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भूतशुद्धितन्त्र पटल १

भूतशुद्धितन्त्र पटल १

भूतशुद्धितन्त्र पटल १ में आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए योग का वर्णन किया गया है ।

भूतशुद्धितन्त्र पटल १

भूतशुद्धितन्त्र पटल १

Bhoot shuddhi tantra Patal 1

भूतशुद्धितन्त्रम् प्रथमः पटल:

भूतशुद्धितन्त्र प्रथम पटल

भूतशुद्धितन्त्र पहला पटल

भूतशुद्धितन्त्रम्

अथ प्रथमः पटल:

ॐ देव्युवाच

कथयेशान! सर्वज्ञ! यतोऽहं तव वल्लभा ।

योगं शारीरिकं देव! यतस्त्वं योगवित्तमः ॥1 ॥

महादेवी पार्वती ने भूतभावन भगवान् शंकर से कहा कि हे स्वामी! हे सब कुछ जानने वाले प्रभो! क्योंकि मैं आपकी प्राणप्रिया हूँ, इसलिए शारीरिक योग को आप से पूछना चाहती हूँ, क्योंकि आप योग को सबसे अधिक जानने वाले हैं ।। 1 ।।

विना येन न सिद्ध्येत् तु जपहोमार्चनादिकम् ।

आत्मज्ञानं महेशान! येन त्वं सिद्धिमान् गुरुः ॥ 2

तथा हे परमेश्वर जिस योग के बिना जप, हवन और अर्चना पूजा आदि नही सिद्ध होते हैं तथा न ही आत्म-ज्ञान होता है। हे महादेव! जिससे आपको आत्म-ज्ञान हुआ है तथा जिसके द्वारा आप सिद्धि प्राप्त करने में गुरु हुए हैं, उस आत्मज्ञान को मुझे बताइये ।। 2  ।।

भैरव उवाच

शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि सारात् सारतरं परम् ।

स्त्रीस्वभावात् कदा कुत्र न प्रकाश्यं कदाचन ॥3

भगवान् शंकर बोले! हे देवि ! पार्वति ! सुनो! मैं तुम्हें उस अत्यन्त गूढ़ रहस्य को बताऊंगा, जिससे आत्मज्ञान होता है और जप- होम - अर्चना आदि में सफलता मिलती है; परन्तु एक शर्त है कि तुम स्त्री हो तथा स्त्रीस्वभाव चंचल होता है, स्त्रियां गुप्त बात को गुप्त नहीं रहने देतीं। वे कभी अपने स्वभाव वश कब कहाँ कभी भी किसी से कह ही देती हैं। अतः जो मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ, उसे कभी कहीं भी प्रकाशित मत करना।।3।। 

अतिप्रेमवशीभूतः कथयामि तवाऽग्रतः ।

गुदोर्ध्व द्व्यङ्गुलं देवि ! कन्दमूलं खगाण्डवत् ॥4

तत्रनाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणां द्विसप्ततिः ।

तासु नाड्यः प्रधानास्तु तत्र मुख्याश्चतुर्दश ॥ 5

भगवान् शंकर ने कहा कि हे पार्वति ! अत्यन्त प्रेम से वशीभूत होकर मैं तुम्हारे आगे यह रहस्य बता रहा हूं। हे देवि! गुदा (मलद्वार) के ऊपर दो अंगुल की दूरी पर अण्डकोश के नीचे पक्षी के अण्डे की भांति एक कन्दमूल है, वहीं पर 17000 नाडियां उत्पन्न हुईं हैं, उन नाड़ियों में चौदह नाड़ियां प्रधान और मुख्य हैं।। 4-5।।

तासां मुख्यतमास्तिस्त्र इडाद्या: परेश्वरि ! ।

इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा चेति तत्क्रमात् ॥ 6

शंकर जी बोले कि हे पार्वति ! उन चौदह नाड़ियों में इडा आदि तीन मुख्यतम नाड़ियां हैं तथा वे क्रमशः इडा पिङ्गला और सुषुम्णा हैं ।।6।।

