्ष्मा ' में तथा दायाँ हाथ ' सावित्र ' और ' सविता ' में है । छाती ' आपवत्स ' में है । बायाँ स्तन ' पृथ्वीधर ' में और दायाँ स्तन ' अर्यमा ' में है । हदय ' ब्रह्मा ' में है । पेट ' मित्र ' तथा ' विवस्वान्' में है । बायीं बगल ' शोष ' तथा ' असुर ' में और दायीं बगल ' वितथ ' तथा ' बृहत्क्षत ' में है । बायाँ ऊरु ( घुटने से ऊपर का भाग ) ' वरुण ' में तथा दायाँ ऊरु ' यम ' में है । बायाँ घुटना ' पुष्पदन्त ' में तथा दायाँ घुटना ' गग्न्धर्व ' में है । बायीं जंघा । ( घुटने से नीचे का भाग ) ' सुग्रीव ' में तथा दायीं जंघा ' भृंगराज ' में है । लिंग ' इन्द्र ' तथा ' जय ' में है । बायाँ नितम्ब ' दौवारिक ' तथा दायाँ नितम्ब ' मृग ' में है । पैर ' पिता ' में हैं ।
( २ ) सिर, मुख,
हदय, दोनों स्तन और लिंग - ये वास्तुपुरुष के
मर्म - स्थान हैं ।
( ३ ) रोग से अनिल तक, पिता से शिखी तक, वितथ से शोष तक, मुख्य से भृश तक, जयन्त से भृंगराज तक और अदिति से सुग्रीव तक विस्तृत सूत्रों का जो नौ स्थानों में स्पर्श होता हैं, वे वास्तुपुरुष के अतिमर्म - स्थान हैं। ये नौ अतिमर्म - स्थान ब्रह्मस्थान में आते हैं ।
( ४ ) वास्तुपुरुष के जिस मर्म - स्थान ( अंग ) - में कोई शल्य हो अथवा वहाँ कील, खम्भी आदि गाड़ा जाय तो गृहस्वामी के उसी अंग में पीड़ा या रोग उत्पन्न हो जायगा ।
( ५ ) यदि मर्म – स्थान में लकड़ी का
शल्य हो तो धन की हानि होगी । हड्डी का शल्य हो तो रोग का भय होगा। लोहे का शल्य
हो तो शस्त्र का भय होगा । कपाल या केश हो तो मृत्यु होगी । कोयला हो तो चोर से भय
होगा । भस्म हो तो अग्निभय होगा । भूसा हो तो धन का आना बन्द होगा ।
( ६ ) यदि वास्तुपुरुष दायीं भुजा
से रहित हो तो धन का नाश एवं स्त्रीकृत दोष होता है । बायीं भुजा से रहित हो तो धन
– धान्य का नाश होता है । सिर से रहित हो तो धन, आरोग्य आदि
सब गुणों का नाश होता है । पैर से रहित हो तो स्त्री - दोष, पुत्रनाश
एवं दासत्व की प्राप्ति होती है ।
( ७ ) घर के मध्य में स्थित
ब्रह्मस्थान ( ब्रह्मा के नौ पद ) - की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये । उस जगह कोई
निर्माण ( दीवार, खम्भा ) नहीं करना चाहिये । वहाँ जूठे
बर्तन, अपवित्र पदार्थ भी नहीं रखने चाहिये । यदि
ब्रह्मस्थान में दीवार , खम्भा, दरवाजा
आदि बनाया जाय अथवा जूठे बर्तन, अपवित्र वस्तु, हड्डी, भस्म आदि रखे जायँ या कील गाड़ी जाय तो धन –
धान्य का नाश होता है और अनेक प्रकार के रोग तथा शोक उत्पन्न होते हैं ।
ब्रह्मस्थान निकालने के लिये गृहभूमि की लम्बाई और चौडा़ई के तीन - तीन बराबर भाग करें । बीच का भाग ब्रह्मस्थान होगा । जैसे –
भवनभास्कर अध्याय ७ सम्पूर्ण ॥
आगे जारी.......................भवनभास्कर अध्याय ८
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