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कर्मकाण्ड

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दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१

दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१                

श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम्  पटल २० में आपने वाजीकरण पढ़ा, अब पटल २१ में द्रावणादिकथन, वीर्यस्तम्भनप्रयोग, केशरञ्जनवर्णन, लोमशातन, लिङ्गवर्द्धन बतलाया गया है।

दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१

श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् एकविंश: पटलः

दत्तात्रेयतन्त्र इक्कीसवां पटल

दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१                   

दत्तात्रेयतन्त्र    

एकविंश पटल

द्रावणादिकथन

ईश्वर उवाच-

सिताचोशीरतगरकुसुंभक्षौद्रलेपनम्‌ ।

द्रावणं कुरुते स्त्रीणां विना मंत्रेण सिद्धयति ।। १ ॥

शिवजी बोले-(हे दत्तात्रेयजी ! ) मिश्री, खस और तगर को शहद में मिलाय कामध्वजा पर लेप करने से संभोग समय में स्त्री शीघ्र स्खलित हो जाती है ।। १॥।

बृहतीफलमूलानि पिप्पलीमरिचानि च ।

मधुना रोचनासार्द्ध लिंगे लिम्पेद्द्रवः स्त्रिया: ॥। २ ॥।

कटेरी के फल और जड़ लेकर पीपल, मरिच, गोरोचन और शहद के साथ मिलाय इन्द्रिय पर लेप करने से रतिकाल में स्त्री द्रवित हो जाती है ॥। २ ॥।

गंधकं च शिलाघृष्टं लेपयेत्र्क्षौद्रसंयुतम्‌ ॥॥

यस्मै कस्मै न दातव्यं नान्यथा मम भाषितम्‌ ॥। ३॥।

गंधक को शहद के साथ पत्थर पर घिसकर लेप करने से स्त्री शीघ्र द्रवीभूत होती है यह मेरा कहा हुआ सत्य प्रयोग हरएक मनुष्य को नहीं देना ॥।३॥

वीर्यस्तम्भनप्रयोग

कर्पूरष्टंकणं सूतं तुल्यं मुनिरसंमधु ।

मर्द्दयित्वा लिपेल्लिङ्गं स्थित्वा यामं तथैव च् ।। ४ ॥।

ततः प्रक्षालयेल्लिङ्गं रमेद्रामां यथोचिताम्‌ ।

वीर्यस्तंभकरं पुंसां सिदयोग उदाहृतः ॥। ५ ॥।

कपूर, सुहागा और पारे को बराबर ले शहद में घोट कामध्वजा पर लेप करे और एक पहर के पीछे कामध्वजा को धो डाले फिर उचित समय में रमण करने से पुरुष का वीर्य स्तंभित होता है यह सिद्ध प्रयोग मैंने कहा है।।४-५

मधुना पद्मबीजानि पिष्ट्वा नाभि प्रलेपयेत्‌ ।

यावत्तिष्ठत्यसौ लेपस्तावद्‌ बीर्य न मुंचति ॥। ६ ॥।

कमलगट्टों को शहद के साथ पीस नाभि पर लेप करें. जब तक यह लेप नाभि पर रहेगा तब तक पुरुष का बीर्य नहीं गिरेगा ॥। ६ ।।

सूकरस्य तु दंष्ट्राग्रं दक्षिणं च समाहरेत्‌

कट्यां बद्ध्वा पटेनैव शुक्रस्तंभः प्रजायते ॥। ७ ॥।

सूकर की दाहिनी दाढ़ को ले वस्त्र से लपेट कमर में बांधकर रमण करने से वीर्य स्तंभित होता है ।। ७ ।।

तुलसीबीजचूर्णन्तु ताम्बूलैस्सह भक्षयेत्‌ ।

न मुंचति नरो वीर्य नाडीनां सप्तकावधि ॥॥ ८ ॥॥

तुलसी के बीजों का चूर्ण पान में रखकर खाने से रमणकाल में सात घडी तक पुरुष का वीर्य नहीं गिरता है ।

इन्द्रवारुणिकामूलं पुष्ये नग्न: समुद्धरेत्‌ ।

कटुत्रयैर्गवां क्षीरे सम्पिष्य गोलकीकृतम्‌ ।। ९ ।॥।

छायाशुष्कं स्थितं चास्ये वीर्यस्तम्भकरं परम्‌ ।

नीलीमूलं स्मशानस्थं कट्यां बद्ध्वा तु वीर्यधृक्‌ ॥ १० ॥

पुष्यनक्षत्र में नग्न होकर इन्द्रायण की जड को उखाड़ सोठ, मिर्च, पीपल के साथ गौ के दूध में पीस गोली बनावे इन गोलियों को छाया में सुखावे इस गोली को मुख में रखने से वीर्य स्तंभित होता है। श्मशानमें स्थित नीली वृक्ष की जड को लाकर कमर में बाँधने से वीर्य स्तंभित होता है ॥ ९-१० ॥।