सुषुम्णा त्रितया ज्ञेया वज्राचित्रान्तरान्विता ।

पञ्च नाड्यः प्रधानास्तु योगिनां साधने हिताः ॥ 7

सुषुम्णा नाड़ी तीन तरह की जाननी चाहिए। वे हैं-वज्रा, चित्रा और अन्तरा, पांच नाड़ियां प्रधान हैं, जो योगियों की योगसाधना में हितकर हैं ।। 7 ।।

मेरोर्वा इडा दक्षे पिङ्गला चाऽस्थिनि स्थिते ।

पार्श्वयोर्मध्यदेशे च सुषुम्णा त्रिगुणा मता ॥8

मेरु के बांये भाग में इडा नाड़ी स्थित है और दांये (दक्षिण) भाग में पिङ्गला नाम की नाड़ी है तथा बीच में हड्डी में पीठ के मध्य स्थान में रीढ़ की हड्डी के अन्तर्गत सुषुम्णा नाड़ी स्थित है, जो त्रिगुणा तीन गुणों वाली मानी गयी है ॥8

पृष्ठदेशं समाश्रित्य प्रोद्गता ब्रह्मरन्ध्रकम् ।

सुषुम्णा चैव वल्ली च मेरोः श्लिष्टाः पुरोगताः॥9॥

वह सुषुम्णा नाड़ी शरीर के पीछे के स्थान अर्थात् पीठ का आश्रय लेकर ब्रह्मरन्ध्र में जाकर निकलती है । सुषुम्णा नाड़ी और उसकी एक शाखा शरीर के मेरुदण्ड (रीढ़ की हड्डी) से चिपकी हुई आगे ऊपर की ओर चली गयी है ॥9

ग्रीवान्तं प्राप्य गलितं तिर्यग्भूता वराङ्गने ! ।

शङ्खिनीनालमालम्ब्य गता सा ब्रह्मसाधने ॥10

ग्रीवा गर्दन के अन्त में पहुंच कर सुषुम्णा नाड़ी गलित हो जाती है। और वहां जाकर, हे श्रेष्ठ अंग वाली पार्वति ! वह तिरछी हो जाती है और शंखिनी नाल को आलम्बन कर ब्रह्मसाधन में चली गयी है।।10।।

तदूर्ध्वं द्व्यङ्गुलान्तं च वज्राख्या चित्रिणी तथा ।

त्रिगुणा चातिसूक्ष्माग्रा ललन्ती ललना तथा ।।11

अतः सुषुम्णा त्रिगुणा ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका ।

सत्त्वादित्रिगुणाधारा मता तु ब्रह्मनाडिका ॥ 12

ब्रह्मसाधन में पहुंचने के बाद उसके ऊपर दो अंगुल भर वज्रा नाम की चित्रिणी नाड़ी है, जो तीन गुणों वाली और अत्यन्त सूक्ष्म अग्रभाग वाली है तथा वह ललन्ती और ललना है। अतः सुषुम्णा तीन गुणों वाली है। वे तीन गुण है- ब्रह्मा, विष्णु, शिव अर्थात् सुषुम्णा नाड़ी ब्रह्मात्मक (ब्रह्म आत्मा वाली) विष्णु आत्मक (विष्णु आत्मा वाली) और शिवात्मक (शिव आत्मा वाली) यह ब्रह्मनाड़िका सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण तीन गुणों के आधार वाली मानी गयी है।।11-12।।

कन्दलग्नोर्ध्वदेशे तु सहस्रच्छदमुत्तमम् ।

श्वेतोदरं तथा श्वेतकिञ्जल्कपरिमण्डितम् ॥13

उस ब्रह्मनाड़ी की जड़ के ऊपर स्थान पर एक उत्तम सहस्रदल कमल है, जिसका उदर भाग श्वेत वर्ण का है तथा श्वेतकिञ्जल से परिमण्डित है ।। 13।।

