दुर्गा सप्तशती शापोद्धारोत्कीलन
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का
सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है,
इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस
भाग ८ में दुर्गा सप्तशती के शापोद्धार तथा उत्कीलन और सप्तशती सिद्ध सम्पुटमन्त्रों
का कामना अनुसार निर्णय का वर्णन है।
अथ सप्तशत्याः शापोद्धारोत्कीलने कात्यायनीतन्त्रे :
दुर्गा सप्तशती के शापोद्धार तथा
उत्कीलन के सम्बन्ध में कात्यायनी तन्त्र में इस प्रकार लिखा है :
अथ शापोद्धारः
त्रयोदशाध्यायं पठित्वा प्रथमं
पठेत् ततो द्वादशद्वितीया तत् एकादशतृतीयौ चतुर्थदशमी
पञ्चमनवमौ षडष्टमौ सप्तमं
द्विवारमिति पाठेन शापोद्धारः ॥ ४९ ॥
तेरहवें अध्याय को पढ़ने के बाद
प्रथम अध्याय पढे । इसके बाद बारहवाँ तथा दूसरा अध्याय पढ़ना चाहिये। तदनन्तर
ग्यारहवाँ तथा तीसरा अध्याय, चतुर्थ तथा
दशम अध्याय, पञ्चम तथा नवम अध्याय, षष्ठ
तथा अष्टम अध्याय पढ़ना चाहिये । सातवें अध्याय को दो बार पढ़ने से शापोद्धार होता
है ।
अन्यच्च : ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां
क्रीं चण्डिकादेव्यै शापानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ॥
इति पाठादौ सप्तवारं जपेदिति
शापोद्धार: ॥ ५० ॥
और “ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापानुग्रहं कुरु कुरु
स्वाहा” इसे पाठ के पहले सात बार जपे । यह शापोद्धार है ।
अथोत्कीलनम् ।
इत्थं रुपेण कीलेन महादेवेन
कीलितमिति सप्तशतीस्तोत्रे शिवशापतदुद्धार: प्रथमं मध्यमचरित्रं पठित्वा ततः
प्रथमतृतीयौ पठेदित्युत्कीलनमिति क्वचित् दृश्यते ॥ ५१ ॥
अथ उत्कीलन : इस प्रकार से महादेवजी
के द्वारा कीलित किये गये सप्तशती स्तोत्र में शिवशाप से उद्धार: पहले मध्यम
चरित्र को पढ़कर पहले तथा तृतीय अध्याय को पढ़े यह उत्कीलन है,
ऐसा कहीं पर देखा जाता है।
अन्यच्च : कीलक मध्यमादौ च पञ्चात्कवचमेव
च ।
प्रथमं चरितं जप्त्वा
ततश्चरितमुत्तमम् ॥ ५२ ॥
ततः परं चार्गलां च कीलकं च ततः
परम् ।
एवमुत्कीलनं प्रोक्तं
पुरातनमहर्षिभि: ॥ ५३ ॥
अन्य कीलक : पहले मध्य तथा बाद में
कवच पढ़ना चाहिये । प्रथम चरित्र का जप करके तब अन्तिम चरित का जप करना चाहिये ।
इसके बाद अर्गला, और कीलक पढ़ना
चाहिये । पुराने महर्षियों ने इस प्रकार उत्कीलन कहा है ।
अन्यच्च: ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं
सप्तशतीचण्डिके उत्कीलनं कुरु स्वाहा ।
पाठादौ एकविंशतिजपे तदोत्कीलनम् ॥
५४ ॥
और भी : “
श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशतीचण्डिके उत्कीलनं कुरु स्वाहा” । इसे पाठ के आदि में इक्कीस बार जप करने पर उत्कीलन होता है ।
अथ जाग्रत्करणम् : ॐ रं सं मूल रं
क्षं इति सप्तवारजपेन जाग्रद्विद्या भवति । इति ।
अथ जग्रात्करणम् : ॐ रं सं मूलं रं
क्षं”
इसे सात बार जपने से विद्या जागृत होती है ।
दुर्गा सप्तशती शापोद्धारोत्कीलन
सप्तशती स्तोत्रान्तरगमन्त्राणां
कामनापरत्वेन सम्पुटनिर्णयः ।
सप्तशती स्तोत्रान्तर्गत मन्त्रों
के लिए कामनापरत्व से सम्पुटनिर्णय ।
रात्रिसूक्त जपेदादौ मध्ये
सप्तशतीस्तवम् ।
अन्ते च देवीसूक्तानि रहस्यं