रक्तापामार्गंमूलं तु सोमवारे निमंत्रयेत्‌ ।

भौमे प्रातस्समुद्धृत्य कट्यां बद्ध्वा तुवीर्यधृक्‌ ।। ११ ॥।

लाल आपामार्ग की जड को सोमवार के दिन न्योता दे आवे और मंगलवार को प्रात:समय उखाडकर कमर में बांघने से वीर्य स्तंभित होता है ॥ ११ ॥।

तिलगोक्षुरयोश्चू्र्ण छागीदुग्घे च पाचितम्‌ ।

शीतलं मधुना युक्तं भक्षितं द्रावकं स्त्रिया: ।। १२ ॥।

तिल और गोखरू का चूर्ण बकरी के दूध में पकावे शीतल होने पर शहद मिलाय भक्षण करने से रमण समय स्त्री स्खलित हो जाय और पुरुष का वीर्य रुका रहे ।

चटकांडं गृहीत्वा तु नवनीतेन पेषयेत्‌ ।

तेन प्रलेपयेत्पादौ शुक्रस्तंभ: प्रजायते ॥।

यावन्न स्पृशते भूमि ताबद्‌ वीर्य न मुंचति ।। १३ ॥।

चटकपक्षी के अंडे को लेकर मक्खन में पीस चरण के तलवों में लेप करने से वीर्य स्तंभित उस समय तक रहता है जब तक भूमि पर चरण न रक्‍खें।। १३॥।

डुंडुभो नामतः सर्प: कृष्णवर्णस्तमाहरेत्‌ ।

तस्यास्थि धारयेत्कट्यां नरो वीर्य न मुंचति ॥

विमुंचति विमुक्ते तु सिद्धयोग उदाहृतः ॥ १४ ।।

डुंडुभनाम के काले सर्प की हड्डी को कमर में बांधने से पुरुष का वीर्य नहीं गिरता इस सिद्धयोग के प्रताप से जब वह हड्डी कमर से खोली जाय तभी वीर्य गिरता है ॥। १४ ॥।

आमलक्या वल्कलानां जलेन क्षालयेद्भगम्‌ ।

बृद्धापि कामिनी कामं बालावत्कुरुते रतिम्‌ ॥ १५ ॥

प्रतिदिन आंवले के वकलों को जल में पीसकर उस जल से यदि काम-मन्दिर को धोवें तो वृद्धा नारी भी बाला के समान रति करती है ॥। १५ ॥

खसपलशुंठिक्वाथ: षोडशेषेण गुडेन निशि पीतः ।

कुरुते रतौ न पीतो रेतः पतन विनाम्लेन ।। १६॥॥

एक पल खस लेकर सोंठ के क्वाथ में सोलहवां भाग गुड मिलाय रात्रि के समय पीसकर रति करे तो जब तक खटाई न खाय तब तक पुरुष का वीर्य स्खलित नहीं होता ॥ १६ ॥।

केशरञ्जनवर्णन

त्रिफलालौहचूर्णन्तु वारिणा पेषयेत्समम्‌ ।

द्वयोस्तुल्येन तैलेन पचेन्मृद्वग्निना क्षणम्‌ ।। १७ ॥।

तैलतुल्ये भृंगरसे तत्तैलं तु विपाचयेत्‌ ।

स्निग्धभांडगतं भूमौ स्थितं मासान्समुद्धरेत्‌ ॥ १८ ॥।

सप्ताहं लेपयेद्वेष्टय कदल्याश्च दलै: शिरः ।

निर्वाते क्षीरभोजी स्यात्क्षाल्येत्त्रिफकाजलै: ॥ १९ ॥।

नित्यमेवं प्रकर्तव्यं सप्ताहाद्रंजनं भवेत्‌ ।

यावज्जीबं न सन्देहः कचा: स्युर्भ्रमरोपमा: ।॥ २० ॥।

त्रिफले का (हरड बहेडा आमले का) चूर्ण और लोहचूर्ण समान लेकर जल में पीसे फिर दोनों को वराबर तेल डाल मन्द २ आंच से पकावे। शीतल होने पर उस तेल की बराबर भांगरे का रस मिलाय आंच में पकावे फिर चिकने बर्तन में भरकर पृथ्वी में गाड दे महीने भर के पीछे निकाले उस तेल को शिर में ७ दिन तक लगावे और ऊपर को केले के पत्ते को ऐसे लपेटे जिसमें वायु न लग सके इन दिनों में दूध पीवे और खोलने के समय त्रिफले के जल से घो डाले । इस सात दिन के प्रयोग से केशरंजन होता है केशरंजन होने पर जीवन पर्यन्त मनुष्य के शिर के बाल भौरे के समान काले बने रहते हैं ॥१७-२०॥