पीतकर्णिकमाश्चर्यमैश्वर्यमजमव्ययम्

कमलं सर्वदेवानामाक्रीडं तद्धि पार्वति ! ॥14

महादेव जी ने कहा कि हे पार्वति ! वह सहस्र दलकमल पीली धारियों वाला है अर्थात् उस कमल में पीले वर्ण की रेखायें हैं, जो आश्चर्य पैदा करने वाला है। ऐश्वर्य रूप अर्थात् ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न है। अजन्मा है तथा कभी भी नष्ट न होने वाला है तथा वह कमल समस्त देवताओं का क्रीडास्थल अर्थात् आमोद-प्रमोद का स्थान है।।14।। 

तदूर्ध्वं त्र्यङ्गुलं गुह्यं मूलाधाराच्चतुर्दलम् ।

रक्तं वशषसोपेतं डाकिन्या समधिष्ठितम् ॥

ध्यानं तस्या प्रवक्ष्यामि सावधानाऽवधारय ॥15

उस सहस्रदल कमल के ऊपर तीन अंगुल गुह्य स्थान है, जो गुह्यस्थान मूलाधार से चार पत्रों वाला है अर्थात् उसके मूलाधार जड़ से ही चार पत्ते लगे हुए हैं। सहस्र दलकमल के ऊपर वाला गुह्यस्थान, जो मूलाधार से ही चार पत्तों वाला है और रक्तवर्ण का है तथा व, , ष औ स से युक्त डाकिनी ने समधिष्ठित है। अर्थात् व वर्ण, श वर्ण, ष वर्ण और स वर्ण वाली डाकिनी उस पर विराजमान है। अतः हे पार्वति! मैं उसका ध्यान करना बताऊंगा। अत: तुम सावधान होकर सुनो ।।15।।

रक्ताक्षीं रक्तवर्णां परशुजनभयकृच्छूलखट्वाङ्गहस्तां

वामे खड्गं दधानां चणकमपि सुधापूरितं चैकवक्त्राम् ।

अत्युग्रामुग्रदंष्ट्रामरिकुलमथनीं पायसान्ने प्रसक्तां

मूलाधारेऽमृतार्थे परिवृतवससां डाकिनीं चिन्तयेत् ताम् ॥16

पूर्व श्लोक में बताया कि सहस्रदल कमल में तीन अंगुल गुह्य स्थान है, जो लालरंग का है और व, , ष और स से युक्त है, जिस पर डाकिनी विराजमान है। वह डाकिनी लाल आंखों वाली है तथा उसका समस्त शरीर लाल वर्ण का है तथा वह अपने हाथ में पशुओं और मनुष्यों के भय को काटने वाले शूल और खटिया के पावे को लिए हुए हैं। वे डाकिनी अपने बांह में खड्ग धारण की हुई हैं। मुख में चणक (चना) भी है और उनका मुख अमृत से भरा हुआ है। उनका रूप अत्यन्त भयावह है, उनके दांत अत्यन्त ऊंचे और तीक्ष्ण धार वाले हैं। वे शत्रु के कुल का मर्दन करने वाली हैं तथा खीर खाने में व्यस्त हैं अर्थात् खीर खाती हुई हैं तथा अमृत अर्थ वाले मूलाधार में स्थित होकर वस्त्र से ढंकी हुई हैं, ऐसी उन देवी डाकिनी का चिन्तन (ध्यान) करना चाहिए ।।16।।

विशेष- 'पशुजनभयकृत्' का अर्थ पशुओं और मनुष्यों को भयभीत करने वाले भी हो सकता है।

ध्यायेत् तत्र त्रिकोणं च तन्मध्ये विवरं शुचि ।

तत्र ध्यायेत् कुण्डलिनीं प्रसुप्तां भुजगाकृतिम् ॥ 17

वहीं पर त्रिकोण का ध्यान करना चाहिए, उस त्रिकोण के मध्य में पवित्र विवर का ध्यान करना चाहिए। उस विवर (गुफा) में सर्प के आकार वाली सोयी हुई कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥17