तदनन्तरम् ॥ ५५॥
प्रारम्भ में रात्रिसूक्त का जप
करना चाहिये, मध्य में सप्तशती स्तव का,
अन्त में देवीसूक्त का और तदनन्तर रहस्य का पाठ करना चाहिये ।
चरितेचरिते राजञ्जपेन्मन्त्रं
नवाक्षरम् ।
शतमादौ शतं चान्ते विधानेन तु
सुब्रत ॥ ५६ ॥
हे सुब्रत,
विधान से प्रत्येक चरित के पाठ में नवाक्षर मन्त्र का सौ बार आदि
में तथा सौ बार अन्त में जप करना चाहिये ।
अन्यच्च : जपेन्नवाक्षरं
मन्त्रमथवाष्टोत्तरं शतम् ।
शतमादौ शतं चान्ते सप्तशतीं जपेत् ॥
५७॥
अन्यच्च : महामायामनोरादौ चरितस्यादितोपि
वा ।
प्रत्यध्यायसमारम्भे तत्समाप्तौ
जपेत्तथा ॥ ५८ ॥
प्रतिश्लोकस्यादितो यद्वा तदन्ते वा
पठेन्नरः ।
नवार्णमनुना सार्ध॑ सम्पुटोयमुदाहृतः
।
सकामः सम्पुटो जाप्यो निष्कामः
सम्पु्टं विना ॥ ५९ ॥
और भी : एक सौ आठ बार नवाक्षर मन्त्र का पाठ करना
चाहिये अथवा सौ आदि में तथा सौ अन्त में फिर सप्तशती का पाठ करना चाहिये ।
और भी : महामाया मन्त्र के प्रारम्भ
में अथवा चरित के आदि में प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में तथा उसकी समाप्ति में जप
करे । प्रत्येक श्लोक के आदि या अन्त में मनुष्य पाठ करे । नवार्ण मन्त्र के साथ
यह सम्पुट कहा गया है । सकाम प्रयोग में सम्पुट से और निष्काम प्रयोग में बिना
सम्पुट के जप करना चाहिये ।
कात्यायनीतन्त्रे
प्रतिश्लोकमाद्यन्तयो: प्रणवेन जपेन्मंत्रसिद्धि: ॥ ६० ॥
कात्यायनी तन्त्र में कहा गया है कि
प्रत्येक श्लोक के आदि तथा अन्त में प्रणव लगाकर जप करने से मन्त्र की सिद्धि होती
है ।
अन्यच्च : सप्तव्याहृतिपूर्वकं
श्लोकं कृत्वा महास्तोत्रं जपेन्मन्त्रसिद्धिः ॥ ६१ ॥
और भी : सप्त व्याहृतिपूर्वक श्लोक
करके महास्तोत्र का जप करने से मन्त्र की सिद्धि होती है ।
अन्यच्च : सव्याहृतिकां
गायत्रीमादावन्ते वा कृत्वा श्लोकं जपेत् तदा महाफलम् ॥ ६२ ॥
और भी : व्याहृति पूर्वक आदि और
अन्त में गायत्री का जप करके श्लोक जपने से महाफल होता है।
अन्यच्च : प्रतिश्लोक व्याहृतित्रययुतां
गायत्रीं जपेत् तदा महाफलम् ॥ ६३ ॥
और भी : मनुष्य प्रतिश्लोक तीन
व्याहृतियों से युक्त गायत्री को आदि और अन्त में करके श्लोक जपे तो महाफल होता है।
अन्यच्च : प्रतिश्लोकमादादन्ते “जातवेदसे सुनवास सोममरातीयतो निदहाति वेद: ।
स नः पर्षदतिदुर्गाणि विश्वानावेव
सिन्धुं दुरितात्यग्नि:” इति ऋचं जपेत्
।
सर्वकामसिद्धि: ॥ ६४ ॥
और भी : प्रतिश्लोक के आदि तथा अन्त
में “जातवेदसे ” इस मन्त्र का जप करने से सब कुछ सिद्ध हो
जाता है ।
अन्यच्च : ॐ भूर्भुवः स्वः,
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि, धियो
यो नः प्रचोदयात् ।
जातवेदसे सुनवास सोममरातीयतो
निदहाति वेद: ।
स नः पर्षदतिदुर्गाणि विश्वानावेव
सिन्धुं दुरितात्यग्नि: ।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे
सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् ।
ऊवरुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय
मामृतात् ।
इति शताक्षरत्र्यम्बकमन्त्रेण
सम्पुटीकृत्य मन्त्र पठेत् ।
रोगारिक्षयमृत्यून्मूलनं
सर्वापद्विनिवारणमभीष्सितप्राप्ति: ॥ ६५॥
और भी : “ॐ भूर्भुवः स्वः से मामृतात । इस शताक्षर त्र्यम्बक मन्त्र से सम्पुट करके