काश्मर्या मूलमादौ सहचरकुसुमं केतकीनां च

मूलं लोहं चूर्ण भृंगं त्रिफलजलयुतं तैलमेभिविपक्वम्‌ ।

कृत्वा वै लोहभांडे क्षितितलनिहितं मासमेकं विधाय

केशाकाशप्रकाशा भ्रमरकुलनिभा लेपनादेव कृष्णा: ॥। २१ ॥

कुम्हेर की जड, पियावासा के फूल, केतकी की जड, भांगरा, त्रिफला, जल और तेल को मिलाय लोहे के बरतन में रखकर पकावे, फिर एक मास तक पृथ्वी में गडा रहने दे उपरान्त निकालकर केशों में लगावे तो केश भौरे के समान काले और लम्बे हो जाते हैं ॥ २१॥

त्रिफला लोहचूर्ण च इक्षुर्भृङृगरसस्तथा ।

कृष्णमृत्तिकया सार्द्धं भांडे मासं निरोधयेत्‌ ।

तल्लेपार्द्रंजयेत्केशांश्चतुर्मास स्थिरो भवेत्‌ ॥ २२ ॥

त्रिफला, लोहचूर्ण, ईख और भांगरे के रस को बराबर और सबकी आधी काली मट्टी मिलाय एक महीने तक गडा रक्खे फिर केशों पर लेप करने से चार मास तक बाल काले बने रहते हैं ॥। २२ ॥।

लोहकिट्ट जपापुष्पं पिष्ट्वा धात्रीफलं समम्‌ ।

त्रिदिनं लेपयेच्छीघ्रं त्रिमासावधि रंजनम्‌ ।। २३ ॥।

लोहे की कीट, गुडहल के फूल और आमलों के बराबर लेकर पीस तीन दिन तक केशों में लेप करे तो केश तीन मास तक काले बने रहते हैं ॥ २३ ॥।

लोमशातन

हरितालसुधाल्पं कृत्वा लेपस्य वारिणा सद्य:

निपतंति केशनिचयाः कौतुकमिदमद्भुतं कुरुते ॥ २४॥

हरताल और चूने को समान लेकर चूने के पानी से पीस लेप करने से बाल अतिशीघ्र गिर जाते हैं और देखने में बडा कौतुक मालूम होता है ॥॥२४।॥

रम्भाजलै: सप्तदिनं विभाव्य भस्मानि कम्बोर्मसृणानि पश्चात्‌ ।

तालेन युक्तानि विलेपनन्तु रोमाणि निर्मूलयति क्षणेन ॥। २५ ॥

केले से जल के शंख की भस्म को सात दिन भावना दे हरताल मिलाय भली भांति से घोटे फिर रोमस्थान पर लगाते ही रोम गिर जाते हैं ॥ २५ ॥।

पलाशचिंचातिलमाषशंखान्दहेदपामार्ग सपिप्पलानपि ।

मनश्शिलातालक चूर्णलेपात्करोति निर्लोम शिरः क्षणेन ॥ २६ ।॥।

ढाक, इमली, तिल, उडद, शंख, अपामार्ग पीपल, मनशिल और हरताल के चूर्ण में चूना मिलाय लेप करने से क्षणमात्र में केश गिर जाते हैं और फिर नहीं निकलते हैं ।। २६ ।।

लिङ्गवर्द्धन

वराहवसया लिङ्गं मधुना सह लेपयेत्‌ ।

स्थूलं दृढ़ं च दीर्घ च मुसलाकृति जायते ॥। २७ ॥

सूअर की चर्बी में शहद मिलाय कामध्वज पर लेप करने से कामघ्वजा स्थल दुढ और मूसल के समान लम्बी हो जाती है ।। २७ ।।

इति श्रीदत्तात्रेयतन्त्रेदत्तात्रेयेश्वरसंवादे द्रावणादि- कथन नाम एकविंशतितम: पटल: ॥। २१ ॥

आगे जारी........ श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् पटल २२ भूतग्रहादिबाधानिवारण ॥

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