संवेष्ट्याधोमुखं लिङ्गं त्रिवृत्त्या पुच्छसंयुतम् ।

विनोद्वेगं विनोत्कण्ठां निजे याति ततोत्थिता ॥18

उस विवर में नीचे को मुख किये हुए सम्यक् प्रकार से प्रविष्ट हुए तीन वृत्ति से पूंछ युक्त बिना किसी उद्वेग और उत्कण्ठा वाले लिंग और उत्थित लिङ्ग निज में जाता है।।18।।

हुताशतापसंविग्नां चोर्ध्वमात्रामृतार्थिनाम् ।

ततो नयेत् पथि प्राज्ञो जीवयोगेन तत्पदम् ॥ 19

अग्नि के ताप से संविग्न हुई और अमृत के याचकों के लिए ऊर्ध्व की मात्रा रखनेवाली का ध्यान करना चाहिए, वहाँ से जीवत्मा को जीव योग द्वारा उस परमपद के मार्ग में ले जाना चाहिए ।।19 ।।

तदूर्ध्वं ध्वजमूले तु पङ्कजं षड्दलं परम् ।

स्वाधिष्ठानाख्यमाश्चर्यं सूक्ष्मं सर्वगुणान्वितम् ॥

बभमैर्यवलैर्युक्तमारक्तं राकिणीस्थितम् ॥ 20

उसके ऊपर ध्वजमूल में षट्दल (छः पत्तों वाले) कमल का ध्यान करना चाहिए, जो कमल स्वाधिष्ठान नामक है अर्थात् परमपद नामक है। आश्चर्यपूर्ण है, सूक्ष्म और सब गुणों से युक्त है तथा जिस पर ब, , , , , ल युक्त राकिणी देवी स्थित हैं ।। 20।।

श्यामां शूलाग्रहस्तां डमरुकरयुतां तीक्ष्णटङ्कं वहन्ती,

मुग्रां रक्तां त्रिनेत्रां शुचिकुटिललसच्चोग्रदंष्ट्रां प्रभाति ।

दीप्तां तां देवदेवीं त्रितयकमलगां रक्तधारैकनाथां,

शुक्लान्ने सक्तचित्तामभिमतफलदां राकिनीं चिन्तयेत् ताम् ॥21

अब राकिणी देवी की स्थिति को बताते हुए कहते हैं कि उस षट्दल कमल पर विराजमान राकिनी देवी श्याम वर्ण के शरीर वाली हैं, जिनके हाथ शूल है तथा दूसरे हाथ में डमरू है। जो तीक्ष्ण तलवार (कुठार) को धारण करती हुई हैं। वे उग्र स्वरूप वाली है, जिनके लाल-लाल तीन नेत्र हैं। जो चमकते हुए सफेद और टेढ़े और तीक्ष्ण दांतों से सुशोभित है, जो त्रितयकमल पर जाने वाली है तथा रक्तधारा की एक स्वामिनी है अर्थात् शरीर में रक्त की धारा प्रवाहित करने वाली हैं। जो शुक्लान्न (श्वेत वर्ण वाले अन्न) में आसक्त चित्त वाली हैं तथा जो अमिट फल को प्रदान करने वाली है, ऐसी दीप्त देवों की देवी राकिनी देवी का चिन्तन करना चाहिए ।। 21।।

रं बीजं कर्णिकायां तु तदन्ते विष्णुलि म ॥ 22

ऊपर उसमें ब, , , , , ल वर्णों वाली देवी राकिनी है, उनकी कर्णिका में र, बीज है और उसके अन्त में विष्णु का लिङ्ग है ।। 22 ।।

।। इति श्री भूतशुद्धितन्त्रे परमरहस्ये प्रथमः पटलः ।।

।। इस प्रकार भूत शुद्धि तन्त्र परमरहस्य में प्रथम पटल समाप्त ॥

आगे जारी..... भूतशुद्धितन्त्र पटल 2 

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