मन्त्र पढ़ना चाहिये। इससे रोग, शत्रु का नाश, मृत्यु का उन्मूलन एवं अभीष्ट की प्राप्ति होती है ।
अन्यच्च : प्रतिश्लोकं शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे
।
सर्वास्यार्तिहरे देवि नारायणि
नमोऽस्तु ते ॥
इति
श्लोक पठेत् । सर्वकार्यसिद्धि: ॥६६॥
और भी : प्रत्येक श्लोक को “शरणागतदीनार्त ।” इस श्लोक से सम्पुट करके पढ़ने से
सब कार्यों की सिद्धि होती है ।
अन्यच्च : प्रतिश्लोकं करोतु सा नः
शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।
इत्यर्ध पठेत् सर्वकामाप्तिः ॥ ६७ ॥
और भी : प्रत्येक श्लोक को “करोतु सा ।” इस श्लोकार्द्ध से सम्पुट करके पाठ करना चाहिये ।
अन्यच्च : प्रतिश्लोकम् ।
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ।
सूर्याज्जन्म समासाद्य
सावर्णिर्भविता मनुः॥
इत्याद्यन्तं पठेत्
स्वाभीष्टवरप्राप्ति: ॥ ६८ ॥
और भी : प्रतिश्लोक को “एवं देव्या ।” इस श्लोक से सम्पुटित करके पाठ करने
से अभीष्ट वर की प्राप्ति होती है ।
अन्यच्च : दुर्गे स्मृता हरसि
भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
। सर्वापत्तिनिवारणं स्यात् ॥ ६९ ॥
और भी : “दुर्गे स्मृता ” इन श्लोकों से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करना चाहिये । इससे सभी आपत्तियों का निवारण होता है ।
अन्यच्च : ॐ कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां
ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां
तामिहोपह्वये श्रियम् ॥
इति ऋचं प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत् ।
लक्ष्मीप्राप्ति: ॥ ७० ॥
और भी : “ॐ कां सोस्मितां” इस मन्त्र से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ।
अन्यच्च : ॐ मनृणा इत्यादि ऋचं
प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत् ।
ऋणपरिहारः ॥ ७१ ॥
और भी : “ॐ मनृणा” इत्यादि मन्त्र से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करना चाहिये । इससे ऋण से उद्धार होता है ।
अन्यच्च : ॐ शब्दात्मिका
सुविमलर्ग्यजुषां निधानमुद्गीथरम्यपदपाठवतां च
साम्नाम् देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
।
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री
।।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ।
सुखप्राप्तौ दारिद्रदुःखभयमोचने च ॥
७२ ॥
और भी : “ॐ शब्दात्मिका ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पढ़ने से सुख की प्राप्ति होती है और दरिद्रता, दु:ख तथा भय से मुक्ति मिलती है ।
अन्यच्च : ॐ सर्वबाधाविनिर्मुक्तो
धनधान्यसुतान्वितः ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । धनधान्यसुखप्राप्ति: ॥ ७३ ॥
और भी : “ॐ सर्वबाधा ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करने से धन-धान्य और सुख की प्राप्ति होती है।
अन्यच्च : या देवी सर्वभूतेषु
वृत्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमोनमः ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
। मनउत्सवप्राप्ति: ॥ ७४ ॥
और भी : “या देवी ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित
करके पढ़ने से मन में प्रसन्नता प्राप्त होती है ।
अन्यच्च : ॐ धर्म्याणि देवि सकलानि
सदैव कर्माण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।
स्वर्गं
प्रयाति च ततो भवतीप्रसादाल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । सकलकर्मसुकृतप्राप्ति: ॥ ७५॥
और भी : “ॐ धर्म्याणि देवि ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पढ़ने से समस्त कर्मो का उत्तम फल प्राप्त होता है ।
अन्यच्च : ॐ त्वयैतद्धार्यते विश्वं
त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते
च सर्वदा॥
विसृष्टौ सृष्टिरुपा त्वं
स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य
जगन्मये॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । सर्वकार्यसिंद्धि: ॥ ७६ ॥।
और भी : “
ॐ त्वयैतत्पाल्यते देवि” इस श्लोक से प्रत्येक
श्लोक को सम्पुटित करके पाठ करने से सब कार्यों की सिद्धि होती है।
अन्यच्च : ॐ देवि प्रपन्नर्तिहरे
प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । स्वार्पन्निवृत्ति: ।
सर्वकामाप्तिश्व । एषु प्रयोगेषु
प्रतिश्लोकं ।
दीपाग्रे नमस्कारकरणे अतिशीघ्रं
सिद्धि: ॥ ७७॥
और भी : “
ॐ देवि प्रपन्नार्तिहरे ” इस श्लोक से
प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित करके पाठ करने से समस्त आपत्तियों की निवृत्ति तथा
समस्त कामनाओं की प्राप्ति होती है ।
इन प्रयोगों में प्रत्येक श्लोक के
साथ दीपक के सामने नमस्कार करने से अत्यन्त शीघ्र फल मिलता है।
अन्यच्च : रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । सकलरोगनाशः स्यात् ॥ ७८॥
और भी : “ऊँ रोगानशेषान” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पढ़ने से समस्त रोगों का नाश होता है।
अन्यच्च : ॐ सर्वनाशने उपसर्गानशेषांस्तु
महामारीसमुद्भवान् ।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं
शमयेन्मम ।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । सर्ववाधानाशः स्यात् ॥ ७९ ॥
और भी : “ॐ सर्वनाशेन ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करने से सभी बाधाओं का नाश होता है ।
अन्यच्च : ॐ मेधासि देवि
विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा ।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् । वाक्सिद्धि: ॥ ८०॥
और भी : “ऊँ मेधासि” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित
करके पाठ करने से वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है ।
अन्यच्च स्तवने : ॐ सर्वमङ्गलमङ्गल्ये
शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु
ते ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥ ८१ ॥
और भी : स्तवन में 'ॐ सर्व ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित
करके पाठ करना चाहिये ।
अन्यच्च : भयमोचने ।
ॐ ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्
।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि
नमोऽस्तु ते ॥
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥ ८२ ॥
और भी : भय को दूर करने में “ॐ ज्वालाकराल ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करना चाहिये ।
अन्यच्च : दुःस्वप्नपीडापरिहारे
शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने ।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं
श्रृणुयान्मम ।
इति श्लोक प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
॥ ८३॥
और भी : दुःस्वप्न की पीड़ा को दूर
करने में “दुःस्वप्न” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित करके पढ़ना चाहिये।
अन्यच्च : परप्रयोगशमने ।
ततो निशुम्भः सम्प्राप्य
चेतनामात्तकार्मुक: ।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा
।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥ ८४॥
और भी : दूसरे तान्त्रिक द्वारा
किये गये प्रयोग की शान्ति के लिए 'ततो
निशुम्भ:” इस श्लोक से सम्पुटित करके प्रत्येक श्लोक का पाठ
करना चाहिये ।
अन्यच्च: अपद्वेषनाशने ।
तयास्माकं वरो दत्तो यथापत्सु
स्मृताखिला: ।
भवतां नाशविष्यामि
तत्क्षणात्परमापद: ।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥ ८५॥
और भी: अपद्वेष के विनाश के लिए “तयास्माकं ” इससे प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित करके
पाठ करना चाहिये ।
अन्यच्च : मारणार्थे ।
ॐ एवमुक्ता समुत्पत्त्य सारूढा तं
महासुरम् ।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च
शूलेनैनमताडयत् ।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥ ८६॥
और भी : मारण के लिए “ॐ एवमुक्ता” इससे प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित करके
पाठ करे ।
अन्यच्च : शत्रुपरिहारे ।
त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेपि हत्वा ।
नीता दिवं रिपुगणा
भयमप्यपास्तमस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ।
इति श्लोक प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
॥ ८७॥
और भी : शत्रु के नाश के लिए “त्रैलोक्यमेतदखिलं” इस श्लोक से सम्पुटित करके
प्रत्येक श्लोक का पाठ करे ।
अन्यच्च : शत्रुपराभवार्थे ।
ॐ या देवीसर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण
संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमोनमः ॥ ८८ ॥
और भी : शत्रु के पराजय के लिए “ॐ या देवीसर्वभूतेषु” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करे।
अन्यच्च : शत्रु मुखस्तम्भने पुत्रप्राप्तिश्च
।
स्मरन्ममेतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात्
।
मम प्रभावात्सिंहाद्या वैरिणस्तथा ।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥८९॥
और भी : शत्रु का मुखस्तम्भन तथा
पुत्रप्राप्ति के लिए “'स्मरन्ममेतच्चरितं ”
इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित करके पाठ करे।
अन्यच्च : विषमचित्तशमने ।
पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले ।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु
दानवान् ।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
॥ ९० ॥
और भी : विषय चित्त की शान्ति के
लिए “पुनरप्यतिरैद्रेण ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करे ।
अन्यच्च : ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि
देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति
।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्त्ववश्यं
मोहनं च इत्यनुभवसिद्धम् ॥ ९१ ॥
और भी : “ॐ ज्ञानिनामपि ' इस श्लोक से सम्पुटित करके प्रत्येक
श्लोक का पाठ करने से अवश्य ही मोहन होता है, यह अनुभवसिद्ध
है ।
अन्यच्च : ॐ रक्तचामुण्डे तुरु तुरु
अमुकं मे वशमानय स्वाहा ॥
अनेन प्रत्यध्यायमाद्यन्तयोः पूजा
सर्वान्ति अयुतं जपाः अयुतमन्त्रश्च
होमयेत् कटुतैलेन
रक्तचन्दनराजिकासहस्राहुतिमन्त्रेण राजानं वशमानयेत् ।
मधुनाशोक पुष्पैश्व रात्रौ हुत्वा
तु पूर्ववत् ।
चक्रवर्ती
भवेद्वश्यश्रण्डीमन्त्रप्रभावतः ।
अन्ते शतं ब्राह्मणाः कुमार्यश्च
भोजनीया: ॥ ९२॥
और भी : “ॐ रक्तचामुण्डे तुरु तुरु अमुक मे वशमानय स्वाहा ।” इस
मन्त्र से प्रति अध्याय के आदि तथा अन्त में पूजा करनी चाहिये । सबके अन्त में दश
हजार मन्त्रों से होम करना चाहिये । कड़वा तेल, लाल चन्दन,
राई से एक हजार आहुति देने राजा को वश में लाना चाहिये ।
पूर्ववत् मधु तथा अशोक के फूलों से
रात्रि में होम करने से चण्डी के प्रभाव से चक्रवर्ती राजा वश में हो जाता है । अन्त
में सौ ब्राह्मणों और कुमारियों को भोजन कराना चाहिये ।
अन्यच्च : राजवश्ये । तत्किमेतन्महाभाग
यन्मोहो ज्ञानिनोरिपि ।
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य
मूढता ।
इति श्लोक प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
॥ ९३॥
और भी : राजा को वश में करने के लिए
“तत्किमेतन्महाभाग ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को
सम्पुटित करके पाठ करना चाहिये ।
अन्यच्च : दुर्जनमोहने ।
ॐ सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि
संस्तुता ।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ
।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं
पठेत् ॥ ९४॥
और भी : दुर्जनों को मोहित करने के
लिए “ॐ सा ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित करके
पाठ करे।
अन्यच्च : वैरिमोहने ।
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति
मुक्तये ।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता
सनातनी ।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकाद्यन्तं पठेत्
॥९५॥
और भी : शत्रु के मोहन के लिए “ॐ सैषा ” इस श्लोक से प्रत्येक श्लोक को सम्पुटित
करके पाठ करना चाहिये।
अन्यच्च : ॐ मम् वैरिवशं यातः
कान्मोगानुपलप्स्यते ।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः
।
इति श्लोकं प्रतिश्लोकंसम्पुटिते
श्लोकोक्तं फलम् ॥९६॥
और भी : “ॐ मम ” इस श्लोक से सम्पुटित करके प्रत्येक श्लोक का
पाठ करने से श्लोक में उक्त फल प्राप्त होता है ।
अन्यच्च : ॐ इत्युक्ता सा तदा देवी
गम्भीरान्तः स्मिता जगौ ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदंधार्यते
जगत् ।
इति प्रतिश्लोकपाठे विद्याप्राप्तिः
वाग्वैकृतनाशश्च ॥ ९७ ॥
और भी : “
ॐ इत्युक्ता ” इस श्लोक का प्रत्येक श्लोक के
पहले पाठ करने से विद्याप्राप्ति होती है तथा वाणी की विकृति का नाश होता है ।
अन्यच्च: मनईप्सितप्राप्तयै
गतप्रयोगप्राप्तयै च ।
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं
प्राह चण्डिका ।
इत्यर्धं पठेत् ॥ ९८॥
और भी: मनकी अभीष्ट प्राप्ति के लिए
तथा गत प्रयोग की प्राप्ति के लिए “परितुष्टा
जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ।” इस आधे श्लोक का पाठ
करे।
अन्यच्च : देवीसन्तोषप्राप्तयै ।
स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं
जपन् ।
तौ तस्मिन्पुलिने देव्याः कृत्वा
मूर्ति महीमयीम् ।
इति पठेत् ॥ ९९॥
और भी : देवी की संतोषप्राप्ति के
लिए 'स च ' इस श्लोक को पढ़े ।
अन्यच्च: प्रतिमन्त्रं प्रणवम् (ॐ)
पूटितं जपेत् शीघ्रतरकार्यसिद्धि: अत्र त्रिमध्वाक्तकमलैर्होम: ॥
अत्र विप्रतीर्थतोयैर्वा
ब्राह्मणभोजनान्ते मार्जनं कुर्यात् ॥१०० ॥
और भी : प्रत्येक मन्त्र को प्रणव (ॐ)
से सम्पुटित करके जप करने से शीघ्र कार्य की सिद्धि प्राप्त होती है । इससे घी,
मधु तथा शक्कर से होम करना चाहिए और ब्राह्मण भोजन के बाद
विप्रतीर्थ के जल से मार्जन करना चाहिये।
अन्यच्च : माया (ह्रीं) श्री (श्रीं)
(क्लीं) पुटिते सर्वेष्ट सिद्धि: ॥ १०१ ॥
और भी : माया (ह्रीं) श्री (श्रीं)
काम (क्लीं) इनसे सम्पमुटित मन्त्र के जप से समस्त अभीष्ट सिद्ध हो जाते हैं ।
अन्यच्च : प्रतिश्लोकं कामबीज
(क्लीं) सम्पुटितस्यैकचत्वारिंशद्दिनानि त्रिरावृत्तौ पुत्रप्राप्तिः
एकविंशतिदिनपर्यन्तमुक्तरीत्या
प्रत्यहं पश्चावृत्या वशीकरणम् ।
और भी : प्रतिश्लोक को कामबीज
(क्लीं) से सम्पुटित करके चालीस दिन तक तीन बार जप करने से पुत्र की प्राप्ति होती
है । उक्त रीति से इक्कीस दिन तक प्रतिदिन पाँच बार पाठ करने से वशीकरण होता है ।
आकर्षणार्थे द्विचत्वारिंशद्दिनपर्यन्तं
कामपुटितस्य दशावृत्ति: ॥ १०२ ॥
आकर्षण के लिए बयालीस दिन पर्यन्त
काम (क्लीं) से सम्पुटित स्तोत्र का दश बार पाठ करना चाहिये ।
अन्यच्च : माया बीज (ह्रीं)
पुटितस्य फट्पल्लवसहिस्य त्रिसप्तदिनपर्यन्तं त्रयोदशावृत्तौ
उच्चाटनसिद्धिः तादृशस्यैव चतुश्चत्वारिंशद्दिनपर्यन्तं
सर्वोपद्रवनाशः स्यात् ॥ १०३ ॥
और भी : मायाबीज (ह्रीं) से
सम्पुटित 'फट्” पल्लव
सहित इक्कीस दिन पर्यन्त तेरह बार पाठ करने से उच्चाटन की सिद्धि होती है । उसी
तरह का चौवालिस दिन पर्यन्त पाठ करने पर सभी उपद्रवों का नाश होता है।
अन्यदेकोनपञ्चाशद्दिनपर्यन्तं
प्रतिश्लोकम् (श्रीं) इति श्रीबीजसम्पुटितस्य पश्चदशावृत्तौ
लक्ष्मीप्राप्ति: सद्यो मोहनसिद्धिश्च
॥ १०४ ॥
और भी : उन्चास दिन पर्यन्त
प्रतिश्लोक को श्रीबीज (श्रीं) से सम्पुटित करके पाँच बार पाठ करने से लक्ष्मी की
प्राप्ति तथा शीघ्र मोहन की सिद्धि होती है ।
अन्यत्
प्रतिश्लोकम् (मैं) बीजसम्पुटितस्यशतावृर्त्या विद्याप्राप्ति: ॥ १०५॥
और भी : प्रति श्लोक (मैं) बीज से
सम्पुटित करके सौ बार पाठ करने से विद्या की प्राप्ति होती है।
अन्यच्च : मायादौ कूर्चबीजेन
सम्पुटितस्य एकादशवृत्तौ ।
सर्वोपद्रवनाशः स्यात् ॥ १०६ ॥
और भी : माया बीज (ह्रीं) तथा कूच
बीज (हूं) से सम्पुटित करके ग्यारह बार पाठ करने से भी उपद्रवों का नाश होता है।
श्रीदुर्गा तंत्र आगे जारी...............
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